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साहित्य समाचार
श्रद्धान्जली
साहित्य का उपवन 'सुमन' को याद रखेगा उसकी सुगन्ध के साथ
27 नवम्बर 2002 को साहित्य के क्षेत्र को असहनीय क्षति हुई है, पद्मभूषण डॉ। शिवमंगल सिंह सुमन के निधन के साथ। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में उनका अभूतपूर्व योगदान उन्हें अमर रखेगा। वे महज एक व्यक्ति नहीं हिन्दी साहित्य के स्वर्णकाल का पूरा युग थे। डॉ। शिवमंगल सिंह सुमन प्रगतिशील धारा के शीर्षस्थ कवि थे। वैसे वे क्या नहीं थे? कवि, शिक्षक, प्रशासक, शिक्षाविद्। कहने को उनकी कुल एक दर्जन से कुछ अधिक पुस्तकें ही प्रकाशित हुई हैं, मगर उनका साहित्य में योगदान अमर माना गया है। उनकी कविताओं में सभी आयाम मिलेंगे। प्रेम, फक्कड़पन, जीवन के प्रति अदम्य आस्था, सम्वेदनों का गहन समुन्दर।
मैं शिप्रा सा तरल
सरल बहता हूँ
मैं कालिदास की शेष कथा कहता हूँ।
मुझको न मौत भी
भय दिखला सकती
मैं महाकाल की नगरी में रहता हूँ
मगर डॉ। शिवमंगल सिंह सुमन कवि के अतिरिक्त बहुत कुछ थे। उनका ये बहुत कुछ होना अनेक आयामों से युक्त था। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी खूबियां जगजाहिर हैं।

वे ग्वालियर, उज्जैन, इंदौर में हिन्दी के व्याख्याता रहे, वे भारत की ओर से नेपाल में राजदूतावास में सांस्कृतिक दूत रहे। लम्बे समय तक माधव महाविद्यालय उज्जैन के प्राचार्य भी रहे। 1968 से 1978 तक के लम्बे समय के लिये विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। पद्मश्री से विभूषित डॉ। शिवमंगल सिंह सुमन को जीवन में कई प्रतिष्ठित सम्मान व पुरस्कार मिले।

उनका अध्ययन क्षेत्र इतना विस्तृत था कि कालिदास, भर्तृहरी, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा से लेकर गालिब, प्रसाद, पंत और निराला तक की पंक्तियां बातों बातों में दोहरा देते थे। इतिहास, संस्कृति, दर्शन किसी भी विषय पर वे घंटो धाराप्रवाह बोल सकते थे।उन्हें अनूठी वक्तव्यकला की सौगात मिली थी। उन्हें इतनी वेदों की ऋचाएं कण्ठस्थ थीं की बातों बातों में वे उन्हें बोल देते थे। वे हिन्दी, अंग्रेज़ी तथा संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे।

डॉ। शिवमंगल सिंह सुमन नेहरू जी के काफी करीब रहे थे। राजीव गांधी व अटल बिहारी बाजपेयी से उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे हैं। अटल जी उनके विद्यार्थी रहे हैं। बच्चन के समकालीन ही नहीं वे बच्चन के मित्र भी थे। साहित्य का सुनहरा काल था वह जब दिनकर– बच्चन – सुमन की धूम थी। एक जगह सुमन जी के बारे में बच्चन जी ने लिखा था — '' सुमन जी के प्रिन्सिपल, वाइस चांसलर या सांस्कृतिक दूत बनने से साहित्य की बहुत क्षति हुई है। सुमन जी अगर इन पदों के झंझावत में नहीं उलझते तो शायद साहित्य को और अधिक फायदा पहुंचा सकते थे।" निराला जी तथा महादेवी वर्मा से उनके बहुत निकट के सम्बन्ध रहे थे।

सुमन जी ही एक ऐसे कवि थे जो हिन्दी साहित्य की अनुपम सौगात लेकर राजनैतिक क्षेत्र व संसद के गलियारों तथा गली मोहल्लों के आम व्यक्ति तक एक सा जुड़ाव व अपनापन रखते थे।

उनके कुछ कवितांश:
चाहता तो था कि रुक लूं, पाश्र्व में क्षणभर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बांहे पसारे
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुंह दिखाने योग्य रखेगी न मुझको स्वार्थपरता
इसलिये ही आज युग की देहली लांघ कर मैं
पथ नया अपना रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिंधु ने विष उगला है
लहारों का यौवन मचला है
आज हृदय और सिन्धु में साथ उठा है ज्वार
यह असीम निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने कभी न मानी हार
सागर की अपनी क्षमता है
पर मांझी भी कब रुकता है
जब तक श्वासों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं थकता है
इसके बल पर ही कर डाले सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सुमन जहां परम्पराओं में विश्वास रखते थे वहीं नयेपन के भी पक्षधर थे। उन्होंने जड़ता तथा रूढ़िवादिता का विरोध किया। सुमन जी एक महावट थे जिसके साये में शिक्षा का क्षेत्र तथा साहित्य व संस्कृति की जड़े फली फूलीं। आज उनके चले जाने से बहुत बड़ी रिक्तता आ गई है जिसे भर पाना असंभव है। यूं तो साहित्यकार व शिक्षाविद् अनेक हैं किन्तु एक सुमन जी के न होने से साहित्य का परिदृश्य धुंधला सा गया है। उनके जाने से काव्य जगत तथा साहित्य जगत को भारी क्षति हुई है।

और किसी से नहीं स्वयं से वंचित हूं,
तुम कहाँ संभालोगे, मेरी बिखरी थाती
मेरी समाधि पर तुम दीप क्या जलाओगे
यदि जीवित ही मैं न बन सका जलती बाती

– डॉ. अनुपमा सिसोदिया

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