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गिद्ध, आखिर क्यों?

गिद्ध कहाँ गए?
पिछले 34 वर्षों में भारत में
इनकी संख्या में भारी कमी आई है।
इसका कारण?

ऐसी गवाहियाँ प्राप्त हुई हैं कि भारत की दो प्रजातियों के गिद्ध एक बीमारी से ग्रसित हैं, जो एक प्रकार के वायरस से हो सकती है। व्हाइट बैक्ड वल्चर एवं लॉन्ग बिल्ड वल्चर इस कारण सर्वाधिक हताहत हैं: इनकी संख्या में 96 प्रतिशत तक कमी आई है। यह हालात पिछले 34 वर्षों में ही सामने आए हैं।

भरतपुर के निकट स्थित केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान तथा दिल्ली नगर से प्राप्त मरे हुए दो गिद्धों के शवों के परीक्षण करवाने पर इनके लिवर पर सफेद चकत्ते पाए गए। ऐसा माना जाता है कि यह यूरिक एसिड की अधिकता के कारण हुआ जो कि मानव समुदाय में गाउट की बीमारी को जन्म देता है। शेष बचे हुए गिद्धों को बचाने के लिये अगर प्रयासों का अभाव रहा तो इन दोनों प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाना असंभव होगा। यह बीमारी इन पक्षियों के जरिए अन्य पक्षियों, जानवरों, वन्यजीवों तथा मानव समुदाय को भी प्रभावित कर सकती है। अफ्रीका में पाए जाने वाले एक वायरस ने अमेरिका के लोगों तथा जंगली पक्षियों की जान हाल ही में ली है । अत: अतिशीघ्र भारत के इन गिद्धों के शरीर में व्याप्त बीमारी की जाँच और निदान के उपाय आरंभ करने चाहिये। जन स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संबधित सरकारी तंत्र को इस संदर्भ में अवगत कराना वांछित है कि पर्यावरण में एक नई बीमारी घर कर गई है। इसका प्रभाव भारत ही नहीं अपितु भारत के बाहर खाड़ी के देशों, यूरोप एवं अफ्रीका में पाए जाने वाले गिद्धों पर भी पड़ सकता है।

धन्य प्रयास

ऐसा अध्ययन पिछले कुछ माह के दौरान बम्बई नेचुरल हिस्ट्री के विशेषज्ञ, डॉ। विभु प्रकाश ने इस समस्या पर वैज्ञानिक रूप से प्रकाश डालने आए अमेरिकी फिश एण्ड वाइल्ड लाईफ सोसायटी ह्यसरकारीहृ के वैज्ञानिक डॉ। रॉबर्ट राइज़ब्रो के साथ मिल कर किया है। मरे हुए गिद्धों के शवों के शवों के परीक्षण हिसार स्थित चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के अन्तरगत इण्डियन वाइल्ड लाईफ हैल्थ कोऑपरेटिव कॉलेज ऑफ वैटरनरी साइन्सेज़ में करवाए गए हैं। वहाँ के डॉ। गया प्रसाद एवं डॉ। एस। के। मिश्रा ने यह कार्य सम्पन्न किया है। यह प्रयास स्तुत्य है।

केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान, भरतपुर में कई वर्षों से पक्षियों का अध्ययन करने वाले डॉ। विभु प्रकाश ने 1996-97 में पाया कि व्हाइट बैक्ड वल्चर असामान्य हालातों में मरता हुआ देखा जा रहा है। मई 1997 तक 40 ऐसे पक्षियों को सर लटका कर मरते देखा गया। पिछले तीन अवलोकनों से ज्ञात हुआ कि उक्त गिद्ध प्रजाति के अलावा लॉन्ग बिल्ड वल्चर प्रजाति भी ऐसे ही हालात का शिकार हुई है। केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान, भरतपुर में इन दोनों प्रजातियों के परिवारों की संख्या में इन्हीं वर्षों में आए परिवर्तन से स्पष्ट हो सका कि इनकी संख्या में 96 प्रतिशत तक कमी आई है। यह हालात पिछले 34 वर्षों में ही सामने आए हैं।

मानव भी हताहत

यह विशेष चिन्ताजनक तथा अत्यन्त चौंकाने वाले तथ्य हैं। क्योंकि गिद्ध मरे हुए जानवरों को अपना भोजन बना कर गाँव, कस्बे, नगर आदि में नैसर्गिक रूप से सफाई करने का काम प्रकृति प्रदत्त भूमिका के तहत करता है। इनके न रहने से मानव समुदाय को प्रकृति के भीषण प्रहार का सामना करना पड़ सकता है। इनमें व्याप्त इस बीमारी का सीधा असर अन्य पक्षियों, जानवरों, वन्यजीवों तथा मानव पर पड़ना स्वाभाविक है।

इसलिए समाज का दायित्व है कि इन गिद्धों को समुचित संरक्षण दिया जाए। यह संभव है कि यह बीमारी भारत में पाए जाने वाले गिद्धों की अन्य प्रजातियों को भी अपनी चपेट में ले लें। यह भी संभव है कि इन्हीं दोनों प्रजातियों के अनेक अकेले विचरण कर रहे गिद्ध अभी तक इस बीमारी से ग्रसित न हुए हों। अत: गिद्धों के पाए जाने के बारे में व्यापक सर्वेक्षण किए जाएँ। यह पता लगाया जाए कि वे कर्हाँकहाँ अपने नीड़ बना, अपने परिवारों की वृद्धि कर रहे हैं। क्या खा रहे हैं एवं कहाँ से वे इस बीमारी के सम्पर्क में आ रहे हैं या कहीं वे किसी बीमारी से ग्रसित तो नहीं हैं। इनके संरक्षण व मानव हिताय ऐसे तथ्यों को प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है।

कुछ विदेशी विशेषज्ञ, भारतीय विशेषज्ञ तथा पक्षी अवलोकनकर्ताओं ने इस प्रयास की नींव डाली है। यह एक राष्ट्रीय समस्या है जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव डाल सकती है। सरकारी तन्त्र का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना ही होगा, इसीलिये टूरिज़्म एण्ड वाइल्ड लाईफ सोसायटी ऑफ इण्डिया द्वारा गिद्धों के संरक्षण की दिशा में प्रयासों को ठोस आधार दिया है। देश में गिद्धों के संरक्षण के लिये यह इस प्रकार का पहला प्रयास है। विश्वास है कि यह पहला प्रयास अन्तिम प्रयास बन कर नहीं रह जाएगा। किसी प्रजाति का सदा के लिये लुप्त हो जाना एक सामाजिक अपराध है। क्या हम इस अपराध के भागी बनना चाहेंगे?

पिछले ही वर्ष 2000 के इस मेले को इन दोनों प्रजातियों के गिद्धों को समर्पित किया गया।

क्या वजह है कि गिद्ध जैसे मरे हुए जानवर खाने वाले पक्षी के लिये इतनी दौर्ड़धूप की जा रही है?

बस यही इसका प्रमुख कारण भी है। पर्यावरण को स्वच्छ रखने हेतु प्रकृति ने वांछित संतुलन कड़ियाँ बनाई हैं , एक कड़ी विलुप्त होने पर पर्यावरण असंतुलित हो जाएगा। मानव समाज को उन अनेक मृत पर्शुपक्षियों के सड़ते शवों से यही गिद्ध बचाते आए हैं। ये मरे हुए जानवर खाने वाले पक्षी वह काम करते हैं जो मानव मशीनों के जरिये नहीं कर सकता। इसलिये सदा इनका अस्तित्व में रहना न सिर्फ पर्यावरण के लिए वरन् मानव समाज के लिए भी अतिआवश्यक है।

आओ पहचानें भारत के गिद्ध

भारत में कुल आठ प्रजातियों के गिद्ध पाये जाते हैं।

1. किंग वल्चर या राज गिद्ध – यह भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 84 से।मी। का होता है। खुले मैदानों, खेतिहार इलाकों के अलावा यह सूखे इलाकों में दिख जाता है। सिर लाल होने के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है।
2. सिनेरियस वल्चर या बड़ा गिद्ध – विदेशों तथा भारत में भी यह अण्डे देता है। इसका आकार 100–110 से।मी। तक होता है। अर्र्धमरूस्थलीय क्षैत्र, हिमालय की तराई, कच्छ, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा केरल तक यह पहुंच जाता है।

3. ग्रिफिन वल्चर – यह विदेशों तथा भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 110–122 से।मी। तक होता है। यह उत्तर्रपश्चिमी भारत, नेपालह्य3,000 मी। उँचाई तकहृ, बंगाल, आसाम तथा दक्षिण के कुछ भागों में सर्दियों में दिखता है।

4. हिमालयन ग्रिफिन – यह भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 122 से।मी। तक होता है। सूखे तथा ठण्डे हिमालयन पर्वतों में 600 से 2,500 मी। उँचाई तक यह प्रजाति मिल जाती है।

5. लॉन्ग बिल्ड वल्चर – यह भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 92 से।मी। तक होता है। उत्तर भारत के खुले मैदानों तथा दक्षिण के कुछ भागों में कर्हींकहीं दिखता है।

6. व्हाइट बैक्ड वल्चर या सफेद पीठ का गिद्ध – यह भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 90 से।मी। तक होता है। सारे भारत में खुले मैदानों तथा जंगलों के आर्सपास दिखाई देता है।

7. इजीप्शियन वल्चर या सफेद गिद्ध – यह विदेशों तथा भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 64 से।मी। का होता है। यह गाँव तथा कस्बों के समीप सारे भारत में पाया जाता है, 3,600 मी। उँचाई तक भी।

8. बीयरडेड वल्चर – यह भारत में अण्डे देता है। इसका आकार 122 से।मी। तक होता है। यह केवल हिमालय क्षैत्र में ही दिखता है.। कश्मीर, भूटान तथा अरूणाचल प्रदेश में 1,200 से 4,200 मीटर तक दिखता है और 7,000 मीटर ऊँचाई तक उड़ता रहता है।

इन सभी प्रजातियों में से मुख्यत: व्हाइट बैक्ड वल्चर एवं लॉन्ग बिल्ड वल्चर प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। वर्ष 2000 में जयपुर से आरंभ हुआ    'गिद्ध बचाओ मुहिम'।

जयपुर में प्रतिवर्ष 1 एवं 2 फरवरी को मान सागर झील की पाल पर वार्षिक 'बर्डिंग फेयर' (पक्षी पहचान मेला) आयोजित किया जाता है। इसे टूरिज़्म एण्ड वाइल्ड लाईफ सोसायटी ऑफ इण्डिया आयोजित करती है। यह इस प्रकार का एकमात्र मेला है। इसमें जयपुर के नागरिक, स्कूली बच्चे और भारतीय व विदेशी पर्यटक भी भाग लेते हैं और पक्षियों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं अनेक देशी विदेशी वन्य जीव तथा पर्यावरण सम्बंधित संस्थाओं के विशेषज्ञों द्वारा।

– मनोज कुलश्रेष्ठ
स्टेट कॉर्डिनेटर ऑफ इन्डियन बर्ड नेटवर्क

(साभार "वल्चर वॉच" टूरिज्म एण्ड वाइल्ड लाइ–फ सोसायटी ऑफ इण्डिया जयपुर।)

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