उस साल जब पलाश की नंगी छितरी शाखों पर पहला फूल खिला, तब मांपूरी तरह स्वस्थ थी जब पूरा पेड दहकता जंगल बन गया, तब तक मां बीमार पड चुकी थी और जिस रात अकस्मात् भयानक बारिश से सारे फूल टूटकर गिर गये थे और पेड क़े नीचे कुचले, सुर्ख फूलों का दलदल बन गया था, मां मर गई थी।

वह एक छोटा सा पुरानी, सीलन भरी, उखडी पपडियों वाला तीन कोनों का कमरा था, जिसमें हम रहते थे। एक कोने में मां थी, दूसरे में मैं और तीसरे में एक बडा सा पलंग, जिस पर मैं मां के साथ सोता था। कमरे के अपने कोनों पर हमारा पूरा अधिकार था। हम दोनों में से कोई भी दूसरे के अधिकार में दखल नहीं देता था। मां अपने कोने में अपना पूरा साम्राज्य फैलाए रहती थी। एक छोटी सी चौकी, उस पर उसके भगवान पुराने जमाने के टिन के दो बक्से दो गठरियां कुछ मर्तबान कुछ पुराने कपडे एक जोडी माला टॉर्च हाथ का पंखा कुछ पुराने सिक्के वगैरह।

मेरे हिस्से में कुछ खास नहीं था। कुछ किताबें लकडी क़ी पुरानी अलमारी उसके अन्दर सस्ती शराब की बोतलें कुछ कपडे और मेरी पकी उमर पर हमेशा फैली रहने वाली अदृश्य चुप्पी लगभग उदासी या मनहूसियत के बीच की सी कोई चीज।

छोटी सी खिडक़ी के पास तीसरा कोना था। उसमें वही बडा सा पलंग था जो उस पूरे कमरे को अपनी भव्यता से आक्रान्त किये रहता था। मां उसे अपनी शादी में लायी थी। पुराने जमाने का विशाल पलंग जिस पर मां कभी मेरे पिता के साथ सोती थी। उस पलंग से उसके कई बीते हुए दिन जुडे थे जो अकसर रात को उसके आस पास जीवित हो जाते थे। कई रातों को मैं ने चुपचाप मां को उन दिनों से बातें करते देखा और सुना था। अचानक यूं ही मुस्कुराते  रोते और कभी – कभी लजाते हुए भी। मुझे अकसर लगता था कि मां मुझसे ज्यादा पलंग के नजदीक है। अकसर बहुत कुछ वह जो मुझसे नहीं कहती, चुपचाप पलंग के साथ बांट लेती है।

अकसर छुट्टियों में पूरे दिन या सुबह के खाली समय में मैं चुपचाप मां को देखा करता था। वह बहुत सबेरे उठती और अपना काम पूरा कर लेती थी। उसकी पूरी कोशिश होती थी कि मेरी नींद न खुले। मैं अकसर जाग कर उसे देखता रहता। उसकी हर गतिविधि इतनी नियंत्रित और निश्चित थी कि मैं आंखें बन्द किये हुए भी समझता रहता कि वह क्या कर रही होगी। अब सफाई अब कपडे धोना ह्न माला फेरना या ऐसा ही कुछ । सुबह उठ कर वह सबसे पहले अपना कोना साफ करती फिर मेरा हिस्सा फिर नहाती। नहाने में वह बहुत समय लेती। सफाई के लिये वह विक्षिप्तता की हद तक आग््राही थी। हर चीज क़ो दो तीन बार साफ करती। पूरा फर्श दीवारें बाल्टी कपडे और अपनी देह भी। अकसर वह सफाई करते – करते बाहर कमरे में चली आती कोई भी भूली चीज लेने या अन्दर कुछ साफ करते – करते, बाहर कुछ साफ करना याद आ जाने पर। मैं चुपचाप लेटा उसे देखता। उसकी झुकी कमर लटकी झुर्रियां सिकुडा हुआ मुंह और उस पर चिपका रहने वाला शाश्वत संशय। अकसर वह बाहर इस तरह आकर सिर्फ एक वस्त्र में ही ऐसा करने लगती। अपनी लगभग निर्वसनता से बेखबर। मैं तब आंखें बन्द कर लेता या मुंह घुमा लेता।

मां की यह स्थिति मेरे अन्दर हमेशा विचित्र – सी जुगुप्सा पैदा कर देती। मैं चाहता था उसे इस तरह अव्यवस्थित होने से रोकूं अपनी घृणा व्यक्त करुं, पर मैं उससे कुछ स्पष्ट नहीं कह पाता था। यह मां की वर्षों की दिनचर्या थी। मुझे लगता था कि कुछ भी कहने पर वह अचानक इतनी लज्जित और असहज हो जायेगी कि उसके जीवन का पूरा संतुलन नष्ट हो जायेगा। वह सब जो इतनी आश्वस्ति और निश्चिन्तता के साथ करते हुए सहज जीवन जीती है, बिखर जायेगा। मैं कुछ कहता नहीं पर फिर भी अपनी जुगुप्सा को छिपा नहीं पाता। पलंग से उठने के बाद उससे कुछ नहीं बोलता और चेहरे पर एक तरह की विकृति लिये बैठा रहता। मुझे वह भय और दुख से चुपचाप देर तक देखती रहती। कभी हिम्मत कर पूछ लेती, ” क्या हुआ?”

मैं कुछ नहीं कहता। सिर झुका कर सिगरेट फूंकता रहता। मैं नहीं चाहता था कि मैं कुछ कहूं। मेरे एक बार कुछ भी बोलने से वह उत्साहित हो जाती थी और फिर बहुत कुछ बोलना शुरु कर देती, जो मेरे और उसके बीच की मौन लेकिन स्वीकृत स्थितियों को अस्त – व्यस्त कर देता था। मेरी तनाव भरी खामोशी से उसके चेहरे की पीडा, अन्दर की बेचैनी और बढ ज़ाती।

” तबियत खराब है?” वह एक बार फिर साहस करती। कुछ कडवा बोलने के लिये मैं सिर उठाता पर उसके चेहरे की कातरता और उम्र का शैथिल्य देखकर चुप हो जाता। वह तब सचमुच कांप रही होती इस आशंका से कि कहीं मैं  हां  न कह दूं। मेरी किसी भी पीडा की कल्पना से वह इसी तरह कांपने लगती। मेरी इस चुप्पी से वह शायद कुछ अन्दाज लगा लेती। मुझे यह कभी समझ में नहीं आया कि मां मेरे अन्दर का सब कुछ कैसे जान लेती है। कौनसा सूत्र होता है उसके पास। वह फिर सतर्क रहने लगती। अकसर उस अवस्था में बाहर नहीं निकलती या निकलती भी तो इस आश्वस्ति के साथ कि मैं सो रहा हूं। यह निश्चित करने के लिये शायद वह बहुत देर तक दरवाजे की आड से चुपचाप मुझे देखती रहती।

्एक दिन मैं ने कुछ ज्यादा शराब पी ली। इसलिये कि जिस औरत से मैं शादी करना चाहता था और जो मुझसे शादी करना चाहती थी, उससे मेरा झगडा हो गया था। वैसे, हम बहुत दिनों से एक दूसरे को प्यार करते थे इतने दिनों से कि मेरी तरह वह भी धीरे – धीरे अधेड होने लगी थी। एकाध बाल सफेद हो गया था और छाती बिलकुल ढीली हो गयी थी। थककर लगभग संवेदनहीनता की हद तक वह प्यार में निष्क्रिय रहने लगी थी। उस कमरे में एक चौथा कोना होता तो मैं उससे शादी कर लेता। इसी बात से वह अकसर मुझसे लड लेती। उसका कहना था कि पलंग को हटा कर हम उस कोने में रह सकते हैं। पर मैं जानता था कि यह मां के लिये संभव नहीं है। जब कभी मैं पलंग के बगैर मां के बारे में सोचता तो मुझे एक ढहते हुए मकान का ख्याल आता था। रात को जब मां मेरे साथ उस पलंग पर लेटती तभी वह अपनी दिन भर की चुप्पी मेरे सन्नाटे अपनी आंखों की सफेदी झुर्रियों से बाहर आ पाती। मेरी हथेली छूती या सिर पर हाथ फेर देती। मैं अनभिज्ञ या अन्यमन्स्क सा दिखने का बहाना करता रहता। वह धीरे – धीरे कुछ बोलती रहती। उसमें भी मेरी चिन्ताएं अधिक होतीं। मेरा उतरता हुआ चेहरा मेरी बढती उमर  मेरा अकेलापन। कभी कभी मैं मुस्कुरा देता तो वह उत्साह से मुझे अपने वैभवपूर्ण अतीत के बारे में बताने लगती कि कैसे इसी पलंग पर वह इसी तरह लेटती थी और कैसे मैं इसी पलंग पर पैदा होने के बाद इसी जगह लेटता था। पलंग एक तरह से उसके अस्तित्व की अभिव्यक्ति था उपस्थिति की सार्थकता अर्थवत्ता था पलंग पर ही उसे मेरा सामीप्य मिलता था जो उसकी बची हुई उमर का शेष, इकलौता सुख था।

वैसे, मां भी उस औरत को जानती थी। मैं अकसर उसे अपने साथ कमरे में लाता था। वह मां से मिलती थी। उसे देखकर मां सचमुच खुश होती थी। उसे अपने कोने में बिठाती थी और खूब बातें किया करती थी वह सब बातें जो वह या तो रात को पलंग से करती थी या मुझसे न कह पाने के कारण अपने अन्दर जमा रखती थी। संभवत: मां के अन्दर हमारे सम्बन्धों के कारण स्वयं को लेकर अपराधबोध था जिसे वह उस औरत से अधिक बातें करके, अधिक स्वागत करके दबाये रहती थी। अपने कोने में बैठा हुआ मैं उनकी बातें सुनता और चुपचाप सिगरेट पीता हुआ बीच – बीच में मुस्कुरा देता। मेरे मुस्कुराने से मां इतराने – सी लगती और मुझसे और अधिक बातें करती। मेरे जवाब देने से उसे बहुत शान्ति मिलती क्योंकि वह यह मान लेती कि मैं स्वस्थ, सुखी व संतुष्ट हूं और उसके अस्तित्व को अपने जीवन में महत्व देता हूं। वह अचानक अपने आपको महत्वपूर्ण महसूस करने लगती और इस भावना से मेरे ऊपर कुछ अधिकार भी दिखाने लगती, जिसे मैं अनिच्छा से चुपचाप स्वीकार करता रहता। धीरे – धीरे यह स्थिति मेरे लिये असहनीय होने लगती जिसे मां समझ लेती और उठ कर पडौस के घर में चली जाती। वह जानती थी कि मैं उस औरत को घर में क्यों लाता हूं। उसे अहसास था कि हम क्यों लम्बा एकान्त चाहते हैं। वह तभी लौटती जब मैं काफी देर बाद उसे लेकर घर से चला जाता।

तो उस रात मेरा उस औरत से झगडा हो गया था। उस रात ठण्ड कुछ ज्यादा थी। इतनी कि मैं ने वहीं शराब की दुकान पर कुछ घूंट पी लिये थे। बाकी शराब बचा कर मैं उसके घर गया था। मेरे अन्दर उसके शरीर की तीव्र इच्छा हो रही थी। वह अपने कमरे में लेटी थी। शायद कुछ देर पहले रोकर चुप हो चुकी थी। उसकी आंखों में कीचड था और बाएं गाल पर एक आंसू चिपका था। मैं ने उसे अपने घर चलने के लिये कहा। उसने मुझे दुत्कार दिया कि जब तक मैं पलंग को हटा कर उसे वहां नहीं रखता वह कभी मेरे घर नहीं जाएगी। शराब की गरमी और उसके शरीर की इच्छा से पगलाया मैं यह बरदाश्त नहीं कर सका। मैं ने उसके होंठ काटे, खाल को नोंचा और घृणा से उसको धकेल कर चला आया।

घर आकर मैं पलंग पर लुढक़ गया, मां जाग रही थी। वह धीरे – से पास आयी। शराब की बदबू से उसका मुंह टेढा हो गया। ” तुम ज्यादा पीने लगे हो, ” वह धीरे से बुदबुदायी, ” सुबह तक महक आती है।” मैं ने आंखें खोल कर उसे देखा। उसकी झुर्रियां और सफेद आंखें मेरे चेहरे के बिलकुल पास थीं। मुझे वह अच्छी लगी। दया और ममता से उसका चेहरा चमक रहा था। उसके अन्दर की पीडा उसके चेहरे पर उतर आयी थी। उसने धीरे से मेरे सर पर हाथ फेरा। मेरे पकते हुए शरीर को अच्छी तरह से देखा।
” वह नीच है, ” मैं बडबडाया, ” सो जाओ तुम।”
मां कराहते हुए उठी और पलंग के दूसरे हिस्से पर लेट गयी।

शराब की अधिकता से मैं उस रात सोया नहीं। दो बार उल्टी हुई। छाती मलता रहा। उस रात मैं ने मां को ध्यान से देखा। बहुत बूढी हो चुकी थी वह। बाल बिलकुल सफेद थे। चेहरे पर झुर्रियों का जंगल था। गाल अन्दर धंसे थे सोते समय उसका पोपला मुंह थोडा सा खुला था, जिससे बहुत धीमी, अजीब सी आवाज आ रही थी। मैं बहुत देर उसे देखता रहा। सचमुच वही एक औरत थी दुनिया में जो मुझे प्यार करती थी। वह मुझे पवित्र लगी।

उस रात मैं सोया ही नहीं । मां रोज क़ी तरह बहुत जल्दी उठ गयी, बिलकुल अंधेरा था तब। उसी तरह वह अपने सब काम करने लगी। मैं चुपचाप आंखें खोले उसे देख रहा था। उसी तरह मां ने सफाई की, अन्दर गयी और नहाने लगी। फिर अचानक वह कुछ लेने के लिये बाहर निकली। मैं ने उस क्षण मां को देखा। मैं सन्न रह गया, फिर एकदम से चीख पडा। वह पूरी तरह निर्वसन थी। उसे बिलकुल भी एहसास नहीं था कि मैं जाग रहा हूं। पूरी ताकत से मैं पलंग से उछला और उसे बाहर धकेलने लगा। ” निकल बाहर इसी तरह निकल।” मैं पागलों की तरह सिर झटक रहा था। मां ने एक बार मुझे देखा और मेरे चेहरे की घृणा देखकर उसी क्षण जैसे मुर्दा हो गयी। बिलकुल नंगी वह मेरे सामने खडी थी। गली हुई खाल में कंकाल की तरह। खाली सफेद आंखों से कुछ देर देखती रही फिर एकदम से मेरे पैरों पर गिर पडी। मेरे दोनों पंजे उसने पूरी ताकत से पकड लिये। वह गिडग़िडा रही थी, ” एक बार  बस एक बार माफ कर दो।”

उसने सिर उठाया। वह रो रही थी। उसके चेहरे पर सिर्फ हीनता थी। किसी भी सीमा तक पराजित क्षरित होने की हीनता। ऐसी याचना थी जो मनुष्य की आत्मा का पूरा सत्व सूख जाने के बाद पैदा होती है। सब कुछ बेहद पारदर्शी था। उसकी ग्लानि भय लज्जा और हीनता। मैं ने उसे घृणा से धकेला और बाहर निकल गया। सीधा उस औरत के घर गया और उससे कह दिया कि मैं जल्दी ही उससे शादी कर लूंगा।

उसी दिन पलाश की नंगी, छितरी शाखों पर पहला फूल खिला था।

उसके बाद मां जैसे राख हो गयी थी। बिलकुल चुप – सी। अपने कोने में और ज्यादा सिमट गयी थी। न मुझे उस तरह प्यासी आंखों से देखती, न नजर मिलाती। उसके चेहरे पर एक तरह का कालापन उतर आया था। मैं कमरे में होता तो वह बहुत ज्यादा सहमी होती। सिर झुकाए, चुपचाप, धीरे – धीरे कुछ करती रहती – आतंकित किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत अपने अस्तित्व को कहीं छुपाने की कोशिश करती हुई। उसका अपने ऊपर विश्वास पूरी तरह खत्म हो चुका था। मेरे लिये खाना रखती और कुछ भी नहीं पूछती। रात को मेरे साथ सोती पर अब उसने मुझे बहाने से भी छूना छोड दिया था। अतीत का कुछ भी याद नहीं दिलाती। पलंग के एक हिस्से में पूरी तरह दुबक जाती। उसने शायद अब पलंग से बात करना भी छोड दिया था। मैं उसे रात को बुदबुदाते या हंसते भी नहीं सुनता था। उसके अन्दर जैसे सब मर चुका था। शायद पलंग भी।

उन्हीं दिनों पलाश पर सुर्ख जंगल खिलना शुरु हुआ और साथ ही मां बीमार हो गयी।

उस रात बेहद तेज बारिश हो रही थी। मैं ने शाम से ही शराब पीनी शुरु कर दी थी। मां चुपचाप पलंग पर चादर ओढे लेटी थी। अपनी जगह पर बहुत ज्यादा सिकुडी हुई। मैं उसके पास आकर लेट गया। वह लम्बी सांसें ले रही थी, जैसे बहुत तकलीफ हो रही हो। मैं ने उठ कर उसे देखा। बहुत दिनों बाद मैं उसे ध्यान से देख रहा था। उसकी झुर्रियां बेहद घनी हो गयी थीं। मैं ने धीरे से उसे छुआ। उस दिन के बाद से पहली बार। वह एक बार कांपी फिर मेरी तरफ सिर घुमाया। कुछ क्षण मुझे देखती रही फिर बुदबुदायी, ” तुम कमजोर हो गये हो बहुत।बूढे से दिखने लगे हो।”

मैं उसे देखता रहा फिर धीरे से बोला, ” मैं शादी कर रहा हूं।” वह कुछ भी नहीं बोली। ” उसी से वह भी बूढी होने लगी है।”
मां मुझे उसी तरह देख रही थी। उसने पूछा नहीं पर उसकी आंखों में प्रश्न था, संशय भी।
” वह यहीं रहेगीपलंग को हम यहां से हटा देंगे।” मैं ने कांपते हुए कहा।
मां कुछ नहीं बोली। धीरे से आंख बन्द कर ली उसने। उसी रात मां मर गयी।

मां के बाद वह कोना खाली हो गया था। हमने मां का सब सामान वहां से हटा दिया। उसके टिन के पुराने बक्से, गठरी, हाथ का पंखा, टॉर्च, भगवान, माला सब बांध कर ऊपर रख दिये। मां के कोने पर उसने अपना सामान रख दिया। मां का अब कोई चिन्ह शेष नहीं था। मां अब कहीं नहीं थी।

रात को वह मेरे साथ उसी पलंग पर लेटी। उसी जगह जहां मां सोती थी। वह बेहद खुश थी। खिलखिलाते हुए उसने मेरी नाक चबायी और कपडे उतार कर निर्वसन हो गयी। मैं ने सिर घुमा कर पलंग पर पसरे उसके नंगे शरीर को देखा और एकदम से चीख पडा।

मां वहीं थी।

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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