महानगर की चहल – पहल में मेरे आगे कई तरह के मौन – मुखर प्रेम गुज़रते रहे हैं, कई महान प्रेम मेरे सामने – सामने ही अपनी चमक खो बैठे. दो बरस पहले आंख के आगे गुज़रा वह प्रेम आज भी जब याद आता है, तो सारे प्रेम और उनके किस्से फीके लगते हैं. ऎसा प्रेम जिसके होने का, समय के बीत जाने पर ही पता चला। यकीन मानिए, जब यह बीत रहा था, तो न हमें पता था, न शायद, उन्हें जिनके बीच यह बीत रहा था। क्या पता कि पता ही हो? क्योंकि ज्ञात होने पर भी वह अज्ञात ही – सा ! प्रेम था भी कि हमारा भ्रम था. जिनके बीच लगा कि यह है, वे भ्रमित थे कि हम, यह बात मैं आज तक समझ नहीं सकी. उस प्रेम को सुनाना बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण होगा. वह था ही इतना आभासी और वायवीय, जिसे बस मैं समझी कि वो. पूरी बस में कोई नहीं समझा, जब तक कि वह बस से उतर कर चली न गई.
कहते तो हैं कि कोई – कोई आँखें बहुत बोलती हैं पर ये आँखें तो बोली ही नहीं. बस डोली दो – एक बार। वह बस से उतरी और पूरी बस की हलचलें ले गई। बस में बेजान से लोग बचे रहे। दस – बारह! उनमें मैं थी, वह था और एक
वह जो था, जिसे मैं कथा का नायक कह दूँ. बस का कंडक्टर. उसकी तो संपूर्ण चेतना, उसका खिलंदड़ापन वह अपने साथ ले गई। जब उसे अचेत – सा देखा तब लगा, अरे! कोई आँख में से सुरमे की तरह, बहुत चुप्पी – चतुराई से कोई इसका सब्रोक़रार लूट ले गया। इस पूरे पर शुरु से मैं गौर करती भी तो क्यूँ करती? मैं भी उस रोज़ अनमनी थी।

“अपने शहर से गुज़रना कैसा रहा? “ कोई पूछता तब तो बताती! किसी ने पूचा ही नहीं, न लोगों ने न उस शहर ने. वह शहर तो खुद अपनी शिनाख़्तों से पीछा छुड़ाता हुआ, मेरे आगे कोहरा ओढ़े बैठा था। मुझे ही कौनसा ठहरना था वहाँ? मैं तो बस कुसमय, संयोग ही से वहाँ जा पड़ी थी, दो घंटों के लिए। मेरे साथ वह था, जिसे नहीं होना था मेरे साथ। इसलिए भला ही था, इस शहर का मुझसे और मेरा इससे बेशिनाख़्त होना। कमबख़्त शहर ने अपने लैण्डमार्क ‘किले’ को भी मुझसे से छुपा कर झट से, कोहरे के गाढ़े कंबल में दुबका लिया था। मैं उसे यह भी न बता सकी कि – देखो यही किला है, जिसके किस्से मैं तुम्हें सुनाती थी. मैं न कहती थी, कि जो किलों और विशाल खंडहरों की छाँव में पलते हैं उनके वज़ूद में एक अजब किस्म की रूमानियत रिस आती है।

वह बस अड्डे पर ही इधर उधर आँखें दौड़ा कर, मेरे शहर, मेरे अतीत की टोह लेने लगा, फिर हंस कर बोला – तुम्हारे शहर की लड़कियाँ लंबी और सतर होती हैं। मैं मुस्कुराती हुई भी भीतर कहीं अनमना गई। इन पुरुषों के भीतर कभी न बड़े होने वाले लड़के पर खीज हुई।

हमें बस बदलनी थी यहाँ, सुबह चार बजे हम उतरे थे इस शहर में. एक घंटे ठंडी बैंच पर बैठ, आगे के लिए वहीं से शुरू होने वाली एक बेहद साधारण बस में जा बैठे। जिसे रुक – रुक कर गंतव्य तक पहुंचना था। हम अपनी आवारगी में, फिलहाल कहीं से आए थे, मगर कहीं नहीं पहुंचना चाहते थे। लेकिन कहीं तो पहुँचना था, मगर बहुत धीरे, ऎसी बस जो समय को रोक ले.
मैंने बस की खिड़की से देखा, शहर ने कोहरे में किले को यूं छिपा लिया था जैसे अलगाव के बाद मैं कोर्ट जाकर उससे अपना और उसका किला ही कहीं न मांग बैठूं। किला भी दम साधे बैठा था। बचपन कौंध कर मिट गया। मैं और भावुक होना नहीं झेल सकती थी. मैंने गहरी सांस ली, सीली हुई, धुवांती – गंधाती हुई हवा बस में भरी हुई थी। उसके चौड़े कंधों पर खुदको टिका दिया। उसने अपना चेहरा मुझसे सटा लिया। मुझे संकोच हुआ, अपने शहर के लिहाज में, फिर एक चिढ़ से उपजे विद्रोह में, मैंने पलट कर चेहरा उसके सीने में घुसा दिया और अपने हाथ उसके कंधे से लपेट दिए। बस में पिछली कुहरीली रात अब भी कोनों में ठिठकी थी, उसकी देह की ऊष्मा पाकर मुझे झपकी आगई।

“सर, कहां जाएंगे? उतर कर टिकट लेना होगा।” एक ताज़ा नहाया, गोरा युवा चेहरा सामने खड़ा था। उसके हाथ में बस कंडक्टर वाला थैला नहीं, एक इलेक्ट्रॉनिक मशीन थी, टिकट काटने वाली। उसके आने के साथ बस में हलचलें फैल गईं। वह जीवंत युवक था.

पौ फट रही थी, बस को चलने में अब भी आधा घंटा बाकी था। हम बतियाने लगे। कुछ प्रेम, कुछ ज़माना, कुछ उम्र, कुछ अनुभव और उसका वर्तमान। मेरा वर्तमान कोहरे से भरा था, कोई अतीत किला बन कर पीछे छिपा था।

“फौ़ज़िया, तुमसे शादी लेता मैं, अगर थोड़ा और बोहेमियन किस्म का हो पाता थोड़ी- सी कमी रह गई. न चाह कर भी कुछ हिस्सा दुनियादारी बच रही भीतर!”
” बातें…..बातें तेरी वो फ़साने तेरे शगुफ़्ता – शगुफ़्ता बहाने तेरे. बन जाओ अब भी क्या बिगड़ा है? अब कहोगे ‘बच्चे एक क्रूशियल उम्र में हैं !!’ जो कि कब न थे वे क्रूशियल स्टेज में? जाने दो न, यूँ भी बीतती उम्र की शादी ‘नाईट्मेयरिश’ है. सारी हमख़्याली धरी रह जाती है, निजी स्पेस की आदत के आगे.”
” यह अंतिम बार मिलना था हमारा, मैं अटपटा महसूस कर रहा हूँ.” ”यार बिना ‘गिल्ट’ के ख़त्म नहीं कर सकते?“ मैं बुरी तरह खीज जाना चाहती थी.
“यह खत्म होना नहीं है.यह रहेगा….” ”रहेगा….मन आत्मा में….” वह वाक्य पूरा ही न कर सका मैं आवाज़ बिगाड़ कर बोली. वह चुप मेरे चेहरे पर पुती कड़वाहट देखता रहा, उसके काली – सफेद घनी मूंछ थरथराई, कोई बात वह होंठों पे आने से पहले गटक गया.
“यह पैटर्न तो वही है शैलेश, जो एक्सपायरी डेट आने पर प्रेम का होता है.गिल्ट मत करो. एक दिन तो लौटना तो था ही न तुम्हें. रहा प्रेम तो वह उस अजनबियों की भीड़ भरी दुनिया में हम दोनों की ज़रुरत भर था.”
“अब तुम?”
“अब मैं? हं। अपना क्या? ” हंस कर ज़रूर कहा मैंने, पर मन भंगुर हो रहा था.
“मेरा मतलब तुम भी वह कॉंक्रीट का जंगल छोड़ कर इस शांत – रूमानी शहर में लौट आओ, तुम्हारा अपना शहर। कोई तो होगा न यहाँ? ” उसके हाथ स्नेह से मेरी ठंडी उंगलियाँ गर्म कर रहे थे.

“यहाँ मेरे लिए क्या काम होगा? यहाँ अम्मी के जाने के बाद कोई अपना नहीं रहा, शैलेश। रिश्ते के भाईयों – रिश्तेदारों की भीड़ से बेहतर वही भीड़ है, मैट्रो शहर की, जहाँ खुद को कैमोफ्लैज किया जा सकता है आसानी से। वहाँ तुम्हारे अकसर आने की उम्मीद बची रहेगी. यहाँ इतनी दूर, इस छोटे शहर में तो तुम…..”

हम बेजा बातों के लच्छे लपेट रहे थे. जिनका कोई मतलब नहीं बचा था. मन सुन्न था, अलगाव की आगत – आहट से। बीतते पर संशय था। मन दबाव से वाष्प होता उससे पहले बस चल पड़ी। बस के चलते ही दृश्य बदलने लगे। समय बदलाव की हरकतों से भर गया।

मेरे मन का एक हिस्सा उसे तमाम जद्दो जहद से थक – हार कर पूरी तरह भूलना चाहता था। और दूसरा हिस्सा भूल जाओ के ख़्याल मात्र से चीख पड़ता था, जैसे किसी ने पके घाव को छू भर लिया हो। मन के कई नहीं तो कुछ हिस्से होते तो होंगे, यह उस पल में एकदम सत्य प्रतीत हुआ। फिर नवीं कक्षा में ब्लैकबोर्ड पर बनी ह्रदय की संरचना याद आ गई – आलिंद और निलय और उनसे निकलती धमनियाँ – शिराएं। मैं अपने दिल के विरोधाभास पर घबरा गई। मैं बस से उतर कर ताज़ी हवा खाना चाहती थी, मैं उसे आगाह करना चाहती थी कि मेरा मन तुम्हें भूलने की भूमिका बना चुका है। दूसरा मन जो चीख कर रोता है, तुम्हारे लिए एक दिन वह भी चुप हो जाएगा। मेरे जीवन के सारे दरवाज़े तुम पर बंद हो जाएंगे कि फिर कभी लौटे भी तुम तो शहर में एक ही व्यक्ति होऊंगी जो तुमसे मिलने में कतराएगा। बेहतर है आज ही रोक लो इस प्रेम को भौंथरा होने से। कुछ करो.

युवा कंडक्टर मुझे देख रहा था, मैं अकेले गरदन ऊपर किए धुंध का नमकीनपन सांसों के अंदर ले रही थी. मैं नियमित तौर पर सिगरेट नहीं पीती पर उस पल दिल ने चाहा और मैंने बगल की चाय – पान की दुकान से खरीद लिया एक पैकेट, सिगरेट सुलगाते ही कंडक्टर जो युवा और अस्थिर चित्त लड़का था, वह चौंका. उसने मेरे समेत चाय की दुकान पर खड़ी बस की सवारियों को इशारा किया, बस का ड्राईवर सीट पर आ जमा था.
मैंने जल्दी जल्दी पांच – सात कश लगाए, और आधी सिगरेट पास खड़े, ठिठुरते भिखारी को दे दी.
मैं भीतर आकर उससे सट कर बैठ गई, आह! कितना शांत है यह व्यक्ति. स्थिर और गहरा. प्रेम की गरिमा में डूबा. निभाता हुआ लगातार. मेरी अनवरत आशंकाओं और नकारात्मकता को थपथपाकर मिटाता हुआ. हमें शुरु ही से जिस प्रेम का भविष्य पता था, उसे इस गरिमा से यहाँ तक लाने में सारा श्रेय इसी का था, मैं तो बात – बात पर कैंची चलाने वालों में से थी. इस आतप्त प्रेम के बाद दुनियादार दुनिया में उसका लौट जाना शुरु ही से तय था. मैंने गहरी सांस लेकर उच्छवास छोड़ी. उसके दो दिन से बिना शेव किए गालों से टकराई, उसने अखबार रख दिया. अपने लंबे बाज़ू मेरे कंधे पर लपेट दिए, मेरी टखनों तक लंबी घेरदार स्कर्ट में उलझे उसके हाथ मेरे ठंडे घुटने छू रहे थे. मेरी उंगलियाँ रह – रह कर उसकी कनपटी से अपनी यात्रा शुरु करतीं, बढ़ी दाढ़ी से होकर, कॉलर बोन से टकराती फिर सीने पर उतर आतीं.
कंडक्टर की निगाह उचट कर गिरती, हमारी मध्यवयस की निकटताओं पर एक तटस्थ हैरानी के साथ सर्र से फिसल जाती. हम दोनों कलाकार थे, दुनियादार हद तक सफल भी. हमारी पेंटर जोड़ी उस मेट्रो शहर में लोकप्रिय थी. हमने दुनिया – जहान में साथ चित्र – प्रदर्शनियाँ कीं थीं. कुछ प्रसिद्ध म्यूराल्स साथ बनाए थे. हम दोनों आधुनिक भी थे – बोहेमियन भी. वह कंडक्टर कस्बाई था, तनिक गंवई भी. बस शहर ही में टहलकदमी कर रही थी. दरगाह, सूखी गंभीरा का पुल, कलेक्ट्रेट…और फिर रुक गई थी बस. स्पर्शों – बातों के व्यातिक्रम में अटके हम दोनों बीतते समय से खेल रहे थे. मेरी लंबी चोटी ढीली होने लगी थी. वह भारत भूषण की कविता गुनगुना रहा था कानों में….
फिर कौन सामने बैठेगा, बंगाली भावुकता पहने,
दूरों-दूरों से लाएगा केशों को गंधों के गहने,
जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे,ढूंढ़ते फिरोगे लाखों में।
मैंने अपनी आँखें खिड़की के बाहर मोड़ दी, जो कि सहसा भर आई थीं. जाने आख़िरी बार इस शहर को विदा देते हुए या उससे आखिरी बार की इस मुलाक़ात के बीतते चले जाने से. बस में ज़्यादा भीड़ नहीं थी, बल्कि कुछ सीटें खाली थीं. शहर छूटते हुए सुबह कोहरे से बाहर आ गई थी. बस में कस्बाई यात्री थे,लीर- लीर हो गई पगड़ी वाला बूढ़े किसान। थकान से भरी, गंधाती गाड़िया लोहारन, पंचायत समीति के स्कूलों में पढ़ाने जाती रोज आने – जाने वाली बहनजियां. बहुत जाना और जिया हुआ था यह सब.
हम दोनों सबसे आगे बैठे थे. मैं हमेशा से जानती थी कि हमारा प्रेम, लोगों की निगाह में खटकने जैसा मुखर है. वहाँ भी और यहाँ भी….. हमारी उम्र का फर्क, मेरे मुस्लिम नुकूश ही नहीं बल्कि बातचीत लहज़ा भी. लेकिन हम हर तरफ से जानबूझ कर बेख़बर थे, अपने प्रेम के संभावित अंत के कारण कुछ विद्रोही भी हो रहे थे.बातें चुक रही थीं. एक दूसरे से सटे थे बैठे हम. शैलेश पल – पल चुकते सान्निध्य की शेष ऊष्मा में ऊँघने लगे थे.मैं भी ऊँघना चाहती थी पर मेरी नाभि के आस – पास कोई चक्रवात घुमड़ रहा था। क्या यह वही कविता थी जो रात नाभि के आस पास गूंजी थी? जब मैं उसके कंधे पर टिकी मेरा सिर – सिर नहीं रहा था, कोई दरकती चट्टान बन गया था. उसने आँख खोल कर आँख ही से पूछा – ‘’क्या?”
“मत जाओ, न!” मगर मेरा गला सूख कर कंटीला थूर बन गया था। शब्द जो बाहर आना चाहते थे उन काँटो में फंस कर मर गई तितिलियों में बदल गए थे। यूं भी अर्थ क्या निकलता, निर्थक शब्दों का?

कुछ गाँव पीछे छूट गए थे. टिकट बांटते हुए युवा कंडक्टर सबसे बतिया रहा था. हालचाल पूछ रहा था रोज़ जाने – आने वालों से. किसी वृद्धा यात्री से मज़ाक भी कर रहा था. एकाएक उसकी अस्थिरता बढ़ गई. वह हमारे पास आकर बोला- ‘ सर ये सूटकेस उधर को खसकादो.”
मेरा सूटकेस ड्राईवर के केबिन के ठीक बाहर रखा था, मेरे चेहरे पर प्रश्न उभरा – कि क्यों भई. तो वह बोला – “ सवारियाँ आएंगी ना.”
केबिन में बस एक लंबी सीट थी, बस के स्टाफ़ के लिए, बस में पीछे खाली सीटें थी. उसके कहने से सूटकेस हमारे पैरों के नीचे आ फ़ंसा, हमारी आरामदेह मुद्रा खंडित हो गई. हमने उसे मन ही मन कोसा. फिर वह हमारी सीट के पास सर पर खड़ा होगया. हमारी सीट के ऊपर सामान रखने वाली जगह में हमारे बैग को वह खिसका रहा था. शैलेश ने शांत भाव से पूछा – “ अब क्या हुआ?”
” सर, यहाँ ऊपर मेरा गद्दा और रजाई है, बिछा कर आराम करूंगा.आप बोलो तो आपका सूटकेश ऊपर रख़ दूँ?”श को स और स को श या फिर स को ह कहने का पर्याप्त मारवाड़ी ढंग मुझे गुदगुदा गया. उसने जोर लगा कर सूटकेस हमारे पैरों से निकाल कर ऊपर फंसा दिया. हम फिर स्वतंत्र थे, पैरों में पैर उलझाने को. वह अर्थमय ढंग से मुस्कुराया.

वहाँ से उसने अपना गद्दा और रजाई निकाला, ड्राईवर के केबिन में सीट पर करीने से रजाई बिछा दी, अंदर इंजन के ढके बोनटनुमा हिस्से पर उसने गद्दा पसार दिया. उसका नीड़ सा तैयार था, पर वह सोने की जगह बस में घूम कर टिकट के पैसों की वसूली कर रहा था, या चिल्लर लौटा रहा था.
“काका सा, फटाफट हिसाब पूरा कर लो… ये लो बाकि के सात रुपए…किस – किस का टिकट बाकि है?”
वह निपटा टिकट बांटने- चिल्लर लौटाने से तभी बस रुकी किसी कस्बे के बाहर बना बसस्टेंड था. एक मरून लुगड़े वाली भीलनी अपने बच्चे के साथ भीतर झांकी – गुलाबपुरा, गाँव के अंदर जाएगी?वह झपट कर बोला – नहीं जाएगी. हटो हटो.
भीलनी ने फिर तसदीक करना चाही भीतर की सवारियों से, तो वह अबतक का मिठबोला युवक लगभग अधैर्य से चीख पड़ा – कहा न….हटो मैडम को आने दो, आओ आओ.”
मैं शैलेश के पैरों के स्पर्शों की बहक में, ‘मैडम’ को देख न सकी. जब उबरी तो एक पतली सी साँवली युवती सफेद साड़ी और हल्के बहुत हल्के क्रीम कलर के शॉल को ओढ़े केबिन में बहुत सधाव के साथ पैर उठा कर घुसी और सीट पर बैठ गई. हलचलें कह रहीं थी कि पीछे सीटें खाली हैं. मुझे लगा उसको आगे केबिन में बैठने का सुख प्रिय है. सामने के दृश्य देखते जाने में आनंद तो है. निसंदेह किसी प्रायमरी स्कूल की टीचर थी वह मैडम. उस पर शुरु में मैंने गौर ही नहीं किया. काबिले – गौर था भी क्या. उसका कोई शब्द, गंध – मद कुछ उत्सर्जित नहीं हो रहा था, बस एक बहुत गहरी उदासीनता, पूरे व्यक्तित्व में.
कंडक्टर महोदय इंजन के उभार पर बिछे गद्दे पर विराजमान थे. हल्के सुर में राजस्थानी गाने चल रहे थे. “ उड़ियो रे उड़ियो डोडो डोडो जाय रे…म्हारो सुवटियो” मेरी कल्पनाओं के कोटरों से तोते निकल भागे.
हम – दोनों प्रेम के अतिरेक से उबर कर आस – पास का जायज़ा ले रहे थे. अपने आस-पास के दृश्य में गहरी दिलचस्पियों के साथ हम – दोनों ने कुछ चीज़ों को एक साथ नोटिस किया. उस युवती के साँवले साधारण चेहरे पर बड़ी – बड़ी आँखों ने मेरा और शैलेश दोनों का ध्यान खींचा. बहुत सुंदर आँखें, पर उनमें ये पीड़ा जैसा क्या था? फिर हमने गौर किया उसकी सफेद साड़ी और क्रीम कलर दुशाले पर. वह वैधव्य ओढ़े थी, या वैधव्य उसे ओढे था! मैंने और शैलेश ने एक दूसरे को देखा.बिनकहे कहा – आज के ज़माने में भी? कितनी बच्ची सी है यह तो!
वह सतर बैठी थी, सीट पर बिना पीछे टिके. शॉल कस कर लिपटा था. होंठ भिंचे हुए थे कि बस में चलती किसी भी हरकत पर फड़क न उठें. बहुत लंबे अंतराल से वह बिना सिर मोड़े बड़ी गहरी नज़र से ‘स्लोमोशन’ में सबको देखती, लौटते हुए बस कंडक्टर के वज़ूद पर ‘फ़ास्ट फॉरवर्ड’ हो जाती जो बिलकुल उसके सामने लेटा था. सफेद कमीज़, बिना बाँहों की रैगज़ीन की भूरी जैकेट और जींस में.
शैलेश बोला – “विधवा की माँग से सूना तो कुछ नहीं होता.”
”बेवा न हो तो? सिंगल हो? मैं गैरशादीशुदा हूं, सफेद कपड़े मेरी भी पसंद में शुमार हैं. मांग आजकल कोई नहीं भरता. हाँ, तुम्हारे प्रदेश में आज भी नाक से लेकर…. ”
“तो तुम खुद ही देख लो न. गौर किया हो तो लड़कियाँ, शादीशुदा औरतों की माँग में ये सन्नाटा नहीं होता. किसी शहर कि बंद छोर वाली मजलूम गली सा. “
शैलेश के कहने मात्र से मुझे उसकी माँग कोई उजाड़, सूनी गली लगने लगी. उस पर बहुत बड़ी और घनी बरौनियों वाली आँखें, गली के मुहाने पर उगे दो पीपल. जो उठतीं तो उदास करती हीं, गिरतीं तो रुला ही जातीं. एक तटस्थ और अडिग दुख वहाँ जमा हुआ था. उसकी आँखें केवल आँखें नहीं थी, चाँदनी में भी सुलगता हुआ कोई रेगिस्तान थीं. सारे संसार में विधवाओं की पोषाक चाहे जैसी हो, वे मांग भी न भरती हों। पर आँखों का सूनापन। अनायास किसी लहलहाते खेत का बंजर और रेतीला हो जाने जैसा था.
पूरी सफेद साड़ी कोमल संवलाई देह पर विराग जगाए लिपटी थी. पैर में सादा अंगूठे वाली काली चप्पल. स्याह बालों को पूरे अनुशासन में जमा कर पल्ले की निगरानी में भीतर रखा था. रंग बस शॉल में था. हल्की पीली झांईं जो वैधव्य भंग करना चाहती हो.
क्या पता यह किसी एस. टी. सी. स्कूल या बी.एड. कॉलेज की युनिफॉर्म हो?
कंडक्टर की अस्थिरता अब थमी- थमी थी, वह इंजन के बोनटनुमा उभार पर गद्दे पर सरके नीचे हाथ फंसाए अधलेटा था. चुप मगर सुखी – सा. कोई रूहानी ख़ुशी उस पर तारी थी. वह सीधे देख रहा था, चलती बस के नीचे लिपटती – रपटती जाती सड़क को. वह किसी को भी कनखियों तक से नहीं देख रहा था. मेरा मतलब एकदम बगल में बैठी इस युवती को तो मानो जानबूझ कर नहीं देख रहा था. हालांकि उसकी देह- भाषा से लग रहा था कि एक परवाह – सी फिर भी है. उसे उसके प्रति कोई सहानुभूति या कोई सरोकार लगातार था. लेकिन मानो उसके उस दिशा में देखने मात्र से कोई पवित्रता थी जिसके भंग हो जाने का खतरा हो. किसी बहुमूल्य भाव के बहुत कुछ सस्ता हो जाने की शंका हो. यही संयम ही तो था, उस कंडक्टर का जिसे मैं और शैलेश एक साथ महसूस कर रहे थे. कुछ समझ नहीं पा रहे थे मैं और शैलेश लेकिन कुछ साईलेंट मैलोडी सा बस की गुनगुन में तैर रहा था. वह बीच – बीच में बस में चल रहे गानों को, सिस्टम में अलट – पलट कर देता, या वॉल्यूम तेज़ कम. कुछ हल्के रूमानी गानों पर वह वॉल्यूम एकदम कम कर देता, गहरे-मार्मिक गानों पर कुछ बढ़ा देता. लोकगीतों में जो विरल होते हैं मगर राजस्थानी लोकगीतों में काफी होते हैं. धुनों में भी मर्म बींधती रागिनी बसती है.
“ मारू थारा देस में निपजे तीन रतन – एक ढोला..एक मरवण..तीजो कसूमल रंग. “
‘कसूमल रंग’, मैं मुस्कुराई, चित्रों में भी शैलेश हैरान होता है, यार ये कौनसा रंग हि जो तुम हर चित्र में ले आती हो, न जामुनी, न लायलेक, न पिंक! मेरे पास उत्तर नहीं होता था.
मैंने शैलेश को कहा- “सुनो वो रंग जो तुम पूछते थे यह कौनसा ईज़ाद है तुम्हारा, तो उसका नाम है कसूमल रंग.”
माघ माह की बरसात, जिसे मेरे पीछे छूट गए शहर के लोग ‘मावठा’ कहते हैं, झिमिर – झिमिर बरस रहा था. युवती बहुत देर बाद पूरे वज़ूद में से बटोर कर दर्द के प्यालों सी पलक उठाती एक सौ अस्सी अक्षांश के बीच पसरे युवक पर पल भर को टिकती और बंद सी हो जाती. युवक महसूसता उस नज़र को और नज़र के गुजर जाने पर पहलू बदलता आहिस्ता से. कुछ शालीन, कुछ भीरू सा लगाव बरसते मावठे को कोहरीला बना रहा था.
इसकी आँख केवल आँख नहीं थी, आँख में एक सूना दिल बैठा था, उंकड़ू। उसका दिल केवल दिल नहीं था, उसमें कोई आँख बैठी थी, कोहनी के बल उसकी पीड़ा को बस तटस्थ ताकती। इसकी आँख किरकिराती तो उसका दिल कसमसाता था। जब दिल कसमसाता तो आँख एक पल ठहर कर सहलाती। कंडक्टर कुछ नहीं कहता था पर उसके दिल में बैठी आँख कहती, “कभी तो इन भिंचे होंठो को खोल, मुस्कुरा! अपने दर्द से बुझ गए कलेजे को मेरे कलेजे से बाल, कि कितनेक दिन से देख रहा हूँ भीतर धुंआता तेरी जिंदगी का बिना देखा हिस्सा। “
इसकी आँख में बैठा दिल चीख कर उड़ता – मत खोल भेद, इस अभेद का। सुख – दुख सबके अपने अपने। थार का मरुस्थल की थाह हे रे बावले, पर इस दुख की थाह नहीं। क्यों कुरेदता है घाव?
उसने धीमे धीमे गर्दन उठाई और एक क्षण बुझी नज़र से देखा उसकी ओर, हमने उसे देखते हुए देखा। मुझे लगा कि कहीं उस युवक ने उसकी सूनी आँखों की मुंडेर पर दिया रख दिया, वे चमकीं एक पल। एक पल का ही सही सुख में तो बदला दुख। एक ही पल को सही, बरस गयी बदली, न सही फुनगियां, जड़ ही में सही भर गया हरापन। कंडक्टर चपल हो उठा, बतियाने लगा आस पास। वह सुनती रही गुमसुम। अपलक तकती रही विपरीत दिशा में, जहाँ तेज़ी से गुज़रते दृश्य थे। यात्रा बीत रही थी। उसकी आँखें विरोधाभासी थीं, जितनी गहरी शांति थी उनमें उतने ही विप्लव थे।
पचास मिनट की थी उस युवती की यात्रा, और ये पचास मिनट शैलेश और मैं अपना संभावित स्थायी बिछोह भूलकर मगन थे इस केमिस्ट्री को समझने में. चूंकि हम बिलकुल ही सामने बैठे थे, तो उस शालीनतम और बहुत पतले कांच से रुझान को अपनी कानाफूसी से मलिन और भंग करने का साहस हम भी नहीं कर सके और अपनी आँखों और महीन मुस्कानों से हमने सबकुछ कह – सुन और बांट लिया था. उनकी आरंभ होती अस्पष्ट और नाज़ुक दास्तां, नैतिकता के बियावां में हमसे कहीं ज़्यादा सहमी हुई थी. हम न जाने कैसे जान रहे थे कि कंडक्टर बस उससे इतना चाहता था न हँसे खिलखिलाकर और लड़कियों की तरह, पर हौले हौले मुस्कुरा तो सकती है। न ले बगीचों के झूलों पर पींगे, बस की इस सीट पर आराम से टिक तो सकती है एक घंटा।

उस युवती का पड़ाव आ गया था. “ मैडम विजैनगर आ गया.” बस रुकने से पहले कंडक्टर कूद पड़ा केबिन से बाहर. उतरने वालों का बस के दरवाजे पर जमावड़ा था, मोटी गाड़िया – लुहारन अपनी मलिन पोटलियाँ उतारने को उतारु थी कि कंडक्टर ने एक धीमी डांट से सबको रोक कर जगह बना कर “मैडम” को उतार दिया, गाड़िया लोहारन की एक पोटली उठाते में उसकी कोहनी अनजाने, युवती के कंधे से छू गई. उफ़! एक बहुत क्षीण मुस्कान कौंधी और बिला गई निर्वात में, उस पल में उस पर ऎसा “कसूमल रंगराग” छाया कि वह समूची बदल गई. किंतु बस क्षणांश ही को. वह बस से उतर कर चली. कंडक्टर समेत हम सबने देखेएक सीधी – सादी औरत के सीधे चलते पैर, जो किसी रूपसी नायिका की तरह कहीं मंडते नहीं थे। मंड कर खुद अपनी मर्यादा के बोझ तले मिटते जाते थे। वह जो पीड़ा को भी अपने यौवन की तरह शॉल में छिपाती थी और कंडक्टर की अबोली तसल्ली का चेहरा उतर जाता। वह तो ऐसी दिखती थी कि मानो उसने अपना रोना धोना देवताओं तक के आगे नहीं किया होगा । शायद यह सोच कर कि व्यर्थ ही इस देवता को दुखी किया जाए, बेहतर है चुप्पी ओढ़ ली जाए। उसके उतरने के साथ मेरे मन में एक दीन घर उभर आया, वो जी रही होगी, काले सलेटी जीवन को जहाँ. किसी रेतीले कस्बे की गली का आखिरी घर. ऐसा घर जो कुछ नहीं बोलता दिन की मर्यादा में, मगर रात के अँधेरे में सिसकता है। जो सिसक कर थम कर उससे कहता है, तुझे मुझे दोनों को छोड़ गए लोग। बिन सार संभाल मैं भी तो झर बिखर रहा हूं। जिस आंगन में कबूतरों की गूटरगूं होती होगी वहाँ अब आंगन के नीम पर और छज्जों पर कव्वे उतरते होंगे हर शाम। सूने मैदानों में खड़े ठूंठ से उठती होगी उल्लू की आवाज़।
हमने अनुमान तो लगा लिया था कि ये दोनों बहुत दिनों से ऐसे ही यात्रा करते चले आ रहे हैं, क्या यह रोज़ होता होगा! कि बस की इस अति संक्षिप्त यात्रा में रोज़ अणु मात्र – सा कसूमल रंगराग इसके धवल – वैराग्य पर छाता होगा. फिर बस से उतर कर ये वैधव्य के विराग सागर में बिला जाती होगी! क्या रोज़ ही उसकी एक उड़ती तरल निगाह की प्रत्याशा में उस युवक का अस्तित्व उड़ने लगता होगा? रोज़ एक उजास की सृष्टि उसके भीतर होती होगी, लेकिन उसके बस से उतरते ही सब धड़ाम हो जाता होगा, छटपटाता होगा कलेजे में घायल कबूतर! उसके भीतर से आत्मा उसके साथ ही बस से उतर जाती होगी! क्या ये रोज़ विजय नगर पर ऐसे ही अर्धमूर्च्छित हो जाता होगा? मैं उस पल बिलकुल भी नहीं जान सकी थी उनके बीच कोई साइलेंट मैलोडी थी, शोर में गुम जब यह बीत रही थी, वह उतरी तो यह मार्मिक मैलोडी गूंजी है. वह बिना कहे उसे कुछ कह गई थी – “ तुम मेरी आवाज़ सुन सकते हो, पर मेरा कंपन नहीं। मेरी थिर भंगिमा देख सकते हो पर पसलियों में उछलता दिल?तुम देख सकते हो जैसी मैं हूँ, पर मेरे देखने को देखो कि किस साहस से मैं देखती हूं तुम्हें। इस दृश्य में फंसी ख़ामोशी में छिप कर मैं चीख रही हूँ सुनो मैं तुम्हें प्रेम नहीं करती हूं। मत बाँधो कोई डोर. जिसे मरना था वह मर कर छूटा या नहीं नही पता? मगर यह ऐसा मरना है जिसे महसूस किया जा सकता है पल – पल मरते हुए।“
लेकिन मर कौन गया था? यह हमने देखा. यकीनन देखने लायक थी उसकी मूर्च्छा, उसके बातूनीपन का खीज में बदलना. रजाई – गद्दे तहाकर वापस पटकना उपर और केबिन में न जाकर बस की किसी सीट पर बेजान ढह जाना. अगले दिन की प्रतीक्षा में?
फिर अगला दिन! जब भोर से पहले के घुप्प अंधेरे में, वह अपनी उम्मीद को उजास का भरम ओढ़ा कर, चिड़ियों की चहचहाहट से पहले निकल पड़ता होगा, टिकटों की फड़फड़ाहट लिए।
“गुलाबपुरा – गुलाबपुरा!!”

रोज़ ऎसे ही बीतता होगा. उसके बस में चढ़ते के साथ ख्याल रहता है उसे कि वह उससे परोक्षत: कुछ नहीं चाहता, वह तो कहीं भीतर चाहता है, उसके घावों की टीसें सोख लेना। उसकी ज़िंदगी के लू के मौसमों को बस एक घंटे के लिए बदल देने के लिए छटपटाता है, उसके मन को ढाढ़स मिले तो कैसे मिले।वह जानता है, वह उसे क्या दे सकता है, बस थोड़ी राहत, कुछ देर का यह अहसास कि – कोई है, जिस पर तुम कुछ देर टिक सकती हो। भावना, भरोसा, तसल्ली ये कोरे शब्द, उस नि:शब्दता में उस कंडक्टर के हर स्पंदन में सिहर – सिहर जाते हैं। जब वह बस में चढ़ते ही साधिकार केबिन में घुसती है, विजैनगर आने से ज़रा पहले खाली कराई गई पूरी सीट पर बिछाए सफेद बिछौने पर बैठ कर उस बिछाए जाने को सार्थक करती है। बस में गाना चलता है, – म्हारो सुवटियो । क्षण भर को उसके चेहरे पर कसूमल कुसुम खिलते हैं। वह उधर न देख कर भी देखता है उसके माथे पर लाल टीकी लगी है। वह बिना जाने ही संकोच से भर कड़क हो जाती है, सूखे होंठ भींचती है, सिमट कर बैठ जाती है। शॉल कस लेती है। एक बादल सड़क भिगो कर लापता है। हवा में भीगी घास की महक है, मौन धारण किए जंगल गुज़रते हैं।
उस बीतते सफर के बीतते पल मैं चाहती थी कि हम पर भी यह प्रेम रोज़ बीते, यह बस का सफर रोज़ हो. रोज़ किसी गांव के गुज़रने पर गोबर की महक मुझे को घर आंगन और अम्मी की याद दिलाती रहे, हम दोनों चुपचाप सट कर बैठे रहें।
हमारे समानांतर एक प्रेम गुज़र रहा था अपनी लघुता में उदात्तता लिए। अ-अभिव्यक्त अ-दैहिक, अ-मांसल। हमारा प्रेम अपनी तमाम दैहिकताओं, अपनी कलाकाराना मौलिक अभिव्यक्तियों के साथ – साथ तमाम विश्व के साहित्य , सिनेमाओं की कोटेशनों से प्रेम उधार लेकर एक छोटे बिंदु में विलोप हो रहा था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

आज का शब्द

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.