आज बिरज में होरी रे रसिया  की सामूहिक उठान पर अधेड ज़या माई का ध्यान खिंच गया। वह कोठरी में बैठी एक पुरानी गुदडी क़ी उधडी सींवन ठीक कर रही थी। अभी पूरा कहां गया है जाडा कि लगे लोग फागुन – रसिया गाने! सच पूछो तो जया माई का जाडा बडी मुश्किल से बीता था, फटी गुदडी और दो कुतरे हुए कम्बलों में भी जाडा हड्डियों में जम जाता था। ऐसा जाडा पहले कभी ना पडा कि एक साथ तीन कुठरियां खाली हो गयीं। पर फिर भी बडे – बडे घरों, विशाल मंदिरों के अहातों के पीछे, गली के अन्तिम मोड पर ठिठकी सी खडी उजाड तुलसीबाडी की इस धुंएं से काली, अंधेरी बिना खिडक़ी वाली सात कुठरियों में भी जाने कब और कैसे फागुन आने का अहसास भर गया था, मौसम बदलने की खुनकी हवा के साथ चुपके से सेंध मार कर घुस आई थी।

जाडे क़े साथ जो मृत्युगन्ध कुठरियों में जा बसी थी फागुन की हवा से कुछ हल्की होने लगी थी। जया माई के दिल में हूक सी उठी। जया माई की खास सहेली कमला जिज्जी, अपनी जर्जर देह छोड ग़ईं  अब फिर किसी कोठरी से उनका चिर परिचित ठहाका अब नहीं सुनाई देगा। अस्सी की उमर में भी अश्लील भद्दे द्विअर्थी मजाक  उनसे नहीं छूटे थे ।

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” क्योंरी जया नहीं दिया न, कम्बल उस सेठ ने। कैसे देता तुझ बुङ्ढी को ?  सामने ही छाती खोल कर दूध पिलाती जवान भिखारिनों को फिर क्या देता ?”
घनेरे जाडे में कभी – कभी भाव विभोर होकर या फिर सरदी से ध्यान हटाने को देर रात तक वैष्णवी गीत गातीं थीं – नींद ना आवै सारी रात, करवट लै लैई सेज टटोलूं पिया नाहीं मोरे साथ।

क्या बिगड ज़ाता इस संसार का अगर वह भी चली जाती, जाने वालों के साथ? इस जाडे ने उसी को क्यों बख्श दिया? उसकी उमर की बडी – बूढियां सब स्वर्ग सिधार गईं, खाली कुठरियां, तमाम जवान, अधेड, बूढी ज़ात – कुजात की भिखारिनों से भर गईं। अब भले घरों की परित्यक्ता बंगाली विधवाएं कहां वृंदावन आती हैं? अब तो हर हारी दुखियारी बाल बच्चे वाली भिखारिनें, कामचोट्टियां यहां – वहां से रहने की जगह – खाने के लालच में चली आती हैं। अब किसे देखना है इस बार भी ये रीता – रीता फागुन? न जाने क्या – क्या सोचते – सोचते जया माई ने सुई उंगली में चुभा ली, चश्मा कब का धुंधला पड ग़या, एक कान की कमानी टूटे तो साल होगया, मोटा डोरा बांध कर कान में फंसा के रखती है।
” हाय, मनों खून बह गये।” कह कर एक बूंद पतले रक्त से भीगी जर्जर पतली उंगली मुंह में दाब ली , गंधाती हुई गुदडी क़ो उठा कर पटक दिया। दरअसल यह गुदडी क़मला जिज्जी की थी तीनों कुठरियों की माईयों के मरने के बाद मरी कामचोट्टियां भिखारिनें लाश उठते ही मरने वाली की गुदडी और बकसे पर टूट पडतीं थी वह चुपचाप रात ही को जा कमला जिज्जी का सब उठा लाई। यह गुदडी, भजनों की कॉपी, अल्यूमिनियम की थाली, एक पुरानी फटी ढोलकी, एक चांदी की पतली चैन में लगा क्रॉस!

यह बात और कौन जानता था जया के सिवा? कमला माई कमला नहीं थी, मरियम थी मरियम होने से पहले वह अपने गरीब मेहतर पिता की पुत्री थी। जिसने उसके जन्म से पहले धर्मान्तरण स्वीकार कर लिया था, इस दलील के साथ कि – हिन्दुओं के बीच गरीब, अस्पृश्य मेहतर हिन्दु होने से अच्छा है, क्रिस्तान होना जहां कमसकम पूजाघर में जाने की इजाजत हरेक को है। पैसा है, नौकरी है। इज्जत! जो है सो है। पर इज्जत कहां होती है गरीब मैला ढोने वाले की चाहे वह हिन्दू हो, क्रिस्तान या मुस्लमान। परिस्थिति की मारी मरियम एक सस्ती किस्म की सडक़छाप वैश्या थीकलकत्ता में। अधेडावस्था में एक ट्रक वाले के साथ यहां चली आई। बाल मुंडा कर स्वयं को कमला बना कर माइयों में शामिल हो गई खाने – रहने का ठौर बन गया। उसकी आवाज बहुत मोहक थी बल्कि एक समय में भजन गाने वालियों में उसे सबसे ज्यादा पारिश्रमिक मिलता था। भजन उसे चुटकियों में याद हो जाते, समय बीतते -बीतते वह खुद तुकबन्दियां करने लगी, बंगाली मिश्रित ब्रजभाषा में।

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बस उन्हीं कमला जिज्जी की गुदडी नल के नीचे डाल धो – सुखा कर सिल कर जया माई अपने लिये तैयार कर रही थी। बाकि सब स्मृति चिन्हों की तरह सहेज लिया। आखिरकार वही तो उसकी एक मात्र सगी – सम्बन्धी थीं। कहने को कोई रिश्ता न था, पर उनके जाने के बाद जया अकेली हो गयी अनाथ हो गयी।

जया माई की आंख छलछला गई। शाम ढलने लगी थी जया माई ने माचिस टटोल कर ढिबरी जला ली। कमरा मटमैले, फीके, हताशा भरे ऐसे उजास से भर गया जिसके होने से अंधेरा ज्यादा भला लगता। कमरा क्या था एक काल कोठरी। पर जया माई का आसरा, जिन्दगी भर की पूंजी जिसमें उसका छोटा सा संसार बसा था कोने में अनाज का मटका। मंदिर में सेवा के बदले जो अनाज मिलता वही वह उसमें भर देती मक्की, जौ, बाजरा, गेहूं, चना सब एक ही में घालमेल जिसमें कंकरों का अनुपात भी बराबर से था। चावल कब से नहीं मिला था सुजान सेठ के जाने के बाद से भात कब चखा उसने? रूखा बाजरा या मक्का या ज्वार ही हाथ आता कभी तो। सब मिला कर वह पिसवा लाती। दूसरे कोने में अंगीठी। कुछ बरतन। कपडे क़े नाम पर दो फटी मटमैली सफेद धोतियां, अलगनी पर टंगी। जब से विधवा हुई इकहरी धोती पहनी बिना ब्लाउज की।

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कमला जिज्जी टोकती थी यह इकहरी धोती ही जंजाल है। ये बांध तोड क़र उफनता जोबन कैसे छिपा लेगी री तू इसमें? एक कुर्ती सिला ले। तेरे ऊपर तो यह टकलाभी जंचता है। कौन कहेगा तू चालीस की है?

हां ऐसा तो कुछ हिसाब लगाया था। दस बरस की थी तब शादी हुई, तेरह पर गौना हुआ। पन्द्रह लगते लगते विधवा हो गयी। पांच साल ससुराल में जस – तस काटे, आधे पेट , सास की लातें – ससुर की गालियां खाते और रात को देवर – जेठ की आये दिन का वही घिनौना आग्रह सुनते – सुनते। मायके में कौन धरा था? मां खुद भाई के आसरे।एक दिन घनी कलेश के बाद, हाथ का शाखा – पोला बेच कर, एक बुढिया विधवा के साथ वह वृन्दावन चली आयी। यहां आकर सबसे पहले घनेकमर तक लहराते बाल गोविन्द जी के नाम कर दिये। तब कोठरियों की मारा – मारी कम थी तुलसीबाडी एक मारवाडी सेठ ने बनवाई थी। ब्राह्मणी और उम्र से कम होने के नाते वह सेठ के वृन्दावन आगमन पर खाना पकाया करती थी सो कोठरी उसके नाम हो गई।

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तब तुलसीबाडी क़ी छटा निराली थी। आगे सेठ की कोठी थी, संगमरमर की जगर – मगर करती पीछे यह अहाता जिसमें सात कमरे। जिनमें भजन गाने वाली पन्द्रह उडिया – बांग्ला – असमिया माईयां रहा करती थीं। एक कुठरिया उसे मिल गई। तुलसी बाडी क़ा सात्विक वातावरण था। सारी बंगाली विधवाएं ब्राह्मणियां थीं। सेठ के नाम से भजन किया करती थीं। उन्हें सेठ की तरफ से महीने का पच्चीस रूपया और भात – दाल मिलता था। जया को पचास। वहीं की होकर रह गई जया माई। वो बात अलग है कि सुजानमल सेठ के मरते ही कोठी बिक गई, महीने का पैसा, दाल – भात बन्द हुआ, कुठरिया खाली करने की नौबत आई लेकिन भला हो सेठानी का विधवा ब्राह्मणियों के श्राप के डर से धमका उसने बेटे को मना लिया तुलसी बाडी भजन आश्रम के ट्रस्ट के नाम करने पर। जया माई को भजन – वजन गाना नहीं आता था, न उसे भाता वहां जाकर ऊंघते रहो रैं रैं बेसुरा सा झूठा – सच्चा भजन गाते रहो वह ठहरी जनम की मजदूरनीउसने गोविन्ददेव जी के मन्दिर में अनाज साफ करने का काम पकड लिया जिसके बारह आने रोज मिलतेकुछ अनाज मिल जाता।

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ऐसा क्यों होता है कि कोई हवा में घुली गन्ध, किसी गीत की स्वरलहरियां, कोई मौसम तुम्हें पीछे को, कहीं सुदूर अतीत में लौटाए लिये जाता है। ये रसिया गाते हुरियारे, मंदिरों में सजते गुलालों की, गेन्दा के फूलों, केसर मिले टेसू के रंग की गन्धठण्डे – गरम मौसम का अनूठा सा मदहोश करने वाला मौसम चारों तरफ एक किस्म का उल्लास  जया अपने लिये दलिया रांधती हुई सुदूर अतीत में खो गई। कच्चा – पका रांधा हुआ दलिया छपाक से थाली में उलटा कटोरी में रखा सरसों का कच्चा धांस मारता तेल उंडेला, लाल साबुत मिर्ची को हाथ से चूरा कर छिडक़ लिया और सडाऽप सडाऽप करके झट चट कर गयी। सुबह से अब खाना नसीब हुआ। आजकल उसे कम दीखता है सो अनाज – दाल – मसाले बीनना बन्द हो गया है बडे – बडे बरतन मांजती है वहपूरी सरदी भर यही किया उखडते दमे के साथ खांसते – खांसते। हर दम लगता था अब वह भी जमना जी के हवाले हो जायेगीइन्हीं सरदियों में। बरतन मांजने के अलावा अब फटे गले से भजनों में बैठने लगी है। कमला जिज्जी की कापी में से गा लेती है एकाध भजन। जबकि उसकी उमर की अब भीख मांगा करती हैं मंदिर बाहर कतार की कतार हां और क्या ब्राह्मणियां भी नीचे जात की भी सब एक ही पंगत में रंग जी के मंदिर के बाहर बैठ जाती हैं। उसे तो अनाज और एक रूपिया मिलता है दिन का उन भिखमंगियों को दो रूपए खाना और साल में एकाध बार कभी कम्बल भी मिल जाता है।पर हाथ फैलाना उसकी प्रकृति ही नहीं । संतोष से पानी का एक लोटा गले में उंडेला और फटी खजूर की चटाई पर गुदडी बिछा कर लेट गयी। दोनों कम्बल शरीर पर डाल लिये।

आज बिरज में होरी रे रसिया  बरजोरी रे रसिया रसिया गाने वालों की जोश भरी आवाज और चंग पर पडती थाप ढलती शाम के सन्नाटों में तेज हो गई, भुनते अनाज की गंध जया पीछे – पीछे आते अतीत से अपना पल्ला छुडा ही नहीं पाई।आज बिरज में होरी रे रसिया  बरजोरी रे रसिया गुनगुनाने लगी।

होलिका – दहन का ही तो दिन था। दूर से चौक की ऊंची हहरा कर जलती होली देख रही थी वह, आज अनाज, दालें, मसाले बीनते – फटकते संझा होगई थी। रंगजी के मंदिर के पीछे बनी पाकशाला से एक दूसरे में उलझती गलियों के अंधियारे – उजियारे गुंजल को पार करती वह अपनी इकहरी धोती का पल्ला साधे, गंजे सिर को ढांपते लौट रही थी। उम््र्रा की गिनती गिनना कब का बन्द कर दिया था। बल्कि यही सोचा करती थी कि जल्दी से ढले इस देह की शाम तो चैन की जिन्दगी जिये। कितना बचाये बत्तीस दांतों के बीच इस यौवन की जीभ को?

हुरियारों का हूजूम जलती होली के साथ ही गुलाल उडाने लगा था। रसिया और फाग की धूम मची थी। होली में जलती गुलरियों की मालाएं टूट – टूट कर गिर रही थीं। बच्चों के बनायी गोबर की गुलरियां, चन्दा, सूरज लाल – लाल हो वैसे ही आकार में राख में बदल रहे थे। डोरियां जल कर खाक। होली की आंच में भूनी गई गेहूं की बालें, होरे ( हरे चने) की डंगाले, नारियल आपस में परसाद के तौर पर बांटा जा रहा था। वह चौक को काटती एक गली से अपनी परछांई बचाती हुई गुजर रही थी कि किसी ने पुकारा

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” माई! ”
पीछे मुडक़र देखा एक सांवला – सा युवा गुंसाई केसरिया धोती – अंगरखा पहने।
” का है भाई? ”
” परसाद ले जाओ।”
वह चौंकी।
” परसाद! ऐसे माइयों को पुकार कर परसाद देने वाला ये कौन माइयां तो खुद ही परसाद के मारे मरी जाये हैं।लूट मच जावै है।” वह ठिठकी।

युवक खुद चल कर पास आ गया। पास से देखा तो वह युवक नहीं लगा एक इकहरा पुरुष था। था पक्का गुंसाई, किसी मंदिर की गौशाला का पालक या जाने पाकशाला काया परसाद बेचने वाला। पण्डा नहीं थापण्डे तो गोरे भभूके होते हैं, मोटे – मोटे। ये तो सांवला, मुच्छड, दाढी भी चोरों की सी उगा रखी थी। आंखों में गांजे की ललाई। आग से धधके सांवले गालों पर केसरिया गुलाल रचा था। एक पल को डर गई उसने यह डर पढ लिया।

”डर मत माई होली का परसाद” भुनी गेहूं की बालियां, चने और भुने नारियल के टुकडे क़े साथ खोये की बरफी। उस दिन भी पाक शाला से भूखी लौट रही थी वह सोमवार था, उपवास का दिन। एक झटके में खा गईपरसाद का वह स्वाद आज भी याद है।
” आज बडी देर से लौटी हैपाकशाला से। कहीं पण्डा जी की सेवा में तो।”
” सरम करो कुछ तो”
” यहां किसे सरम है माई छोड वो सब, तू अब कहां चली?”
” बाडी और कहां”
” मंदिर नहीं? भजन नहीं आज तो होली की रात है, माइयां ऐसे – ऐसे वैष्णबी भजन गायेंगी राधा जी सरम के मारे जमना में डूब जायें।”
” जाने दो गुंसाई ”
” रात हो गई है भंग और गांजे के साथ साथ दारू में धुत्त हुरियारे तुझे छोड देंगे? तुलसी बाडी है भी तो बिन्द्राबन के वा कोने पर”

जया चल पडीन जाने कितने दिनों से नजर रखे होगा ये गुंसाईसो सब जानता है उसके बारे में! उसके पीछे – पीछे वह कुछ गुनगुनाता चल पडा। जहां एक डर था, वहीं उसके पीछे चलने से ढाढस बंधा हुआ था। मस्त ढब, उन्मत्त चाल से वह चला आ रहा था गेहूं की कच्ची बाल हवा में लहराते। उसे तुलसीबाडी पर छोडते ही वह बाहर से बाहर न जाने कहां लोप हो गया। कृष्ण भक्ति में लीन जया को लगा कि कहीं यह वही नट नागर बहुरूपिया श्याम तो नहीं था? उस रात वह सो ही नहीं सकी। ” जन्म सफल हो गया, साक्षात कान्हा दर्सन ही नहीं दिये बाडी तक छोड क़े गये।”

पर सुबह वह फिर बाडी क़े बाहर, रात ही के भेस में, सुबह – सुबह भंग चढा केबाहर ही से चिल्लाया  वह नहा के तुलसी को जल चढा के निकली ही थी। ” जय जय राधे कृष्ण  ऐ जया माई बडे ग़ुंसाई ने बुलाया है पाकशाला के सारे सेवादार वहीं भोजन लेंगे चल तू भी। ”

सारी माइयां हैरतजदा होकर इकट्ठी हो गयीं। फिर एकाध बुढिया हिम्मत करके बोली – ” हमें भी ले चलो गुंसाई जी।”
” तुम कौन सी सेवादार हो वहां खाली पाकशाला के सेवादारों का भोजन है। बहुत मरी जा रही हो तो जाओ मथुरा बांकेबिहारी जी के मंदिर के बाहर एक मारवाडिये सेठ ने पंगत बैठाई है।”

जया बाहर आ गई, चन्दन का टीका माथे पे लगा, तुलसी की नई कण्ठी, धुली धोती पहन।
” तू तो झकाझक है हुरियारे रंग डाल देंगे।”
” हम बिधवा पे जो रंग डाले उसे कुम्भीपाक नरक मिले। ये बिन्द्राबन की रीत नईं है।”
न जाने क्यों गुंसाई, जया के शब्दों की दृढता पर ठिठक गया।


युवक गुंसाई ने पूरी पत्तल पकवानों से भर दी थी जया की। फिर गहरी निगाह से देखा” जा माईं ऐश कर” जया ने उस निगाह को उपेक्षित कर पत्तल थैले में रख ली थी। गलियां पार करती करती रंग जी के मंदिर आई वह गुंसाई फिर पीछे – पीछे । रंगजी के मन्दिर की तरफ जाती गलियों में टेसू का रंग, केसरिया गंध से मिल कर नालियों में बिखरा था। लगता था हुरियारों की टोली अभी यहां से गुजर कर गई है। पूरा वृन्दावन केसरिया हो रहा था। पर पंक्ति की पंक्ति विधवाओं की उल्लास के उन रंगो से अछूती, बचती – बचाती, सहमी सी गुजर रही थी। जया को विरक्ति हो रही थी इस गलियों में बहते उल्लास से आज उसे जरा सा साथ चल कर खो गया अपना हमसफर बेतहाशा याद आ रहा था सांवलाशर्मीला जिसके पहले चुम्बन की क्षीण स्मृति से वह आज भी विभोर हो जाती है। कैसे गौने के बाद के पहले बसन्तोत्सव घर के पिछवाडे ले जा कर पलाश के फूलों की माला उसके गले में डाल दी थी, पहला अनाडी चुम्बन लिया था और फिर दोनों खिलखिलाकर हंसे थे।

” माई” फिर उस युवा गुंसाई की आवाज ने उसे चौंकाया।
वह करीब ही आ गया।
” कब तक बचेगी इस रंग से देख” उसकी धोती की किनार पूरी मटमैले पीले रंग से रंग गई थी।

वह गुनगुना रहा था ” रंग लियौ मैं आज जोबना तेरे रंग में फगुना ”
” गुंसाई काहे पीछे पडे हैं, बेज्जती करवाएंगे अपनी भी हमरी भी।”
” अच्छा इधर आ, कुछ दिखाऊं। कह कर वह लगभग खींच कर गली से होकर एक पुराने जर्जर मंदिर के पिछवाडे ले गया मैदान पार कर जहां दो बरगद के लिपटे हुए पेड थे जिनकी जडें आपस में मिल कर एक बैंच सी बना रही थीं।
” बैठ यहां यहां कोई नहीं रंग डालेगा। पत्तल निकाल और खाना खा ले। ” उसकी आंखों में भंग का नशा था, आत्मीयता थी मगर वासना  उसे ढूंढे नहीं मिली। वह यन्त्रवत सी खाने लगी।
” मुझे नहीं देगी? ”
” लो न मैं ने सोचा हम”
” ब्राह्मणी है न तूतेरे हाथ का खाने से तो स्वर्ग मिलेगा” ढिठाई से हंस कर उसने पत्तल से बालूशाही उठा ली।

 

उसका मन कर रहा था कि उससे पूछे उसकी खोज खबर रखने वाला तू है कौन? वह पूछती या न पूछती वह स्वयं शुरु हो गया, ” माई, हमसे डरना तो मती। हम कोई बदमास नाय हैं। हम तो गोस्वामी भी नहीं हैं। हमारी मां तुम्हारे जैसी ही एक माई थी। गरीब बाल विधवा, बामणी, बंगालन। खास बडे पण्डा जी के साले ने उनसे जबरदस्ती की। हमें का पता हमें तो बडे गुसाईं जी ने कही। हमारी मां हमें गौसाला के घूरे पे पटक के जमना में कूद गई। तब से हमें बडे ग़ुसाईं जी ने गोद पाला। तुझे देखा था न लगा ऐसी ही होगी हमारी अम्मा भी। खपसूरत, मेहनती।” कह कर उस बावरे की भंग से कपाल पर चढी आंखें भर आईं थी। उसी पल उस बावरे से मोह हो गया जया को।
” नाम का है तुम्हारा?”
” का करोंगी जान कै।”
” नाय मत बताओ।
” अच्छा सुनो बैसे तो सब बेनू गुंसाई कह के बुलावैं हैं परगुंसाई जी जो रखे वो नाम वेनुमाधव है।”
” बेनु माधवतुम्हारी मुरली कहां है? और राधा?” कह कर हंस पडी ज़या माई। हंसते ही ठोढी में गङ्ढा पडा। बेनु गुंसाई के लिये जमना का भंवर बन गया वह गङ्ढा।
” यह रही ना।” कह कर भर गुलाल कपोल पे रगड दी, गुंसाई ने।
अरेऽऽऽऽरे करते जया पहले क्रोध से चीखी फिर फूट – फूट के रोने लगी। उसका गोरा रंग लाल पड ग़या।
” कही थी ना हमनेअब भोगना कुम्भीपाक नरक का कष्ट। रांड को रंग लगाके क्या कर लिया गुंसाई? हम सब जाने कि तुम्हें किसकी चाह है? ”
” हम ना मानें ये रांड – रंडवे की की बात जे का बात भई बिधवा होना कोई पाप है का? रंग तो भगवान के दिये हैं।जया माई जे तो सोचना मति कि पण्डा – पुजारियों की तरह हमें भी दिन में राण्ड की बस जात ही जात और रात में गात ही गात दीखै है। हमें जो खींच कर लाया वो कछु और ही है तुम्हारी पवित्तरता और निर्दोस जीवन।”
” रहन दो भासण अपना।”
” ऐ माई हम जित्ता मान दे रए उत्ता तुम गुर्रा रई हो। पण्डा जी के आगे घिघियाती हो। कित्ता बचोगी तुम  उनसे? इससे अच्छा है, किसी भले आदमी का हाथ पकड लो। यों देखो तो हम भी का बुरे हैं? ”
” जाओ गुंसाई जाओ हम पै तरस मत ही खाओ तो अच्छा है। अपनी उमिर देखो।”
” प्रेम नईं देखता उमिर जात रीत।”


जया उस पर हंस कर लौट आई थी। उसी फगुनाए मौसम की देन थी, कमला जिज्जी। यूं पूछो तो उस मौसम की देन ही देन थी सौभाग्य, दुर्भाग्य सब का सब। सबको तटस्थता से अपना लिया। किससे शिकायत करती? किसको सफाई देती। उसे पता था उसका यह सलोना शरीर किसी की आंख की किरकिरी जरूर बनेगा। चाहे बाल मूंड कर रखे। इकलाई की धोती में ढांप – ढूंप के रखे। आधे मुख पर चन्दन पोत के रखे। उसकी देह के कटावजमना जी के कटते कगारों से भी ज्यादा फिसलन भरे हैं।

होली के अगले ही दिन गोवर्धन पूजा के बाद मंदिर के अनाजों से भरे कुठार के बाहर भरी दुपहरिया में मुख से पसीना पौंछते में उसकी धोती सरक आई थीउसने झट लपेट ली। तीन माइयां अभी साथ ही में गेहूं बिनवा रही थीं पाकशाला का झूठा – बासी भोजन बटोरने का लालच उन्हें पिछवाडे क़ूडेदान पर ले गया, घूरे पर। बस उससे यही तो नहीं होता, न कभी हुआ। झूठी पत्तलें चाटती विधवा ब्राह्मणियां उसे धरा का अभिशाप लगतीं। ऐसी भी क्या चटोरी जबान। आकर चटखारतीं – ” हाय, क्या, खस्ता कचौडियां थीं।” ” श्रीखण्ड में जाने क्या खुश्बू पडी थी हाऽह देख मुंह क्या महक रहा है।” वह दाल – भात से ही संतुष्ट थी पर काश उस दिन चली ही जाती  उनके साथ। उस झूठन से बच कर यह झूठन !

” बडी ग़रमी है ना! माई ! ले इस अंगोछे से पौंछ ले मुंह। तू जब आंचल उठाती है, छाती से तो देख यहां क्या हो जाता है।” गन्दा सा इशारा कह कर सहसा प्रसादगृह के पण्डा रामबिलास चौबे प्रकट हो गये, मंदिर के अनाज के बडे क़ुठार से लगे इस दालान में।
उसका हाथ पकड क़र खींचने लगे। वह चीखी जरूर  दूसरा पहर थासन्नाटा मंदिर में, दर्शन के कपाट कब के बन्द कोई भक्त भी गलियों में नहीं उस पर मुख पर भारी हाथ जकडा हुआ था। छटपटाई। उसकी क्षीण काया एक धक्के, दो थप्पडाें में नीचे गिर गई। उसे घसीट कर चौबे जी, प्रसादगृह के एक सुनसान कमरे में ले जाने लगे-
” चैती माऽऽई! ”
” नहीं, आएंगी तेरी माइयां, सबकी सब पठा दी मैं ने पत्तलें देकर।”
एक भारी – भरकम शरीर के नीचे, जया लगभग अचेत। बस चला ही नहीं। चौबे जी उठ कर धोती बांध रहे थे जया माईलांछित, आहतफट आई धोती सहेज ही रही थीकि सामने गौशाला की छत से दालान में झांकती जलती आंखों से बेनू माधव उसी को देख रहा था। हा! क्या सोचता होगा? कि उसका कहा सच्च हो गया वह पण्डाओं के आगे घिघियाती है और  उसके निर्दोष प्रेम के आगे अपने पवित्र वैधव्य की दुहाई देती रही।


वह उसे फिर कभी समझा ही नहीं पाई। फिर भी उसी दिन तुरत – फुरत पहुंची थी बरगद वाले अहाते मेंजहां बेनु गुंसाई की दुपहरें कटती थीं। उसने दूर से ही गुस्से से वापस चले जाने का इशारा कर दिया। नहीं सुना कुछ भी। फिर वह भी खीज गई किस बात की सफाई दे वह और किसे? कौन है यह युवक उसका? लौटने को थी उसकी टूटी, लांछन भी भरी आकृति तभी उसने हांक लगाई –

” करा ली खूब पूजा अपनी पवित्तरता की? ”
” हमारी किस्मत”
” किस्मत! बडी आई किस्मत की  चीख नहीं सकी थी ?”

वह रुआंसू हो गई। वह उठ कर पास चला आया। कस के हाथ पकड लिया और खींच के बरगद के पास ले गया
” है अगर हिम्मत तो चल थाने अभी। कर शिकायत पण्डा की। या पडी रह भेड – बकरियन सी, बरदास्त करती  हुई औरन की तरह। मैं चुप नहीं बैठूंगा। तुझे सच्ची गवाही देनी पडेग़ी। मैं तो अपनी मां की बात भी उठाऊंगा। अब यह गंदगी और नहीं चलेगी, जया माई। तू मेरा साथ देगी। बता देगी ना! बोलेगी कि चौबे ने क्या बिताई तुझ पे।”
” गुंसाई, हमसे थाना – कचहरी नहीं होगा। वैसे ही कोष्ट ही कोष्ट है इज्जत के नाम पे ये चिथडे हैं। हम तो बस एक ही काम कर सकेंगे अपने आप को जमना जी के हवाले”
सहसा वेनुमाधव उत्तेजित होकर झपट पडा जया पर, छोटे छोटे बाल खींच कर जमीन पर पटक दिया।
” हां तू और क्या करेगी, मेरी मां की तरह साली मुझे घूरे पे लांछित पटक गई।”
अपना सिर बरगद के तने पर पटक लिया। फिर घण्टों दोनों अचल, हताश दो कोनों में पडे रहे। सूरज जाने कब  उनके सर पर ठिठका – ठिठका थक गया फिर थके कदमों से अस्ताचल को चल पडा, जया भी सूरज के ही साथ – साथ वृन्दावन के पश्चिम में स्थित तुलसीबाडी हताश कदमों से लौट गयी।

फिर मिली कमला जिज्जी  चैती माई ने भेजा था उसे उसके पास उस हादसे के बाद। जाने कैसे बीज दिये  उसने, लाल – काले, गरम दूध से गटका दिये खडे – ख़डे। अगले दो तक जो रक्तपात हुआ कि बस अचेत तब भी कमला जिज्जी खुद आई तुलसीबाडी। ग़ुड क़ा शीरा खिला खिला कर बचा लिया। होश आने पर उसने अपनी एकमात्र पतली सोने की अंगूठी उसके हाथ पे धर दी।

” ना रे बाबा, ये शोब नहीं। हम ये काम करके कमाना नहीं चाहता। ये सेवा समझो। तुम मंदिर का पण्डा लोगों का सेवा मुफत करो, हम तुम्हारा करेगा।” कह कर आंख दबा कर हंस दी थी।

फिर जब – जब मिलती कहती ” तेरी यह इकहरी धोती ही जंजाल है। तेरे ऊपर तो यह टकला भी जंचता है। कौन कहेगा तू चालीस से पांच ऊपर है? सुन री, जया, बत्तीस दांतों के बीच कैसे एक जीभ जैसे सरीर को बचाएगी? किसी को फंसा के ब्याह करले। जैसा तुम्हारा भगवान जी सौलह सौ साठ गोपियों का पति वैसा ही तुम्हारे मंदिर का ये पुजारी बाबा सारी बिधवाओं के पति। याद है री चैती वो पिछली बाडी क़ा सत्तर साल का हरामी गुंसाई कैसे हमसे कहता था जुगल कर लोबिना जुगल कैसा भजन? ”

उन्हीं दिनों चैती जिज्जी की तिकडम से कमला जिज्जी को तुलसीबाडी में जगह मिल गई। हीरे जैसे दिल वाली, सबकी सहायता को तत्पर कमला जिज्जी की जात पर कभी जया ने न चैती ने ध्यान दिया। रजिस्टर में लिखा नाम – कमला घोषाल, पति का नाम – नवेन्दु घोषाल, जन्मस्थान – कलकत्ता। उम्र के फरक के बावजूद दोनों में खूब बनती। एक दिन उनकी कुठरिया में जाने पर देखा, कमला जिज्जी क्रॉस को लेकर आंखों से लगा कर, होंठों से चूम कर छाती पर क्रॉस बना रही थी। उसने कुछ नहीं पूछा। उन्हीं ने बताया – ” जया, जीने के लिये दस स्वांग रचने बदे थे। वही रच रही हूं। तू ने किसी को बताया तो  यहां से बेदखल फिर जाने कहां एक और नया स्वांग रचना होगा। अब उमर हो चली है कितना स्वांग करुं?”
” ना जिज्जी, हमारा मुंह नहीं खुलेगा, चिता पर चढने तक। अगर चढे तो, नहीं तो कोई दिन जमना जी ।


और वह दिन भी तो रंग तेरस का था। अरे! ब्रज में होली क्या एक दिन खेलते हैं लोग लुगाई! आग लगे! उन्हें तो पूरा पखवाडा कम पडता है, इस रंग भरी छेडछाड और आशनाई के लिये। उस दिन बेनु गुंसाई गांजा चढा कर, जाने कितने नशे करके आया था। कमला जिज्जी से कह दिया था उसने भगा दे, पर वह बावरा माना कहां –
”कहां हो राधा प्यारी!” चिल्ला – चिल्ला कर बोला, वह सिहर कर अन्दर भाग गई और कुठरिया बन्द कर ली।
” देखो तुम्हारी खातिर बडे ग़ुंसाई जी से बिगाड क़र ली हमने। कर दी चौबे जी की शिकायत कमेटी वालों से। चौबे पण्डा जिसने तुझे छुआ उस हरामी को सरे आम जूते लगा के आ रहा हूं, अब तो मान जाओ। अब तो विधवा विवाह के आदर्श की बातें करने लगे हैं हमारे नेता देखो रंग लगवा लो आज हमसे कर लो लगन पकड लो हाथ कभी छोडा तो हम भी अपनी देवी सी मां के जाये नहीं।”
शाम तक तुलसीबाडी क़े टूटे दरवाजे पर बक – झक करता लडख़डाता वेनुमाधव लौट गया।

पर बात बहुत फैल गई थी। पाकशाला की नौकरी छूट गई। माईयां कतरा के निकलती। पण्डा जलती आंख से देखते।

कमला जिज्जी एक रात देर तक समझाती रहीं – करले ब्याह जया, भला सा ही दीखे है अभागा। ब्याह क्या होता है? मंदिर में जाकर माला डाल के जीवन भर साथ रह लो। यहां न चाहे तो, मैं तेरा ठिकाना कर दूं, आगरा में मेरा एक धर्म भाई फौज में है, किसी अफसर के घर रखा देगा।”
जाने कैसे मना लिया था उस फगुनाए मौसम में जिज्जी ने उसे , कि वह अगले रोज ही पहुंची थी खोजती बेनुमाधव को टूटे मंदिर के अहाते के उन जुगलरत बरगदों की छांह में, नहीं मिला। बडे ग़ुंसाई की बाडी पे, पाकशाला के गोदामों में, वृन्दावन की गलियों में। पूरा महीना उसकी आंख बेनु गुंसाई को ढूंढती रही। नहीं मिला तो नहीं मिला। चैती माई ने उसके कलेजे में हूक डाल दी – ” चार दिन पीछे मल्लाहों को एक कम उमिर के मर्द की फूली ल्हास मिली थी, जमना के उस पार कांस के झाडों में अटकी।” दिनों – दिन नींद नहीं आई जया को। आग पे लोटती।

कमला जिज्जी का दिल नहीं माना – ” ऐसा भी अंधेर नहीं मचा कि छोकरे को ये पण्डा मरवा देंगे। इन पण्डा लोगों ने विधवा के साथ व्याभिचार को व्याभिचार कब माना, उसे तो ये उध्दार कहते हैं। एक छोकरे से डर जायेंगे क्या?वह सीधी पहुंच गई बडे ग़ुंसाई के पास। उन्होंने भी नजर चुरा कर चिढ क़र कमला जिज्जी से कहा, ” उस रांड के मारे हमने भिजवा दिया बेनू को नाथद्वारा, भाई के पास।”

कितने दिन वह दिया बालती रही रंगजी की देहरी पे कि, ” भगवान सच ही में नाथद्वारा गया हो बेनूमाधव, भले ना लौट के आये वहीं बस जाये पर जिन्दा रहे।”

जाने वाले लौटते कहां हैं? न समय लौटता है, न लोग। मौसम लौटते हैं, उनकी गंध लौटती हैं। गीत लौटते हैं और हवा की लहरों पर सवार हो स्मृतियां लौटा लाते हैं। न जाने कब जया अम्मा की आंखें मुंद गईं। सपनों में भी वही – केसरिया रंग, फूलों की महक, गेहूं के भुने बालों की गंध, रंगजी के मंदिर की गलियों में बहता रंग – गुलाल। उसकी सफेद धोती किनार पे चिपका रंग का एक कतरा, जुगलरत बरगद, एक सांवला – सलोना बहरूपिये का मोहक रूप! एक आवाज – ” ओ राधा प्यारी! ”
सपने ही में देखे यमुना की लहरों पर तैरते गेंदे के निर्जीव फूलजया माई की नींद उचट गयी, झटके से दोनों कम्बल छाती पर से उठा फेंके। बचपन में मां कहती थी कि छाती पर दबाव पडने से बुरे सपने आते हैं।
पर एक बात कभी नहीं समझ सकी जया माई कि  बेनु माधव फिर कभी भूल कर भी वृन्दावन क्यों नहीं लौटा?

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आज का विचार

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

आज का शब्द

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

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