वे सुबह – सुबह ही अपना थैला उठाए निकल पडे थे। थैला क्या था, भानुमति का पिटारा था। कई दिनों से पीछे पडी थी बीवी। सोचा, आज ही क्यों न एक पंथ दो काज ही हो जाएं। नए कलेक्टर साहब से भी मिल ही लिया जाए। मन में हल्की – सी आशंका कांपी, जैन साहब तो नेक इन्सान थे, खुद ज़मीन से उठ कर फलक पर पहुंचे थे, सो जमीन के आदमियों का गम समझते थे। ये नया बन्दा जाने कैसा हो?

उनका मुहल्ला जहां खत्म होता था, वहां से मुख्य चौराहे तक पहुंचने के लिए दो – ढाई किलोमीटर पैदल चलना होता है, फिर कहीं जाकर एक बडे बरगद के नीचे से बडे सुअरनुमा टैम्पू मिलते हैं, जो सीधे कलेक्ट्री पर उतारते हैं। बडे मियां बहुत दिनों बाद अपने घर से निकले थे, सो बादलों के जम कर बरसने के बाद निकली सूरज की साफ रोशनी आंखों को अंधा किए दे रही थी। उनके सघन बसे मुहल्ले में सूरज की रोशनी यूं भी खुले दिल से कहां पहुंचती है? रिक्शे लायक पैसे नहीं थे, चौराहे तक पैदल चलना मजबूरी थी।

कलेक्ट्री पहुंचते ही वे जैन साहब के पुराने पी ए से मिले और देर तक उनसे नए कलेक्टर से मिलवा देने का इसरार करते रहे।
” हमारे सुनने में आया है कि बुर्जुग, एवार्ड मिले कलाकारों को बीमारी – हारी में सरकारी सहायता मिलती है।”

” मेरी जानकारी में तो नहीं आई ये बात। एक सच्ची बात बताऊं खां साहब, ये जो कलक्टर साहब हैं, वो लोककला -वला की बात नहीं समझते। जवान हैं, तरक्कीपसंद हैं। उन्हें लगता है,सरकार से भत्ता पाते आए पुराने कलाकार, सरकार के लिए सफेद हाथी हैं। फिर भी आप जिद पे अडे ही हैं तो मिलवा देता हूँ। आज तीज के कारण कलेक्ट्री में उतनी भीड भी नहीं है। देखिए आपका काम बन जाऐ तो, मुझे भी सबाब मिल जाऐगा। आइए पर्ची बनवा दूँ।”
”खुदा तुम्हें महफूज रखे।”

भीड क़म होने पर भी उन्हें एक घन्टा कलेक्टर साहब के दफ्तर के बाहर पडी, प्लास्टिक की तीन, जुडी हुई लाल कुर्सियों पर पांच और आदमियों के साथ सट कर बैठना पडा।वे कमर में उठती टीस के कारण पहलू बदलते रहे, किसी तरह उन्हें बुलवाया गया। दफ्तर की सज्जा एकदम बदली हुई थी।
एकदम नई।

पुराना पी ए ठीक ही कहता था। जवान लौंडा – सा है यह तो। क्या ये सुनेगा उनकी बात?
”बैठिए चपरासी, इनका ये थैला बाहर ही रखो।”
”” चपरासी थैला लेकर चलने लगा, ‘ भाई संभाल कर रखना, नाजुक़ चीजें हैं।’
”जल्दी बताओ समस्या क्या है।” वह कंप्यूटर पर नजर जमाए – जमाए बोला। वे अटक – अटक कर अपनी समस्या बताते रहे। वह कंप्यूटर में लगा रहा। उन्हें लगा कि वह उन्हें सुन भी रहा है कि नहीं,  वे खामोश हो गए। तो वह उनसे मुखातिब हुआ।
” देखिए गफ्फार खां साहब, यही नाम है न आपका?” उसने चिट पर नजर डाली।”आपकी तीन महीने की रुकी पैंशन तो मिल जाऐगी, मगर इलाज का पैसा, या आर्थिक सहायता जैसा कोई प्रावधान हमारे जिले में अब तक तो नहीं आया है, न ही बजट में इतनी गुंजाइश है। क्या आपको पता है, इस जिले में आप जैसे बूढे, पैंशनयाफ्ता करीब तीन हजार कलाकार होंगे, जो राजमहल के गुणीजनखाने की शरण से निकल कर हमारी गरीब सरकार की झोली में आ गिरे हैं। ऐसे – ऐसे कलाकार, जिनकी बूढी, मरती हुई कलाओं का कोई नामलेवा तक नहीं। जिनके बच्चों तक ने उनकी कला को बेकार समझ के छोड रखा है। आज के तरक्कीपसन्द युग में कला के क्या मायने, वह भी राजा – महाराजाओं के जमाने की कलाएं। आप ही कहें आपके बच्चों में से कौन आपकी विरासत को आगे बढा रहा है? न सही बच्चा, है आपकी कला का कोई नामलेवा कोई चेला?”

मुंह उतर गया था, गफ्फार खां का। थूक गले में गटकते हुए बोले _

“ठीक कहते हैं साहब, कोई नहीं है हमारी कला का नामलेवा, न कोई बच्चा, न चेलावो जानते हैं, अहमक थे उनके बुजुर्ग़कला के लिए गलते रहे ताउम्र। उनकी नजर में हमारी ये कला गले पडी अधेड रखैल है। फिर भी आप कुछ दिलवा सकें हमारे इलाज के लिए सरकार से तोमेहरबानी”
”मैं ने कहा न कलाकारों के इलाज के लिए आर्थिक सहायता का कोई सरकारी प्रावधान नहीं है।  वैसे आपको हुआ क्या है?”

उन्होंने ठण्डे शब्दों में बीमारी का नाम बता दिया।
”ओहह! मेरे मातहत करीब सौ लोग हैं, कहें तो सबसे 10 – 10 रूपए चन्दा करा दूं।”
वे चुपचाप उठ गए कुर्सी से और सलाम करके बाहर चल पडे। उनकी देह एक बूढी सदी की तरह लग रही थीजो चुपचाप गुजर रही हो, बिना आहटों के। वे पुराने पी ए से नजर बचा कर कलेक्ट्री से बाहर आ गए। उन्हें आगे जाना था।

तीज का दिन था। हरियल, गुनगुनी आंच से भरा – भरा। शहर के गुलाबी परकोटे, गुलाबी भवन, दुकानें, मंदिर भीग कर नए से दिख रहे थे। बारिश की फुहार से सारा शहर भीग कर बस सूखा ही था, और हल्की धूप में एक सौंधी सी भाप छोड रहा था। खासा कोठी में पर्यटन विभाग वालों ने मेले का आयोजन किया था। देसी – विदेशी टूरिस्टों को आकर्षित करने के लिए, ये हर साल ऐसा मेला करते हैं। बहुरूपिए, भवाई, गैर, घूमर, भोपा – भोपी,कालबेलिया नृत्य करने वाले नर्तकों, मंगनियार और लंगा लोक गायकों की टोलियां की टोलियां राजस्थान के दूर दराज हिस्सों से जैसे यहीं आ जुटती है।

फिर पर्यटन विभाग के इन मेलों में ‘पैसा’ बहुत बडा आकर्षण होता है लोककलाकार के लिए। सरकार से पैसा तो मिलता ही है, लोगों से बख्शीश में रूपया तो रूपया, कभी – कभार ‘डालर’ भी मिल जाता है। तफरीह होती है सो अलग।

खासा कोठी के मेहराबदार द्वार पर ठुमकने वाले घोडे अौर ऊंट, सवारी कराने वाले हाथी ऐसे झूम रहे थे कि जैसे किसी रावले के कुंवर का विवाह ही होने जा रहा हो। रंगीन साफा बांधने वाले, मेंहदी लगाने वाली लुगाइयां, घेवर बेचने वाले, कोल और पेन्सिल से महलों – बावडियों के रेखा – चित्र बनाने वाले, छायाकार, टूरिस्ट गाइड, पर्यटन पर निर्भर रहने वाले बहुत से व्यवसायों के लोग आ जुटे थे। एक हरे – भरे कोने में औरतों के लिए नीम के पेड क़े ऊंचे मोटे मजबूत तने पर झूला डाला गया था। उसे गेंदे के फूलों से सजाया था, जिस पर कसूमल घाघरों – और हरी – पीली लहरिया की ओढनी ओढे औरतें पींगे बढाती हुई लोकगीत गा रही थीं।
_ म्हारी बनी ने झूलन दीजो, बना छैल भंवर सा

मेला पूरे उफान पर था, शहर के ऊंचे तबके के लोग भी खिंचे चले आए थेउनमें कुछ मंत्री व उनके परिवार, व्यवसायी, शाही परिवारों के  रिश्तेदार, कुछ विशिष्ट विदेशी मेहमान प्रतीत हो रहे थे। खासा कोठी के बगीचे में छतरियों के नीचे धूप सेकते हुए, अलग – अलग समूहों में बैठे थे और ठण्डी बियर का आनन्द ले रहे थे, क्योंकि राजमहल से निकलने वाली तीज माता की सवारी यहां से भी देखी जा सकती थी। मगर वे मेले की चहलपहल से दूर खासाकोठी के लॉन में बैठे थेलोक – कलाकारों और मध्यमवर्गीय मेला – दर्शकों से कुछ हटकर। यह जताते हुए, जैसे कि वह मेला मध्यमवर्गीय लोगों और देसी – विदेशी सैलोनयों के लिए है, उन्हें यह सब देखना होता है तो वे व्यक्तिगत तौर पर अपनी हवेलियों या बंगलों में लोककलाकारों को बुलवा कर आयोजित करवा लेते हैं। खासाकोठी के कर्मचारी अतिरिक्त सौजन्यता से उनकी आवभगत में लगे थे।

एकाएक इन सभ्रान्त लोगों के एक समूह के बीच से शोर उठा। ” अरर हटभग यहां से। नहीं चाहिए ये सब। उठती है कि ”

अचानक रंग में भंग डालने को, उन के बीचों – बीच एक मोटी, गाडियालोहारन, अपने पीले दांत दिखाती हुई, चिमटे, दरांती, खुरपी बेचने चली आई थी। कत्थई और काला, टखनों तक उंचा, फटा घाघरा पहने इस औरत का मोटा पेट बाहर को निकला था। वह रह – रह कर अपनी जांघे खुजाती और घाघरा उठा लेती। इन लोगों को जुगुप्सा होने लगी वो उसकी गन्दी वेशभूषा से घृणा कर रहे थे। कभी वह किसी संभ्रान्त व्यक्ति से सोफे पर सट कर बैठ कर खुरपी खरीद लेने की गुजारिश कर रही थी, कभी एक अंग्रेज महिला के सामने जमीन पर बैठ कर हाथ चला – चला कर मोलभाव कर रही थी। डरा – धमका कर भगाए जाने पर भी वह उठ कर भद्दी कामुक मुस्कान देती, भारी छातियों को हिलाती, चोली ठीक करती हुई, उनसे सामान खरीद लेने का इसरार करती रही।

” ऐऽ जाती है कि बुलाएं पुलिस को। आयोजकों से शिकायत करो मेले के नाम पर कैसे – कैसे लोगों को सीधा ऐसी जगहों में घुसने देते हैं, कोई सुरक्षा – व्यवस्था है भी कि नहीं।ये पुलिसवाले बैठ के बस नाच ही देख रहे हैं क्या?” एक अधेड व्यक्ति चीखा।

इस पर वह अपनी मोटी आवाज क़ो दुगना ऊंचा करके चीखने लगी और अपनी भाषा में इस आशय में विलाप करने लगी कि ”बुला लो, बुला लो पुलिस को यहाँ इतने बडे – बडे लोग हैं, हमारी दशा पर तरस खाने वाला कोई नहीं, अरे! ये नहीं बेचूंगी तो शाम को चूल्हा कैसे जलेगा, मेरे सात बच्चे और दो – दो शराबी पति खाएंगे क्या। नेता और बडे – बडे अफसर मजे क़र रहे हैं और हम जैसे गाडियालोहार लोग भूखे मर रहे हैं।”

 

शोर सुन कर राजस्थान पर्यटन विभाग का एक वरिष्ठ कर्मचारी लगभग दौडता हुआ चला आया। आते ही उस गाडियालोहारन को देखकर मुस्कुराने लगा। उस मोटी गाडियालोहारन के अश्लील और बेहूदा व्यवहार से क्षुब्ध लोगों को गुस्सा आ गया। ” आप हंस रहे हैं? ”

” बात तो हंसने की ही है ना, सर।”
”घणी खम्मा हजूर। आप पहचान गए।” अब तक गाडियालोहारन सौजन्यता पूर्ण मुस्कुराहट देकर इन महाशय को अभिवादन कर रही थी।

सभ्रान्त स्त्री – पुरुषों का वह समूह हैरान – परेशान सा उन महाशय का मुंह देख रहा था।

”सर ये, हमारे राज्य के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त ‘बहुरूपिया’ कलाकार गफ्फार खां हैं।”
एक ठहाका बुलन्द हुआ और गफ्फार खां अपनी गुस्ताखी के लिए क्षमा मांगने लगे। उन्हें उनके स्वांग के लिए सबसे बहुत प्रशंसा मिलने लगी, जिसे वे झुक कर स्वीकार करते रहे।

आज बहुरूपिया कला लगभग विलुप्त प्राय: है। उत्तरभारत के अधिकांश राज्यों में यह कला कभी समाज का अहम् हिस्सा हुआ करती थी। लोगों के मनोरंजन और कला के जरिये जीविकोपार्जन करने वालों के लिये आय का साधन थी। आये दिन मुहल्लों में कभी कोई पुलिस – चोर चले आ रहे हैं, अपने मजेदार सम्वादों के साथ, कभी सेठाणी से सडक़ पर पिटता सेठ, कभी नर्तकी, तो कभी डॉक्टर तो कभी नेता, कभी मोटी लडाक भटियारिनकभी दरवेश तो कभी शिव या हनुमान बन ये कलाकार कुछ पैसों या दो कटोरी आटे के बदले घर के काम – काज से ऊबी गृहणियों के लिये, गली या मोहल्ले के चौक में ही मनोरंजन जुटा देते थे। खिडक़ी से झांक या गलियारों, अहातों, छतों पर आ कर वे कुछ पल हंस लिया करती थीं और दान का पुण्य भी उठा लिया करती थीं। ये उस जमाने के नुक्कड नाटक हुआ करते थे जिनमें समाज प्रतिबिम्बित हुआ करता था।

पांच सौ रूपए की बख्शीश पाकर गफ्फार खां संतुष्ट हो गए। कलाकारों को बख्शीश देना राजस्थान के सभ्रान्त वर्ग की परंपरा रही है। बख्शीश की गुनगुनी आंच में सामन्तवाद की बू जाने कहां बिला
गई।  ‘खम्माघणी हजूर, आप लोगां री दया सूं ई म्हारी कला जीवती है, दस साल पैले ‘राष्ट्रपति सम्मान’ देवा रे बाद, कोई चिडि रो पूत पूछवा कोनी आयो के गफूरिया थूं जीवतो है कि मरी ग्यो। आज के मैंगाई रे जमाना में 300 रूपिया महिना री पिंशन सूं कांई व्है?’

बूढे लोककलाकार गफ्फार खां की इस बात से कुछ लोगों के मुंह बन गए, बियर का नशा उतर गया और बढिया खाने का स्वाद कसैला हो गया। मगर वे अपने में मगन मेले की रौनक की तरफ बढ ग़ये।

दोपहर बीत चली थी, वे घर से लाए एक स्टील के टिफिन में रखे परांठे और सब्ज़ी खाने लगे। धूप में तेजी आ गई थी। उनके मेकअप की मोटी परत में दरारें पडने लगी थीं। वे मुंह धोना चाहते थे मगर

” आठ सौ रूपिया टूरिश्ट डिपार्टमिन्ट से, पांच सौ ये, अभी तो मेला जमा है। अंग्रेज़ भी हैं, थोडा और जुड ज़ाए” मन ही मन वे हिसाब लगाते हुए, वे धीरे – धीरे एक तम्बू में रखे अपनी पोशाकों के थैले की तरफ बढे। थैला पुराना था, उसमें रखी पोशाकें उससे भी पुरानी। कुछ तो अब जिस्म पर अंटती  ही नहीं। उन्होंने तम्बू में लगी ओट के पीछे जाकर कपडे बदले। मेकअप बदला सब कुछ महज पांच मिनट में। अबकि वे अधेड महिला कान्स्टेबल बन कर डण्डा घुमाते हुए कुछ कॉलेज के युवाओं के झुण्ड की तरफ बढे  ” ए, इधर लडक़ी – वडक़ी नहीं छेडने का समझे। मैं कमला कानस्टेबल। लडक़ी छेडी तो अन्दर। उन्होंने अभी स्वांग की भूमिका रची ही थी कि तेज रफ्तार गाने का शोर उठा, सारे युवा उधर को खिंच गए। जरा से लोग खासा कोठी के चौक में खडे उकताए से उनका स्वांग देखते रहे फिर वे भी इधर – उधर हो गए। वे अकेले ठिठके – से खडे रह गए। फिर उधर ही बढ ग़ए जहां भीड थी।

कालबेलिया नर्तकों के टोले की दो छोटी लडक़ियां अपनी अद्वीतिय लचीली, विद्युतीय तेजी वाली घेर – घुमेर से दर्शकों को आकर्षित करने में लगीं थीं। गैर नृत्य में डण्डों का एक साथ ताल में उठना, बजना, घूमर में घूंघट डाले औरतों का एक घेरे में घूमना, भवाई नर्तक का मटकों के ऊपर मटके रख कर कील पर चलना भी दर्शकों को रोक कर नहीं रख सका। वे कालबेलिया नृत्य करती इन लडक़ियों की लचीली देह के, तेज रफ्तार नृत्य के साथ – साथ अंखडियों और दांत के नीचे दबे होंठ के लास्य में आ उलझे। पीछे को झुक कर दोहरी होकर एक साथ सौ चक्कर घूम जाती ये लडक़ियां मानुस नहीं नागिन की संताने लग रही थीं। ‘अररर र इंजण की सीटी में म्हारो मन डोले चल्ला चल्ला रे डलैवर गाडी हौले होले।’

बढती भीड क़ो देख कर एक मुख्य नर्तकी उठी। उसने अपना घाघरा झाडा। नाडे में लगे आईने के टुकडे में झांक कर ओढनी से आंखें साफ कीं, होंठों पर जबान फिराई। गाल पे लटके बालों में उंगलियों से घूंघर लपेटे। कुर्ती में नीचे भीतर हाथ डाल कर कांचली नीचे खींची। उसकी इकहरी – पतली लचकदार देह पे सजा था, काला, खूब घेरदार घाघरा, जिसकी घेरदार परतों में बीच – बीच में लाल, नीली, पीली और रूपहले रिबन से गोट लगी थी और लगे थे,गोल – गोल शीशे। काली कुर्ती, कुर्ती के भीतर काली ही कांचली, काली ही रूपहली गोट वाली ओढनी, चौडे माथे पे सर्पिलाकार काली बिन्दी, काली कजरारी मोटी आंखे, गहरे कत्थई मोटे, गोल, भरे – भरे होंठ। गोल छोटी नाक और देह की जैतूनी रंगत। मानो उसकी यह जैतूनी रंगत ही उसकी बहुमूल्य पोशाक थी और उसकी देह का लास्य उसका बेशकीमती गहना। उसने रंगीन छोटे मोतियों के सस्ते जेवर, नाक में चांदी की नथ पहनी हुई थी। चेहरे पर बहुत से गोदने थे, उसकी बडी आंखों की कोरों पर भी तीन नीले फूल गुदे थे। उसकी देह से, उसके खडे होने के ढंग से अद्भुत नर्तकी होने की महागाथा फूटने लगी। हर अंग – अंग ऐसे कंपन से भरा कि सभ्रान्त औरतों की संजीदगी उसके आगे पानी भरे।

पुंगी और खंजडी लेकर एक अधेड और एक किशोर संगत कर रहे थे और दो कालबेलिया लडक़ियां गा रही थीं, एक गाना खत्म कि दूसरा शुरु — रे काल्यो कूद पडयो रे मेला में सायकल पंचर कर लायो

‘म्हारो अस्सी कली को घाघरो’ की टेक के साथ वह मुख्य संपेरन नर्तकी उन दो लडक़ियों के बीचों – बीच जा बैठी, पहले घुटनों के बल बैठ कर ओढने का घूंघट बना कर गुडिया की तरह अपनी गर्दन जल्दी – जल्दी मटका कर देखने वालों पर मुस्कान भरे कटाक्ष फेंकने लगी। फिर जैसे ही गाने की लय तेज हुई, उसने एक तरंग के साथ जिस्म लहराया और  हाथ फैला कर पीछे को झुकती हुई घूम गई। उसके घूमते ही उसकी गर्दन रबर की गुडिया की तरह पलट कर दूसरे कंधे पर आ टिकी। एक जादू – सा हुआ। उसके पैर और गर्दन समानान्तर एक लय पर घूमते हुए एक चाप बना रहे थे, कमर और हाथ उसी लय की द्रुत ताल पर, समानान्तर। पूरे नृत्य के दौरान लय और ताल का सम्मोहक सम्मिश्रण और बीच – बीच में आंखों और मुस्कान का विलास, जब वह दांत खोल कर मुस्कुराती तो दांत में जडी सोने की कील चमकती। जब वह नैनों की कटार साधती, आदमी तो आदमी औरतों के कलेजे हुमक उठते। लोगों के रौंगटे खडे हो जाते। एक अमरीकी ने अपने दोस्त को अपना हाथ दिखाते हुए कहने लगा _ ” लुक गूज पिंपल्स।”
सच में गोरे के हाथ के सुनहरे रेशे खडे थे और त्वचा के रोम उभर आए थे।

वह हर चक्कर के साथ केंचुल छोडती नागिन – सी लग रही थी। केंचुल! जिसमें से वह एक नया, मारक रूप लेकर बाहर निकलती। सम्मोहक। हद तो तब हो गयी जब उसने हंसते हुए अपनी अनामिका उंगली से चांदी का छल्ला उतारा और घास उगी जमीन पर रख दिया। घूम – घूम कर चक्कर खाते – खाते, वह पैरों को एक फासले पर जमा कर खडी हुई और ताल के साथ ठुमकते हुए देह को पीछे को झुकाने लगी, यहां तक कि गर्दन उसके पैरों से जा लगी, मगर उसकी देह इस दोहरी अवस्था में भी ताल पर थिरक रही थी। अब वह और झुकी, पहले गर्दन ज़मीन के समानान्तर थी, अब माथा जमीन को छू रहा था, उसने थोडा और अपने शरीर को धनुषाकार झुकाया और अपनी लम्बी – लम्बी पलकों से वह अंगूठी उठा ली। तालियों की गडग़डाहटों से खासा कोठी गूंज उठी। बाकि दो लडक़ियां अपना नाच रोक कर डफ उठा कर भीड से बख्शीश मांगने लगीं, खुश होकर लोगों ने बहुत से पैसे उस डफ में भर दिए। एक विदेशी छायाकार जो पूरे नृत्य को शूट कर रहा था, उसने सौ डॉलर का नोट उसमें डाल दिया।

गफ्फार खां मन ही मन कुढ ग़ए। ये साली कालबेलिया, खानाबदोश औरतें आज लोककला के आकाश पर हैं और हम जैसे धूल चाट रहे हैं। मगर खुदाकसम, नाच सच में कमाल था। गफ्फार खां को अपने बीते हुए दिन याद आ गए। क्या मजमा जमता था, जब वे शहर की प्रमुख रामलीला के मंच पर नाचते थे। ‘कंकरिया मार के जगाया, हाय वो मेरे सपनों में आया, बालमा तू बडा वो है” तब के मुख्यमंत्री साहब को तो यकीन ही नहीं हुआ था कि वह औरत नहीं, मर्द है, वह भी दो बच्चों का बाप। उन्हें बुलवा कर इनाम दिया और कहा था _” शाबाश, गफूरिया।”
वह होंठ का कोना दबा कर मुस्कुराते हुए अपनी अनामिका में डला छल्ला घुमाते हुए हंस दिये थे।

उन दिनों एकदम खुलता हुआ रंग हुआ करता था उनका, उस पर मेकअप की वो – वो बारीकियां जो उनके उस्ताद उन्हें सिखा गए थे। उनके उस्ताद ने कभी ‘लक्टाकलमान'( लेक्टोकैलेमाइन) या ग्लीसरिन और जिंक का मिक्सचर नहीं लगाया था, हमेशा मुल्तानी – मिट्टी, चन्दन का ही बेस लगाते थे। गाल पर लाली की जगह गुलाब – हल्दी से बना पावडर मलते, काजल और भवें सलाई से रचाते। लिप्सटिक की जगह अखरोट की छाल मलते। हालांकि खुद उन्होंने जिंक और ‘लक्टाकलमान’ और तरह – तरह के रंग अपना लिए थे धीरे – धीरे, क्योंकि पुराने तरह के श्रृंगार में मेहनत बहुत थी, पर सच पूछो चमडी ख़राब तो नहीं होती थी, इन नामुराद चीजों से बडी ख़ुजली होती है। लेकिन उस्ताद जब मरे तब भी उनका चमकता चेहरा, उनके अखरोट की छाल से रंगे होंठ और सुरमा लगी बन्द पलकें ह्न ऐसे लग रहे थे कि सेज पे सोयी सुन्दरी का कोई लम्बा स्वांग ही रचे जा रहे हों। उनकी मौत बडी क़लात्मक लगी थी उन्हें। उनकी यह कलाकाराना मौत उन्हें भीतर से तन्हा कर गई थी। उस्तादनी ने भी उनसे मुंह फेर लिया था, जैसे उनकी वजह से ही मौत हुई हो _ बात बहुत पुरानी है। उनकी मूंछ की रेखा बस सुरमई होने लगी ही थी।

स्वांग की कहानी तो ठीक से याद नहीं। उस्ताद ने प्रिविपर्स से उखडे हुए, राजनीति के माध्यम से किसी तरह सत्ता से जुडे रहने की जोड – तोड में लगे राजमहल के लोगों के लिए स्वांग रचा था _ ‘ रंगा सियार’। और उनकी हिम्मत तो देखोऐन नाक के नीचे राजमहल के द्वार के बाहर दिखाया वह स्वांग। एक रंगा सियार जो सियारों के झुण्ड से निकाल दिया गया है, नील के कुण्ड में गिरकर वह पूरे जंगल नेता बन जाता है।

जाने कैसे, कब वह स्वांग, राजमहल के मर्म में जा बिंधा कि,  दीवान जी ने बुलवा भेजा उन्हें नजराणा देने के लिए। एक दरबान उन्हें जाने कहां, भीतर को लिवा ले गया, वे राजमहल के बारले गेट की खिडक़ी के पास इंतजार करते रहे, दुपहर बीती, शाम बीती, रात ढलने लगी तब एक मांस का लोथ उसी गेट की खिडक़ी से टपका ‘ लद्द ‘। उसने ठण्डी होती उस देह को पलटा तो देखा _ उस्ताद!

नीले रंग के मेकअप की वजह से देह की नीलें तो दिखी नहीं पर सफेद, खादी के कुर्ते पर छलछलाते खून ने सारी दासतां कह दी। सांस उखड रही थी। वह उन्हें उठाने लगा तो, महल के परकोटों से सफेद गांधीटोपी कटी पतंग की नाईं उडती हुई जमीन पे आ गिरी। उसे उसने वहीं छोड दिया।वह उन्हें खण्डहर हो चुकी ग्वाडी तक लाया, वह ग्वाडी राजमहल के गुणीजन खाने से भत्ता पाते लोककलाकारों को रहने के लिए मिली थी। उस ग्वाडी में करीब पचासेक घर होंगे मगर सबको सांप सूंघ गया, राजमहल की इस बेरुखी पर। सबने अपने दीमक खाई लकडी क़े गोखडे बन्द कर लिए।  उसने उस्तादनी की बांहों में थमा दी अपने उस्ताद की छरहरी, लचीली देह। तीन दिन तक उन दोनों ने जी – जान एक करके सेवा की, ग्वाडी क़ा वैद बहुत बुलावे भेजने के बाद भी नहीं झांका। उस्ताद की मर्ूच्छा नहीं टूटी तो नहीं ही टूटी। उस्ताद की चलती – उखडती सांसो के बीच उस्तादनी और उसकी खामोशी एक चादर की तरह फैली थी। तीसरी रात खामोशी और खला का जादू टूटा। उस्ताद  मुस्कुराएआंखें मूंदे – मूंदे। अखरोट की छाल से रंगे होंठों में से प्राण मुस्कान बन कर, रेज़ा – रेजा, कपास के फाहों की तरह उडक़र कस कर बन्द किए गए गवाक्षों की दरारों से बाहर को तैरने लगे, उनके बदले एक मलिन, स्यापा करती हुई चांदनी भीतर को तैर आई थी। एक स्वांगीली सी मौत। वाह! उस्ताद वाह!

चुपचाप उस्तादनी ने अपना सजीला, सुहागन वेस बदल लिया, सफेद स्यापा करती चांदनी का बेस धर लिया। आधी ही रात उसकी बांह पकड क़े ठण्डी आवाज में कहा था, ” अब तू मेरा बेटा नहीं, न मैं तेरी मां। लौट जा जहां से आया था।”
अह्ह!

‘गफूरिया’! हां, उन दिनों उन्हें सारा शहर इसी नाम से तो जानता था। तब शहर का फैलाव इतना थोडे ही ना था। गुलाबी शहर, गुलाबी परकोटों के भीतर ही भीतर बसता था।उनके रचे गए स्वांगों पर भीड ज़मा हो जाती थी, वह हंसाते थे और लोग हंसते थे। गणगौर की सवारी में वह कभी शिव जी का रूप धर कर लुगाइयों में घुस जातेकभी मोटी सेठाणी बन कर सर पे चरी उठाकर मटक – मटक कर चलते। कोई जनी बुरा नहीं मानती। महिलाओं के लिये वह बहुत मजेदार विषय थे। कभी कपडाें की दुकान पर स्लैक्स – कुर्ता पहने, कभी पार्क में अम्ब्रैला घेर की मैक्सी पहन कर वे बैठे मिल जाते। लडक़ियाें में चर्चा रहती_ गफूरिया अपनी शॉपिंग बॉम्बे जाकर करता है।

शहर के नामी वकील ‘शौकत साहब’ साहब के घर की शादी हो कि नगर सेठ अम्बालाल जी सर्राफ के घर ‘कुंवर’ के जनम का समारोह, गफूरिया के ‘बन्ना – बन्नी’ और ‘जच्चा-बच्चा’ गीतों के बिना रौनक ही नहीं जमती थी। कुछ बुलावे राजमहल के भी आते मगर वे टाल जाते।

”सलाम वकीलनी साहिबा। हाय अल्लाह! जरा देर हो गई, अभी गीत शुरु तो नहीं किए ना!” उनकी ढोलक पर जो खूबसूरत संमां बंधता कि पूछो मत। नाचने में तो उनके आगे फिलिम की हीरोईनें पानी भरती थीं, कभी वह बिछिया झुक के ठीक करते, कभी जूडे क़े पिन मुंह में दबा कर विग मेें बना जूडा ठीक करते। महिलाएं मुंह दबा कर हंसती तो, उनका भी दिल फूल सा खिल जाता। कभी सेठाणी ने कमी नहीं रखी बख्शीश में, न वकीलनी साहिबा ने हीलहुज्जत करवाई। जो मिला वह सलीके से ले लिया।

औरतें हंस के पूछतीं, ”गफूरिया, इतनी शानदार पोशाक कहां से बनवाई?” वे फिरोजी क़ामदार शरारे और जाली दार दबके की झीनी चुनरी को लहराते हुए कहते _ ” बाईसा, बॉम्बे में एक फिलम कंपनी में मेरा ममेरा भाई, डरेस वाला है, वही नए काट के कपडे बनवा भेजता है मेरे लिए। एकदम ऐसी डरेस तो साधना ने पहनी थी ना एक फिलिम मेंक्या नाम था”

एक बार बडा धरम संकट खडा होगया था, उस बार शहर में ‘कमला सर्कस’ आया था, जनाना अलग सीटों पर, मर्द अलग सीटों पर। बाप रे बाप। ऊंचे – ऊंचे बांस पर गोलाई में टिके लकडी के बैंच थे, ताकि सबको, हर तरफ से सर्कस पूरा नजर आए। बहुत नाम सुना था, सोचा पहले खुद देखलें फिर घरवालों को ले जाएंगे। वह ममेरे भाई से मंगाए, ‘जब जब फूल खिले’ की नंदा वाली पोशाक में थे। बैलबॉटम और टॉप और बालों के विग में एक फूल। इठला कर चलते हुए वे कॉलेज की लडक़ियों के बगल में जा बैठे। लडक़ियां चीखने लगीं तो पुलिस वाले आ गए ” गफूरिया, कहीं और जाके बैठ।”
तो वे हैरत से बोले।
”उई, दरोगा जी, तो क्या मुए मर्दों में जा बैठूं?” लडक़ियां खिलखिला के हंस पडीं। मगर उन्हें उठ कर मर्दों में जाना ही पडा   वहां अलग दुर्गत हुई। बीच में ही मर्दों को गरियाते हुए उठना पडा। आह! तब की बात ही अलग थी। उन गालियों का कौन बुरा मानता था, गफूरिया ‘स्टार’ था शहर का, गफूरिए के बिना हर समारोह सूना।

आज कहां वह इज्जत और पहचान। शहर के बडे – बूढे तक उन्हें भूलने लगे हैं। वो तो सरकारी रजिस्टरों में आज भी उनका ‘ए’ ग्रेड कलाकारों की जमात में नाम दर्ज है, सो सरकारी आयोजनों का बुलावा कभी आजाता है, कभी नहीं भी आता। राष्ट्रपति का प्रशंसापत्र, आज भी उनके घर की बैठक की सामने वाली दीवार पर मय फोटू मढा हुआ लगा है। भले ही उस दीवार पर और उस तस्वीर पर वक्त अपने मसखरे निशान छोड ग़या हो।

माज़ी के सुनहले ख्यालों के समन्दर से बाहर निकले तो, गफ्फार खां पर लगातार खडे रहने के कारण थकान हावी होने लगी थी। बरसात के बाद की तीखी धूप में, ग्लिसरीन – जिंक़ की मोटी परतों का मेकअप तडक़ गया था और खुजली पैदा कर रहा था। गिलट के जेवर अब चुभ रहे थे। कंधे पर भारी बैग लटका कर मीलों चलने से बाजू और टांगें दर्द कर रहे थे। उन्हें शिद्दत से महसूस होने लगा कि अब घर चला जाए।  अभी पहले कपडे बदलने होंगे, घर पहुंचे तक नमाज क़ा वक्त भी हो जाऐगा। घर पर बुढिया इंतजार करती होगी। वे लोक कलाकारों को अलॉट हुए तम्बू के भीगे हुए कोने में पहुंचे। जहां उनका थैला रखा था। उन्होंने कांस्टेबल वाली पोशाक उतारी,  ज़मीन पर पडा सीलन की बदबू भरा, गाडिया लोहारन वाला जामा समेटा और कुर्ता – पायजामा पहन लिया। पानी की बोतल से मुंह धोया, पुराना सडा – गला विग उतार कर, मेंहदी लगे खिचडी बालों को बुरी तरह खुजलाया। फिर बालों में गीला हाथ फेर कर, थैला उठा कर धीरे – धीरे खासा कोठी के मेहराबदार गेट की तरफ बढे। क़ालबेलिया औरतें अब भी नाच रही थीं। बाहर से आए कलाकार अब सामान समेट रहे थे। तीज माता की सवारी आते ही सारी भीड बाहर को उमड पडेग़ी और सब उसके पीछे – पीछे रंगीले हाथियों की धज देखने स्टेडियम की तरफ बढ ज़ाएंगे। खासा कोठी का मेला उठ जाऐगा, साल भर के लिए। भगदड मचे उससे पहले वे चल पडे। ज्यादा दूर नहीं है उनका घर, बस पांच किलोमीटरमेले की कमाई के उछाह में वे सुबह तो चौराहे तक पैदल चले आए थे, मगर अब लगता है रिक्शा करना पडेग़ा। उन्होंने पजामे की जेब पर हाथ फेरा तेरह सौ रूपए और फुटकर दो – पांच के नोटों की एक मोटी परत उन्हें आश्वस्त कर गई। बुढिया का जीव राजी हो जाऐगा। उन्होंने रिक्शा रोका और बैठ गए।

जब वह उसे निकाह करके लाये थे, तो कितनी नकचढी थी वह।
”तुम्हारे अब्बा ने हमारे अब्बा को नहीं बताया यह सब? बताया होता तो”
” तो निकाह कुबूल नहीं करतींबोलो”कह कर वे उसकी कलाई मरोड देते।

”तुम्हारे खानदान में तो कोई ये सब नहीं करता? तुम क्यों करते हो?”
”बेगम, हम मुसलमान ढोली हैं, जैसलमेर की तरफ के। हमारे अब्बा भी कलाकार हैं, ‘सवाई मांदळ’ बजाते थे, रजवाडों में। उनके ही एक खास हिन्दु दोस्त थे, ‘मांगीलाल जी भाण्ड’, वो मेरे उस्ताद हैं। उनके औलाद नहीं थी। उन्होंने हमें मांग लिया था गोद, हम उन्हीं की कला को जिन्दा रखे हैं। वो होते तो हमारा ब्याह हिन्दु लडक़ी से, हिन्दु रवायतों से होता। वो जल्दी मर गए तो अब्बा हमें लौटाल लाए।”

” हट झुट्ठे, तुम्हारा तो सुन्नत हुआ है।”

उसे कतई पसंद नहीं था, उसका दिन में दो – दो बार दाढी छीलना, श्रृंगार करना। बहुरूपिये तमाशे करना। कहीं से भी लौटती, तो बुरका उतारती जाती और भुनभुनाती जाती _ ” औरकितना जलील करवाओगे हमें? आज तुम सायकिल पे बेलबॉटम पहने, लाली – पौडर लगाए, जौहरी बाजार में क्या तमाशा कर रहे थे? हमारी फूफी तुम्हें देख के जो हंसीताने सुनाए वो अलग।लिल्लाह, हमारे मैके टौंक तक में तुम्हारे भाण्डपने के चर्चे पहुंचने लगे हैं।”
”बस करो बेगम, मुंह न खुलवाओ। मैके के नाम पे एक कुठरिया को रोती हो जिसमें अपनी सात – सात बहनों के साथ नमक का पानी पीकर, पेट पर कपडा बांध पड रहतीं थीं तो ठीक था। अब पेट भर मिलने लगा है तोजबान खुलने लगी है। पूरे सात हजार दिए थे अब्बा ने तुम्हारी अम्मा को, हमारे निकाह के लिए। जिस कलाकारी पे लानत भेजती हो, उसी कलाकारी के चलते पूरा कुनबा चलता है। पूरा शहर वाकिफ है हमसे, मुहल्ले में जिस किसी का काम अटके वह हमीं को पकडता है।”

” कुनबा तो जस – तस चलता है जी, आधा तो तुम्हारे अपने जेवर, कपडाें, मेकअप का खर्चा है। सही कहती है सकीना कि तुम तो सौ लुगाइयों की एक लुगाई हो। किसी को पता न हो कि तुम शादीशुदा और तीन बच्चों के बाप हो तो तुम्हें  वही समझे।” वह ताली बजाती कि उसके मुंह पर झन्नाटेदार झापड पडता। बडे दिनों तक घर में जंग चलती, बच्चे सहमते। अब्बा झुंझलाते। फिर वही झक मार कर समझौते की मुद्रा में आते _ ” तुम जरा सी बात नहीं समझतीं कि अब जब इत्ती दूर निकल आया हूँ तो मुश्किल है वापसी। अम्मी – अब्बू नहीं लौटाल सके हमें अपने उस्ताद की कला की गोद से तो तुम क्यातुम क्या जानो पुराने जमाने में उस्तादों का अपने चेले पर बाप से ज्यादा हक बनता था। हम मुसलमान होकर भी भाण्ड पहले हैं। फिर भी तुम एक बहुरूपिए का साथ नहीं निभा सको तो आजाद हो वैसे बेगम जमाना ही बहुरूपिया है, हरेक आदमी एक स्वांग रचे बैठा है।” जाने वह उनकी कितनी बातें सुनती, कितनी दूसरे कान से निकालती। पर सच तो यह था कि न उसे कहीं और ठौर था, न ही खुद इन्हें।

 

भाई – भाभियों को भी नहीं भाता था, उनका स्वांग, उनकी भाण्डगिरी, सो दीवारें खिंच गई थीं। पिता को गुणीजनखाने से मिली थी, ये जर्जर हवेली। छोटे – छोटे दो – दो कमरे और दालान सबके हिस्से आ गए थे। जब अम्मा चल बसी तो अब्बा उन्हीं के साथ रहते रहे, फिर कुछेक सालों में वो भी अल्लाह को प्यारे हो गए। जो मुहल्ला पहले उस पर हंसता था, वक्त बीतते – बीतते उसकी इज्जत करने लगा। सब जान गए थे, गफ्फार भाई, गफ्फार बेटा, गफूरिया चाचा एक सोने का दिल रखते हैं। सबके सुख – दुख में शरीक रहते हैं। बाहर कोई भी भेस धरें, मुहल्ले में वे लुंगी – कुर्ते में नजर आते।

रिक्शे पर बैठे वे वक्त की करवट को महसूस कर रहे थे। जब से वह सुबह कलक्टर साहब के दफ्तर से लौटे है  ‘तरक्की पसन्द’ शब्द उनके जहन में ऐसे जा अटका है, जैसे गोश्त का रेशा दांत में जा फंसता है और जीभ में उसे बार – बार छूकर निकालने की कोशिश में ऐंठन पड ज़ाती है।
”हं खाक तरक्कीपसन्द हुए हैं लोग? यह तरक्कीपसन्द वक्त पहले के वक्त से कहीं सडा – गला है। पहले से ज्यादा कट्टर हो गए हैं, आज के लोग। पहले दो कट्टर झुण्डों में दंगे हुए, मारकाट हुई कर्फ्यू लगा जेलें भरीं, फिर सब शांत। शांति होते ही सब कुछ वैसा का वैसा। आम आदमी के दिल में दरार नहीं पडती थी। हिन्दु वैसे ही ताजियों में सुनहरी पन्नियां टांकते, मुसलमान कारीगर ‘कृष्णदेव मंदिर’ के राधा – कृष्ण के विग्रहों के लिए जरदोजी क़ी उम्दा पोशाकें तैयार करते। नवजवान कलेक्टर कहता था इस तरक्की पसन्द जुग में ‘कला’ का क्या काम? हां, उनके कटखने हो चले धर्मों और उनकी कडियल रवायतों को मुलायम न कर देगी ये ‘कला’। कला से नहीं, खुद के भीतर की मुलायम आस्थाओं से भाग रहे हैं ये लोग। कछुए हैं साले, धरम के कडे ख़ोल को सबकुछ माने बैठे हैं, जो मुलायम देह की परतों के बीच धडक़ रहा है, वह मन – प्राण क्या कुछ नहीं? उसी कोमल प्राण की सुनहरी गोट – किनार है, कला जिसकी आज के तरक्कीपसन्द जुग में जगह नहीं बची।

रिक्शा मुहल्ले के करीब पहुंचने को था _ पहले के मुकाबले उनका मुहल्ला भी बहुत बदल चुका है। पहले वहां से होकर कई गलियां दूसरे मुहल्लों को जोडती थीं। मगर अब यह मुहल्ला कटा – सा लगता है, दिन में भी दूसरी कौम के लोग मुश्किल ही इधर से गुजरते हैं। मुहल्ले के इकलौते शिव मंदिर का पुजारी जब से मरा है, वहां कोई चराग भी नहीं जलाता, वे चुपचाप हर शाम, अपनी नमाज क़े बाद मंदिर की देहरी पर उगे पीपल के नीचे चराग ज़ला जाते हैं। बरसों से यह नियम जारी है। मुहल्ले के लौंडे हजार बार धमका चुके हैं पर उनका नियम नहीं टूटता। बस एक जरा सी गलतफहमी, दस बरस पहले हुआ एक कौमी झगडा इतनी बडी दरार छोड ग़या है। वाईज (उपदेशक) वह कभी नहीं थेन हो सकते हैं। वे एक सच्चे कलाकार हैं, अपनी कला से ही संदेश दे सकते हैं। कितनी बार तो वे आधे कृष्ण, आधे दरवेश का रूप धरते हैं। कभी गांधी बनते हैं, कभी नेहरू तो कभी मौलाना आजाद। जब कोई नहीं समझता तो उनका मन बहुत छीजता है, जब उनकी औलादों ने नहीं सुनी तो दूसरों पे उनका क्या हक? दोनों बेटे उनकी ‘बहुरूपिया परछांई’ से जवान होते ही किनारा कर गए। बेटी का निकाह, बेगम की जिद के चलते उनके मायके की रिश्तेदारी में हुआ, तो वह भी सिर झुका कर अपने पिता के ‘बहुरूपिएपन’ के भद्दे मजाक सुनती हुई, नैहर से एकदम कट गई। अब बेगम लाख पछताएं, बेटी का मुंह टौंक जाकर ही देख पाती हैं। उसे यहां बहुत कम भेजा जाता है।

अचानक रिक्शा वाला रुक गया।

 ” आगे तक ले चल बेटा, वह जो गुलाबी हवेली है न, सरताज खां की … वहीं तो जाना है।”

” क्या बात करते हो काका, कौन सी गुलाबी हवेली गुलाबी रंग कहां बचा है, पूरे शहर में वह मटमैला हो गया है। वैसे यहीं उतर जाते तो ठीक था। मैं तो ले चलता आगे तक, पर जहां घनी बस्ती है, मज्जिद है वहां पहुंचते ही ईंट – भाटे पडते हैं। किसी ने भाटा मारा तो आपकी जिम्मेवारी होगी। पैले भी मजबूरी में एकबार यहां एक जनाना सवारी छोडी थी, पेट से थी। किसी छत से भाटा आकर गिरा, फेंका मुझ पर था लगा उस बिचारी के बाजू पे। मैं ने तो कोई जनेऊ नहीं लगा रखी। न गेरू – टीका, मैं ठहरा गरीब नीच जात का मजदूर, फिर वो कैसे मुझे हिन्दु समझ जाते हैं?”

”ये बात है, तो जाने दे बेटा। मैं पैदल ही चला जाऊंगा।” उनका मन पीडा से पक गया था। वे थैला उठाकर रिक्श से उतर पडे। एक बूढी सदी मन ही मन बुदबुदाते हुए आगे बढी ” क्या हो गया है, शहर कोलोग जमाने में आगे बढने की जगह पीछे को क्यों लौट रहे हैं? ये पत्थर नफरत के नहीं हो सकते। ये पत्थर शायद उस गुस्से के हों, जो हमारे हिन्दुभाईयों ने हमारी गलियों से खुद को काटकर इन लडक़ों के मन में बोया है। ये ईंटें उस डर की हों, जो शहर के बीचों – बीच रह कर, बाकि की दुनिया से कट जाने से उपजा है। बारह बरस पहले तलक  हमारी – तुम्हारी गलियों में लोग गंगा – जमना के पानी की तरह मिल कर बहा करते थे। अब वे इधर से होकर नहीं गुजरते हैं, हमने भी बाजार और शहर के बाहर जाने के लिए सुनसान, रास्ते अपना लिए हैं, जो लम्बे पडते हैं। रास्ते लम्बे उनके भी हो गए होंगे बेशक, वरना पहले कृष्ण मंदिर का सबसे छोटा रास्ता हमारे मोहल्ले से ही होकर जाता था। अब पता नहीं, उन्होंने कौनसी लम्बी नई गलियां खोज ली होंगी।”

बुढिया बाहर ही खडी थी। अपनी मिचमिची आंखों से उन्हीं का रास्ता देख रही थी। उन्हें पैदल थैला लटकाए आता देखकरखिल गई।
” आ गए, दाढी तो छील जाते, दीख रही है मेकअप की पपडियों में से। जवान थे तो दिन में तीन बार  बूढे हो गए हो, दाढी – बाल सफेद हो रहे हैं, मगर तुमसे मरा यह स्वांग नहीं छूटा!”
” स्वांग नहीं बहुरूपिया कला कहो”
” मेरे आला दर्जे क़े कलाकार, तुमने बात की, नए कलट्टर साब से, अपने इलाज की बाबत?” अन्दर जाते ही उसने पूछा।
”हां, पहले उधर ही गया था।”
”फिर?”
” फिर क्या,मिला उस नौजवान कलक्टर से भी। वो भाषण पिलाता रहा कि, इस शहर में आप जैसे हजारेक कलाकार होंगे, बूढे, पेंशनयाफ्ता। किस – किस की बीमारी का ठेका लेंगे। आपकी कला का वैसे भी कोई तो नामलेवा नही।”
 ”फिर?”
”एक बारगी हमारा मुंह छोटा सा हो गया। फिर हमने भी सुना ही दी _ ” ठीक कहते हैं जनाब, कोई नहीं है हमारी कला का नामलेवा, क्योंकि वो भी आपकी तरह जो सोचते थे कि, अहमक थे उनके बुजुर्ग़ कि कला के लिए गलते, कला जो गले पडी रखैल से ज्यादे कुछ नहीं थी उनके लिए।”
” सुनाते रहे या पैसे – रूपए की सरकारी मदद की बात भी की?
”की थी ना, कही कोई सरकारी मदद मिलती हो बुजुर्ग कलाकारों को तो दिलवा दें, मगर वो अपने दफ्तर के लोगों से चन्दा दिलाने की बात करने लगे तो हम चुपचाप सलाम करके चले आए।”
”बडा, कमीना था मुआ। चन्दा! चन्दा तो भीख ही हुआ न।”
” छोडो न, ये संभालो, पूरे चौदह सौ छप्पन हैं। ये चन्दे के नहीं हैं। स्वांग भरने के मिले हैं।
पैसों की एक छोटी सी गड्डी उन्होंने बेगम की मुट्ठी में थमा दी।
”कल ही तुम वर्मा डाक्टर के क्लीनिक चलो, इन रूपयों से अपना इलाज करा लो।”
”पैंसठ के लपेटे में आ गईं, पर रहीं बावली ही, कैंसर का इलाज इतने कम पैसे में होता है क्या?”
”……”
” अब हमारा मुंह न ताको। जाके चाय बनाओ, तब तलक हम नमाज पढ लें”
”या खुदाया, इनसे ये स्वांग कब छूटेगा?” बेगम झूठे – मीठे गुस्से से बोलीं।
”मरते दम तक तो नहीं।”
वे बुदबुदाए। उन्हें उस्ताद की खूबसूरत, कलाकाराना मौत याद आ गई।

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आज का विचार

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

आज का शब्द

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

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