नींद खुलते ही प्रज्ञा का हाथ रोज़ की तरह तिपाई पर रखे रेडियो के स्विच की ओर गया। गाना बज उठा –‘हम तुम्हेंक चाहते हैं ऐसे’……वो झट उठकर बैठ गयी। मुस्कुोराहट के साथ बुदबुदा उठी– ओफ़, तो आ गए जनाब रेडियो पर। ये गाना तो मेरे लिए बजाया जाता है। सांस रोके गाना ख़त्म होने और उसकी आवाज़ सुनने का इंतज़ार करने लगी। ऐसा अकसर होता है कि प्रज्ञा रेडियो…गाने सुनने के लिए नहीं लगाती, बल्कि अभय की आवाज़ सुनने के लिए लगाती है। इस मायने में वो रेडियो की सबसे अनूठी श्रोता है। ज़माना गाने सुनने के लिए रेडियो के साए में जाता है और इधर प्रज्ञा अपनी सबसे प्रिय आवाज़ के साए में जाने के लिए रेडियो का सहारा लेती है। आवाज़ के उतार-चढ़ाव से, सांसों की लय से और शब्दों की अदायगी से वो समझ जाती है कि आज अभय का मूड कैसा है। सेहत कैसी है। एक बार अभय बहुत ग़ुस्से में था, शायद किसी से झगड़ कर आया था और शो के दौरान उसकी पेशकश से पहचान गयी थी कि समथिंग इज़ रॉंग देयर। प्रोग्राम में किसी मुद्दे पर sms मंगवाये जा रहे थे। मुद्दे को नज़रअंदाज़ करते हुए उसने फौरन लिख दिया था–‘आप गुस्सेी में लग रहे हैं, बात क्यास है’। शायद उस दिन वो जज्बाती था। अपने मोबाइल से जवाब दिया–ओह, कैसे पता चला प्रज्ञा’। और फिर पर्सनल मैसेज़ की धारा चल पड़ी….
‘मैं तुम्हामरी आवाज़ से तुम्हा…रे दिल को पढ़ लेती हूं।’
‘चेहरे से दिल पढ़ते तो सुना था, ये कोई नई साइंस है क्याी’।
‘मैं लिफ़ाफ़ा देखकर ख़त का मजमून भांप लेती हूं’… और प्रज्ञा ने एक बड़ा-सा स्मााइली भेजा था।

‘मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे’…गाना खत्मै और आवाज़ आयी–‘हैलो गुड मॉर्निंग, आज मैं हूं आपकी दोस्तद प्रिया। मेलोडियस गाने सुनते रहिए एफ.एम. डायमंड पर।
‘उफ़ आज भी अभय नहीं आया रेडियो पर। आखिर उसे हुआ क्याफ है। कल ही तो रेडियो स्टेउशनफ़ोन किया था। पर रिसेप्शिनिस्टन ने उसके सामने सवालों की झड़ी लगा दी थी। ‘आप कौन हैं, क्यों बात करना चाहती हैं’ वग़ैरह। ये रेडियो स्टे शन के लोग भी बड़े अजीब हैं। किसी भी रेडियो-जॉकी से बात कराने से पहले इतनी जासूसी करते हैं, जैसे फ़ोन करने वाला कोई माफिया-डॉन हो।

प्रज्ञा ने आंखों तक बिखरे बालों को पीछे की ओर सरकाते हुए रबर-बैंड लगाया, तभी कॉल-बेल बज उठी। सामने सीमा खड़ी थी। कमरे में घुसते ही बोल पड़ी–‘ओह लगता है लैला के मंजनू रेडियो पर वापस नहीं आए। प्रज्ञा आइने में देख तूने अपना क्या- हुलिया बना रखा है, रात सोई नहीं ना।
‘हम्म । दो तीन बजे तक कुछ पढ़ती रही’
‘किताबों के साथ रही या रेडियो के साथ। अरे बाबा जब अभय की आवाज़ नहीं मिली तो रेडियो बंद करके सो जाती, सिंपल। क्यों झूठा इंतज़ार करती रही।’
‘सोने की बहुत कोशिश की पर नींद नहीं आयी। क्यां करूं। आइ थिंक अभय इज़ इन सम ट्रबल। वॉट्स-एप और फ़ेसबुक सब चेक कर रही हूं। वो वहां से भी ग़ायब है।’
-‘मोबाइल पर मैसेज किया क्या ‘।
-‘किया। फ़ोन भी किया। स्विच-ऑफ़ है। वैसे फ़ोन पर तो वो बात ही कहां करता है। फ़ोन करो तो फौरन मैसेज आता है, कांट स्पीैक, लीव मैसेज ऑन WA’।
-‘कल तू क्लास में उसी की वजह से अपसेट थी ना, लेक्चोर में तेरा ध्याफन नहीं था। कम ऑन प्रज्ञा, आइ एम योर बेस्टस फ्रैंड, इसलिए कह रही हूं–छोड़ ये रेडियो-वेडियो सुनना। पढ़ाई में ध्या्न लगा, लास्ट सेमिस्ट र है। और हां एक बात तू कान खोलकर सुन ले। ये फ़ेसबुक और वॉट्स-एप की दुनिया एक ऐसा मायाजाल है जिसमें एक बार घुसें तो बाहर निकलना मुश्किल होता है। ये एक सतही दुनिया है, जो चेहरा हमें दिखता है कई बार वो होता नहीं है। जब हम आमने-सामने उससे मिलते हैं तो जो इमेज हमारे मन में होती है, वो अकसर उससे उलट होता है। इसलिए डीयर पता नहीं असलियत में तुम्हाेरा ये रेडियो-जॉकी कैसा निकले।’

‘बस कर सीमा, ये काउंसलिंग अपने पास रख। वो ऐसा नहीं है, उसके मैसेजेज़ दिखाऊं तो तू भी पागल हो जायेगी। कितनी गहराई है उसमें। उसके बातों में जैसे जादू है। उसके अलफ़ाज़ जैसे सीने को चीर देंगे। जब वो सुहानी रात के नग़्मे प्रोग्राम पेश करता है, तो यूं लगता है जैसे वक्त थम जाए। प्रोग्राम कभी ख़त्मग ही ना हो, प्या र का ऐसा दरिया बहाता है वो।’


‘वो तेरे लिए नहीं, सभी सुनने वालों के लिए ऐसा करता है। जाने कितनी लड़कियाँ तेरी तरह आहें भरती होंगी उसके नाम पर’।

प्रज्ञा अपना टैबलेट उठाती है और पुराने मैसेज पढ़ने लगती है।
‘गुड मॉर्निंग’
‘अरे तुम भी इतनी सुबह जग गए’
‘हम्मत, तुमने ही तो जगाया’
‘मैंने?’
‘नींद में ही खु़श्बूह का एक झोंका आया। सामने तुम थीं।’
‘कैसी लग रही थी मैं, बताओ मैंने क्यान रखा था’।
‘नीली जींस, पिंक टी शर्ट’।
‘ओह गॉड….कल रात सचमुच मैंने यही कॉम्बि नेशन पहना था। अभय ऐसा कैसे होता है कि बिना मुझे देखे भी तुम सब कुछ देख लेते हो। यू नो, मुझे कभी कभी डर लगता है। तुम कोई जादूगर तो नहीं। जो अपनी आवाज़ के जादू के साथ-साथ दिल से भी जादू करते हो। मुझे कभी ऐसा लगता नहीं कि मैं तुमसे मिली नहीं हूं……………..अचानक कहां ग़ायब हो गये थे। मैं तो लगातार बक-बक किये जा रही हूं।’
‘हां बीच में एक पर्सनल मैसेज आ गया था। इसलिए व्हा.ट्स-एप नहीं देख पाया’।
‘क्याब लिखा था’।
‘कभी यूं भी आ मेरी आंख में कि मेरी नज़र को ख़बर ना हो/ मुझे एक रात नवाज़ दे कि उसके बाद सहर ना हो’।
‘ये तो बशीर बद्र का शेर है। मुहब्ब त से लबरेज़। तो यूं भी मरते हैं लोग तुम पर’
‘मुझ पे नहीं मेरे आवाज़ पे। मुझपे तो बस कोई एक ही है जो मरती है। मेरी बड़ी केयर करती है।’
‘अच्छाे कौन है वो’।
‘उसकी आंखें हैं कजरारी। इतनी बड़ी-बड़ी कि व्हाजट्स-एप से निकलकर बाहर आ जाएं। यूं कि जैसे….’।
‘लेकिन उसका नाम क्यार है’।
‘सुर-मयी’।
‘ये पुराने ज़माने के हीरो की तरह शायराना अंदाज़ में डायलॉग बाज़ी करना बंद करो। घड़ी की तरफ देखो, तुम्हाररे चहेते रेडियो श्रोता अपने प्रिय रेडियो जॉकी का इंतज़ार कर रहे होंगे। जनाब तुम्हाखरे शो का टाइम हो रहा है’।
अभय और प्रज्ञा के बीच इस तरह की चैट अकसर होती है। अभय के कार्यक्रमों के टाइमिंग के हिसाब से प्रज्ञा का सारा शेड्यूल निर्धारित होता है। अपनी दोस्तम मंडली के साथ कहीं सैर-सपाटे पर हो या शॉपिंग में हो, अभय के शो के टाइम से पहले वो हॉस्टेल के कमरे में दाखिल हो जाती है। कमरे की बिखरी चीज़ों को करीने से लगाती है। अपने लिए एक कप कॉफी बनाती है। ट्रांज़िस्टर को अपने बग़ल में बिठाकर सोफ़े पर बैठकर वो सुकून से अभय के प्रोग्राम सुनती है। रेडियो सुनते हुए प्रज्ञा अभय को अपने पास महसूस करती है। उसका कोई रेडियो-शो खुदा-ना-खास्ता बी-टेक की क्लाैसेस की वजह से छूट जाए तो वो उदास हो जाती है। अभय से इसरार करती है कि वो उसकी रिकॉर्डिंग व्हाबट्स-एप पर भेज दे। अभय भेजता नहीं, क्यों कि शो रेडियो पर लाइव प्रसारित होता है। प्रज्ञा भी ये बात जानती है।
इन दिनों तो आलम ये है कि प्रज्ञा कॉलेज में फ्री-पीरीयड्स में भी मोबाइल पर अभय के कुछ रिकॉर्डेड प्रोग्राम सुनती रहती है। फ्रैंड-सर्कल में इसकी ख़ासी चर्चा है। लोग मखौल उड़ाते हैं। पर प्रज्ञा को इसकी ज़रा-भी परवाह नहीं है। बक़ौल कॉलेज के दोस्तस, रेडियो सुनना मतलब बैकवर्ड होना। हम नये ज़माने लोग हैं। कम-ऑन यार, हम बीती सदी में नहीं जी रहे। गाने और शायरी तो वेस्टेमज ऑफ़ टाइम। और उसके बाद सीमा के लेक्चेर की घुट्टी….. कि मां-बाप ने हॉस्ट ल में हमें पढ़ने के लिए भेजा है, इश्क़द फ़रमाने के लिए नहीं। प्रज्ञा नए ज़माने की लड़की है, लेकिन शायरी और पढ़ने का शौक़ उसे मानो पुराने ज़माने से विरासत में मिला है।
‘उफ़, हद हो गयी। आज दस दिन हो गये, अभय की आवाज़ रेडियो पर नहीं आई। आखिर अभय ग़ायब कहां हो गया है। कहीं कोई एक्सी डेन्टम तो नहीं हो गया। तबियत तो ख़राब नहीं। ज़रूर कोई बड़ी वजह है। उसने फैसला कर लिया कि अब वो और इंतज़ार नहीं कर सकती। प्रज्ञा जब कुछ ठान लेती है तो उसे कोई रोक नहीं सकता। अभय का पता इस वक्तं मोबाइल के मैसेज बॉक्स में है। वो सुबह-सुबह निकल पड़ी है। बदली से भरा एक नर्म दिन। हवा में जैसे उदासी घुली है। एक छोटा-सा सुंदर बग़ीचा, मुस्कु राते फूलों से नज़रें मिलाती वो आगे बढ़ती है। आसमानी रंग से पुती हुई दीवारें। काले रंग का दरवाज़ा। जिस पर नेमप्लेुट लगी है–अ-भय’।
प्रज्ञा सांस रोके दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार कर रही है। हथेलियों पर पसीना महसूस होता है। दिल ज़ोरों से धड़क रहा है। पुराने ज़माने का ढीला-ढाला कुरता पैज़ामा पहने एक बेहद ग्रामीण व्य क्ति दरवाज़ा खोलता है।
‘आप कौन’।
‘जी अभय है’।
‘ऊ हंय तो मगर अंदर हैं’
‘ज़रा बुलाइये उन्हेंै’
‘अरे तो अपना नमवा नहीं बताइयेगा’
‘प्रज्ञा’
‘का काम है साहब से’
‘मिलना है’
‘समझ गवा हम’
‘क्याग समझ गये’
‘इहै कि ….लगता है आपौ उनकी फैन हैं।’
‘ओफ्फो। आप प्ली ज़ अभय को बुलाइये ना’
‘कमाल है। हमरे ही घर में हम पर ही आदेस चला रही हैं।’
कार्टून जैसा वो आदमी बोला–‘इधर आइये, बैठिये। हम बुलाता हूं। चाय पीजियेगा कि सरबत’।
‘शरबत?’
‘हां हां सरबत…..बेल का, नेंबू का, रसना भी है… चलेगा?’
प्रज्ञा मन ही मन बुदबुदाई। अजीब देहाती आदमी से पाला पड़ा है। जी चाहा ज़ोर से डांट दे। लेकिन वो इतने मीठे अंदाज़ में अपने कार्टून कैरेक्टार को पेश कर रहा था कि हंसी भी आ रही थी। तरह तरह के सॉफ्ट ड्रिंक के ज़माने में बेल कर ‘सरबत’ ऑफ़र कर रहा है।
‘आप अभय जी से बताइये कि मैं आयी हूं’
‘प्रज्ञा जी ना। हां तो ऐसे कहिए। मैं का होता है। ऐसी ‘मैं’ तो यहां रोज़ दो चार ठू आती हैं, अभय जी से मिलने’
प्रज्ञा के कान खड़े हो गये, ‘क्याो मतलब’
‘मतलब अभीयै समझ जाइयेगा’- वो हंसता हुआ अंदर चला गया।
प्रज्ञा को बैठे हुए आधे घंटे से ऊपर हो गये। ऊबने लगी। खड़ी होकर कमरे का मुआयना करने लगी। काफी इंतज़ार के बाद चूड़ीदार पैज़ामा और सिल्वीर कलर का कुर्ता पहने एक लंबा नौजवान दाखिल हुआ। ओह तो ये हैं अभय।
‘आप फोटो से काफी अलग दिख रहे हैं। फोटो में आप काफी स्मार्ट लगते हैं’।
‘मतलब सामने बिलकुल बदसूरत दिख रहा हूं’– प्रज्ञा की आंखों में आंखें डालते हुए अभय बोला। प्रज्ञा ने अपनी नज़रें नीचे झुका लीं। पहली बार प्रज्ञा किसी के सामने लजायी-सकुचायी।
‘वैसे तुम भी फोटो से अलग दिख रही हो। इस वक्ती एकदम छोटी-सी बच्ची- जैसी’।
‘तो क्याम आपको बड़ी उम्र वाली महिला चाहिए थी’।
‘मतलब?’
‘मतलब-वतलब बाद में पहले ये बताओ कि तुम अचानक रेडियो से ग़ायब क्यों हो गये थे। कोई ख़बर नहीं। रेडियो पर तुम्हालरी आवाज़ नहीं सुनी तो मैं जैसे मर ही गयी थी’
‘ओह तो जिंदा कैसे हुई’
‘मज़ाक छोड़ो अभय, आय एम सीरियस’
‘हम्मक। हो गया सीरियस। बताओ’
‘मैंने एक दिन रेडियो-स्टेाशन फोन लगाया था, वहां तो फ़ोन पर इतनी पूछताछ हुई कि मैंने परेशान होकर फ़ोन ही पटक दिया। तुम्हेंओ कितना फ़ोन किया। स्विच-ऑफ आ रहा था। फेस-बुक और व्हा ट्स एप से भी ग़ायब हो। आखिर हुआ क्या था तुम्हेंत।’
‘ओह, तो तुम्हें मैंने अपना दूसरा नंबर नहीं दिया था क्या ‘।
‘यू नो अभय, मैं तुम्हायरे बग़ैर रहने के बारे में सोच भी नहीं सकती’। नए दौर की फ़िल्मों की नायिका की तरह प्रज्ञा बोले जा रही थी–‘अभय, जब भी मैं तुम्हेंा रेडियो पर सुनती हूं, तो मैं तुम्हेंक अपने क़रीब पाती हूं। अपनी आगे की जिंदगी के सुनहरे ख्वा ब बुनती हूं। जैसे मैं पंख लगाकर उड़ रही हूं और तुम मेरे संग-संग आसमान की सैर कर रहे हो’।
‘प्रज्ञा, तुम कहना क्याअ चाह रही हो, मुझे समझ नहीं आ रहा’।
‘अभय मैं तुम्हेंर अपने मॉम-डैड से मिलवाना चाहती हूं एंड आयम श्यो र कि वो राज़ी हो जायेंगे। सेमिस्ट र कंप्लीेट करके जॉब मिलते ही हम लोग शादी कर लेंगे। क्यों कि मैं अपना करियर नहीं छोड़ सकती।’ अभय कुछ कहना चाह रहा था लेकिन प्रज्ञा रिकॉर्डेड सीडी की तरह बजे जा रही थी। उसे पता भी नहीं चला कि कब लंबे बालों और पिंक साड़ी वाली एक ख़ूबसूरत महिला कमरे में दाखिल हुई। ‘ओह तो तुम हो प्रज्ञा, जिससे ये घंटों चैट करते हैं व्हाहट्स एप पर’
‘प्रज्ञा ये हैं मेरी शरीके-हयात’
‘शरीके-हयात…..?’
‘हां प्रज्ञा, मतलब मेरी वाइफ़ मानसी’
‘तो तुम शादीशुदा हो’ ये वाक्यम प्रज्ञा के हलक में अटक कर रह गया।’
‘तुमने कभी बताया नहीं कि तुम शादीशुदा हो’
‘तुमने कभी पूछा नहीं’
‘लेकिन तुम इस तरह मुझसे चैट करते थे वो सब प्यांर-मुहब्बत की बातें….’
‘प्रज्ञा मुझे लगता है तुम्हें कोई ग़लतफ़हमी हुई है। मैं जिस पेशे में हूं, वहां इस तरह की बातें बहुत कॉमन है। मुझे तो अंदाज़ा भी नहीं था कि तुम्हाहरी फीलिंग्स क्याे हैं। अकसर ही फैंस मुझसे चैट करती हैं, वक्तं मिलता है तो जवाब देता हूं’।
‘ओह तो ये सिर्फ़ चैट था और मैं सिर्फ फैन…..?’।
 


….एक-एक क़दम प्रज्ञा को पहाड़ जैसा लग रहा है। वो बोझिल क़दमों से बाहर आयी है। आंखों के सामने कुहासा-सा छा गया है। दिमाग़ में सीमा के शब्द हथौड़े की तरह पड़ रहे हैं–‘ये एक सतही दुनिया है, जो चेहरा हमें दिखता है कई बार वो होता नहीं है।’…..बस स्टॉंप के क़रीब पान की दुकान पर रेडियो बज रहा है और कोई रेडियो-जॉकी सुनने वालों से फ़ोन-इन प्रोग्राम में अपने पहले प्याडर की यादें बांटने को कह रहा है।
 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

आज का शब्द

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.