नागार्जुन मेघदूत के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में लिखते हैं – ‘ मेघदूत हमारे भारतीय वाङ्मय का एक अनुपम अंश है।’ कालिदास की यह रचना विश्व भर में अद्वितीय है। अंग्रेजी‚ जर्मन‚ फ्रेन्च‚ रूसी‚ सिंहली‚ तिब्बती आदि विदेशी भाषाओं में तो इसके अनुवाद उपलब्ध हैं ही‚ भारतीय भाषाओं – हिन्दी‚ उर्दू‚ बंग्ला‚ मराठी आदि भाषाओं में भी इसके अनुवाद लोकप्रिय हैं।

यूरोप और पश्चिमी देशों के समक्ष कालिदास की इस अनुपम रचना को लाने का श्रेय होरेस हेल्मन विल्सन को है। इन्होंने इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘क्लाउड मैसेन्जर’ सन् 1813 में कलकत्ता से प्रकाशित करवाया था। हिन्दी में अनेकों अनुवाद हुए हैं। करीब आठ–नौ। पर मुझे सुप्रसिद्ध कवि एवं उपन्यासकार बाबा नागार्जुन का अनुवाद सर्वाधिक प्रिय है। क्योंकि वह हमारी सहज सरल हिन्दी भाषा और वर्तमान मुहावरों को साथ लेकर चले हैं। उनका यक्ष आज का कोई भी विरही प्रेमी जैसा ही है।

वे भूमिका में लिखते हैं –

”शापग्रस्त एक विरही यक्ष ने पावस के उमड़ते बादलों को देखा तो बेचैन हो उठा। अपनी प्रियतमा की याद में विव्हल होकर उसने मेघ से प्रार्थना की – तुम्हें मेरा दूत बनना पड़ेगा‚ मेघ भाईॐ अपनी भाभी के नज़दीक जाना होगा‚ चाहे जैसे भी जाओ‚ जाना मगर होगा ही…

तकलीफ तो तुम्हें इसमें ज़रूर होगी‚ लेकिन भाई का काम भाई नहीं करेगा तो कौन करेगा?…

भारतीय कवि की यह अनूठी सूझ थी। वैदिक‚ औपनिषद एवं पौराणिक प्रतिभा जहाँ तक छलांग मार चुकी थी‚ पहली दफे भारतीय प्रतिभा वहाँ से आगे उड़ी। पावस का मेघ अपनी मस्ती में था‚ धीर ललित गति से आकाश की सैर कर रहा था वह। … किंतु चेतना की गिरफ्त में पड़कर अचेतन तत्व बिलकुल ही ठिठक गया। कुछ बस नहीं चला मेघ का‚ पूरी की पूरी बात विरही यक्ष की उसे सुननी पड़ी। अनुनय और स्नेह का बंधन कोई मामूली बंधन थोड़े ही है?

– सो मेघ भाई को आखिर दूत बनना ही पड़ा।”

नागार्जुन जी ने बड़े ही सुंदर और अपने अनूठे अंदाज़ में भूमिका ही नहीं लिखी वरन् प्रस्तुत भी किया है। वे आगे लिखते हैं – ” मेघदूत की कल्पना कालिदास की मौलिक कल्पना थी‚ बिलकुल अपनी सूझ।…अपने हिन्द के गँवई गीतों की कड़ियाँ‚ आज भी तो यही काम लेती हैं बादलों से दूत के रूप में मेघ को यक्ष के समक्ष पेश करना मौलिक तो था ही‚ कवि कल्पना का भारतीय सीमांत भी था यह। ग्रीष्मशेष के धूलिधूसर आकाश मैं कार्लेकजरारे बादल देखते ही हमारा दिल थिरकने लगता है। और कहीं‚ स्नेही स्वजन निकट न हुए तो मन की दशा बुरी से बुरी हो जाती हैऌ जी उचट जाता है बिलकुल‚ उस बदहाली का भला क्या पूछना यों भी तो भारतीय जन–मन पर मेघ छाया हुआ है। हमारी खेती–गिरस्ती उसी पर निर्भर है। अपना प्राचीनतम वाङमय–वेद–मेघमहिमा से मुखर है। यहाŠ मेघ केवल आकाश में ही नहीं रहा‚ ऋचाओं और मंत्रों की सवारी की है उसने। प्राकृत और पालि की गाथाएं‚ संस्कृत के छंद‚ अपभ्रंसों के आख्यान‚ आंचलिक बोल‚ प्रादेशिक लोककथाएं…बिंदुमाल सौदामिनीवल्लभ मेघ महाराज की तरल करुणा से सिक्त है हमारा समग््रा वाग्वैभव।”

मेघदूत में 117 पद हैं।उनमें से केवल 14 श्लोक ‘संदेश’ के हैं। बाकि समस्त काव्य यात्रा और यात्रा सम्बंधी विस्तृत दिशानिर्देशों से भरा पड़ा है। ‘रामगिरी’ आज छत्तीसगढ़ के सीमान्त और नागपुर के आसपास स्थित है। वहीं मेघ को अपनी श्राप अवधि पूरी करनी थी। तो रामगिरी से कैलाश तक की यात्रा वर्णन में काव्य के अधिकांश पद चले जाते हैं। आठ पद लगते हैं‚ अलका नगरी के वर्णन में और शेष करीब पन्द्रह पद विरहिणी यक्षिणी के वर्णन में आती हैं।

नागार्जुन लिखते हैं – ” प्रेयसी–विरह की प्रत्यक्ष अनुभूति का यह विवरण कोरा कवि–कर्म नहीं‚ बल्कि कालिदास जी की निजी संवेदनाओं का सहज परिपाक था। यात्रा–निर्देश के प्रसंग में भी मेधदूत में जितनी पंक्तियाŠ आई हैं‚ सभी स्वाभाविक सौरभ लिये हुए हैं। एक–एक पंक्ति से भारतीय आत्मा ध्वनित हो रही है। धरती‚ आकाश‚ नदियाŠ‚ पहाड़‚ जंगल‚ मैदान‚ खेत–खेतिहर‚ वृक्ष–वनस्पति‚ उद्भिद और घास–फूस‚ गाŠव–नगर–उपनगर‚ बाग–बगीचा‚ नर–नारी‚ पशु–पक्षी‚ देव–देवी…क्या नहीं है मेधदूत मेंĘ”

कालिदास का मेघ रामगिरि से अलका जाने के लिये सीधी राह नहीं लेता‚ वह कई स्थानों की सैर करता हुआ कैलाश तक पहुŠचता है। और अनेक दृश्य निहारता चलता है। नागार्जुन कहते हैं – कवि ने जानबूझ कर विस्तृत विवरण की छूट ले रखी है। उज्जयनी को भला वह क्यों छोड़ताĘ शिप्रा की चपल लहरें भला कैसे रह जातींĘ महाकाल को भला किस प्रकार भूला जा सकता थाĘ मालवा की भूमि का कैसा मोह था कवि कोŃ ” कालिदास की अपनी कर्मस्थली जो थी उज्जैयनी।

मेघ चाहे गरजता–तरजता एक विशाल जल का घनीभूत पुंज सही पर कवि ने उसे मानवीय भावनाओं से ओत–प्रोत रखा है अपने सम्पूर्ण काव्य में। मेघ कोई बस मेघ तो नहीं अब‚ यक्ष का मित्र और भाई है। भाई का संदेस–खबर भाभी तक पहुंचाने जा रहा है आखिरŃ थके तो पहाड़ों पर सुस्ता ले। प्यास लगे तो नदियों का पानी पी ले। पानी पी कर ज्यादा भारी होने पर बरस–बरस कर हल्का होने की छूट है उसे। मानसरोवर की दिशा में उड़ने वाले राजहंस उसके सहयात्री बन जाते हैं। वन्यजीव उसे रास्ता सुझाते हैं। नदियों से उसका प्रणय है‚ यक्ष कहता है‚ कि चाहे जितनी देर लगे अपनी प्रयसियों को उपेक्षित न करे। विरह से वे पतली धार मात्र रह गई हों तो अपना प्रेम बरसा कर उनकी कृशता मिटा आना।

उज्जैन में पालतू मोर नाच–नाच मेघ का स्वागत करेंगे। महलों के झरोंखों–गवाक्षों में वह तानिक सुस्ताएगा फिर महाकाल के दर्शन करेगा। शाम की आरती का समय होगा वह तब उसकी धीर–गंभीर गर्जना डंकों–नगाड़ों का स्थान ले लेगी। अंधेरी रात में उसकी संगिनी विद्युत का प्रकाश अभिसारिकाओं का पथ प्रशस्त करेगा।

आगे जाकर गंभीरी‚ चम्बल आदि नदियाŠ…अन्य क्षेत्र‚ पहाड़ आदि…फिर कुरुक्षेत्र‚ फिर कनखल में गंगा दिखाई देगी। उसके बाद पर्वतराज हिमालय के दर्शन होंगे। हिमालय के जंगलों में लगी आग को मेघ अपने जल से बुझा देगा। और आगे जाकर उसे कैलाश दिखाई देगा स्फटिक सा धवल। महाशिव का निवास। उसी कैलाश के गर्भ में स्थित यक्षनगरी ‘ अलकापुरी’‚ मेघ को यहीं आना है। अपने मित्र की विरहिणी पत्नी के पास।

नागार्जुन जी लिखते हैं – ” अपने देश का यह कवित्वमय भूगोल सिवा कालिदास के और कहाŠ‚ किसने पेश किया है अपनी जनता के समक्षĘ इतनी नदियाŠ‚ इतने पहाड़‚ इतने अंचल‚ इतनी विवधताएं हम और कहाŠ पाएंगेĘ ”

अलकापुरी पहुŠचने पर मेघ चकित रह जाएगा। उŠची अट्टालिकाओं वाले महल‚ चमक दमक‚
संगीत मय जीवन। सदाबहार मौसम‚ सदैव फूर्लोंफलों से लदे उपवन‚ कुमुदों–कमलों से भरी जलवापियाŠ‚ माह की हर रात पूर्णचंद्रिका । आनंद से ही आंसू आ जाए तो आ जाए‚ पीड़ा का कोई नामोनिशान नहीं। वेदना हो भी तो बस एक Į मदनवेदना‚ जिसका इलाज प्रिय का समागम। स्नेहिल तकरार को छोड़ कोई झगड़ा नहीं। और यक्षनगरी में सारी आयु ही यौवन।

किन्तु यक्ष की पत्नी विरहिणी है। दोनों अभिशप्त हैं‚ सो बेचैनी भी है और आŠसू भी। ऐसी स्थिति में पति के प्रिय मित्र से पति की कुशलक्षेम जानने से सुखद क्या हो सकता हैĘ वह भी और कोई नहीं सबके दुख हरने वाला मेघ‚ स्नेहिल और आर्द्र।

पावस के प्रथम मेघ से विरही का यह सहज काव्यमय संवाद कालिदास का ही काव्यमन कर सकता था और इस संस्कृत के महिमाप्राप्त काव्य का सहज और ग्राह्य अनुवाद आंचलिक कवि‚ उपन्यासकार स्वŗबाबा नागार्जुन से अच्छी तरह कौन कर सकता था ।

पावस के प्रथम मेघ से विरही का यह सहज काव्यमय संवाद कालिदास का ही काव्यमन कर सकता था और इस संस्कृत के महिमाप्राप्त काव्य का सहज और ग्राह्य अनुवाद आंचलिक कवि‚ उपन्यासकार स्व।बाबा नागार्जुन से अच्छी तरह कौन कर सकता था?

प्रस्तुत हैं यहाँ उनकी अनूदित पुस्तक मेघदूत के कुछ अंश –

अपने कर्तव्य से भ्रष्ट एक यक्ष
पकर वर्ष भर का प्रिया–विरह–शाप
अलकापति धनेश्वर कुबेर से
दीन हीन कृशकाय ओजरहित खिन्नमन
जाकर रहने लगा रामगिरी की वनस्थलियों में
छाँह थी जहाँ की स्निग्ध‚ शीतल‚ मनभावन
जल था जहाँ का जनकलली के स्नान से पावन

कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तÁ
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्ष भोग्येण भर्तुÁ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

पावस के प्रथम मेघ से विरही का यह सहज काव्यमय संवाद कालिदास का ही काव्यमन कर सकता था और इस संस्कृत के महिमाप्राप्त काव्य का सहज और ग्राह्य अनुवाद आंचलिक कवि‚ उपन्यासकार स्व।बाबा नागार्जुन से अच्छी तरह कौन कर सकता था?

प्रस्तुत हैं यहाँ उनकी अनूदित पुस्तक मेघदूत के कुछ अंश –

अपने कर्तव्य से भ्रष्ट एक यक्ष
पकर वर्ष भर का प्रिया–विरह–शाप
अलकापति धनेश्वर कुबेर से
दीन हीन कृशकाय ओजरहित खिन्नमन
जाकर रहने लगा रामगिरी की वनस्थलियों में
छाँह थी जहाँ की स्निग्ध‚ शीतल‚ मनभावन
जल था जहाँ का जनकलली के स्नान से पावन

कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तÁ
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्ष भोग्येण भर्तुÁ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

पावस के प्रथम मेघ से विरही का यह सहज काव्यमय संवाद कालिदास का ही काव्यमन कर सकता था और इस संस्कृत के महिमाप्राप्त काव्य का सहज और ग्राह्य अनुवाद आंचलिक कवि‚ उपन्यासकार स्व।बाबा नागार्जुन से अच्छी तरह कौन कर सकता था?

प्रस्तुत हैं यहाँ उनकी अनूदित पुस्तक मेघदूत के कुछ अंश –

अपने कर्तव्य से भ्रष्ट एक यक्ष
पकर वर्ष भर का प्रिया–विरह–शाप
अलकापति धनेश्वर कुबेर से
दीन हीन कृशकाय ओजरहित खिन्नमन
जाकर रहने लगा रामगिरी की वनस्थलियों में
छाँह थी जहाँ की स्निग्ध‚ शीतल‚ मनभावन
जल था जहाँ का जनकलली के स्नान से पावन

कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तÁ
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्ष भोग्येण भर्तुÁ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

दुबली कलाइयों से खिसक पड़े थे कंगन
प्रिया–विरह–कातर खोया सा रहता मन
बिता दिये कई एक महीने पहाड़ों पर
कि इतने में आ धमका
आषाढ़ का पहला दिन
लिपट गए शिखरों से घनघोर बादल
महामत्त गजराज मिट्टी के ढूहों से
भिड़े हों ज्यों सिर के बल।
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तÁ स कामी
नीत्वा मासान् कनकवलयभ्रंसरिक्तप्रकोष्ठÁ।
आषाढ़स्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीड़ापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
देखते ही मेघ
जग पड़े चिरसुप्त अभिलाष
कथंचित् संभल कर खड़ा हुआ यक्ष उसके सामने
रोककर नयननीर
खिन्न मन बेसुध शरीर
सोचता रह गया बड़ी ही देर तक
राजराज्ोश्वर कुबेर का अभागा अनुचर
देखकर घनघटा
व्याकुल हो उठते जब सुखी प्रेमियों के जोड़े
तो फिर उसका क्या कहना
पड़ी हो दूर देश में
गले लगने को आतुर प्रणयिनी जिसकी।
तस्य स्थित्वा कथमपि पुरÁ कौतुकाधानहेतो–
रन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतÁ
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।।
सोचा बेचारे ने निकट है सावन
कैसे संभाल्ोगी अपने को प्रियतमा मेरी
क्यों न मैं बेचारी तक इन मेघों के द्वारा
भेज दूँ अपना कुशल समाचार?
तत्पश्चात निवेदित करके कुटज के टटके फूल
प्यार भरे शब्दों में बोला विनीत यक्र्ष
बन्धुवर मेघ स्वागत हो तुम्हारा
तापतप्त जग के एकमात्र तुम हो सहारा।
प््रात्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन् प्रवृत्तिम्।
स प्रत्यग्रेÁ कुटजकुसुमैÁ कल्पिताधार्य तस्मै
प्रीतÁ प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं वाज्यहारं।।
ओ भोले यक्षॐ
बनेगा मेघ भला कैसे संदेशवाहन?
सुधबुध को दे दी है सचमुच तूने तिलांजलिॐ
धूम‚ ज्योति‚ सलिल‚ समीर के जमघट कहाँ वे बादल?
कहाँ ये तेरे संदेश‚ जिन्हें ले जा सकते
– कर–चरणों वाले सचेत प्राणी?
…कुछ नहीं सोच पाया उत्सुकता का शिकार
विरही यक्षॐ
की नहीं पर्वाह‚ किससे कर रहा है बातें
क्यों भला कर पाए वासना–विकल प्राणी
जड़ और चेतन की विवेचना।
धूमज्योतिÁ सलिलमरुतां संनिपातÁ क्व मेघÁ
संदेशार्थाÁ क्व पटु करणैÁ प्राणाभिÁ प्रापणीयाÁ।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।।
कौन जाने मेघ ने सुना कि नहींॐ
यक्ष किन्तु कहता गया‚
परम निमग्न सा‚ प्रीतीसुधासिन्धु मेंÁ
पैदा हुए हो मित्र‚ विश्वविदित पुष्करावर्त कुल में।
सुरपति के दूत हो इच्छारूप धारीॐ
साथिन से बिछुड़ा हूँ‚ दैवदुर्योग का निशाना
अतÁ तुमसे करता हूँ प्रार्थना सांजलि
याचक हुआ हूँ गुणी अभिजात के समक्ष
खेद नहीं रहेगा यहाँ अपूर्ण भी यदि रहे मनोरथ
अधम की कृपा से पूरी हुई प्रार्थना तो मृत्युतुल्य है।
जातं वंशे भुवनविदिते पुष्कारावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन्।
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद्दू रबंर्धुगर्ताऽहं
याच्आ मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।।
घनश्याम‚ जलद हेॐ जीवनदाता
एकमात्र तुम हो तापतप्तों के त्राता
धनपति कुबेर के कोप का हूँ शिकार
प््रोयसी तक पहुँचा दो शब्द मेरे दो चार
हे सहृदय बंधु‚ मुझपर दया करो
यक्षों की बस्ती अलका तुम्हें जाना है
जगमगाए रहती है जिसके महलों को
उपवन स्थित शंकर के भाल चन्द्र की चाँदनी।
सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाÁ
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य।
घन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहम्र्या।।
सामने की लटें उठा कर उपर
भरोसे की नज़रों से देखेंगी तुमको विरहिनें
होकर पवनपंख पर सवार उड़ोगे जब।
छोड़ कर मुझ जैसे पराधीन प्राणी को
और कौन होगा कि उमड़ा तुम्हें देखकर
वियोगाकुल प्रिया की करे अवहेलना।
त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहितालकान्ताÁ
प्रेक्षियन्ते पथिकवनिताÁ प्रत्ययादाश्वसन्त्य।
कÁ संनद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यÁ पराधीनवृत्ति।।
लौ लगाए गिन रही होगी मेरे लौटने के दिन
सकुशल होगी तुम्हारी भाभी
तुम उसे देखोगे अवश्य
र्सचराचर सृष्टि में र्अप्रतिहतगति हे प्रियबंधुॐ
प्रेमल कुसुमसमान भंगुर स्त्री हृदय को
टिकाये रहता है‚ विरह की अवधि में
आशा का बंधन ही प्रायÁ
तां चावश्य दिवस गणनांतत्परामेकपत्नी–
मव्यापन्नामवहितगतिद्र्रक्ष्यसि भातृजायाम्।
आशाबन्धÁ कुसुमसदृशÁ प्रायशोह्यङ्गनानां
सद्यÁपाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रूणद्धि।।

दुबली कलाइयों से खिसक पड़े थे कंगन
प्रिया–विरह–कातर खोया सा रहता मन
बिता दिये कई एक महीने पहाड़ों पर
कि इतने में आ धमका
आषाढ़ का पहला दिन
लिपट गए शिखरों से घनघोर बादल
महामत्त गजराज मिट्टी के ढूहों से
भिड़े हों ज्यों सिर के बल।
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तÁ स कामी
नीत्वा मासान् कनकवलयभ्रंसरिक्तप्रकोष्ठÁ।
आषाढ़स्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीड़ापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
देखते ही मेघ
जग पड़े चिरसुप्त अभिलाष
कथंचित् संभल कर खड़ा हुआ यक्ष उसके सामने
रोककर नयननीर
खिन्न मन बेसुध शरीर
सोचता रह गया बड़ी ही देर तक
राजराज्ोश्वर कुबेर का अभागा अनुचर
देखकर घनघटा
व्याकुल हो उठते जब सुखी प्रेमियों के जोड़े
तो फिर उसका क्या कहना
पड़ी हो दूर देश में
गले लगने को आतुर प्रणयिनी जिसकी।
तस्य स्थित्वा कथमपि पुरÁ कौतुकाधानहेतो–
रन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतÁ
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।।
सोचा बेचारे ने निकट है सावन
कैसे संभाल्ोगी अपने को प्रियतमा मेरी
क्यों न मैं बेचारी तक इन मेघों के द्वारा
भेज दूँ अपना कुशल समाचार?
तत्पश्चात निवेदित करके कुटज के टटके फूल
प्यार भरे शब्दों में बोला विनीत यक्र्ष
बन्धुवर मेघ स्वागत हो तुम्हारा
तापतप्त जग के एकमात्र तुम हो सहारा।
प््रात्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन् प्रवृत्तिम्।
स प्रत्यग्रेÁ कुटजकुसुमैÁ कल्पिताधार्य तस्मै
प्रीतÁ प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं वाज्यहारं।।
ओ भोले यक्षॐ
बनेगा मेघ भला कैसे संदेशवाहन?
सुधबुध को दे दी है सचमुच तूने तिलांजलिॐ
धूम‚ ज्योति‚ सलिल‚ समीर के जमघट कहाँ वे बादल?
कहाँ ये तेरे संदेश‚ जिन्हें ले जा सकते
– कर–चरणों वाले सचेत प्राणी?
…कुछ नहीं सोच पाया उत्सुकता का शिकार
विरही यक्षॐ
की नहीं पर्वाह‚ किससे कर रहा है बातें
क्यों भला कर पाए वासना–विकल प्राणी
जड़ और चेतन की विवेचना।
धूमज्योतिÁ सलिलमरुतां संनिपातÁ क्व मेघÁ
संदेशार्थाÁ क्व पटु करणैÁ प्राणाभिÁ प्रापणीयाÁ।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।।
कौन जाने मेघ ने सुना कि नहींॐ
यक्ष किन्तु कहता गया‚
परम निमग्न सा‚ प्रीतीसुधासिन्धु मेंÁ
पैदा हुए हो मित्र‚ विश्वविदित पुष्करावर्त कुल में।
सुरपति के दूत हो इच्छारूप धारीॐ
साथिन से बिछुड़ा हूँ‚ दैवदुर्योग का निशाना
अतÁ तुमसे करता हूँ प्रार्थना सांजलि
याचक हुआ हूँ गुणी अभिजात के समक्ष
खेद नहीं रहेगा यहाँ अपूर्ण भी यदि रहे मनोरथ
अधम की कृपा से पूरी हुई प्रार्थना तो मृत्युतुल्य है।
जातं वंशे भुवनविदिते पुष्कारावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन्।
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद्दू रबंर्धुगर्ताऽहं
याच्आ मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।।
घनश्याम‚ जलद हेॐ जीवनदाता
एकमात्र तुम हो तापतप्तों के त्राता
धनपति कुबेर के कोप का हूँ शिकार
प््रोयसी तक पहुँचा दो शब्द मेरे दो चार
हे सहृदय बंधु‚ मुझपर दया करो
यक्षों की बस्ती अलका तुम्हें जाना है
जगमगाए रहती है जिसके महलों को
उपवन स्थित शंकर के भाल चन्द्र की चाँदनी।
सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाÁ
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य।
घन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहम्र्या।।
सामने की लटें उठा कर उपर
भरोसे की नज़रों से देखेंगी तुमको विरहिनें
होकर पवनपंख पर सवार उड़ोगे जब।
छोड़ कर मुझ जैसे पराधीन प्राणी को
और कौन होगा कि उमड़ा तुम्हें देखकर
वियोगाकुल प्रिया की करे अवहेलना।
त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहितालकान्ताÁ
प्रेक्षियन्ते पथिकवनिताÁ प्रत्ययादाश्वसन्त्य।
कÁ संनद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यÁ पराधीनवृत्ति।।
लौ लगाए गिन रही होगी मेरे लौटने के दिन
सकुशल होगी तुम्हारी भाभी
तुम उसे देखोगे अवश्य
र्सचराचर सृष्टि में र्अप्रतिहतगति हे प्रियबंधुॐ
प्रेमल कुसुमसमान भंगुर स्त्री हृदय को
टिकाये रहता है‚ विरह की अवधि में
आशा का बंधन ही प्रायÁ
तां चावश्य दिवस गणनांतत्परामेकपत्नी–
मव्यापन्नामवहितगतिद्र्रक्ष्यसि भातृजायाम्।
आशाबन्धÁ कुसुमसदृशÁ प्रायशोह्यङ्गनानां
सद्यÁपाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रूणद्धि।।

दुबली कलाइयों से खिसक पड़े थे कंगन
प्रिया–विरह–कातर खोया सा रहता मन
बिता दिये कई एक महीने पहाड़ों पर
कि इतने में आ धमका
आषाढ़ का पहला दिन
लिपट गए शिखरों से घनघोर बादल
महामत्त गजराज मिट्टी के ढूहों से
भिड़े हों ज्यों सिर के बल।
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तÁ स कामी
नीत्वा मासान् कनकवलयभ्रंसरिक्तप्रकोष्ठÁ।
आषाढ़स्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीड़ापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
देखते ही मेघ
जग पड़े चिरसुप्त अभिलाष
कथंचित् संभल कर खड़ा हुआ यक्ष उसके सामने
रोककर नयननीर
खिन्न मन बेसुध शरीर
सोचता रह गया बड़ी ही देर तक
राजराज्ोश्वर कुबेर का अभागा अनुचर
देखकर घनघटा
व्याकुल हो उठते जब सुखी प्रेमियों के जोड़े
तो फिर उसका क्या कहना
पड़ी हो दूर देश में
गले लगने को आतुर प्रणयिनी जिसकी।
तस्य स्थित्वा कथमपि पुरÁ कौतुकाधानहेतो–
रन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतÁ
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।।
सोचा बेचारे ने निकट है सावन
कैसे संभाल्ोगी अपने को प्रियतमा मेरी
क्यों न मैं बेचारी तक इन मेघों के द्वारा
भेज दूँ अपना कुशल समाचार?
तत्पश्चात निवेदित करके कुटज के टटके फूल
प्यार भरे शब्दों में बोला विनीत यक्र्ष
बन्धुवर मेघ स्वागत हो तुम्हारा
तापतप्त जग के एकमात्र तुम हो सहारा।
प््रात्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन् प्रवृत्तिम्।
स प्रत्यग्रेÁ कुटजकुसुमैÁ कल्पिताधार्य तस्मै
प्रीतÁ प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं वाज्यहारं।।
ओ भोले यक्ष
बनेगा मेघ भला कैसे संदेशवाहन?
सुधबुध को दे दी है सचमुच तूने तिलांजलिॐ
धूम‚ ज्योति‚ सलिल‚ समीर के जमघट कहाँ वे बादल?
कहाँ ये तेरे संदेश‚ जिन्हें ले जा सकते
– कर–चरणों वाले सचेत प्राणी?
…कुछ नहीं सोच पाया उत्सुकता का शिकार
विरही यक्षॐ
की नहीं पर्वाह‚ किससे कर रहा है बातें
क्यों भला कर पाए वासना–विकल प्राणी
जड़ और चेतन की विवेचना।
धूमज्योतिÁ सलिलमरुतां संनिपातÁ क्व मेघÁ
संदेशार्थाÁ क्व पटु करणैÁ प्राणाभिÁ प्रापणीयाÁ।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।।
कौन जाने मेघ ने सुना कि नहींॐ
यक्ष किन्तु कहता गया‚
परम निमग्न सा‚ प्रीतीसुधासिन्धु मेंÁ
पैदा हुए हो मित्र‚ विश्वविदित पुष्करावर्त कुल में।
सुरपति के दूत हो इच्छारूप धारीॐ
साथिन से बिछुड़ा हूँ‚ दैवदुर्योग का निशाना
अतÁ तुमसे करता हूँ प्रार्थना सांजलि
याचक हुआ हूँ गुणी अभिजात के समक्ष
खेद नहीं रहेगा यहाँ अपूर्ण भी यदि रहे मनोरथ
अधम की कृपा से पूरी हुई प्रार्थना तो मृत्युतुल्य है।
जातं वंशे भुवनविदिते पुष्कारावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन्।
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद्दू रबंर्धुगर्ताऽहं
याच्आ मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।।
घनश्याम‚ जलद हेॐ जीवनदाता
एकमात्र तुम हो तापतप्तों के त्राता
धनपति कुबेर के कोप का हूँ शिकार
प््रोयसी तक पहुँचा दो शब्द मेरे दो चार
हे सहृदय बंधु‚ मुझपर दया करो
यक्षों की बस्ती अलका तुम्हें जाना है
जगमगाए रहती है जिसके महलों को
उपवन स्थित शंकर के भाल चन्द्र की चाँदनी।
सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाÁ
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य।
घन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहम्र्या।।
सामने की लटें उठा कर उपर
भरोसे की नज़रों से देखेंगी तुमको विरहिनें
होकर पवनपंख पर सवार उड़ोगे जब।
छोड़ कर मुझ जैसे पराधीन प्राणी को
और कौन होगा कि उमड़ा तुम्हें देखकर
वियोगाकुल प्रिया की करे अवहेलना।
त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहितालकान्ताÁ
प्रेक्षियन्ते पथिकवनिताÁ प्रत्ययादाश्वसन्त्य।
कÁ संनद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यÁ पराधीनवृत्ति।।
लौ लगाए गिन रही होगी मेरे लौटने के दिन
सकुशल होगी तुम्हारी भाभी
तुम उसे देखोगे अवश्य
र्सचराचर सृष्टि में र्अप्रतिहतगति हे प्रियबंधुॐ
प्रेमल कुसुमसमान भंगुर स्त्री हृदय को
टिकाये रहता है‚ विरह की अवधि में
आशा का बंधन ही प्रायÁ
तां चावश्य दिवस गणनांतत्परामेकपत्नी–
मव्यापन्नामवहितगतिद्र्रक्ष्यसि भातृजायाम्।
आशाबन्धÁ कुसुमसदृशÁ प्रायशोह्यङ्गनानां
सद्यÁपाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रूणद्धि।।

यक्ष अपनी सुध–बुध खो कर मेघ को राह बता रहा है।

मेघ के लिये यात्रा बोझिल ना हो इसके लिये वह सुंदर नगरों‚ मेघ की प्रणयिनियों नदियों और मित्रों पहाड़ों से मिलते हुए जाने की सलाह देता जा रहा है। अपने वर्णन को रोचक बनाने के लिये वह नाना उपमा–उपमानों और सुन्दर वृत्तान्तों की सहायता लेता है‚ कि कहीं मेघ इसे बोझिल और उबाऊ काम मान कर मना न कर दे।

मृदु मंथर गति से
डोल रहा है अनुकूल पवन
बाईं ओर साथी पपीहा तुम्हें पुकार रहा ‘पीउ–पीउ’
जानकर गर्भधारण का अपना अवसर उपस्थित
उड़–उड़ कर अभिनंदन करेगी तुम्हारा
मादा बगुलों की कतार
नील–निर्मल गगन में।
मंद–मंद नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां
बामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगन्धÁ।
गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूमानबद्धमालाÁ
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्त वलाकाÁ।।
पावस के प्रिय मेघ
सुन–सुन कर तुम्हारा गर्जन
उग आएंगे कुकुरमुत्तों के अंखुए
हो उठेंगे राजहंस मानसरोवर जाने को उतावले‚
चोंच में लिये
कमलनाल के टूसों की की टुकड़ियाँ
उड़ते हुए जाएंगे कैलाश तकॐ
कर्तुयच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामबन्ध्यां
तत्छुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काÁ।
आकैलासाद्विसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तÁ
संपत्सयन्ते नभसि भवतो राजहंसाÁ सहायाÁ।।
लचकीली बेंतों से हरी–भरी घाटियों वाला
यह स्थान छोड़ कर नभ में ऊपर उठना
चक्करदार अंधड़ों और भारी बगूलों से होगी मुठभेड़
उन्हें धकियाकर बढ़ जाना आगे
सिर उठाए –
चकित दृगों से देखेंगी तुम्हें मुग्ध विद्याधरियाँ…
क्या है यह मईया री मईयाॐ
शैल के शिखर को उड़ाए लिये जा रहा है पवनॐ
उनका यह अचंभा तुम्हारे अंदर फुर्ती भर देगा।
अद्रेÁ श्रृंगंहरित पवनÁ किंस्विदित्युन्मुखीभि –
दृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धांगनाभिÁ।
स्थानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदंङमुखÁ खं
दिङ्नागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान्।।
खेलोगे जब–जब धूप से आँखमिचौनी
उग–उग आएगा मनोरम इंन्द्रधनुष
बहुविध मणियों की परछांई–साऌ
इन्द्रधनुशोभित तुम्हारा श्याम तन
देखते ही नयनों में नाचेगा बार–बार
मोरपंखधारी
सांवलिया बिहारी।
रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद्
वल्मीकाग्रात प्रभवति धनुÁ खण्डमाखण्डलस्य।
येनश्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोÁ।।
तुम पर है निर्भर खेती किसानी
ऐसा सोच–सोच कर
तुम्हारी ही ओर रहेंगे खुले एकटक
ग्रामांचलवासिनी सुहासिनी बहुओं के
नेर्हछोह भरे किन्तु तिरछी चितवनों से कोरे नयनॐ
हाल की जुती सोंधी–सोंधी उस मालव भूमि पर
मित्र मेरे‚ थोड़ा ही सही मगर बरसना ज़रूर
हर्ज ही क्या‚
जरा–सा पच्छिम ही जाना पड़ेगा
फिर द्रुत गति से कर लेना अपना रुख उत्तर की ओर।
त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रू विलासानभिज्ञै
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनेÁ पीयमानÁ।
सद्यÁ सीरोत्कषणसुरभिÁ क्षेत्रमारुह्य मालं
किंचित्पश्चाद्व्रज लघुगतिभूर्य एवोत्तरेण।।
आगे पड़ता है आम्रकूट पर्वत‚ उसके उदार मैत्री पूर्ण सत्कार के लिये यक्ष मेघ को वहाँ तनिक विश्राम की सलाह देता है। आम्रकूट की विशेषता में कवि लिखते हैं –

भली–भाँति छाए होंगे छोरों पर
पके फलों वाले जगमगाते‚ आम के जंगली पेड़
बीच शिखर में होओगे तुम
चिकने चमकीले बालों की तरह कोमल और कालेॐ
कैसा मनोरम होगा वह दृश्यॐ
मध्य में श्याम‚ चारों ओर पीला फैलाव
धरती के पुष्ट–पीन उत्तुंग स्तन तुल्य…
देखेंगे तुम्हें देव–देवियों के जोड़े ले ले के रसॐ
छन्नोपान्तÁ परिणतफलद्योतिभिÁ काननाभ्रेÁ
त्वय्यारूढ़े शिखरमचलÁ स्निग्धवेणीसवर्णे।
नूनं यास्यत्मरमिथुनप्रेक्षणीययामवस्थां
मध्ये श्यामÁस्तन इव भुवÁ शेषविस्तारपाण्डुÁ।।
अगणित कुंज हैं आम्रकूट की घाटियों में
करती होंगी विहार जंगली तरुणियाँ
रुक जाना तुम भी वहाँ घड़ी भर
बरसने से बदन हो चुका होगा हल्का
अब और आगे बढ़ना –
विन्ध्य के उबर्ड़खाबड़ पठारों पर
दिखाई देंगी अनेक धारों में छितराई रेवा नदी
हाथी की देह पर सफेद खड़िया से खिंची
लकीरों जैसी।
स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधूभूक्तकुंजे मुहूतै
तोयोत्सर्गद्रुततरगतिस्तत्परं वत्र्म तीर्णÁ।
रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यापादे विंशीर्णा
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य।।
कवि की कल्पना यहाँ वायुयान पर चढ़ कर बोल रही हो जैसे। काले विन्ध्य पठारों में धारों में बहती रेवा नदी उंचाई से ऐसी ही अद्भुत लगती होगी। कवि फिर कहता है कि जी भर के पी कर रेवा का पानी‚ जामुनों के कुंजों में भी बरस लेना‚ जहाँ मदमस्त हाथियों के मद की कसैली गंध बसती होगी। हल्के होगे तो पवन तुम्हारा भार उठा लेगा। फुहारें बरसाते मजे. में चलते जाना।

ऊपर ही ऊपर
जलबिन्द ुग्रहण किये चतुर चातकों को निहारती
उँगली उठा–उठा कर गिनतीÁ एक दो तीन चार…
गगनविहारी पंक्तिबद्ध वकों को
खेलती होंगी विभोर विद्याधरियाँ
कि सुन कर तुम्हारा गर्जन उठेंगी काँप–काँप
कसके लिपटेंगी निज–निज प्रिय के गले से
और वे तुम्हारे प्रति कृतज्ञ होंगे। अम्भोविन्दुग्रहणचतुराँश्चातकान् वीक्षमाणांÁ
श्रेणीभूताÁ परिगणनया निर्दिशन्तो वलाकाÁ।
त्वामासाद्य स्तनितसमये मानयियष्न्ति सिद्धाÁ
सोत्कम्पानि प्रियसहचरीसंभ्रमालिंगितानि
तमाम प्रकृति के अचंभों से भरे ‘दशार्ण’ जनपद तक पहुँचने के मार्गों के बारे में बता‚ यक्ष अब मेघ को वह विदिशा पहुँचने के बारे में बताता है।

परम प्रथित नगरी वह विदिशा…
सुलभ होंगे सभी साधन विलासिता के वहाँ
देर है पहुँचने भर कीॐ
बेतवा नदी के किनारे रुकना
मीठे–मीठे हौले–हौले गरजना
पीना जल उसका मधुर–तरंगमय
बंकिम भ्रू वाली वनिता का अधर मधु
पीता ज्यों रसिक नटनागर।
तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं
गत्वा सद्यÁ फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्ध्या।
तीरोपान्ततस्नितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्
सभ्रूंभंग् मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।
सुविकसित कदम्बों से आच्छादित
मिलेगा ” नीच” नाम का एक पहाड़
पुलकित–सा दिखेगा परस पाकर तुम्हारा
करना आराम वहाँ जरा देर के लिये
वेश्या–विलास से सुवासित गुफाएं
पेश करती हैं जहाँ नागरिकों की
अबाध तरुणाई के सबूत
नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो –
स्त्वत्संपर्कापुलकित मिवप्रौढ़पुष्पेÁ कदम्बेÁ।
यÁ पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर्नागराणा
मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभियौंवनानि।।
जंगली नदियों के किनारे–किनारे
फैले होंगे जूही के बाग
थकावट मिटा चुको तो
ताजा फुहारों से उन्हें सींचते जाना
गालों के पसीने से म्लान –
लटकते होंगे उनके कानों से नीलकमल
रखना ध्यान बचे रहें घाम से
फूल चुनने वाली मालिनों के मुखऌ
क्षण भर को ही सही परिचित हो लेना उनसे। विश्रान्तÁ सन्व्रज वननदीतीरजातानि
सिंचन्नद्याुनानां नवजलकणैर्यूथिकाजालकानि।
घण्डस्वेदापनयनरुचाक्लान्त कर्णोत्पलानां
छायादानात्क्षणपरिचितÁ पुष्पलावीमुखानाम।।
अगले भाग में मेघ को उज्जैयनी के बारे में बताता है कि हे उत्तर की ओर जाने वाले मेघ‚ तुम्हें जरा टेढ़ा तो पड़ेगा रास्ता पर उज्जैयनी होते हुए ज़रूर जाना और वहाँ के महलों का आतिथ्य और सुन्दरियों की बांकि नज़र का मज़ा अगर नहीं लिया‚ तो सब कुछ व्यर्थ है।

रुक–रुक कर बहती‚ दिखाती भंवर नाभि…
उज्जयिनी से इधर ही मिलेगी निर्विन्ध्या नदी
कमर की करधनी जहाँ लोल–लहर–मुखरित विहगावली
उपेक्षा मत करना‚ मिल लेना तुम उससे अवश्य
होते हैं हाव–भाव ही
मौखिक निवेदन प्रणय के
स्त्रियों की ओर से
वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकान्चीगुणायाÁ
संसर्पन्त्याÁ स्खलितसुभगं दशितावर्तनाभेÁ।
निर्विन्ध्याÁ पथि भव रसाभ्यन्तरÁ संनिपत्य
स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु।।
पहुँचना अवन्ति‚ जहाँ गँवई पोढ़े–पुराने
सुनाते नहीं थकते उदयन की कहानियाँॐ
धनधान्यपुष्ट‚ तुष्टजनशोभित
आकर्षित करेगी तुम्हें वह उज्जयनीऌ
स्वर्गवास की अवधि समाप्त होने से पूर्व ही
शेष अल्प पुण्य के बदले कृति जन
लाये साथ दिव्यलोक का यह चमकीला टुकड़ा‚
ऐसा भ्रम होता है‚ जिस नगरी को देखकरॐॐ
प्राप्यावन्तीनुदयन कथाकोविदग्रामवृद्धान्
पूर्वोद्दिष्तामनुसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम्।
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां
शेषैÁ पुण्यैर्हृतमिव दिवÁ कान्तिमत् खण्डमेकम्।।
देखना भला–
ललित रमणियों के लाक्षारंजित चरर्णचिन्हों
की सुषमा
थकावट मिटाना भला–
उज्जैन के कुसुम सुरभित महलों में
सुगन्धित करके सुन्दरियों के बाल
झरोखों से निकलता होगा अगर की धूप का धुंआ
कर लेना उससे शरीर अपना पुष्टऌ
बन्धु सुलभ स्नेह से अभिभूत पालतू मयूर
देंगे तुम्हें नृत्य का उपहार।
जालोद्गीर्णेत्ङरूपचितवपुÁ केशसंस्कारधूपै–
र्बन्धुप्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारÁ।
हम्र्येष्वस्याÁ कुसुमसुरभिष्वध्वखेदं नयेथा
लक्ष्मीं पश्यंल्ललितवनितापादरागाङ्कितेषु।।
आगे मिलेगा चंडीनाथ महाकाल का मन्दिर
देखेंगे शिव के गण सादर सभक्ति तुम्हें–
‘श्यामकान्ति वाले हे धन्य मेघ‚
हमारे प्रभु के कंठ की तरहॐ’
तरुणियों की जलकेलि के कारण कटु–कषाय
प्रफुल्ल कमल–कुमुद–पराग सुरभित
शिप्रा नदी का समीर वहाँ
सचल–सचेत किये रहता उपवन को
भर्तुÁ कण्ठच्छविरिति गणै सादरं वीक्ष्यमाणÁ
पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य।
धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्र्या
स्तोयक्रीड़ानिरतयुवतिस्नानातिक्तैर्मरूद्भिÁ।।
कभी चाहे पहुँचो महाकाल के पास
रुक जाना मगर संध्याकाल तक
गरज–गरज के करना तुम भी नगाड़े की आवाज़
होने लग जाय जब शाम की सुहावनी आरती
इस प्रकार पूरी तरह होंगे सफल
मंद्र–गंभीर गर्जन तुम्हारे।
अप्यन्यस्मिंजलधर महाकालमासाद्या काले
स्थातवत्यं ते नयनविषयं यावदत्येति भानुÁ।
कुर्वन् संध्यावलिपटहतां शूलिनÁ श्लाघनीया–
मामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम्।।
छोड़ते होंगे मीठी–मीठी आवाज़ करधनी के
छोटे–छोटे घुंघरु
पा–पा कर नाच में जिनके थिरकते पैरों की धमक
थक गए होंगे मुलायम कलाई वाले जिनके हाथ
जड़े नगों से दमकती मूँठ वाले चँवर डुलाते–डुलाते‚
चलाएंगी तुम पर भी भौंरों की कतार जैसी बड़ी–बड़ी
तिर्छी नज़रें
ताज़ा–ताज़ा ठंडी–ठंडी बूंदे पड़ेंगी जब
उन वेश्याओं के नखक्षतों पर
पदन्यासक्वणितरशनास्तत्र लीलावधूतै
रत्नच्छायाखचितवलिभिश्चामरैÁ क्लान्तहस्ताÁ।
वेश्यस्तवत्तो नखपदसुखान् प्राप्य वर्षाग्रविन्दु–
नामोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान् कटाक्षान्।।
अड़हुल के टटके फूलों की तरह
सांध्य लालिमा लिये हुए
छा जाना उँचे–उँचे पेड़ों की बाँहों पर
आरती के बाद‚
आरंभ होगा भगवान पशुपतिनाथ का तांडवनृत्य
प्ूारी करना तुम आद्र्र गजचर्म ओढ़ने की उनकी
अभिलाषाऌ
पहले चकित‚ फिर शान्तचित्त
– देखती रहेंगी तुम्हें भवानी दुर्गा
सराहेगी मन ही मन शिव के प्रति इस भक्तिभाव को।
पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनÁ
सान्ध्य तेजÁ प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानÁ।
नृत्यारम्भे हर पशुपतेताद्र्रनागाजिनेच्छां
शान्ताद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्याÁ।।
काले पाख का होगा नीरव निशीथ
राजपथ होगा घन तिमिर के कारण आलोकहीन
जा रही होंगी प्रियतम के पास
मिलनातुर तरुणियाँ
आलोकित करना मित्र तुम उनका मार्ग
छिटकाना कनक–कसौटी सी स्निग्ध दीप्त बिजली
न तो बरसना‚ ना ही गरजना
वरना बेचारी राह में ही
दम तोड़ देंगी घबरा–घबरा के।
गच्छन्तीनां रमणवसतिं योषितां तत्र नक्तं
रुद्धलोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस्तमोभिÁ।
सौदामिन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वि
तोयोत्सर्गस्तनितमुखरा मा स्म भूर्विक्लवास्ताÁ।।
चिर–विलास के कारण थकी हुई
प्रेयसी अपनी विद्युत को लेकर
बिता देना किसी ऐसे मकान की छत पे रात
– सोये पड़े हों जहाँ कबूतर
फिर वहाँ से चल देना सूरज निकलते सबेरे–सबेरे
लेकर मित्रों के काम की जिम्मेवारी
ढीले नहीं पड़ते कभी भले आदमी।
तां कस्यांचिद् भवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात् खिन्नविद्युत्कलत्रÁ।
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान् बाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सहृदामभ्युपेतार्थकृत्याÁ।।
और किसी के साथ गँवाकर रात लौटेंगे प्रीतम ह्यसूर्यहृ
पोंछेंगे वंचिता प्रेयसि के नयनजल तड़के
देखना‚ उस वक्त सूरज की राह मत छेंकना
वह खुद भी लौट रहा होगा उषा की वेला में
नलिनी के कमलमुख से हिम–अश्रु पोंछने
रोकोगे किरण–करों को तो वह बेहद रंज होगा।
तस्मिन् काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां
शान्ति नेयं प्रणयिभिरतो वत्र्म भानोत्स्यजाशु।
प््राालेयास्त्रं कमलवदनात् सोऽपि हर्तुं नलिन्याÁ
प््रात्यावृत्तस्त्वधि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयÁ।।

गंभीरा नदी का जल है
चित्त की तरह प्रसन्न–निर्मल
छायामय मेघ‚ पड़ेगी उसमें श्यामल प्रतिच्छवि
सहज सलोने तुम्हारे तन की
कुमुद–धवल चपल मछलियाँ –
लोटती–पलोटती‚ किया करेंगी किलोल
वस्तुतÁ यही तो तुम्हारी उस प्रेयसी की होंगी
शोख चितवनें
आसान नहीं होगा उनकी उपेक्षा करना।
गम्भीरायÁ पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने
छायात्मापि प्रकृतिसुलभो लपस्यसे त्वं प्रवेशम।
तस्मादस्याÁ कुमुदविशदान्र्यसि त्वं न धैर्र्या
न्मोघीकर्तू चटुलशफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि।।
नीचे झुक कर पियोगे ‘गंभीरा’ का स्वादिष्ट जल
खाली होगी वह‚ निचले तट तक दिखाई देने लगेंगे
खिसकती साड़ी संभालती को हाथों–सी –
झुकी रहेंगी बेंत की ताजी हरी छड़ियाँ
हट चुका होगा श्याम–सलिल–चीर
खुल गए होंगे प्रवाह नितम्ब
कौन भला छोड़ देगा उघरे जांघों वाली प्रेयसी
का सम्पर्क
अविदित न रह गया हो यदि स्वाद
तो तुम बड़ी मुश्किल से
अपनी उस प्रेयसि का छोड़ पाओगे साथ
अछता–पछता कर प्रस्थान करोगे आगे की ओर
तस्याÁ किंचित्करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधो नितम्बम्।
प््रास्थान ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतं जघनां को विहातुं समर्थÁ।।
अपना रुख करना तब देवगिरि की ओर
बहती होगी नीचे ठण्डी–ठण्डी हवा –
फुहारों से उच्छ्वसित धरती की ताजी–सोंधी वास लिये‚
उठाकर सूंड पी रहे होंगे वही हवा हाथी
हल्की–हल्की चिंघाड़ भर रही होगी दिशाओं में
मादक सिहरन
पक रहे होंगे जंगली गूलरर्
पा पा कर जादुई परस उसी बयार का।
त्वन्निष्यन्दोछ्वसितसुधागन्धसम्पर्करम्य
स्त्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिÁ पीयमानÁ।
नीचैर्वास्यत्युपजिगमिषोर्देवपूर्व गिरिं ते
शीतो वायुÁ परिगणमयिता काननोदुम्बराणाम्।।
देवगिरि में स्थापित है
विश्ववन्द्य स्कन्द की प्रतिमा
बरर्साबरसा कर मंदाकिनी–सलिल–सिक्त फूल
उन्हें तुम नहलाना‚ बन जाना पुष्पवर्षी बादलॐ
सुरपति सेनाओं की रक्षार्थ
अर्धेन्दुमौलि भगवान शंकर ने‚
डाला था अग्नि के मुँह में तेजोमय वीर्य अपना
– सूर्य तक के लिये असह्यॐ
वही तो आप हैं परम प्रतापी कुमार कार्तिकेय
तत्र स्कन्द नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा
पुष्पासारैÁ स्नपयतु भवान् व्योमगंगाजलार्दे्रÁ।
रक्षाहेतोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूना –
मत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद्धिं तेजÁ।।
करके अराधना
कृत्तिकापुत्र भगवान स्कंद की
आगे बढ़ जाना
भीगने के डर से खाली कर देंगे तुम्हारी राह
वीणापाणि सिद्धों के विलासी जोड़े
नदी के रूप में प्रभावित है आज भी
राजा रंतिदेव की कीर्ति
किया था उसने गोमेध यज्ञ‚
बहाई थी खून की धार
नीचे उतर आना तुम
चम्बल को अपना प्यार देना।
आराध्षैनं शरवणभवं देवमुल्लंघिताध्वा
सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद् वीणाभिर्मुक्तमार्गÁ।
व्यालम्बेथाÁ सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
स्त्रोतोमूत्र्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम्।।
चम्बल के उस पार
लक्ष्य बनने देना अपने को
दशपुर निवासिनी सुन्दरियों की
उन तिर्छी चितवनों का –
खूबी उड़ा ली है जिन्होंने
हिलते कुन्द कुसुमों के अनुगामी भौंरों की
और भँवों की थिरकन से सुपरिचित
ऊपर को ‘उठती चंचल पलकें’ छू छू कर
चमकती रहती हैं काली काली पुतलियाँ जिनकी
गतिशील सफेद कोरों के भीतर।
तामुत्र्तीये व्रज परिचितभ्रूलताविभ्राणां
पक्ष्मोत्क्षेपादुपरि विलसत्कृष्णशारप्रभाणाम्।
कुन्दक्षेपानुगमधुकर श्रीमुषामात्मविम्बं
पात्री कुर्वन् दशपुरवधुनेत्रकौतुहलानाम्।।
छायामात्र से ब्रह्मावर्त को अनुगृहीत करके
कुरुक्षेत्र जाना
जूझे थे‚ हुए थे ढेर लाखों लाख क्षत्रिय…
इस तथ्य का साक्षी…
कौरव–पाण्डव दलों का प्रथम प्रथित युद्धस्थलॐ
छिन्न–ंिभन्न कर डाले राजपुत्रों के मुख
गांडीवी अर्जुन के तीखे शरों की अभिवृष्टि से
करते हो कमलों का वही हाल‚
भारी बौछारों से तुम भी तोॐ
ब्रह्मावर्त जनपदमथ च्छायया गाहमानÁ
क्षेत्र क्षत्रप्रधनपिशुनं कौरवं तद् भजेथाÁ।
राजन्यानां शितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा
धारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि।।
बान्धवजन सुलभ प्रीती के कारण ही
महायुद्ध से तटस्थ
कृष्णाग्रज हलधर बलदेव
छोड़कर अपनी रुचि का मद्य‚
प््रोयसी लोचन प्रतिबिम्बित
पिया करते थे‚ जिस नदी का सुस्वादु जल‚
प्रियवर पयोद‚ तुम भी करना सेवन
सरस्वती के उस पवित्र जल का।
होगा शुद्ध–स्वच्छ अन्तस्तल
सूरत भर रह जाएगी साँवलीॐ
हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनांका
बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लांगली याÁ सिषेवे।
कृत्वा तासामभिगमपां सौम्य सारस्वतीर्ना
मन्तÁशुद्धस्तत्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णÁ।।

आगे पड़ेगा कनखल
नीचे उतरती जहाँ गंगा जन्हुनंदिनी
शैलराज हिमालय की तलहटी छोड़कर
अभिशप्त सागरपुत्रों के स्वर्र्गगमन निमित्त
बना दी थी उसने सीढ़ियों की कतार।
सौतिया डाह के कारण गौरी
मुँह चिढ़ाती रही‚ करती रही भ्रू–भंग
मगर गंगा कहाँ कम थीॐ
छोड़–छोड़कर ढेरों झाग करती रही
गौरी का परिहास
भालचन्द्रस्पर्शी तरंग हाथों से
पकड़ लिये आखिर उसने शिव के बाल।
तस्माद गच्छेरनुकनखलं शैलराजावतीर्णा
जन्होÁकन्या सगरतनयस्र्वगसोपानपंक्तिम्।
गौरीवक्रभ्रू कुटिरचनां या विहस्येव फैनेÁ
शम्भोÁ केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्मिहस्ता।।
स्वच्छ स्फटिक निर्मल
गंगा भागीरथी का पवित्र जल
पीना चाहोगे ऐरावत की तरह
निम्नाभिमुख लम्बायमान होकर
गतिशील स्त्रोत में पड़ेगी छाया तुम्हारी
उस तरफ तनिक ताकना तोॐ
तीर्थराज प्रयाग से अन्यत्र
गंगा यमुना के संगम–सा वह दृश्य
वाहॐ कैसा सुशोभन होगा।
ह्यगंगा के जल में सांवले बादल की परछांई जमुना के सांवले जल की तरह लग रही है तो कवि ने यहाँ गंर्गायमुना के संगम की उपमा दी है।हृ आगे यक्ष कल्पना में मेघ को हिमालय तक पहुँचा देता है अपने सुरम्य वर्णनों के साथ।

 तस्याÁ पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्धलम्बी

त्वं चेदच्छस्फटिक विशदं तर्कयेस्तिर्यगम्भÁ।
संसर्पन्त्याÁ सपदि भवतÁ स्त्रोतसिच्छाययासौ
स्यादस्थानोपगतयमुनासंमेवाभिरामा।।
उसी सुरसरि त्रिपथगा का उत्स
बैठे कस्तूरीमृगों की नाभिगंध से सुरभित
शिलाआें वाला
ताज़ा बरफों से सफेद पर्वतेश्वर हिमालय
आगे मिलेगा तुम्हें।
मार्गश्रमहारी उसके शिखर पर
थोङी देर सही . बैठ किन्तु जाना
दिखाई पड़ेंगे तुम्हें
शिव के श्वेत वृष की सींगों पर लगे हुए पंक सम।
आसीनानां सुरभितीशलं नाभिगन्धैम गाणां
तस्या एवं प्रभवमचलं प्राप्त गौरं तुषारैः।
वक्ष्यस्यध्वश्रमविनयने तस्य श्रृङ्गे निषण्णः
शोभां शुभ्रत्रिनयनवषोत्खातपङ्कापमेयाम् ।।
अमल धवल हिमराशिमंडित
उसी नगपति की किसी शिला पर
भलीभांति अंकित है भगवान शंकर के चरणचिन्ह
करते है निवेदित सिद्धगण
बहुविध उपहार जिनके निमित
तुम भी जाना प्रिय उसके निकट
करना दर्शन
श्रद्धालुजन करते है उन चरणों का साक्षात्कार
पाते है प्रथम आदि गणों के शाश्वत पदाधिकार
देहत्याग के बाद।
तत्र व्यक्तं सपदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौलः
शश्वत्सिद्धैरूपचितवलिं भक्तिनम्रः परीयाः ।
यस्मिन् दष्टे करणविगमादूध्र्वगुद्धूतपापाः
संकल्पन्ते स्थिरगणप्राप्तये श्रद्धानाः ।।
मीठे मीठे बज रहे होगे
पवन पूरित सन्छिद्र जंगली बाँस
गा रही होगी हिल मिल के किन्नरियां
त्रिपुरासुर विजय के गीत
पूर्ण हो जाएगा संगीत का आयोजन
गर्जन तुम्हारा यदि हो उठे प्रतिध्वनित
ठीक उसी गुफाओ के अन्दर
शब्दायन्ते मधुरमनिलै कीचकाः पूर्वमाणाः
संसक्तामिस्त्रिपुरव्रिजयो गीयते किंनरीभिः ।
निर्हृादस्ते मुरज इव चेत कन्दरेषु ध्वनिः स्यात्
संगीतार्थो ननु पशुपते स्तत्र भावी समग्रः ।।
हिमालय के कंगूरो से गुज़रते हुए
देखते हुए उसकी खुबियाँ
पहँुचना उस सँकरी घाटी के निकट
कहते है जिसे क्रौंच द्वार
भृगुपति परशराम ने करके छेद
जिसने से निज कीर्ति को बढ़ा लिया था आगे
तुम भी बढना आगे उत्तर की ओर
उसी क्रौंचरन्ध्र मे से होकर
दीखेगी उस समय तुम्हारी आकृति तिर्छी लम्बी
राजा बलि को अनुशासित करते समय
तिर्छे लम्बे ऊपर उठे साँवले पैर की तरह
वमनरूपधारी विष्णु के।
प््राालेयाद्रेरूपतटमतिक्रम्य तांस्तान् विशेषान्
हंसद्वारं भ्रगुपतियशोवत्र्म यत् क्रौञ्चरन्ध्रम्।
तेनोदीचीं दिशमनुसरेस्तिर्यगायामशोभी
श्यामः पादो वलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णाःे।।
फिर जरा ऊपर उठकर कैलाश का अतिथि होना
चटक उठी थी जिसके शिखरों की सन्धियां
दसकंधर रावण की बीस बांहो मे कसकर
दर्पण का काम लेती है देव बालाएं जिसके
ऐसा वह कैलाश
कर्पूरगौर करूणापति भगवान शंकर के
दिन दिन पुं जीभूत सित उज्जवल अट्टहास तुल्य
फैल रहा नीले आसमान मे
कुमुदाभ अमल धवल चोटियों की ऊंचाइयां
लेकर।
गत्वा चोध्र्व दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्यसन्धेः
कैलासस्य त्रिदशवनितादर्पणस्यातिथिः स्याः
श्रृङ्गोच्छ्रायैः कुमुदविशदैर्यो वितत्य स्थितः खं
राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्रयम्बकरयाट्टहासः।।

हाथी दांत के ताज़ा ताज़ा तराशे हुए टुकङे की तरह
गोरा है कैलाश
भलीभांति बने काजल की तरह
तुम हो चिकने काले
बताऊं. सटोगे उससे तो कैसे लगोगे ऋ
पङी हो नीली चादर ज्यों गौरांग बलदेव के
कन्धों पर
सांवले सलोने प्रिय मित्र मेघ
दीखोगे उसी तरह धवलगिरि पर
ठगी पगी आंखों से एकटक देखने लायक।
उत्पश्यामि त्वयि तटगते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे
सद्यः क्रक्तद्विरदशनच्छेदगौरस्य तस्य।
शोभामद्रेः स्तिमितनयनप्रेश्रणीयां भवित्री –
मंसन्यस्ते सति हलभ्रतो मेचके वाससीव।।
वहीं कैलाश पर एक ओर
क्रीर्ङापर्वत है उमानाथ का
परे रखकर भुजंग कंगन
शिवजी देते होगे हाथ का सहारा
करती होगी पार्वती तब उस पहाङी पर
चहल–कदमो
मीत म्ेोरे मेघ
बरसना मत उस वक्त
अपनी जलराशि को अन्दर ही कर लेना स्तंभित
होकर भक्ति भाव से प्रणव शरीर
सीढ़ियों का काम करना उनके निमित्त
मणिमय कंगूरे पर सरलापूर्वक चढ जाएगी
भवानी।
हित्वा तस्मिन् भुजगवलयं शम्भुना दत्तहस्ता
क्रीङाशैले यदि च विचरेत् पादचारेण गौरी।
भङ्गीभक्त्या विरचितवपुः स्तम्भितान्तर्जलौधः
सोपानत्वं कुरू मणितटारोकणायाप्रयायी।।
रगङ रगङ कर रत्नखचित कंगनो के नुकीले कोर
निकालेगी तुम्हारी देह से सुरयुवतियां पानी
बना डालेगी तुम्हे फव्वारों का घर
उलझकर उनसे गरम हो उठोगे
कर्णकटु गर्जनों से धमका देना
छुटकारा चाहो यदि उन ढीठ अप्सराओं
की पकङ से
तत्रावश्यं वलयकुलिशोद्धट्टनीद्गीर्णतीयं
नेष्यन्ति त्वां सुरयवतयो यन्त्रधारागृहत्वम्।
ताभ्यो मोक्षस्तव यदि सखे धर्मलब्धस्य न स्यात्
क्रीडालोलाः श्रवणपरूषैर्गर्जितैर्भाययेस्ताः।
जी भर घूमना
मनाना मौज कैलाश पर्वत पर
मुंह पर सिल्क सा छाकर
बहला देना ऐरावत का दिल
विचित्र विलक्षण कोमल नये नये पात कल्पतरू के.
……. . . . .महीन सतरंगी रेशमी की तरह
हलराना उन्हे बार बार
हेमाम् भोजप्रसवि सलिलं मानसस्यददान
कुर्वन् कामं क्षणमुखपटप्रीतिमैरावतस्य।
धुन्वन् कल्पद्रुमकिसलयन्यशुकानीव वातै
र्नानाचेष्टैर्जलद ललितैर्निर्विशेस्तं
नगेन्द्रम्।।
प्रियतम की गोद में प्रेयसी की तरह
कैलाश की गोद में शोभित है अलका नारी. .. .. .
नीचे खिसकी जा रही होगी गंगा शाल समानॐ
हो नही सकता कि तुम पहचानो न अलका को . . . .
ऊंचे भवनोंवाली उस नगरी पर
छाये ही रहते है बरसते बादल तुम्हारे मौसम में
कि मोतियों की झालरें ज्यों
कामिनी के कुन्तलकलाप परॐ
तस्योत्सङ्गे प्रणयित इव स्रस्तगङ्गादुकूलां
न त्वां दृष्ट्वा न पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन्।
षा वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैविमाना
मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम््।।
क्यो न करेगे बराबरी तुम्हारी
अलकापुरी के ऊंचे ऊंचे प्रासाद
ळपलपाती बिजलियाँ है तुम्हारे साथ
तो उनके साथ है ढीठ और छबीली तरूणियांँ
इन्द्रधनुष बढ़ाता है तुम्हारी शोभा
तो वे भी जगमगाते हैं रूचिर चित्रों से
गरजते हो तुम मन्द्र्रगंभीर
तो उनसे भी संगीत के समय ठनकते हैं ढोलक
घनीभूत हैं तुम्हारे अन्दर श्याम नील सलिल
तो नीलमर्णिखचित हैं उनकी भी गचें
तुम हो ऊंचाई पर तो उनकी भी अटारियाँ
गगन को चूम रहीं
विद्युत्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः
संगीताय प्रहरमुतजाः स्निग्धगम्भीरघोषम्।
अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुङ्गमभ्रलिहाग्राः
प््राासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तेर्विशेषैः।।

खिले–अधखिले फूलों से
लदे रहते हैं सदा ही पेड़
सुनाई पड़ती हैं मदमस्त भौंरों की गुंजन
हमेशा
घेरे रहती हैं हंस की पाँतें
बावड़ियों में सदाबहार कमलों की
जगमग पंख उन्नत–शिर पालतू मोर
बोलते रहते हैं दिन–रात
रातों पर करती है पोची पै पोची
महीने में तीसो दिन अँजोरियां
यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा
हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः।
खेकोत् कण्ठा भवनशिखिनां नित्य भास्वत् कलापा
नित्यज्योत्स्नाः प्रतिहततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः।।
आनन्द के कारण ही
सजल हो आती हैं आंखे .
अन्यथा देख नहीं पाओगे आँसूॐ
ल्गते कामदेव के तीर बस तभी पैदा होती है जलन
जिसका प्रतिकार है इच्छित जन समागम।
करते हैं चुहलबाज़ आपस में प्यार के झगड़े. ।
बिछुड़ते हैं जानबूझकर . यही बस बिछोह हैं
उनके यहांॐ
बचपन न बुढ़ापा
जवानी ही जवानी होती है
समूची आयुॐ
धनपति यक्षों का कुछ ऐसा ही होता है अनोखा संसार।
आनन्दोत् थं नयनसलिलं यत्र नान्यैर्निमित्तै
र्नान्यस्तापः कुसुमशर जादिष्टसंयोगसाध्यात्।
नाप्यन्यस्मात् प्रणयकलहाद्विप्रयोगोपत्ति
र्वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनादन्यदस्ति।।
उस समय. मेघ. आ गई हो बेचारी को यदि नींद
तो बंद करके गर्जन–तर्जन
पहर भर बैठना.
प्रतीक्षा करना।
स्वप्न में कथचित मुझसे हुआ होगा समागम‚
कर रही होगी गाढ़ आलिंगन गले मे डालकर
बाहुपाश।
तोड़कर नींद विध्न मत डालना उसके मिलन–सुख में
देखना. पड़ने न पाए ढीली भुजलता–ग्रन्थिॐ
तस्मिन् काले जलद यदि सा लब्धनिद्रासुखा स्र्या
दन्वास्यैनां स्तनितविमुखो याममत्रं सहस्व।
मा भूदस्याः प्रणयिनि मयि स्वप्नलब्धे कथंचित्
सद्यः कण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढोपगूढम्।।
कहलवाया है –
यह है आषाढ़
चार महीने बाद
शेषशायी विष्णु उठेंगे सोकर
तभी होगी मेरे अभिशाप की अवधि समाप्त।
काट लो आँख मूँदकर कथंचित कुछ–एक महीने।
फिर तो मेरी रानी‚ विरह–काल में
हृदय के मध्य उबलने वाली हमारी ये साधें
पूरी होंगी शरद की चाँदनी वाली उन रातों में।
शापान्तो मे भुजगशयनादुत् िथते शाङर्् गपाणौ
शेषान्मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा।
पश्चदावां विरहगुणितं तमात्माभिलाषं
निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चद्रिकासु क्षपासु।।

कहलवाया है –
पहचान की इन बातों से समझ लेना कि मैं कुशल हूँ.
अफवाहों की ओर लगाना मत कान
शक न करना. भरोसा रखना
चंचल नयनोंवाली मेरी प्यारीॐ
व्यर्थ ही कहते हैं लोग कि विरह में मर जाता है – प्रेम
वस्तुतः मिलती नही जब मन चाही चीज़
बहुत बढ़ जाती है उसे पाने की प्यास।
इकट्ठा हो जाता है फिर ढेर–सा प्यार‚
विरह की स्थिति में प्रेम बढ़ता ही जाता है इस प्रकार।
एतस्मान्मां कुशलिनमभिज्ञानदानद् विदित्वा
मा कौलींन्यच्चकितनयने कय्यविश्वासिनी भूः।
स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोर्गा –
दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवीन्त।।
लगने देना उसको देह में फुहारों से ठंडी अपनी बयार‚
खुलने देना पलकों को अपने–आप।
मालती की अभिनव कलियों के समान
कोमल–कमनीय है मेरी प्रेयसी के अंग
उनमें तुम धीरे–धीरे स्पन्दन भरना।
झरोखें पर बैठे होगे तुम‚
एकटक निगाहों से तुम्हारी तरफ देखती वह होगीऌ
ध्यान रहे‚ उस वक्त कौंध न जाए कहीं बिजली।
मानमयी मेरी प्रियतमा से
मृदु–मधुर गर्जनों में कहना –
“सुहागिन तुम्हारे पति का प्रियमित्र मैं हूं
मेघ‚ वारिवाहन…
हृदय में निधि की तरह संभाल कर लाया हूं
संदेश यहां।
राह में सुस्ताते होते हैं प्रवासी पथिकों के गिरोह‚
मन्द–मधुर–स्निग्ध अपनी ध्वनियों से
भरा करता हूं मैं उनके अंदर घर लौटने की
उतावली”
तात्मुथाप्त स्वजलकणिकाशीतलेनानिलेन
प्रत्याश्वस्तां समभभिनवैर्जालकैर्मालतीनाम्
विद्युद्गर्भÁ स्तिमितनयनां त्वत्सनाथे गवाक्षे
वक्तुं धीरÁ स्तनितवचनैर्मानिनीं प्रक्रमेथाÁ।।
भर्तुमित्रं प्रियमविधवे विद्धि मामम्बुवाहं
तत्संदेशैर्हृ दयनिहितैरागत्रं त्वत्समीपम्।
यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां
मन्द्रस्निग्धैध्र्वनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि।।

इतना सुनते ही खिल पड़ेगी‚
मुंह उठााकर ऊपर निहारने लगेगी‚
मन–ही–मन करेगी सत्कार तुम्हारा‚
उत्कंठित–हृदया प्रेयसी मेरी
सुनकर पवन–पुत्र से पति के संदेश का प्रथम पद
हो उठी थी जिस प्रकार उच्छ्वसित–उन्मुख
वियोगनी मैथिल–कन्या सीता।
इसके बाद सुनेगी आगे का संदेश
होकर अति सावधान
तुम्हारे मुख से मेरे मेघ‚ भद्रकान्तॐ
सखा के मुख से प्राप्त कुशल–समाचार पति का
तनिक ही कम होता साक्षात् मिलन की अपेक्षा
सुहागिनों के लेखे।
इत्याक्याते पवनतनयं मैथलीवोन्मुखी सा
त्वामुत्कण्ठोच्छ्वसितहृदया वीक्ष्य सम्भाव्य चैवम्।
श्रोष्यत्स्मात्यपरमवहिता सौभ्य सीमन्तिनीनां
कान्तोदन्तÁ सुहृदुपनतÁ संगमात् किंचिटूनÁ।।
कहना –
निरुपाय पड़ा है दूर–बहुत दूर तुम्हारा प्रीतम‚
वैरी विधाता रोके बैठे है लौटने की उसकी राह।
मनोरथों के द्वारा पहुंचता ही रहता है फिर भी –
तुम तक।
दुबलापन‚ जलन‚ लगातार बहते हुए आंसू‚
गरम‚गरम सांसे‚ मिलने की आकुलता…
यह सब किधर थोड़े है‚ किधर अधिक –
महा कठिन है समझनाॐ
पा लेता है वह तो भी तुम्हारे देख की बहुत कुछ थाह
करके अनुभव अपने तन–मन की दुÁस्थिति का।
अङ्गेनाङ्गं प्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तं
सास्रे णाश्रुद्रुतमविरतोत्कण्ठमुत्कण्ठितेन।
उष्नोच्छ्वासं समधिकरतोच्छ्वासिना दूरवर्ती
संकल्पैस्तैर्विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गÁ।।
कहना –
रहती थी बात प्रकट तौर पर कहने योग्य
फिर भी खुल्लमखुल्ला सहेलियों के सामने
तुम्हारे कानों में सटकर फुसफुसाता था जो ढीठ
बस‚ होठों से गाल छू लेने के लालच से‚
तुम्हारा वहीं प्रेमी पड़ा है दूर
कानों से परे‚
आंखो से ओझल।
इसीसे कहलवाए है मेरे मुंह से उसने
उत्कंठा में डूबे हुए कतिपय ये शब्द।
शब्दाक्येयं यदपि किल ते यÁ सखीनां पुरस्तात्
कर्णे लोलÁ कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात्।
सोऽतिक्रान्तÁ श्रवणविषयं लोचनाभ्यामदृश्र्ट
स्त्वमुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदमाह।।
कहलवाया है –
बहुत दिनों बाद कदाचित्
सपनों में पड़ जाती हो दिखाई
गाढ़ आलिंगन के लिए फैला देता हूं बांहे
आकाश की ओर
द्रवित हो उठी हैं वन की देव देवियां
देखकर मेरा यह हालऌ
टपकते है बड़े–बड़े मोतियों की तरह आंसू‚
हो–होकर सिक्त चमकते रहते है पेड़ो के पल्लव।
मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेष्हेर्तो
लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु।
प्श्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदैवतानां
मुक्तास्थूलास्तरूकिसलयेष्वश्रुलेशाÁ पतन्ति।।
कहलवाया है –
झटके से तोड़कर देवदार के टटके टुसे
लेकर उनके रस का सौरभ
आता ही रहता है दक्षिण की ओर हिमालय का
शीतल समीर
लगा लिया करता हूं मै उसे वक्ष से‚ प्यारीॐ
यहीं समझकर कि आए होंगे देह छूकर तुम्हारीॐ
भित्त्वा सद्यÁ किसलयपुटान् देवदारुद्रुमाणां
मे तत्क्षीरस्रु तिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्ताÁ।
आलिङ्गय्न्ते गुणवति मया ते तुषाराद्रिवाताÁं
पूर्वं स्पृष्टं यदि किल भवेदङ्गमेभिस्तबेति।।
कहलवाया है –
यह है आषाढ़
चार महीने बाद
शेषशायी विष्णु उठेंगे सोकर
तभी होगी मेरे अभिशाप की अवधि समाप्त।
काट लो आंख मूंदकर कथंचित कुछ–एक महीने…
फिर तो मेरी रानी‚ विरह–काल में
हृदय के मध्य उबलने वाली हमारी ये साधें
पूरी होगी शरद की चांदनी वाली उन रातों में।
शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिने शार्ङ् गपाणौ
शेषान्मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा।
प्श्चादावां विरहगुणितं तमात्माभिलाषं
निर्वेक्ष्यावÁ परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु।।
और‚ यह भी कहलवाया है
तुम्हारे प्रियतम ने मेरे मुंह से –
गले से लगी सोई पड़ी थी तुम एक बार
जोरो से चिहुंक उठी थी‚ जग उठी थी रोती–रोती
‘क्या हुआ‚ क्या हुआ’ …… बार–बार मैने पूछा था
तुम्हारा मुखमण्डल हो उठा था उद्भासित
गुलाबी हंसी की हल्की लहरों से
और दबी आवाज में बोली थी तुम…
बताऊं‚ क्या बोली थी?
बोली थी – सपनें में अभी–अभी तुम्हें देखा मैंने –
उड़ा रहे थे मजे. किसी दूसरी के साथ।
भूतश्चाह त्वमपि शयने कण्ठलग्ना पुरा मे
निद्रां गत्वा किमपि रूदती सस्वनं विप्रबुद्धा।
शान्तर्हास कथितमसकृत्पृच्छतश्च त्वया में
दृश्य् स्वप्ने कितव रमयन् कामपि त्वं मयेति।।
कहलवाया है –
पहचान की इन बातों से समझ लेना कि मैं कुशल हूं‚
अफवाहों की ओर लगाना मत कान
शक न करना‚ भरोसा रखना
चंचल नयनों वाली मेरी प्यारीॐ
व्यर्थ ही कहते है लोग कि विरह में मर जाता है प्रेम‚
वस्तुतÁ मिलती नहीं जब मन चाही चीज
बहुत बढ़ जाती है उसे पाने की प्यास।
इकट्ठा हो जाता है फिर ढेर–सा प्यारऌ
विरह की स्थिति में प्रेम बढ़ता ही जाता है इस
प्रकार‚
एतस्मान्मां कुशलिनमभिज्ञानदानाद् विदित्वा
मा कौलीन्याच्चकितनयने कय्यविश्वासिनी भूÁ।
स्नेहानाहुÁ किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोर्गा
दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाÁ प्रेमराशीभवन्ति।।
प्रथम विरह के कारण प्रबल शोक से अभिभूत
अपनी भाभी को दो आश्वासनॐ
खुरों और सींगों से उकेरता रहता है
रुद्र वाहन वृषभ जिसकी चोटियां
फिर यहां आओ लौटकर उसी कैलास सेॐ
निशान–पहचान समेट कुशल–समाचार
मुझे भी सुनाओ
संभालो प्रिय इस प्रकार
प्रातÁकालीन कन्ुद–कुसुम की तरह
चू पड़ने को तैयार मेरा यह जीवनॐ
आश्वास्यैवं प्रथमविरहोदग्रशोकां सखी ते
शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटान्निवृतÁ।
साभिज्ञानप्रहितकुशलैस्तद्वचोभिर्ममापि
प्रातÁ कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाÁ।।
प्रिय भाई‚
मेरा यह काम पूरा करोगें न?
आखिर‚ तुमने इस बारे में क्या तय किया?
रहने दो‚ अपार आस्था है मुझे तुम पर।
समझता हूं मैं तुम्हारे मौन का तात्पर्य
‘ हां ‘ या ‘ हूं ‘ करोगे‚ तभी तसल्ली होगी…
ऐसी कोई बात नहीं।
जानता हूं‚ तुम्हीं हो कि मांगने पर
दिया करते हो चुपचाप चातकों को पानी।
मालूम हो जाने पर चुपके से कर देते है काम –
याचकों के प्रति यहीं जवाब हुआ करता है
सज्जनों का
कच्चित्सौम्य व्यवसितमिदं बन्धुकृत्यं त्वया मे
प्रत्यादेशान्न खलु भवतो धीरतां कल्पयामि।
निÁशब्दोऽपि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्यÁ
प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव।।
मित्रवर मेघॐ
तुम्हारे योग्य नहीं है यह काम
क्षमा करना‚ बहुत बड़ी ढिठाई की मैंने।
मित्र हूं‚ विरही हूं‚ दया का पात्र हूं…
चाहे कुछ भी समझोॐ
मान लेना मेरी प्रार्थना‚
कर देना काम पूरा।
तत्पश्चात्
होकर मंगलमय पावस से समृद्ध
जहां चाहो घूमते फिरना।
क्षण भर भी इसतरह का बिछोह
प्राणप्यारी‚ अपनी बिजली से
कभी न हो तुम्हाराॐ एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनार्वितनो मे
सौहार्दिद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्धय्या।
इष्तान्देशाज्जलद विचर प्र्रावृषा संभृतश्र्री
र्मा भूदैवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगÁ।।

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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