” अकेले होने की पीड़ा‚ त्रासदी‚ आतंकऌ मैं क्या नाम दूं इसको? पर इतना प्रभाव तो मेरे मन पर पड़ा ही है। आंसुओं को मैं तेज रफ्तार से दौड़ते हुए सुखाती रही। पिछले दस वर्षों से काम की व्यस्तताओं में उलझकर इस प्रश्न को मैं ने बार बार पीछे ढकेला है… यदि मेरे पास काम न होता‚ यह भाग – दौड़ न होती‚ तब क्या मैं जी पाती? और पिछले दस दिनों से यह प्रश्न अपनी पूरी अस्मिता के साथ सामने खड़ा है… हाँ‚ जवाब दो‚ खोजो। ज़िन्दगी जीने के और भी तरीके होते हैं। मगर कौनसा तरीका? जूडी हमेशा से कहती रही‚ ” प्रियाॐ तुम अपनी डायरी लिखती रहो। औरत आज भी मूक है। उसके आंसुओं को दुनिया देखती है। उसके हिस्टीरिया के दौरे‚ उसके चीखने चिल्लाने पर लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं… उसकी शिकायत भरी निगाहों को देखकर भी पुरुष अनदेखा कर जाता है। मगर शब्दों का अपना इतिहास होता है… और यदि वे छप जायें तब क्या उनकी यों उपेक्षा करना संभव होगा?”

हिन्दी की प्रसिद्ध कथाकार प्रभा खेतान के उपन्यास ‘ छिन्नमस्ता ‘ का यह अंश प्रिया नाम की ऐसी नारी का आत्ममंथन है समाज की जर्जर मान्यताओं और जीवन में महत्वपूर्ण माने जाने वाले पुरुषों की आदिम भूख से निरन्तर शोषित होते रहने के बावज़ूद अपने आप में एक अनूठा व्यक्तित्व है‚ मूक विद्रोह और एकदम आदिम किस्म की जिजीविषा के साथ‚ अस्तित्व बचाये रखने के ज्वलन्त सवाल को लिये जीती ही नहीं बल्कि अपना एक स्वतन्त्र मुकाम बनाती है। परिस्थितयां उतारु हैं अपने घात– प्रतिघातों के साथ उसे तोड़ देने पर पर वह भी ज़िद्दी है टूटती नहीं… । बचपन से नीरीह होकर जीती आई प्रिया न जाने कितने आंतरिक संघर्षों को झेल कर उभरती है एक सफल औरत बनकर।पर फिर भी कहीं – कहीं वह महसूस करती रही है कि वह निष्काषित है। लेकिन फिर भी उसे पता है कि जीना है‚ काम करना है अपनी अलग आइडेन्टिटी के लिये‚ स्वयं के विकास के लिये। प्रिया का स्व हमेशा से जागृत था‚ अब वह अनमेल विवाह की असह्य बेड़ियों से बाहर निकल कर इस ‘ स्व’ को बिना किसी सहारे के प्रतिस्थापित करना चाहती थी और उसने किया। इस उपन्यास के माध्यम से प्रभा खेतान ने मारवाड़ी समाज की पिछली पीढ़ी की औरतों की स्थितियों‚ उनकी मानसिकताओं‚ आपसी उलझावों व पुरानी मान्यताओं में कुचलते उनके स्वाभिमान को दर्शाया है। पुरुष के मुकाबले हमेशा दूसरे स्तर पर रखे जाने की यंत्रणा को दर्शाया है। चाहे वह प्रिया की भाभियां हों‚ बहनें हों‚ नानी और मामियां हों‚ सास हों या उसकी छोटी मां… ज़्यादातर पति की दूसरी औरत के होने की जलन या स्वयं दूसरी औरत होने का संत्रास झेलती हैं। कुल मिला कर यहां पूरी तरह से पुरुषसत्ता हावी है। जिसे देखते‚ अनुभव करते हुए‚ स्वयं जीते हुए एक टूटने की स्थिति पर आकर प्रिया विद्रोह कर देती है।

यह उपन्यास एक अकेली सफल उद्योगकर्मी स्त्री के अतीत को प्रस्तुत करता है‚ चलते – चलते एक लम्बे तन्हा सफर में वह एक पडा.व पर आकर शिथिलता महसूस करती है और पीछे मुड़ कर देखती है तो पाती है‚ एक लम्बा अतीत उलझा सा उसके साथ साथ चलता रहा है‚ उसके व्यक्तित्व की परछांई से उलझा। उसका जीवन उसे विरोधाभासी परिस्थितियों का उलझा हुआ बंडल प्रतीत होता है — ” ज़िन्दगी‚ कम से कम मेरी ज़िन्दगी विरोधाभासों का बण्डल रही है। उलझे हुए धागे‚ पड़ी हुई गांठें‚ जानती हूँ सुलझा नहीं पाऊंगी। पर इनके साथ जीना तो मैं ने सीख लिया है। और यह समझ ही मेरी ज़िन्दगी के प्रति लगाव को ज़िन्दा रखती है।”

यहां नारी स्वातन्त्र्य महज फैशन के लिये नहीं ओढ़ा गया है‚ प्रिया कोई फेमिनिस्ट नहीं है… वह तो उसी समाज में‚ उसी समाज की होकर जीना चाहती थी‚ एक साधारण औरत की तरह साधारण जीवन। जहां उसे उसके स्व के साथ स्वीकारा जाता‚ मां का स्नेह मिलता‚ असमय बड़े हो जाने की पीड़ा को न झेलना पड़ता‚ उसके बचपन को पंख मिलते और युवावस्था में बड़ों की स्वीकृति या विवाह के बाद पति का स्नेह मिलता तो शायद ही वह विद्रोह करती। यहां तो बचपन में परिवार ने उपेक्षित किया‚ विवाह के बाद पति ने‚ फिर जब वह स्वतन्त्र होकर जीने लगी तो समाज ने… उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहां उसके जीने की ज़रूरत बन कर आ खड़ी हुई है। स्वतन्त्र होकर उसने समाज से विद्रोह भी नहीं किया‚ उसने स्वयं को व्यवसाय में आकंठ डुबो लिया। उसकी सफलता स्वतÁ ही समाज ही के लिये चुनौती बन गई थी। और परिवार तथा समाज ने उससे कन्नी काट ली।

‘छिन्नमस्ता’ एक ऐसी औरत का सच है‚ जिसके लिये ज़िन्दगी… जन्म के साथ ही चुनौती बन कर सामने आयी।बचपन ही से वह कई सदस्यों के परिवार ही के भीतर अन्याय व पक्षपात की पराकाष्ठा को झेलती रही।कहने को प्रिया एक बहुत अमीर मारवाड़ी परिवार की गरीब बेटी है‚ जहां पैसा है‚ लेकिन कमी है तो उस सांवली‚ अंर्तमुखी परिवार की अंतिम लड़की के लिये आत्मीयता की।कहने को दो भाई चार बहनों‚ दो भाईयों में वह सबसे छोटी है‚ किन्तु वह नितान्त अकेली है। उपेक्षिता है।वह आत्मीयता की भूखी बच्ची बचपन में पंछियों में‚ अपनी दाई मां में स्नेह ढूंढती है।उस अमीर घर में भी पक्षपात की पराकाष्ठा है‚ जहां कुछ बच्चों को बादाम का हलवा व अच्छे महंगे फल मिलते हैं‚ वहीं प्रिया जैसे एक दो बच्चे हैं जिन्हें कुछ विशिष्ट खिलाने की आवश्यकता नहीं समझी जाती…

प्रभा जी ने प्रिया की ज़िन्दगी की जद्दोजहद को तीन पड़ावों में रखा हैं‚ जो अतीत और वर्तमान के दो किनारों के बीच एक अड़तालीस की वय की औरत का समूचा जीवन बन कर बहता है — बचपन और कैशोर्य‚ विवाह‚ फिर विवाह की असफलता के बाद पुरुषों की दुनिया में पुनÁ अकेले प्रतिस्थापित होने का संघर्ष। सबसे कड़ा संघर्ष रहा बचपन का। जहां प्रसव के बाद ही से बीमार मां ने उस अबोध को त्याग सा दिया था‚ लड़की होने का गुनाह‚ ऊपर से काली होने का संत्रास। एक पिता थे जो उससे स्नेह रखते थे। उनकी अकाल मृत्यु प्रिया को नितान्त अकेला कर जाती है। वह दाई मां का आंचल थाम लेती है और तब से लेकर जीवन भर उसे मां मानती रहती है। एक अनपढ़ ममतामयी औरत उसे समझाती है‚ यकायक एक बच्ची से सीधे औरत हो जाने के संत्रास को चुपचाप पी जाने के लिये। लड़की होने उसकी असह्य पीड़ाओं में मां नहीं साथ है‚ दाई मां साथ है।

” मुझे कभी अम्मा की गोद की याद भी नहीं आती है। न मालूम क्यों शुरु से ही अम्मा को मुझसे चिढ़ थी या फिर यह घोर निराशा की एक प्रतिक्रिया थी‚ जिसे वे मुझ पर आरोपित कर रही थीं। मुझे दाई मां ने ही पाला पोसा।×××××× मुझे गोद में लेते ही दाई मां के स्तनों में दूध उतर आया था। मेरा सांवला रंग था‚ पर सेहत अच्छी थी और उस पर दाई मां का पालन पोषण। वही मेरा सर्वस्व थीं। मैं उनका पल्ला एक मिनट के लिये नहीं छोड़ती थी।”
वही दाई मां जो उसके पिता की मृत्यु के दुख की और महज साढ़े नौ वर्ष की आयु में अपने ही बड़े भाई द्वारा हुए यौनशोषण की एकमात्र साझीदार थीं। उसके इन दुÁखों के आगे दाईमां स्वयं असहाय थीं। उनका भी बस न चला था यहां.।
” सुन बिटियाॐ हमार कहा मान और ज़िन्दगी में ई बात कभी किसी से जिन कहियो। अपने पति परमेसर से भी नाहीं। अउर सब समय हमारा साथ रहो। ना बिटिया‚ हम अब तोहके छोड़कर कहीं नहीं जाउब।”

एक नन्हीं बच्ची को इस शोषण में स्वयं का ही अपराध नज़र आया। ” मुझे अचानक समझ में आया मानो मुझसे कहीं कोई भयंकर गलती हो गयी हो। अपराध… पाप … हां ज़िन्दगी में पाप का बोध पहली बार हुआ।” यही अपराध नन्ही प्रिया के सहमे हुए उन उमस भरे दिनों को ग्रस जाता था जब महीने के पांच दिनों परिवार की परम्परा के अनुसार उसे अछूत की तरह अलग बैठ कर बिताने होते थे‚ वह भी महज दस साल की उम्र से और वह अम्मा के कोसे जाने पर रिश्तेदारों से बचा कर ऊपर बिठा दिये जाने पर सोचा करती थी‚ ” अम्मा‚ मेरा अपराध क्या है? क्या महीने के महीने टांगों के बीच रिसता हुआ खून मुझे क्या अच्छा लगता है?”
आत्मग्लानि तो थी ही उस पर से प्रिया को अम्मा के ताने ज़हर बुझे लगते वह पूछती‚ ” दाई मां अम्मा मुझसे चिढ़ती क्यों है? क्या इसीलिये…?”
” ई तो कहो कि शहर है‚ हमार गांव में तो बियाह के पहिले कवनों लड़की का ई महीना सुरु हो जाय तो मां बाप का सर पर पाप का बोझ बढ़त है।”
बचपन ही से बिना किसी अपराध के अपराध बोध से ग्रस्त प्रिया का व्यक्तित्व अन्र्तमुखी हो जाता है। शरीर में होते प्राकृतिक विकासों के प्रति उसमें कूट कूट कर अपराध बोध भर दिया था परिवार ही की स्त्रियों ने — उसे फरमान मिला कि अपनी छातियों को बेइन्तहां कसी हुई शमीज़ में कस कर रखे कि वे सपाट लगें। इतनी कसी की सांस घुट जाय।

इन सन्दर्भों को व्यक्त कर प्रभा खेतान ने आओ पेपे घर चलें की ही तरह तत्कालीन मारवाड़ी समाज में लड़कियों की स्थिति को व्यक्त किया है। पहले तो लड़की होना अपराध‚ फिर चौथी लड़की होना‚ उस पर सांवली होना‚ और सबसे बड़ा अपराध जल्दी ही बड़े हो जाना। लेकिन प्रभा जी की उकेरी नायिका प्रिया के अपराध क्या यहीं खत्म हो जाते हैं? वह पति की बेजा मांगों का विरोध करती है‚ साड़ियों – गहनों की जगह पुस्तकों से प्रेम करती है‚ पुरुष की बराबरी करती है‚ पुरुषों की दुनिया में अपना व्यवसाय जमाती है‚ देश विदेश डोलती है… ऐसी प्रिया को वह समाज कैसे माफ कर सकता है?

सबसे वह यही सुनती थी कि ‘ बोकी है‚ भाटा‚ पत्थर‚ एक बार में अढ़ाई सेर खाती है।’ ऐसे में पिता का स्नेह‚ पिता का उसके पढ़ाई में तेज़ होने पर नाज़ उसे ज़रा आत्मविश्वास भर जाता था‚ किन्तु व्यवसायिक प्रतिद्वन्द्वियों द्वारा उस स्नेही महान चरित्र वाले इन्सान की हत्या के बाद प्रिया के सर पर रखा एकमात्र वरद्हस्त चला गया और वह अवांछिता सी रह गई समूचे परिवार में। कोई भी कुछ भी सुना देता‚ भाई – बहन उसके हिस्से की चीजें छीन लेते‚ चिढ़ाते। काली माई‚ दंतुली कह कर खिजाते। स्वयं जननी ने न जाने कितने विशेषणों से विभूषित किया कि बड़े होने पर कॉलेज के साथियों द्वारा उसे आकर्षक कहे जाने पर भी वह सहज नहीं ले पाती थी।वह कभी अपनी अम्मा की दी गई उपाधियों से उबर नहीं सकी।

प्रिया का यही बचपन युवावस्था में उसके व्यक्तित्व में एक असंतुलन भर जाता है। अवचेतन में धंसे अतीत के कंकर उसे एक सहज युवती नहीं रहने देते। इस मनोविज्ञान को प्रभा जी ने बहुत बरीकी से प्रस्तुत किया है — ” लेकिन कॉलेज में लड़कों के साथ पढ़ते हुए भी कोई पुरुष मेरी आंखों में नहीं उतर पाया था। मुझे अपने औरतपने से चिढ़ थी। औरतपना? इसकी परिभाषा थी लड़कों की ओर ताक – झांक‚ उनकी चर्चा‚ रूमानी कल्पनायें और फिर शादी के सपने। सब कुछ बकवास है।
लेकिन सच में अच्छा लगा था एक युवा शरीर का आलिंगन‚ उत्तेजित गर्म सांसे‚ गहरे चुम्बन‚ शरीर में होती हुई मीठी सिहरनॐ”

घर की उपेक्षिता प्रिया को स्कूल और कॉलेज में भरपूर स्नेह और पहचान मिली। स्कूल में बड़ी बहन जी का शालीन व्यक्तित्व उसे प्रभावित करता‚ वह उनकी छत्रछाया में रहती‚ प्रेसीडेन्सी कॉलेज में एकमात्र मारवाड़ी लड़की होने का गौरव भी उसे प्राप्त था‚ जहां उसे डॉ। चैटर्जी ने दर्शनशास्त्र की व्यापकता के प्रति उसकी जिज्ञासा जगाई‚ और प्रेरणा बने।वहीं असीम के साथ उसे पहली बार आत्मस्वीकृति के साथ पुरुष स्पर्श का सही स्वाद पता चला। लेकिन सहपाठी असीम के प्रेम को उसके मन ने तब भी नहीं स्वीकारा। किन्तु एक गहरे उन्माद और दैहिक आकर्षण ने उसे आखिरकार ‘ प्रेम ‘ बन कर छल ही लिया। वह भी भारतीय वेदान्त पढ़ाने वाला एक युवा प्रोफेसर उसके शब्दहीन…सरल समर्पण को छल गया। फिर दाई मां का साथ छूट गया। फिर न जाने कहां से सबको हतप्रभ करता हुआ‚ प्रिया के दुर्भाग्य को मुंह चिढ़ाता हुआ बड़े घर का रिश्ता आता है। अमीर घराना वह भी करोड़पति उस ज़माने के।वह स्वयं को समझाती है

” प्रियाॐ समझ से काम लो। तुम्हें स्वीकृति और सुरक्षा दोनों मिल रही हैं। तुम बड़ी हो गयी हो प्रियाॐ बिना व्यवस्था की स्वीकृति के तुम क्या कर लोगी प्रिया? बेवकूफ मत बनोॐ यहां बिना किसी प्रयास के तुम्हें थाल में परोस कर छप्पन भोग दिया जा रहा है। कहां सड़कों पर चप्पलें घसीट रही थीं‚ और कहां करोड़पति की बीवी …ॐ”

और प्रिया एक नरक से निकल कर दूसरे ज़रा बेहतर नरक में आ जाती है। अलग किस्म की जगह‚ अलग मानसिकता के लोग। धन की‚ देह की पिपासा में जलता नितान्त भौतिकवादी प्रिया का पति नरेन्द्र और आत्मपीड़न से ग्रस्त सासू मां‚ दो नावों में घिसटते चलते ससुर… और उनकी कहीं और रहती हुई बंगालन प्रेमिका ह्य प्रिया की छोटी मांहृ‚ नीना जैसी स्पष्टवादी लड़की की मां। इस घर का सामाजिक दायरा भी अलग किस्म का… पैसे का भरपूर दिखावा… पार्टियां… आयोजन… प्रिया जल्द ही यहां भी अस्तित्वहीनता का शिकार हो जाती है।

प्रिया के लिये अपना स्वयं का व्यवसाय एक संयोग ही बन कर आता है। विदेश जाने का शौकीन नरेन्द्र हैण्डीक्राफ्ट के निर्यात के बहाने प्रभा को एक्सपोर्ट का काम करने का एक स्वार्थी अवसर देता है। बस यहीं से प्रिया के बरसों से कुचले अस्तित्व को पंख लगते हैं… वह स्वयं को खपा डालती है‚ इस व्यवसाय की बारीकियां समझ लेती है और सफलता की उड़ान उड़ने को तैयार होती ही है कि नरेन्द्र का अहम् आड़े आता है…और वह प्रिया के पंख काटने पर उतारू हो जाता है‚ यहां नरेन्द्र के चरित्र को व्यक्त करता प्रिया के मित्र फिलिप का यह बयान ही काफी है — ” देखो प्रियाॐ नरेन्द्र जैसे पुरुष स्त्री की महत्वाकांक्षा को समझ नहीं सकते। वे एक सफल स्त्री की तरफ आकर्षित ज़रूर होते हैं‚ मगर उनके भीतर का पुरुष बस उस स्त्री को दबोचना चाहता है‚ यानि उसके अहम् को संतुष्टि मिलती है कि देखो ऐसी औरत भी मेरे वश में है।”

प्रिया के लिये यह व्यवसाय मात्र व्यवसाय नहीं जीने की इच्छा और अस्तित्व की पहचान है। वह इस पहचान के लिये बरसों तरसी है‚ किन्तु जब परिवार और बेटे तथा व्यवसाय में से एक को चुनने की नौबत आती है तो वह अपनी इस एकमात्र पहचान को चुनती है। किन्तु क्या यूं एकाएक ऐसा दुर्गम फैसला आसन था प्रिया के लिये?
” न ही पति या बेटा या प्रेम ही ज़िन्दगी के सहारे हो सकते हैं। इनके साथ साथ चलते हुए कठिन मुकामों को पार करने में आसानी ज़रूर होती है‚ राहत मिलती है‚ मन को सुकून होता है कि चलो कोई साथ है। लेकिन वे साथ न दें तब क्या एकतरफा आहुति भी देते चलो और सफर भी तय करो? मैं ने अपने मन को समझा लिया था। चलो‚ और थोड़ी कठिनाई और सही। अपनी राह चल रही हूँ‚ इसका तो संतोष रहेगा। मैं यदि खुद की नज़रों में सही हूँ‚ तब किसी और की नज़रों में खुद को सही स्थापित करने की यह कठिन तपस्या बेकार है‚बिलकुल बेकार।××××××अपने आपको मैं समझाती‚ बार बार समझाती थी। लेकिन मन समझ कर भी नहीं समझता। बेटा? मेरा इकलौता बेट…नहीं नरेन्द्र नहीं छोड़ेगा। वह नरेन्द्र की मुट्ठी में बन्द है‚ कानून का भी नरेन्द्र को ही सहारा है। समाज भी नरेन्द्र के साथ है। प्रियाॐ अपने कलेजे पर पत्थर रख लो‚ पर उस बेचारे लड़के को बेघर मत करो।×××××× सुबह आंखें खुलते ही मैं अपने से पूछती — प्रिया‚ क्या करोगी? रात में आंखें बन्द करती हुई अपने आप से पूछती — मुझे क्या करना चाहिये? रातों को उठ – उठ कर बैठ जाती — अब मत रुला भगवानॐ बहुत रो चुकी । अब मुजसे रोया नहीं जाता। एक रास्ता और भी सही‚ चुनाव तुम्हें करना होगा प्रिया…तुम्हें अपनी मदद खुद करनी होगी।”

प्रिया महसूस करती है कि मृत सम्बन्धों को पूरी ताकत से ढोने से बेहतर है यह ताकत व्यवसाय में लगाना।
एक साइकियाट्रिस्ट और एक सम्वेदनशील स्त्री जूडी प्रिया को उसके अतीत की प्रतछायाओं मुक्त करना चाहती है और वह कुछ हद तक सफल भी होती है। इस उपन्यास में प्रिया और जूडी का वार्तालाप बहुत ही विश्लेषणात्मक बन पड़ा है। एक भारतीय स्त्री की मानसिकता और पुरुष सत्ता के प्रति एक खारा विरोध‚ दूसरी और जूडी का उसे ज़िन्दगी के प्रति सकारात्मक होने की सलाह एक स्त्री की सोच के लिये नये आयाम खोलती है। जूडी पश्चिम और पूरब की औरत की पीड़ाओं में कोई अन्तर नहीं मानती‚ अन्तर है तो बस अपनी अपनी पीड़ाओं से लड़ने के तरीके में।
” प्रियाॐ बुरा न मानो तो एक बात कहूँ ×××××× आज सभ्यता संक्रमण के एक दौर से गुज़र रही है। तुमने भी जितनी भी पीड़ा झेली पर तुम्हारी चेतना का विकास ही हुआ है‚ तुम्हारे भ्रम टूटे हैं‚ सीमाओं से बाहर आकर तुमने पारस्परिकता का सम्बन्ध स्थापित किया है।”

प्रभा खेतान के उपन्यास की यह छिन्नमस्ता नायिका अपनी तकदीर बदलने की ज़िद में बहुत आगे निकल आती है… जहां कभी कभी वह स्वयं को अकेला पाती है। प्रिया के लिये अतीत एक दुखता फोड़ा था। उसे संघर्षों ने ज़िद्दी बना दिया था‚ अपनी राह पर चलती हुई वह रिश्तों में सतहीपन और बनावट स्वीकार नहीं कर पाती। वह आत्मकेन्द्रित है‚ उसे बनावट से चिढ़ है। व्यवस्था का खोखलापन उसे बरदाश्त नहीं।ऐसे में कुछ सच्चे मोती से रिश्ते उसे जीवन के दलदल से अवश्य मिले मसलन नीना‚ छोटी मां‚ जूडी – फिलिप। वह फिलिप से कहती भी है — ” शायद ये दोस्तियां न रहतीं तो मैं कब की एक खारी औरत हो जाती अपने ही घरौंदे में कैद।”

प्रभा जी ने इस उपन्यास को अतीत और वर्तमान की दो धाराओं के बीच बहती असंख्यों विचार तरंगों के साथ बहुत खूबसूरती से चित्रित किया है…सम्वेदनशील पाठक इस उपन्यास को पढ़ता नहीं इसमें बहता है। प्रिया की पीड़ा इतनी सहजता से उपन्यास में प्रकट हुई है कि उससे कोई भी साधारणीकृत हुए बिना नहीं रह पाता।

चरित्र चित्रण में प्रभा जी ने हरेक चरित्र के साथ बहुत मेहनत की है। प्रिया का चरित्र तो पूरे मनोविज्ञान के साथ उभारा ही है उन्होंने। साथ ही प्रिया के जन्म के साथ ही बीमार हो जाने फिर विधवा हो जाने की पीड़ा प्रिया की मां के पक्षपाती और चिढ़चिढ़े होने की वजह बन जाती है। किन्तु प्रभा जी ने प्रिया की मां के चरित्र के साथ पूरा न्याय किया है। उन्होंने पति की मृत्यु के बाद कैसे बड़े बेटे को वश में रखा और व्यवसाय संभाला और कोठी की आन को कम न होने दिया। इस सबके पीछे की जद्दोजहद को प्रिया करीब से देखती है और मां के प्रति कई जगह सहानुभूति रखती है।बड़े भाई की विकृत प्रवृत्ति के सापेक्ष भी प्रभा जी ने मनोविज्ञान रखा है… एक कामुक व्यक्ति की अतृप्तियों और अनमेल विवाह की परिणति किस रूप में उभरती है। पहले ही से उपेक्षिता… मूक गाय सी बच्ची प्रिया ही उसे अपना शिकार दिखाई देती है‚ जिसे कोई मुक्का मार जाये तो कुछ नहीं बोले… कुछ छीन ले तो कुछ नहीं बोल सके ऐसी प्रिया किसी से क्या कहेगी? दाई मां का चरित्र अपने ममतामयरूप में महान होकर उभरा है। मारवाड़ी परिवार की अन्य स्त्रियां चाहे वो सल्लो जीजी हों‚ भाभियां हों‚ डॉक्टर सरोज हो सबने पुरुष की सत्ता को चुपचाप स्वीकारा है।प्रिया के परिवार की कई औरतें सौत का बोझ चुपचाप उठाए हैं‚ बड़ी भाभी‚ नानी‚ मामी‚ सास… प्रिया ही एक है जो इस सामन्तवादी सोच का विरोध करती है। प्रिया का साथ दिया है‚ उसकी सौतेली ननद नीना ने। नीना सशक्त स्त्री बन कर उभरी है।
नरेन्द्र के कामी – दंभी चरित्र को प्रभा जी ने काफी समय दिया है ताकि उसके परिप्रेक्ष्य में प्रिया के विद्रोह को समझा जा सके। कई जगह प्रिया के जरिये उन्होंने यह भी जताया है कि कोई आम मारवाड़ी लड़की उसकी पत्नी होती तो वह नरेन्द्र को खुश रख सकती थी। पर प्रिया से अब अपमान‚ उपेक्षाएं‚ दैहिक शोषण बिलकुल बरदाश्त नहीं हो सकता था। बहुत झेला था पर अब नहीं। प्रिया के बाबूजी के चरित्र को सामथ्र्यभर उंचाइयां दी हैं प्रभा जी ने। एक चौथी पास‚ अच्छी अंग्रेजी का ज्ञाता और बुद्धिमान‚ उदारमना व्यवसायी जिसे अपने ही साझेदारों ने मरवा दिया। फिलिप और जूडी जैसे मित्र प्रिया के जीवन की उपलब्धियां हैं। बाकि चरित्र प्रिया के जीवनचित्र को उभारने के लिये इस्तेमाल हुए हैं।

प्रभा जी लेखनी बहुत अनुभवी है… बहुत सधी हुई। पूरे उपन्यास में कहीं भी बोझिलता नहीं एक प्रवाह सा बहता है‚ कहीं वह प्रवाह खामोश अपनी पीड़ाएं‚ प्यास पीता हुआ बहता है‚ कहीं दुखों के ताप से सूख धरती के अन्दर गुल… तो कहीं विद्रोही धारा बन चट्टानों से सर टकराता है। भाषा उपन्यास के कथ्य के अनुकूल‚ पात्रों के अनुकूल है। पीढ़ियों पहले कलकत्ता जा बसे मारवाड़ियों की ज़बान मारवाड़ी भाषा का स्वाद नहीं भूली है। बल्कि उसमें बंगाली भाषा की महक भी बस गई है।बिणनी‚ सुगली‚ टाबर‚ बाईसा…जैसे मारवाड़ी शब्द… नामों को प्यार व गुस्से में बिगाड़ने का मारवाड़ी ढंग ‘ राधा को राधली ‘‚ मारवाड़ी रस्मो रिवाज़‚ राजस्थानी भोजन दाल – बाटी – चूरमा‚ सांगरी का साग आदि का ज़िक्र उपन्यास को सरस बनाते हैं। दाई मां की भाषा में जहां अवधी का रस है वहीं डॉ। गांगुली की बंगाली मोहती है।

मारवाड़ी परिवारों की तात्कालीन दशा व सोच को सही तरह से दर्शाया गया है। आज परिस्थितियां बदली हैं‚ मारवाड़ी परिवारों की लड़कियां हुई हैं। ऐसे में प्रिया की पहल उल्लेखनीय है। यहां कैरियर को लेकर किया गया विद्रोह प्रभा जी के स्वयं के व्यक्तित्व का परिचायक है।

यह उपन्यास एक सफल‚ पठनीय‚ रोचक उपन्यास है‚ इसमें पस्तुत हुए नारी विमर्श ने इसे बहुचर्चित भी किया है।

‘छिन्नमस्ता’ के सन्दर्भ में लेखिका प्रभा खेतान के वागर्थ सितम्बर 2003 में छप‚े साधना अग्रवाल द्वारा लिये गये साक्षात्कार में स्वयं प्रभा जी का छिन्नमस्ता के सन्दर्भ में एक वक्तव्य Á

” ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया मेरा ही प्रतिरूप है। प्रिया विद्रोह करती है‚ समाज और परिवार के प्रति उसमें विस्फोट है और यह अकारण नहीं है। जन्म से कुंठित और दमित प्रिया को अधिकार के नाम पर कुछ पारम्परिक मूल्य थमा देने से उसका जीवन असमर्थ नहीं हो जाता। घटनाचक्र चाहे कुछ भी हो पर इससे ऊपर उठने की क्षमता का विकास ज़रूरी है। प्रिया ने भी यही किया बल्कि यूं कहिये कि मेरे हर उपन्यास में घर बाहर की ऐसी कोई भेदक रेखा नहीं रही और न मैं ने किसी को अपना निजी कोना और इससे भिन्न सार्वजनिक माना हो। घर की चारदीवारी के भीतर ही मैं ने बाहरी प्रभावों का सामना किया है और बाहरी दुनिया में पराये लोगों से बेहद अपनापन मिला। स्थितियां इतनी तरल रही हैं कि बहुधा मैं निर्णय नहीं कर पाई कि किससे मेरी रिश्तेदारी है और किससे महज दोस्ती।”

यहां उल्लेखनीय है कि डॉ। प्रभा खेतान जहां कथासाहित्य में एक महत्वपूर्ण लेखिका के रूप में जानी जाती हैं‚ वहीं वे सिमोन द बाउवार के ‘ द सैकेण्ड सैक्स ‘ के अनुवाद की वजह से सात्र्र और कामू के जीवन दर्शन पर किये गये गहरे चिन्तन की वजह से
लोकप्रिय हुई हैं। इसके अतिरिक्त वे चर्म उद्योग प्रतिष्ठान की प्रबन्ध निदेशिका हैं‚ कपड़े के निर्यात में भी वे सफल व्यवसायी साबित हुई हैं। धीर गम्भीर स्वभाव की प्रभा जी इतने बड़े उद्योग से जुड़ी रह कर भी लिखने – पढ़ने का समय निकाल लेती हैं । उनके लेखन की यह विशेषता है कि उनके लेखन में विद्रोह झलकता है‚ नारी विमर्श झलकता है‚ पर नारेबाज़ी और विदा्रेह की गरज नहीं सुनाई देती। वे सहज ही अपने नारी मुक्ति के विचारों को भारतीय परिप्रेक्ष्यों में कह जाती हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

आज का शब्द

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.