एक

धरती प्रेम में होकर
थिर रहना जानती है
आकाश प्रेम के पर देना
दसों दिशाओं की अमेय शून्यता में
दीपक भैरव हिंडोल सेलकदक
ग्रीष्म शिशिर बसंत,
तीनों सप्तक साधे
सारंग मालकों समधुकंस
दरबारी कान्हड़ा के सुरों सी
उठती गिरती साँसों की आद्रता में
तैरती मीनसीकामनाएँ
अब मछुआरन के माथे है
प्रेम में कामनाओं का बोझ
तितली के सिरधरा मटका है
उसे नहीं होना ही रयासोहनी,
तिमिर से झरते ओज में
खामोशलय सी अलस्ती देह पर
नज़र का स्पर्श
उसकी आत्मा का सुखऔर
ओस की बूंदे
चुम्बन सुख की निशानियाँ हैं
ज़ब कभी साँझ के सुरमई तबले पर
त्रिभंगीताल की धीमीथापदेता
त्रिभंगीमुद्रा में झुका अंबर
यमन के सातों सुरों से
उठाता है तीव्र मध्यम
चंदन सा बदन चंचल चितवन…तब
मुस्काती धरित्री की थिरता से फूटती है
अनेकों ध्वनियाँ
नाभी ह्रदयकंठमूर्धा की प्रेम-ध्वनियाँ,
तबले की थाप,
चंचल चितवन,
सुन सकते है सिर्फ प्रेमी
देख सकते हैं सिर्फ प्रेमी
प्रेमियों की इन्द्रियाँ
आत्मा पर उगी होती हैं
माथे पर धरे चुम्बन और
रुह पर पड़ी छाप संग
सोती है धरती
रात्री के द्वितीय प्रहर
साँझिल अलकों के स्वपनों में उतरता है कभी
खमाज का धैवत
फैली हुई हैं सपनों की बाहें….
और कभी
झिँझोटी का कोमल निषाद
जोगी ज़ब सेतू आया मेरे द्वारे…
मंदहास से अंबर के
पारिजात बकुल सी झरती है
देहगंध से मदमाती है दिनभर
वह जानती है इस गंधने
उसे जिला रक्खा है
प्रेमियों के तरंगित अदृष्टब्रह्माण्ड में
दृष्ट में अटके खडे रहते हैं अप्रेमी
धरती नहीं जानती
प्रेम का आरोह-अवरोह
वो खुला-खिला तारा बनी
गुनगुनाती है मिश्र रागवाले
प्रेम के चिन्मय स्वर
प्रेम बाँधना नहीं बंध जाना है
संसार भर के प्रेमियों के लिए धरती
शाप-भृष्ट देवी है।

दो

देह से फूटती प्रेमध्वनियों को
नाभि पर केंद्रित कर सोई धरा की तरलता में
कहरवा की ताल पर
सांध्य श्री राग गुनगुनाता
शरदचंद्रिका में भीगे अंबर का अक्स
ज़ब उभरता है
मछुआरन के माथे से फिसलती है एक मीन
ढुलक जाती है ह्रदय की आँख में तैरते
गुलाबी पँख पर टिकी हरी बून्द
नियमों के सधे कसीदे
उधड़ जाते हैं
टूट जाता है
गुरुत्व का जाल
तब धरित्री हो जाती है स्त्री
और स्त्रीधरित्री
जैसे ठुमरी हो जाए ग़ज़ल
और ग़ज़ल ठुमरी
खयाल बन जाए तराना
और तराना खयाल
मछली पानी
और पानी मछली
सरगम झंकार
और झंकार सरगम
ठीक इसी पल
धरती स्त्री और आकाश के संवलन में
घटता है रास
जहाँ राधा हो जाती है कान्ह
और कान्ह राधा
दो पल बन जाते उम्र
और उम्र दो पल
ब्रह्माण्ड में गूँज उठते हैं
यमन के दोनों मध्यम
आssजजाsने की जिद न करो…।

तीन

राग पीलू के मंन्द्र शुद्ध निषाद सी
विश्रान्त मुद्रा में स्मृति लीन धरा
जब छेड़ती है तान
पिया पिया न लागे मोरा जिया
हिम शिखर बिसर जाते हैं अपना होन
अटका रह जाता कंदराओं में न दियों का जल
अंगार उग आता है तलहटी में
राधा हो जाती है विरह विद्वग्धा गोपी
राग बन जाता है देह राग
ठीक इसी पल
दृष्ट जगह लेता है अदृष्ट की
अदला बदली का पुरातन खेळ
ब्रह्माण्ड का प्रिय खेल है
प्रेम उस का साथी
तान से न की जिव्हा से निकले
दीपक की लौ में घुले
वहीं अट के सातों स्वर
समाजा ते धरती के अंत समें
भस्म हो जाएगी एक दिन
अष्टनायिका धरती
जानती है वह
यह भी कि
प्रेम की धधक जलाकर ही जिलाती है
यज्ञ का आस्तर बन जैसे धधक गई थी झांझी
प्रेम में भस्म होना
प्रेम का भस्म होना नहीं है
प्रेमगाथाओं और प्रेम गीतों में सिमटे
रागेश्वरी के सुरखोल देते हैं सहस्रमुख
देखतो दिल की जॉ उठता है
ये धुआँ सा कहां से उठता है
मुखों का खुलना
उनके बंद होने से
ठीक पहले की प्रक्रिया है
एक बार फिर होती है अदला बदली
अब ना गाथा है नागी तहै
ना राखना धुआँ
ना धरती ना आकाश
ब्रह्माण्ड के इस खेल में
प्रेम हमेशा जीतता रहा है
और बचा रहा है अंत तकअनंत तक।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

आज का शब्द

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.