शून्य

       -ममता सिंह

अखबार के पन्ने पलटते हुए, फ्रंट पेज के कोने में छपी एक ख़बर पर ध्यान अटक गया। ‘अरे ये कैसे? कब हुआ’? मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था, सो मैंने बुदबुदाते हुए दुबारा पढ़ी वो ख़बर। कुछ देर तक मैं अपनी दोनों हथेलियों में चेहरा टिका कर बैठी रही। आँखों को हथेलियों से दबाया तो हथेली पर नमी का एहसास हुआ। दिल के कैनवास पर लम्हों के चित्र-दर-चित्र फड़फ़ड़ाने लगे।

इंसान के चेहरे को देख कर उसके पूरे मिजाज़ को आंकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है। पर मेरा खोजी मन पता नहीं क्यों सीमा दीदी के भीतर उतर  कर उन्हें जानने-समझने की कोशिश करता रहता।

मैं और सीमा दीदी दूरदर्शन में काम करते थे दोनों ही लोकप्रिय एंकर| फ़िल्मी दुनिया की नामचीन हस्तियों से ले कर, फ़ैशन डिज़ाईनर, फाइव-स्टार होटलों के शेफ़ की रेकोर्डिंग होती| रेकॉर्डिंग या लाइव टेलीकास्ट वाले दिन सीमा दीदी खूब लम्बी बालियाँ पहन कर आतीं, शिफोन की सुर्ख साडी में वे खूब जंचती| 

उनके अंदर ग़ज़ब का आत्म विश्वास था। काम उनके विषय का हो या इतर…हर काम के लिए उछल पड़तीं “हाँ ये तो मेरा पैशन है” “आपने इतनी देर से शादी क्यों की?” कोई ये सवाल पूछ भर ले कि इसके जवाब में सीमा दीदी जवाब का तमाचा यूँ मारतीं-‘ क्यों तुमने जल्दी शादी करके कौन सा तीर चला लिया? बच्चे पैदा करके उनके नैपी बदलने का अनुभव पा लिया न। मुझे चाहिए भी नहीं बच्चे…’। पर इस वाक्य के आखिर तक उनके शब्द भीग जाते थे| सीमा दीदी के दिल के भीतर मद्धम-मद्धम आंच पर कुछ पकता रहता था, ठीक उसी समय उनसे कुछ पूछो तो वे चिहुंक पड़तीं…‘अं हाँ’….और उनकी आँखों की कोरों से काजल की पतली-सी रेखा उनके चश्मे से बाहर रेंगती नज़र आ जाती थी। थोड़ी ही देर में वे एक परिपक्व योद्धा की तरह अपने मन पर काबू पा लेतीं और अपनी मुस्कुराहट से आँखों के पानी को ढंकने में कामयाब हो जातीं। इंजीनियर्स रूम में बैठ कर गप-शप करना और ठहाके लगाना उनका प्रिय शगल था|

-‘कल की ओउटडोर शूटिंग कैसी रही’? अमन की निगाहें सीमा दीदी पर चिपकी थीं जवाब के इंतज़ार में। 

-‘जैसी होती हैं वैसी ही’। इंटरव्यू देने की बजाय वो चंक खरीदने के चक्कर में ज्यादा था। जवाब देते समय सीमा दीदी की आँखें तिरछी हो कर अमन की आँखों में गुंथ गई थीं। अमन से हाई-फाई करती हुई वे कुछ ज्यादा करीब चली जातीं। उस वक़्त उनकी चुन्नी अमन को छूती हुई, हट कर नीचे गिर जाती, जिसे झुक कर बड़ी अदा से उठातीं लेकिन सिल्क की चुन्नी तुरंत फिर गिर जाती। मैं सोचती…चुन्नी लेती ही क्यों हैं…| उस वक़्त मुझे याद आती मीना कुमारी या शर्मीला टैगोर….या उनकी फिल्म का कोई दृश्य।

 उस रोज़..धुंधलाती शाम हौले-हौले ज़मीन की ओर उतर रही थी। छतनार पेड़ पर चाँद की फांक जल्दी उतर कर एक डाली पर टंग गयी थी। हवा के झोंके उन्हें हौले हौले सहला रहे थे। सीमा दीदी की अपलक आँखें कुछ खोजती हुई-सी जैसे पेड़ की शाखों पर उलझ गई थीं जहाँ से वे खुद को जुदा नहीं कर पा रही थीं।

-‘समंदर के किनारे चलोगी’? सीमा दीदी अपने मन के खोह से बाहर आते हुई बोलीं।

-दी….घर पहुँचने में देर हो जाएगी’।

-‘घर पति बच्चा…तुम लोग इससे बाहर निकलती ही नहीं हो…हमारी अपनी भी तो दुनिया होनी चाहिए। मेरे भी तो पति इंतज़ार करते हैं….मैं तो कभी परवाह नहीं करती’। मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए उन्होंने टैक्सी में बिठा दिया।

नारियल के दरख्तों की गुफ्तगू समुद्र की लहरों के शोर में गुम हुई जा रही थी।  रेतीली पगडंडी से लगी झुग्गी झोपड़ियों से उठता धुंआं गुच्छा बना कर समुद्र की ओर चला आ रहा था। लैंप पोस्ट की बत्तियों के बावजूद अँधेरा गहरा रहा था।  सीमा दीदी खुद को अँधेरे में गुम कर देना चाह रही थीं। 

उधर बहुत घना अँधेरा है। यहीं बैठते हैं…..और हम लहरों से ज़रा दूर पत्थर के एक टीले पर बैठ गए।   

-‘पति-पत्नी के बीच समझौते बहुत सारे होते हैं लेकिन समझौतों के बाद जीवन सुनहरा ही होता है। हर समस्या एक दूसरे से साझा कर लिए जाते हैं। हम दोनों तो हर रविवार को सिनेमा देखने जाते हैं, मॉल में घूमते हैं, डिनर करते हैं, लाइफ को फुल एन्जॉय करते हैं’.. ये कहते हुए सीमा दीदी एक पल को रुकीं जैसे वे कहीं और किसी और दुनिया में चली गई हों। 

एक ऊँची लहर का छींटा उनके मुंह को भिगो गया। होठों पर ठहरी एक नमकीन बूँद को उन्होंने रुमाल से पोंछा फिर खुद ही बोलने लगीं….’हर शनिवार को हम थियेटर में कोई न कोई नाटक देखने जाते हैं। मेरी कितनी केयर करते हैं वे| सीमा दीदी एकालाप कर रही थीं या मुझसे ये सब बता रही थीं। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी। उन्होंने अपने बैग से सिगरेट निकाली और धुंवे का छल्ला बना कर मुंह गोल करके आसमान की ओर देखने लगीं। धुंवे के छल्ले के साथ-साथ उनकी निगाहें भी गोल-गोल घूम रही थी। साथ साथ उनके दिल की लहरें भी हिलोरें मार रही थीं।

-‘एक बात बताओ हिना! जब इंसान के हालात उसके विपरीत हों, रोज़ मर-मर कर जी रहा हो तो उसे हालात से समझौता करना चाहिए या मुक्त हो जाना चाहिए’?…  सीमा दीदी आसमान से नज़रें हटा कर अब मुझे देख रही थीं।

-‘घिसटने से हमेशा बेहतर होता है-मुक्ति का द्वार|’

-‘और मन से हम मुक्त न हो पा रहे हों तब? बैग से पान पराग का एक छोटा-सा पैकेट निकाला। दांत से खींच कर खोल डाला एक साथ उन्‍होंने पूरा पैकेट मुंह में भर लिया। सीमा दीदी का ये रूप मैं पहली बार देख रही थी।

-‘तब तो समझौता ही विकल्प है’। मैंने कह तो दिया पर मेरा मन ये कह रहा था कि एक स्त्री के लिए दोनों विकल्प बेहद मुश्किल होते हैं। 

सीमा दीदी के भीतर कुछ ऐसा चल रहा था जो उन्हें परेशान कर रहा था… जिसे वे ज्यादा बोल कर ढंकने की कोशिश कर रही थीं।

कहीं इन्हें वो बात तो नहीं परेशान कर रही है। जब इन्होंने मेरा प्रोग्राम उड़ाने की कोशिश की थी| तब हम नये-नये दोस्त बन रहे थे। वहीदा रहमान से मेरी बेहद नायाब बातचीत टेलीकास्ट होनी थी। इन्होने प्रोग्राम के बीच का हिस्सा कट करवाने की कोशिश की थी। स्टेशन डायरेक्‍टर से मेरी झूठी शिकायत की थी, जिसका खामियाजा मुझे यूँ उठाना पड़ा कि मुझे बहुत दिन तक स्क्रीन से दूर रखा गया। एक कलाकार से स्क्रीन और माइक छीन लिया जाए तो उसके लिए इससे बड़ा दुःख और अवसाद कुछ नहीं होगा|

वक़्त का दरिया हमेशा सूखा नहीं रह सकता| वक़्त की सूई मेरे फेवर में आई, सीमा दीदी को एहसास हुआ और उन्होंने मुझे अकेले में जा कर अपनी गलती की माफ़ी मांग ली। तब से हम धीरे-धीरे एक दूसरे के खैरख्वाह और दोस्त बन गए। इसके बावजूद उनके भीतर मुझे ले कर कोई दीवार थी जो हमें दूर करती थी|

उस रोज़ मेरा लाइव शो था। स्क्रीन और माइक-टेस्टिंग के बाद मैं वाशरूम से स्टूडियो की ओर जा रही थी। स्टूडियो के कोने में जहाँ ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ का बोर्ड लगा था वहां एक कोने में खड़ी हो कर सीमा दीदी अपनी सेल्फी ले रहीं थीं। मैं वहां से जल्दी से पार हो जाना चाहती थी। तभी उन्होंने मुझे कसके गले लगा लिया। उनके सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक मेरे गाल पर लग गई। उन्होंने मेरे बालों में इस तरह हाथ फेरा कि पूरे बाल बिखर गए।

‘दीदी ये क्या किया लाइव होने जा रही हूँ… बाल ठीक करने का टाइम नहीं, सिर्फ दस मिनट बाक़ी हैं’…। 

-‘इसीलिए तो ऐसा किया जानेमन…तुम बिखरे बालों में भी खूबसूरत लगती हो, ऐसे ही जाओ’। वे मुझे देख कर तिर्यक मुस्कुरा रही थीं। स्टूडियो का दरवाज़ा खोलने से पहले मुड़ कर देखा तो वे मुझे जाते हुए देख रही थीं। क्या ऐसा उन्होंने जानबूझ कर किया था या इत्तेफाकन….उस वक़्त उनकी भूरी आँखें कुछ ज्यादा ही चमक रही थीं। बिलकुल बिल्ली जैसी। ‘प्रतिस्पर्धा का भाव….उन्हें भला क्यों होगा, वो भी मुझसे।’ मैं खुद से ही सवाल जवाब कर रही थी।

मैंने टिशु पेपर से लिपस्टिक का दाग छुडाना चाहा लेकिन कामयाब नहीं हो सकी|यादों के समुद्र से मैं औचक लौट आई और मेरी आँखें सीमा दीदी की निगाहों की तरफ टंग गईं।

‘क्या ये बात अपने रिटायर्ड पति के लिए कह रही हैं…? (स्वगत कथन) उस समय उनसे कोई सवाल पूछ कर झील के पानी में कंकड़ फेंक कर उसमें हलचल नहीं पैदा करना चाहती थी। वे बिना तरंग के नदी की तरह मद्धम-मद्धम बहे जा रही थीं और मैं उनके मन की कश्ती में साथ-साथ बह रही थी।

‘मैं पीना नहीं चाहती…फिर भी वे पिलाते हैं। कुछ काम हम अपनी मर्ज़ी के खिलाफ करते हैं वही गलत हो जाता है…मैं विद्रोही होते हुए भी उनके शिकंजे में आ जाती हूँ…’। समुद्र तट पर बैठ कर वे नदी की तरह धीरे-धीरे बहती रहीं। उस रात वे अपने दिल की सीलन को बहुत देर तक उधेड़ती रहीं और उधेडी गई एक एक पपड़ी मेरे लिए एक पहेली बन गई। मैं उनसे पूछने की बजाय खुद से पूछ रही थी–दफ्तर वाली सीमा दीदी असली हैं या ये वाली। जिसके भीतर खलिश का पहाड़ है। जिसके ऊपर जमी बर्फ को वो कुरेदना नहीं चाह रहीं। बात-बात में संयुक्त और बड़े परिवार के प्रेम और आत्मीयता का ज़िक्र करने वाली सीमा दीदी भीतर से निर्जन निपट अकेली नज़र आ रही थीं।    

दूरदर्शन पर उस दिन तीन फ़िल्मी सितारों के साथ बड़ी परिचर्चा हुई थी। शो के बाद डायरेक्‍टर साहब शो की तारीफ़ करने सीधे स्टूडियो में चले आये थे। ठीक उसी समय सीमा दीदी की आमद हुई| बिना किसी संकोच के, बिना दोस्ती की मान-मर्यादा के बोल पड़ीं—‘पिछले हफ्ते वाला शो ज्यादा अच्छा था तुम बुरा न मानना’। जब भी किसी अधिकारी के सामने मेरी तारीफ़ की बात आती तो सीमा दीदी कोई न कोई नकारात्मक बात ज़रूर जड़ देतीं। इस तरह की नकारात्मक बातें वे इस अंदाज़ में कहतीं जैसे बड़ी आत्मीय और सकरात्मक बात कह रही हों| दफ्तर में कहीं मेरी प्रतिभा का लोहा न मान लिया जाए और वे पीछे रह जाएँ लेकिन उनके प्रेम का ख़ज़ाना इस सब पर भारी होता, जिस पर मैं मर मिटती थी। 

उस रात समन्दर के किनारे से लौटते हुए हमें काफी देर हो गई थी। अगली सुबह मेरा तो शो था। शो के बाद चाय पीने की गरज से सीमा दीदी को खोजने लगी तो पता चला उन्होंने कई दिनों की छुट्टी ले ली है। 

मैंने चाय-समोसा लिया, उसकी तस्वीर वाट्स ऐप पर, सीमा दीदी को भेजी। ‘कहाँ हैं, छुट्टी क्यों ले ली? लगता है घर जा कर पी ली थी ज्यादा…लिख कर मैंने स्माइली वाली एमोजी लगा दी। ब्लू टिक आ गया लेकिन उनका जवाब नहीं आया। अगले दिन मैंने उनको फिर एक सन्देश भेजा। शाम तक फिर एक तस्वीर भेजी।  अगले दिन समंदर के किनारे ली गई कुछ सेल्फी भेजी…कोई जवाब नहीं आया, इस बीच उन्हें कई फोन किये, न उन्होंने फोन उठाया न ही कॉल बैक किया।

कई दिनों बाद एक सन्नाटे वाली दोपहर कुछ पढ़ते पढ़ते मैं सो गई थी, अचानक फोन की रिंगटोन बजी और ‘सीमा दी कालिंग’ मोबाइल की स्क्रीन पर चमका। मैं झट उठ बैठी….I

-फ़ोन के उस पार से आवाज़ आई- ‘तुम्हारे घर के पास हूँ, जॉगर्स पार्क में मिलो’। 

इससे पहले कि मैं घर आने का आग्रह करूं फोन कट चुका था।

पार्क में नीम के पेड़ के नीचे गोल चबूतरे पर हम बैठ गए। चबूतरे से लगे फूलों की डालियाँ हवा से हिल कर एक दूसरे में उलझ कर गलबहियां डाल रही थीं।  गुलमोहर के पेड़ों से खूब सारे गुलमोहर झर कर ज़मीन को ढंक लिए थे। पार्क के दूसरे छोर पर बच्चे फुटबॉल और बैडमिन्टन खेल रहे थे। 

अचानक सीमा दीदी उठीं। फूलों की डालियाँ जोर-जोर से हिला दीं। ज़मीन पर गिर आये फूलों को और पहले से गिरे गुलमोहर के फूलों को अपने अंजुरी में भर लाई।  इस बीच मैंने सीमा दीदी को गौर से देखा उनकी आँखों के नीचे काले गड्ढे से नज़र आ रहे थे, बाल बिखरे और उड़े-उड़े से थे, वो बिना प्रेस की ड्रेस पहन कर आ गई थीं, आँखें निस्तेज… जैसे कई दिनों से बीमार हों….।

-सीमा दीदी आप बहुत थकी थकी लग रही हैं…सब खैरियत तो है न?

-किसी के भीतर की उथल पुथल या सच जानने के लिए उसके अंतर्मन की  गहराई को आंकना पड़ता है। तुम्हारी ज़िन्दगी में इतना समय नहीं कि तुम किसी की ज़िन्दगी में झाँक सको। सीमा दीदी की आवाज़ में गहरी उदासी थी|

मैं अपनी दिनचर्या को मन ही मन दुहराने लगी… सचमुच मैं यंत्रवत हो गई हूँ । मैं क्यों नहीं सीमा दीदी से मिलने उनके घर चली गई…लगता है सीमा दीदी किसी परेशानी में हैं…(स्वगत कथन) मुझे अपने ऊपर ग्‍लानि हो आई।

-आप बताइये अपनी परेशानियाँ, हो सकता है मैं आपकी समस्या हल करने में सहायक बनूँ..। मैं सीमा दीदी की और अपलक देखती रही|

-किसी की निजी ज़िन्दगी में कोई किसी की मदद क्या खाक करेगा। वैसे भी स्त्रियों को अपनी ज़िन्दगी की सलीब खुद ही ढोनी पड़ती है। सीमा दीदी ने अंजुरी में लिए फूल को उँगलियों से मसल डाला। मसले हुए फूलों को इधर –उधर बिखेरनी लगींI

-ये क्या कर रही हैं दी..?

यही मेरा सच है…लाख विरोध के बावजूद मेरा यही हश्र होता है..। सीमा दीदी ने अपने कुर्ती के आस्तीन ऊपर सरकाए…. लाल-लाल धारियां लम्बाई में उपट कर सामने आ गईं। कुहनी के ऊपर बहुत सारी खरोंचे थीं। सीमा दीदी का रिसता दर्द उनके चेहरे पर लगे नाखून के निशाँ बयां कर रहे थे। उनके गाल पर दांत गडाने के निशान थेI वे सीधे सपाट आँखों से मुझे देख रही थीं जिसमें आंसू नहीं बल्कि विरोध की ज्वाला थी। 

उफ़…. दी! ये सब….? कैसे??…मैं इतना ही बोल पाई थी कि उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमर के उस हिस्से पर छुआया जहाँ नसें फूल कर गुम्मड सा हुआ था।

-अब मेरा धीरज जवाब दे रहा है, ये सब कैसे हुआ? दी! किसने…?

-हुआ नहीं… होता रहा है रोज़… कई सालों से। … वो ‘असमर्थ’ है, लाचार। उसको जितनी ज्यादा असमर्थता का एहसास होता है वो उतना ज्यादा अतिरेक करता है। कभी मुहब्बत से तो कभी बहशीपन में बिंध जाता है। उस रात जब मैं देर से गई तो उसने सारी हदें पार कर दीं… कहने लगा अपनी प्यास तुम कहीं तो बुझाती होगी… आज ऐसी आग लगाओ कि मैं भी तुम्हारे काबिल बन जाऊं। कहते हुए सीमा दीदी ने अपनी पलकों पर अपनी हथेली रखी और गीली हो गई हथेली को अपने कुर्ती के कोने से पोछ लिया।

-आप चुपचाप कब तक सहती रहेंगी ये सब? मेरी आँखों में भी सैलाब आ चुका  था। 

-सहने से अब आज़ाद हो चुकी हूँ। छोड़ दिया उसे। सीमा दीदी ये बात ऐसे बोल रही थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो।

सीमा दी! पर सामने वाले को छोड़ना इतना आसान है क्या…? मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर सहलाते हुए बोला। वो किराए के घर में रहने गया। ये वाक्य बोलते हुए सीमा दीदी का चेहरा काफी सख्त हो गया था जैसे वे अपने जज़्बात पर काबू पाने की कोशिश कर रही हों।

-दफ्तर में जो बड़े परिवार के बारे में आप बताया करती थीं?

-वो सब कुछ मेरे भीतर की दबी अधूरी, अतृप्त इच्छाएं थीं। न हम कभी फिल्म देखने जाते थे, न कभी कहीं बाहर खाने। मैं हर रोज़ बेरंग ज़िन्दगी में रंग खोजती रही। मेरी ज़िन्दगी काली स्याही की दवात की तरह लुढ़कती रही, उसके गिरे बूँद बूँद दाग़ को साफ़ करने की कोशिश में, अपने हर बेशक़ीमत लम्हे मैं स्याह करती रहीI  शायद कोई फीका रंग कभी गाढ़ा हो जाए…इस उम्मीद में डॉक्टर्स के भी चक्कर काटे, न मन से….न तन से मैं कभी हरी हुई ही नहीं। एक तरह से हमारी शादी समझौते का कॉन्ट्रैक्ट थी। कहते हुए सीमा दीदी शून्य में खो गईं थींI

इसके बाद वे दफ्तर में चुप-चुप सी रहने लगीं थी। उनकी चाल-ढाल सब बदल गई थी। रिटायरमेंट के बाद बिलकुल ही आइसोलेटेड होती गईं। यहाँ तक कि लोगों से मिलना-जुलना बंद करके फ़्लैट में बंद रहने लगीं थी। मुझसे भी उन्होंने मिलना जुलना छोड़ दिया था।

अखबार का वो पन्‍ना देर तक मेरे हाथों में फडफडाता रहा—“दूरदर्शन की प्रसिद्ध  एंकर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। ह्रदय गति रुक जाने के कारण उनका निधन हो गया, उन्हें अस्पताल ले जाने वाला कोई न था। बहुत समय से वे अपने घर में अकेली रहती थींI शायद इलाज के अभाव में उन्होंने दम तोड़ दिया।”

-ओह… सीमा दीदी! ये क्या हो गया…इस तरह अचानक कैसे जा सकती हैं…? एक बार फोन तो किया होता. एक बार मिल तो लेतीं… काश मैंने उन्हें फोन कर लिया होता…I कलपती हुई मैं अपनी आँखों की नमी को मैं हथेलियों से सोखने की कोशिश कर रही हूँI

—ममता सिंह

फ़ोन- 8369051596

radiosakhi@gmail.com

परिचय

ममता सिंह।

जन्मतिथि–16 नवम्बर।

शिक्षा: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से संस्‍कृत में एम.ए. एवं रूसी भाषा में डिप्‍लोमा।

प्रयाग संगीत समिति से शास्‍त्रीय संगीत में प्रभाकर।

‘राग मारवा’ प्रथम कहानी संग्रह। राजपाल एन्ड संस से प्रकाशित और “महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी से पुरस्कृत” और  -म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान प्राप्त।

—–आकाशवाणी की बेस्ट announcer/ सर्वश्रेष्ठ उद्घोषिका का पुरस्कार प्राप्त।

पहला उपन्यास-“अलाव पर कोख” प्रतिविम्ब से प्रकाशितI

कहानी संग्रह “किरकिरी” राजकमल से प्रकाशितI 

देश भर के तमाम शहरों के साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंच संचालन।

संप्रति: देश के सबसे लोकप्रिय रेडियो चैनल विविध भारती में उद्घोषिका। रेडियो-सखि के नाम से मशहूर।

विविध भारती से अपनी अनेक कहानियों का वाचन। नाटकों में सहभाग।

ऑडियो ब्लॉग कॉफ़ी हाउस के ज़रिये तमाम मशहूर लेखकों और अपनी कहानियों का वाचन

ब्लॉग “बतकही”

मुम्बई के पहले हिंदी सांध्य दैनिक “निर्भय पथिक” में बतौर उप-संपादक कार्य किया।

पाँच बरस वार्षिक कैलेण्डर काल निर्णय का संपादन।

तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां संस्मरणऔर लेख प्रकाशित।

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