डूबते सूरज का रेगिस्तान

इसी जगह पर, ठीक बीस बरस पहले, मैंने रेत में डूब रहे सूरज को देखा था। मैं चाह रही थी कि आज भी सूरज, ठीक उसी तरह डूबे, जैसे डूबा था बीस बरस पहले। सूरज, ठीक उसी तरह छुए रेत को और रेत हो जाए लाल। सिंदुरी। मैं देखे हुए जादू को फिर देखना चाह रही हूँ। दूर-दूर तक रेत के टीले थे। रेत के टीलों में हवा की धारियाँ थीं। धारियों पर, ऊँटों के पैरों के निशान थे। ऊँटों के पैरों के निशान जो रेत की धारियों से खेल रहे थे। मिटा रहे थे रेत से हवा की धारियों को। हवा का काम बढ़ा रहे थे।
रेत के टीलों में शाम उभर रही थी। सूरज तेजी से नीचे गिर रहा था–रेत की ओर। वह जगह मुझसे अभी दूर थी, जहाँ रेत में सूरज डूबता था। अगर मैंने और देर की तो मैं सूरज के रेत को छूने से पहले, नहीं पहुँच सकती थी उस जगह तक। मैं तुरंत ऊँट की ओर गयी। जहाँ मेरे पति थे–मेरा इंतजार करते। उन्हें जल्दी थी। वे जान रहे थे कि अगर और थोड़ी देर हुई तो रेट में डूबता सूरज हाथ से फिसल जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे मुट्ठी से फिसलती है रेत। ऊँट की लगाम, एक ग्यारह-बारह बरस के बच्चे के हाथ में थी। बीस बरस पहले, जब मैं यहाँ आयी थी, तब भी लगाम बच्चे के हाथ में ही थी। यह कोई संजोग नहीं था। बीस बरस पहले और आज भी जैसलमेर के ‘सम’ में ऊँट की लगाम, बड़ों से ज्यादा बच्चों के हाथों में है। वह एक साँवला-सा लड़का था, जिसने मटमैला-सफेद पठानी कुरता और पैजामा पहन रखा था। वह मुझे देख कर मुस्कुराया। ऊँट ने भी बैठे-बैठे ही मेरी ओर देखा–अपना सिर घुमा कर। ऊँट का चेहरा देख मुझे लगा कि कहीं यह वही ऊँट तो नहीं है, जिस पर मैं बीस बरस पहले बैठी थी–अपने पति और बेटी के साथ। बेटी जब यहाँ आयी थी तो चार बरस की थी और अब चौबीस की हो गयी है। अपनी डाक्टरी की पढ़ाई के कारण, वह हमारे साथ नहीं आ पायी है।
‘बैठिए आराम से…यह आपको पहचानता है,’ लड़के ने मुस्कुराते और ऊँट की गरदन को सहलाते हुए कहा। मैं मुस्कुरायी।
ये छोटे-छोटे बच्चे, बातचीत में कितने होशियार हैं। अपनी उम्र से बड़े। जीवन के उबड़-खाबड़ में डगमग, पर पारंगत। मुस्कुराते लड़के की सहायता से, मैं बैठे हुए ऊँट पर बैठ गयी। सामने की ओर। मेरे पति बैठ गए मेरे पीछे। हम दोनों के बीच में ऊँट की कूबड़ थी–गद्दे से ढ़ँकी। ऊँट की गरदन, अब तनी हुई थी–ऊपर आसमान की ओर। ऊँट को आभास हो गया था कि अब उसे चलना है। दौड़ना है उसे।
‘पीछे की ओर झुकिए… जितना बने पीछे झुक जाइए…मैं इसे अब उठा रहा हूँ…’ लड़के ने हमें सावधान किया।
ऊँट उठा। झटके से मैं आगे हुई। पीछे की ओर नहीं झुकी होती तो ऊँट के ठीक सामने गिरती। ऊँट अचंभित हो जाता। अपनी थूथन से छूता मेरी देह और मन ही नही मन हँसता। ऊँट पर बैठते हुए, मैं इतने तनाव में थी कि पीछे बैठे पति का मुझे ख्याल ही नहीं आया। ख्याल आया तब, जब ऊँट चल पडा और मैं सहज हो गयी। मैंने उनकी ओर देखा। वे ऊँट से आगे, आसमान को देख रहे थे, जहाँ सूरज रेत की ओर फिसल रहा था। लड़का, ऊँट के आगे-आगे था। ऊँट की लगाम लड़के के कंधे से होते हुए, लड़के के दायें हाथ में थी। ऊँट लड़के को देख कर चल रहा था–उसके पीछे-पीछे। लगाम एक झूलती रस्सी थी बस। दोनों एकदूसरे को समझते हुए चल रहे थे–ऊँट और लड़का। मेरा मन, लड़के से बात करने का हुआ। मेरे सामने ऊँट की ऊँचाई से नीचे, लड़के का सिर था–लंबे सीधे, तेल चुपड़े बालों वाला। चेहरा नहीं था। मैंने अपनी आवाज को तेज रख, उसके तेल चुपड़े बालों वाले सिर से पूछा, ’क्या नाम है तुम्हारा ?’
‘मकड़ी…’
‘मकड़ी… यह कैसा नाम है? ’
’मैं जब छोटा था तो रेत के धोरों पर, मकड़ी की तरह रेंगता था तो मेरी माँ मुझे मकड़ी कहने लगी…फिर सब कहने लगे…’ लड़का हँसा। लड़के कि हँसी रेत पर बिखरी तो रेट भी हँसी।
उसकी हँसी मुझे दिखी नहीं। हँसी की आवाज दिखी। हँसी की आवाज, रेत पर नाचती-सी दिख रही थी। लड़के कि हँसी रेत पर बिखरी तो रेत भी हँसी। लड़का रेत के टीले पर चढ़ रहा था। मुझे हँसी आयी।
मैनें फिर पूछा, ‘…और इस ऊँट का क्या नाम है?’ इस बार लड़का पलटा ऊँट की ओर और उसने हँसते हुए कहा, ‘इसका नाम एटीएम है।’
मैं सोच रही थी कि बीस बरस पहले किसी ऊँट का नाम एटीएम रखना संभव नहीं था। एटीएम नई चीज थी।
‘इसका नाम एटीएम किसने रखा?’ मैनें ऊँट को गौर से देखते हुए पूछा, जो सिर उठाए लड़के के पीछे-पीछे चला जा रहा था।
‘मेरे बड़े भाई ने रखा है…जैसे एटीएम पैसा उगलता है, यह भी उगलेगा यह सोचकर।’ अब लड़के और मेरी हँसी साथ-साथ थी। पीछे पलटी तो मैंने पति को मुस्कुराते हुए देखा।
‘तो तुम्हारा यह एटीएम पैसा उगल रहा है या नहीं?’ मैने हँसते हुए पूछा।
‘यह नाम का एटीएम है बस…’ मकड़ी ने मुंह बनाकर कहा। लगा कि लड़के की बात सुन नाराज हुआ ऊँट। हुआ दुःखी। ठिठक गया। मकड़ी ने ठिठके ऊँट को देखा एक क्षण। एक क्षण बस, फिर अपने कंधे पर झूल रही डोर को एक झटका दिया। ऊँट फिर चल पड़ा। मकड़ी के पीछे-पीछे। ऊँट और मकड़ी, रेत के ऊँचाई चढ़ रहे थे। मैं और मेरे पति, एटीएम की पीठ पर सावधान थे कि इस चढ़ाई में कहीं ऊँट की पीठ से फिसल ना जाएँ।
जब चढ़ाई खत्म हो गई और मैं सहज हो गई तो धोरे की उतार को फिसलते-से उतर रहे, मकड़ी से मैंने कहा, ‘ इससे पहले जब मैं यहाँ आयी थी तो तुम्हारी ही उम्र का वह लड़का था, जिसके ऊँट पर मैं बैठी थी।’
मेरी बात सुन, मकड़ी ठिठक गया। पलट कर देखने लगा मेरी ओर। वह रेत के धोरे की ढ़लान पर था नीचे। हम ढ़लान पर, उससे ऊपर थे–एटीएम, मैं और मेरे पति। मकड़ी मुझे गौर से देख रहा था।
‘अरे चल यार सूरज फिसल जाएगा…’ मेरे पति ने मेरे पीछे से कहा। उनके चेहरे पर होगा थोड़ा गुस्सा और थोड़ी खीझ होगी, यह मैं उनका चेहरा देखे बिना समझ गयी थी।
मकड़ी जैसे मेरे पति की कही बात, सुन ही नहीं पाया था। वह अब भी मुझे गौर से देख रहा था। फिर उसने कहा, ‘वह मैं ही था जिसके ऊँट पर आप बैठी थीं… आप भूल गयीं ?’
मकड़ी की बात सुन मैं उसे गौर से देखने लगी। एक क्षण मुझे लगा कि क्या यह वही लड़का है… मैं भूल गयी कि मैं यहाँ बीस बरस पहले आयी थी। वह लड़का यहाँ होगा कहीं तो तीस-बत्तीस साल का आदमी हो चुका होगा। मुझे चुप देख वह पलटा और धोरे की ढ़लान उतरने लगा। उतरने लगा लगभग दौड़ता-सा। सूरज अब भी दूर था हमसे। लग रहा था सूरज, रेत के विस्तार को छूते हुए ठहर गया है। मकड़ी अब दौड़ रहा था धोरों के रचे नन्हें उबड़खाबडों को पार करता।
दौड़ते-दौड़ते ही अचानक मकड़ी ने बिना पलटे फिर कहा, ‘ वह लड़का मैं ही था… आप मेरे ही ऊँट पर बैठी थीं..’
मैं मुस्कुरायी। सोचा यही सही। फिर मैंने और कहा, ‘हाँ-हाँ… मुझे याद आ गया, वह तुम ही थे…पता नहीं मैं कैसे तुम्हें भूल गयी?‘ मकड़ी खुश हो गया। बहुत-बहुत खुश।
मकड़ी की खुशी के साथ कुछ और भी हुआ। मेरे ऐसा कहते ही जैसे जादू हुआ। हम डूबते सूरज के सामने थे। सूरज का वृत रेत में धंस रहा था। धँसते सूरज के आसपास, अचानक हजारों सूरज दिखे। हजारों सूरज, एक के बाद एक धँसते हुए आसमान और रेगिस्तान की संधि पर। बिखेरते गहरा लाल रंग सिंदूरी, एक साथ। बीस बरस से डूबने का इंतजार करते सूरज हजारों, डूब रहे थे अब। डूब रहे थे, मुझसे बीस बरस पहले मिले लड़के के सामने, जिसकी उम्र नहीं बढ़ी थी बीस बरसों से। डूब रहे थे, उस ऊँट के सामने, जिस पर मैं बैठी थी बीस बरसों पहले और जिसकी उम्र बढ़ी नहीं थी बीस बरसों में एक दिन भी। यह आश्चर्य था। पर सच था। आप मानें या न मानें। ऐसा होता है। जब आप बीस बरस बाद, सम के रेगिस्तान में फिर जाते हैं तो बीस बरस पहले जिस ऊँट पर आप बैठें हैं, वह फिर मिल जाता है। मिल जाता है बारह बरस का वही लड़का फिर, जिसने आपको ऊँट की सवारी करायी थी। डूबने लगते हैं आपके इंतजार में बीस बरस से ठहरे हजारों सूरज एक साथ और सम का रेगिस्तान तेज लाल रोशनी से भर जाता है।



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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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