शायद जन्मांतरों की
एक अव्यतीत स्मृति की तरह
तुम मेरे भीतर
किसी अबूझ उपत्यका में बहती नदी से
निकली बाहर
जैसे कोई फिल्मी दृश्य हो
या महाभारत सीरियल का कोई अंश

‘मैं वितस्ता हूँ ‘ कहा तुमने मुझसे

लगा मुझे समयों के पार से
बह रहा मैं अविगलित बर्फ के तूदे सा तुम में
स्पंदित हुआ मैं
और
‘मैं शिव हूँ ‘ कहा किसी ने मेरे भीतर से
जैसे क्षणांश में पहचानते हुए तुम्हें

मैं समझ नहीं पा रहा था
कि ऐसे निर्वयक्तिक क्षण में
क्या मैं जाग रहा था सच में
या नींद में कहीं घूमने निकला था पैदल किसी पुराख्यान की ओर
या कि सपने में देख रहा था एक स्वप्न
या कि …
पता नहीं वो क्या था
और मैं देख रहा था अपना कविता संग्रह तुम्हारे सुकोमल हाथों में
जो एक दिन विसर्जित किया था मैंने तुममें एक जलावतन कवि की भेंट सा
यह कितने बड़े और सच्चे किसी नोबेल पुरस्कार मिलने जैसी बात थी
कि मेरी कविताओं की पुस्तक
सम्भाल कर रखी थी तुमने

तुम मेरे साथ चली आईं
मेरे तंबूघर में जो एक शरणार्थी कैंप में था जम्मू में
मैं तुम्हें लौटाना चाह रहा था वहीं
जहाँ तुम थीं बह रही युगों से
क्योंकि जगह नहीं थी मेरे तंबू में
जहाँ रख लेता मैं तुम्हें
एक अतिथि सा
करता समुचित सत्कार
उतारता आरती द्वार पर घर के
तीनों नहीं थे हमारे पास
न घर
न आतिथ्य का सामान
न घर का द्वार ही
एक उजाड़ था शरणार्थी जीवन का
सब तरफ
और तुम थीं कि चली ही आ रही थीं
पीछे पीछे
तभी किसी मोड़ पर
मैंने तुम्हारे पांवों में छाले पड़े देखे
हैरत हुई मुझे
और तुम बोलीं,
‘भूल गए ओ लम्पट
ओ कपटेश्वर
ओ झूठे
याद नहीं, मैंने कहाँ कहाँ नहीं
ढूंढा तुम्हें हरमुख की यात्रा में
अकेली, बावरी मैं
पूछती जिस तिस से
पेड़ पक्षियों से तुम्हारे बारे में
चढ़ी भूतेश्वर पर्वत की खड़ी चढ़ाई
और..और..पकड़ा था रंगे हाथ
तुम्हें गुलछर्रे उड़ाते शिरोधार्य प्रियतमा के साथ

मैं समझ गया अभिशाप जन्मांतरों का
जिसमें लेकिन गुम्फित था
आज तुम्हारा आना मेरे साथ भी
जलावतनी में
या कि हरमुख यात्रा पर लिए जा रहा हूँ मैं
जहाँ सिर्फ तुम्हारी ही जगह है
बाट जोहती

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आज का विचार

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