( क्षमा कौल के लिए)

तुम्हारे जन्मदिन पर आज

यह कैसा काव्यबिंब लिए आया मैं भी 

जैसे अविश्वसनीय है इस कविता का शीर्षक 

परंपरा से मनाते आए हैं हम

आषाढ़ शुक्ला नवमी का यह दिन 

श्रीनगर की अधिष्ठात्री देवी शारिका का जन्मदिन

और विवाह के बाद से तुम्हारा भी यही जन्म दिन..

इसे ही कहूंगा मैं 

‘विस्मय योग भूमिका’ 

मुझपर फलित हुआ शिवसूत्र यह

संयोग कितना भी 

नकार दिया जाए

दिक्, काल और निमित्त कौन तय कर पाया आज तक जिनसे बना है तुम्हारा यह जन्मदिन..

तो आज के दिन की कथा है 

घाटी का दैत्य जब मर नहीं रहा था शिव और विष्णु सहित सब

पुरुष देवताओं से

तुमने धरा मैना का रूप  

और उठा लाईं  मेरू पर्वत का एक भाग अपनी चोंच में 

और ढक दी उससे दैत्य के छिपने की पाताल कंदरा

 फिर बैठी उसी हारी पर्वत पर 

जिसका नाम आज ‘कोहे मारान’ कर दिया है उन्होंने… 

 इसे क्या संयोग ही कहा जा सकता है 

कि तुम्हें भावी बहु के रूप में 

मेरे माँ बाप,भाई बहनों ने 

इसी हारी पर्वत की सिन्दूरपुती

चक्रेश्वरी शिला तीर्थ पर ही देखा 

और सर माथ लगाया

 और उसी दिन

 यह रहस्य भी खुला था कि क्यों 

तुम्हारा मस्तमौला मलंग पिता तुम्हें शारिका कहकर पुकारता था 

‘ तुम्हारा जन्मोत्सव मनाता है पूरा कश्मीर ‘ सुनती थीं तुम 

माँ- बाप से यह हर वर्ष इसी दिन

घाटी के दैत्य को अपने नीचे दबाकर रखने के निहितार्थों को लेकर मैं कितना कुछ 

सोचता और लिखता रहता था 

एकबार इसी हारी पर्वत की चक्रेश्वरी शिला के सामने बैठे   विश्वप्रसिद्ध चित्रकार 

गुलाम रसूल संतोष ने कहा था 

आज के ही दिन 

‘ बारिश में यहाँ आने से अच्छा था माँ शारिका को घर ही बुलाते’ 

 ध्यान से बाहर आए चित्रकार की बात का आशय समझा नहीं था मैं 

क्योंकि बारिश नहीं हो रही थी उस दिन

और तुम आईं थीं मेरे घर 

जो अभावों और संघर्षों की काली बारिशों से बोसीदा हो चुका था..

जिसमें मैंने लिखीं थीं कविताएँ 

और बेशुमार सपने देखे थे

मेरे घर के पिछवाड़े कुछ ही किलोमीटर दूर था हारी पर्वत 

दिखता था तीसरी मंज़िल की छत से

या पार करते हब्बाकदल का पुल 

करते थे मन ही मन नमन 

तुम्हारे शिखर को

आज के दिन 

मैं याद करता हूँ जलावतनी में 

हारी पर्वत पर विराजी माँ को

और घर की अधिष्ठात्री

तुम को 

भेंट करता हूँ यह कविता 

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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