रोगनजोश


रमन के पिताजी उसके नाम का उच्चारण अमृत की जगह ‘अम्रुत’ करते। इससे उसे शराब की एक प्रसिद्ध ब्रांड की याद आती। वह मन ही मन हँसती। अकेले में रमन से पूछती, तो वह एकाएक श्रवण कुमार बन जाता। कहता— भाषा के ज्ञानी हैं। ठीक ही कहते होंगे, हमें सुनायी ग़लत पड़ता होगा।
इस पर वह रमन को चिढ़ाती— वे ठीक नहीं कहते, बल्कि उन्हें और उनके आसपास के लोगों को लगता है कि चूँकि वे कह रहे हैं तो हमेशा ठीक होगा।
अमृत ने मार्क किया है, रमन की यह पितृभक्ति हमेशा एक तरह के गर्वबोध से प्रदीप्त रहती। यह अपने स्वरूप में इतनी प्राचीन व पवित्र थी कि इसे एकबारगी चुनौती नहीं दी जा सकती। माँ के दूध व जन्मभूमि की धूल की तरह यह अपनी काव्यात्मक परिकल्पना में सर्वथा पूजनीय व शिरोधार्य थी। जिस प्रकार अपने देश से दूर जा बसे लोगों के दिल में स्वदेस-प्रेम ठाठे मारता है, वे इसके प्रति इतने आस्तिक औदार्य से भरे रहते हैं कि एक उचित आलोचना भी उन्हें चुभती है, उसी प्रकार अमृत के इस तरह छेड़ने पर शादी के बाद अपने पिता से दूर रह रहा रमन कुछ अस्थिर-सा हो उठता।
प्रकटतः उसने कहा— बस कुछ दिनों की बात है, सबर कर लो।

यहाँ आने की ज़िद अमृत की ही थी। शादी के तीन साल हो रहे थे और वह अब तक रमन के माता-पिता से नहीं मिली थी। कई बार उससे कहा, न हो तो कुछ दिनों के लिए उन्हें ही बुला ले। वह कहता— पहली बार वहाँ जाकर ही मिलना ठीक होगा। इसके बाद आने-जाने का सिलसिला चल निकले, सो अलग बात है। छुट्टियों की दिक़्क़त थी, सो बात टलती जा रही थी। अब अगले बरस दो से तीन होने का सोचा है। इससे पहले वह वहाँ से एक बार हो आना चाहती थी।
वीडियो कॉल पर कई बार बातें हुई थीं, लेकिन हर बार रमन की माँ से ही। पिताजी के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। नेम-नियम और धरम-करम वाले आदमी थे, हालाँकि अमृत से रमन की शादी पर उन्हें कुछ ख़ास एतराज़ न हुआ था। एतराज़ नहीं तो बातें क्यों नहीं करते? अमृत के पूछने पर रमन कहता— उन्हें पंजाबन से गुरेज नहीं, मोबाइल फोन से है। मिलने चलेंगे तो देखना, बहू नहीं बेटी का मान देंगे।
देखा जाए तो रमन बहुत ग़लत न था। पिताजी ने बस इतनी शिक़ायत की कि शादी अगर पारम्परिक रीति-रिवाज़ से होती तो किसी का क्या बिगड़ जाता! इसी बहाने हम भी मिल लेते तुम्हारे माता-पिता से। कुल मिलाकर हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति प्रतीत हुए। घर में, और पुरा-पड़ोस में भी काफी रोबदाब वाले। गाँव के लोग उन्हें ‘पंडीज्जी’ के समानार्थक अभिधान से सम्बोधित करते। इस पर अमृत ने रमन से पूछा— यार छोटे पंडत, क्या पिताजी को मालूम है कि उनकी बहू ने श्रवण कुमार का धर्म भ्रष्ट कर दिया है?
अमृत का इशारा समझकर दबे स्वर में रमन ने कहा— अब जितने दिन यहाँ हैं, हमें वही खाना होगा जो यहाँ बन सकता है। इस पर अमृत ने अपना समर्थन देते हुए कहा— सो तो ठीक है, मैं कौन-सा यहाँ अलग चूल्हा बनाने आई हूँ! मैं तो बस पूछ रही थी कि क्या उन्हें पता है, तुम नॉनवेज खाते हो और क्या ख़ूब दबा के खाते हो? रमन बस मुस्करा कर रह गया। ऐसा नहीं था कि उसने अमृत से शादी के बाद मांसाहार शुरू किया, कॉलेज में दोस्तों के साथ कभी-कभार खा लिया करता था। लेकिन घर में इसकी भनक तक न थी। फिर नौकरी पर जब वह दिल्ली आया तो मेस में सभी तरह के व्यंजन बनते थे। अनन्तर उसका ‘कभी-कभार’ कब ‘अक्सर’ में बदल गया, उसे पता ही न चला। हाँ, अमृत से शादी के बाद उसने अपने घर में किसी क़िस्म की परहेज नहीं रखी। अमृत नॉनवेजिटेरियन थी, और उसके हाथों के मांसाहारी व्यंजन बहुत लज़ीज हुआ करते थे। रमन ने हँसते हुए कहा— वैसे तो यह मुमकिन नहीं, लेकिन काश कि एक बार पिताजी तुम्हारे हाथ का मटन रोगनजोश खाकर देखते, मेरा दावा है कि इसके बाद उनके समस्त संकल्प टूट जाते।

दक्षिण भारत में वह पहली बार आयी थी। कोयम्बतूर से तीसेक किलोमीटर आगे पहाड़ी से सटा गाँव था, जिसके पार केरल शुरू हो जाता था। यहाँ का मौसम, हरियाली, खेत-बगियारी, घर-आँगन और सड़कों व तालाब की साफ़-सफ़ाई उसे बहुत पसन्द आयी। सड़कें पक्की थीं और अमूमन हर घर के द्वार तक बसों की सीधी आवाजाही। हरी-बैंजनी धरती की नम देह पर नीली-काली, इकहरी सड़कें ज़हरीले साँपों की तरह अलसायी पड़ी रहतीं। दूर-दूर तक नारियल और केले और अंगूर के खेत। दोपहर की चमकीली पीली धूप में आदमजात का नामोनिशान नहीं। कहीं वीराने में लावारिस-सा खड़ा हीरो होंडा, खेत में डेढ़-दो किलोमीटर आगे काम करते किसी किसान का। बालों में सफ़ेद-नारंगी गजरे डालकर खिलखिलातीं, साइकिल चलातीं, किसी झोंके की तरह इधर से आकर उधर को निकल जातीं लड़कियाँ। ऊँची-ऊँची राजनीतिक व फ़िल्मी होर्डिंग्स। घरों के द्वार हरे गोबर से लिपे-पुते, चाहे झोपड़ी हो या संगमरमर की सीढ़ियों वाली ऊँची इमारत। हर घर के सदर दरवाज़े पर अल्पनाओं की बहुरंगी कल्पनाशीलता देखने को मिलती।
तुम्हारा गाँव बहोत सुन्दर है! अमृत ने कहा तो रमन का सीना चौड़ा हो गया। इससे पहले कि वह कुछ बोलता, अमृत ने उसकी हवा निकालते हुए जोड़ा— बस एक ही दिक़्क़त है कि गोरी चमड़ी वालों को देखकर यहाँ के आवारा कुत्ते तक सतर्क हो जाते हैं। भौंकने लगते हैं।
इस पर रमन ने कहा— अमृत, अब तुम प्लीज़ नॉर्थ इंडिया वर्सेज साउद इंडिया वाली बहस मत छेड़ बैठना।
उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत, आर्य-द्रविड़, भाषा और खानपान की भिन्नता-सम्बन्धी बहसें उथले स्तर को छूकर रह जाने वाली बातें हैं। अन्तर कहीं गहरा और बारीक है जिसे अमृत ने वहाँ बिताये बहुत थोड़े दिनों में महसूस करना शुरू किया, हालाँकि ये अन्तर उतने तिक्त नहीं और यदि यह ज़ाहिर हो कि आप वहाँ कुछ दिनों के मेहमान-भर हैं तो वातावरण व परिवेश-बदल के तौर पर सुखद ही साबित होते हैं।
रमन के पिताजी को ही लें तो अपनी तरफ़ इस तरह की सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति अमूमन मितभाषी होते हैं, काम से काम रखने वाले, व्यावहारिक ठसक से भरे-भरे। अमृत को अपने दारजी की याद आयी— वे घर के भीतरी भागों में, जिन्हें पंजाब में बेड़ा कहा जाता, बहुत कम आते-जाते और बीजी से संवाद करते हुए बारहाँ इसका ख़याल रखते कि दोनों निहायत अकेले न हों। बीजी भी उनके आगे पड़ने से सायास बचतीं, कुछ पूछना-कहना हो तो बच्चों को मध्यस्थ रखतीं। इसके बरक्स रमन के पिताजी उसे वाचाल लगे, ख़ूब बातें करते, चुप होने का नाम न लेते। रमन ने कहा— तुम ग़ौर करना, यह व्यक्तिवाचक प्रवृत्ति नहीं। क्या है कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में ध्वनियाँ ज़्यादा हैं। किसी भी भाषा की अक्षर-बहुलता यह निर्धारित करती है कि उसे बोलने-बरतने वाले लोग कितने घुन्ने होंगे। ‘घुन्ना’ शब्द कहते हुए वह इस क़दर मुस्कराया कि अमृत ने इसका लक्ष्यार्थ अपने दारजी के लिए लेते हुए प्रतिक्रिया-स्वरूप उसकी पीठ पर एक धौल जमा दी।
और यह करते हुए रमन के पिताजी ने उसे देख लिया। घुटनों तक लुंगी को दोहरा किये, हाथ में केले का एक घौद लेकर वे घर के प्रवेश-द्वार पर लगे लोहे के ग्रिल को खोल रहे थे। उन पर नज़रें पड़ते ही रमन परे हट गया। अमृत संकोच से गड़ गयी। अपनी धवल दन्त-पंक्तियों की छटा बिखेरते वे अन्दर आये। उनके हाथ से घौद को लेकर रमन वहाँ से खिसक ही गया। तब सहसा उसे महसूस हुआ कि यहाँ आने के बाद यह नितान्त पहला अवसर है जब वह उनके साथ अकेले खड़ी है।
ऐसी सँकरी परिस्थितियाँ हमें अक्सर दो-टूक बना देती हैं। हम अपने-आपको ढँकते हुए हकलाने लगते हैं, भाषा के कँगलेपन पर तरस खाते हुए खँखारकर अपना गला साफ़ करते हैं और जैसे-तैसे कहना शुरू करते हैं— देखिये… आपने अभी जो देखा… मेरा मतलब कि ऐसा है, हम आपस में हँसी-मज़ाक़… पिताजी आई ऐम सॉरी!
लेकिन अमृत ऐसा कुछ कहती, इससे पेश्तर पिताजी ने कहना शुरू कर दिया— मालूम है, यह पूवन केला है। प्रदेश में कदली की जो प्रजातियाँ हैं— कण्णन, पडट्टी, पालेमकोडन आदि, उनसे अलग। सर्वथा भिन्न। पड़ोस का गैब्रियेल इन्हें लिये हाट को जा रहा था कि मैंने मोल लिया। थोड़ा महँगा सौदा रहा, लेकिन ख़ास तुम्हारे लिए है। तुम इनका स्वाद उधर कहीं पाने से रहीं। देखना। अहा!
बोलते हुए उनके शब्द विशिष्ट स्वादानुभूति को साकार करने के यत्न में लिसलिसे हुए जा रहे थे। जिह्वा, आग्रही मनुष्य को किसी उच्चतर भावभूमि पर प्रतिष्ठित कर देती है, जहाँ से बाक़ी संसार तुच्छ व थोथा प्रतीत होता होगा। पिताजी के चेहरे पर किसी प्रकार के लोकाचार से मुक्त परमानन्द की वे परितृप्त भावरेखाएँ गोचर हो रही थीं, जिन्हें देखकर अमृत का संकोच दूना हुआ जा रहा था।
ऊपर जिस बारीक अन्तर की बात की गयी, अमृत ने इस घड़ी उसे प्रमुखता से महसूस किया। यहाँ उस भाषिक अन्तर की बात करना बेमानी नहीं जिसकी उपस्थिति में आत्मीयता का समान धरातल निर्मित ही नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए वह जब कोई विदेशी फ़िल्म देखती, भाषिक अन्तर को पाटने के लिए स्क्रीन पर सबटाइटल्स गुज़रते तो दृश्य और अक्षरों के बीच सामंजस्य बिठाने में कई बार वह गड़बड़ा जाती। कथानक के सूत्र और उसमें अन्तर्गुम्फित भाव उसकी पकड़ में आ जाते, लेकिन जानी-पहचानी शब्द-ध्वनियों की अनुपस्थिति उसे उस दृश्य या भाव से आत्मीयता स्थापित नहीं करने देती। कई बार देखे जाते दृश्य के समानान्तर अपने भाषा-संस्कार की नितान्त विपरीत स्मृतियाँ सहसा उसकी सोच पर कब्ज़ा जमा लेतीं, नतीज़तन कुछ का कुछ हो जाता। अभी पिताजी के मामले में ऐसा ही ‘कुछ का कुछ’ था।
उसने एक बार पिताजी को देखा, वे अब भी आँखें मूँदे मानों उस स्वादानुभूति को जीवन्त कर रहे थे। इस एकान्त में उनके चेहरे पर परितृप्ति की वह दिव्यता, अमृत के अनुवाद में, अपना अर्थ बदल रही थी। अमृत का चेहरा सुर्ख़ हो उठा। वह वहाँ से भागकर भीतर कमरे में चली आयी। रमन ने पूछा, क्या हुआ? अमृत ने कहा, कुछ नहीं।

ऐसा नहीं कि उसकी तरफ़ ऐसे बुज़ुर्ग नहीं होते जो भोजन-रसिक हों, बस अमृत ने अब तक पिताजी की तरह का कोई न देखा था। वे अपने यहाँ के व्यंजनों, फलों, मिठाइयों-खटाइयों की गहन समझदारी रखते थे। मसालों के करिश्मे के अच्छे जानकार। कॉफी भी पीते तो नाना सरंजाम करते। हमारे पंजाब में तो लोग दारू पीने की इतनी तैयारी नहीं करते जितने कि पिताजी चाय-कॉफी की करते हैं— एक बार अमृत ने रमन को छेड़ते हुए सुनाया था।
पिताजी स्वास्थ्य के प्रति भी सनकी होने की सीमा को छूते सतर्क थे। भोर होने से पहले उठकर वर्जिश करते, नीम से देर तक दातुन करने के उपरान्त बोरिंग के पास कई बाल्टी पानी से कुल्ला करते, मुँह में पानी रखकर आँखों पर छपाके मारते। स्नान से पहले हल्दी, नारियल के तेल से बदन की मालिश। पूजा-पाठ, जप-ध्यान, यज्ञ-हवन आदि के अनन्तर ही पहला निवाला ग्रहण करते।
मैंने पहली बार नारियल के तेल में पके व्यंजन खाये हैं— एक बार अमृत ने कहा तो वे देर तक नारियल के गुणों काबखान करते रहे। दक्षिण भारतीय खान-पान में चावल से बने पकवानों की प्रमुखता थी,बल्कि यों कहा जा सकता है कि वहाँ के समस्त पकवानों का बेस इंग्रेडियेंट चावल ही है। सब्ज़ियाँ ज़्यादातर तरल-रूप में होतीं। खटाइयों का इतना विविधवर्णी प्रयोग होते इससे पहले न देखा था। एक मज़ेदार बात कि दिल्ली में, अथवा अन्य उत्तर भारतीय शहरों में दक्षिण भारतीय व्यंजन के नाम पर सर्वाधिक प्रचलित दोसा का ख़ास दक्षिण भारत में नितान्त ही अलहदा रूप पाया। अमृत ने पहले-पहल अपनी थाली (केले के पत्ते) में परोसे गये दोसा को पहचाना ही नहीं। न वह क्रिस्पी था और न उस आकार में, जिसमें वह उत्तर भारत में अक्सर पाया जाता है। जब उसके पूछने पर बताया गया तो उसके मुँह से बरबस निकल पड़ा— हमारे यहाँ का साउद इंडियन दोसा थोड़ा अलग होता है। फिर उसे अपने कहे पर ख़ुद ही हँसी आ गयी। रमन-सहित उसके माता-पिता भी देर तक हँसते रहे थे। एकाध अन्य स्थलों पर पिताजी ने उसे छेड़ा भी— यह फलाँ चीज़ है, नॉर्थ इंडिया में नहीं मिलती, और न ही ‘तुम्हारे यहाँ के साउद इंडिया’ में!
या तो पिताजी से मिली छूट थी या फिर इस घर और दक्षिण भारत के लिए सर्वथा नयी होने के कारण अमृत को यह बढ़त मिल चुकी थी कि वह उन मूलभूत चीज़ों पर भी खुलकर बातें कर सकती थी जिसे चर्चा में लाने का अधिकार यहाँ का बाशिन्दा होने के नाते रमन को भी न था। विधि-विधान, पूजन-प्रथाओं, रहन-सहन, खान-पान सम्बन्धी संस्कारों आदि की बाबत उसे इस तरह विस्तार से बताया जाता जैसे कोई गाइड अपने यहाँ तफ़रीह पर आये टूरिस्टों को बताता है। इसमें कभी अतिशयोक्ति होती तो कभी अचानक आत्मालोचन के वे क्षण भी आते जो बताने वाले को एक पल के लिए ठिठका देते। पिताजी जब उसे इन बातों को बताते तो बोलने के धाराप्रवाह में न सिर्फ़ भाषिक अन्तर को पाटने के यत्न में कहीं-कहीं अटकते, बल्कि शायद वे स्वयं भी इन चीज़ों को नयी आँख से देखते हुए इन्हें पुनर्मूल्यांकित करते चलते। कभी उन्हें ख़ुद ही कुछ खटकता, कोई कमी या कसर अथवा सदियों से चलता आया और अब तक कभी प्रश्नांकित न हुआ अन्धविश्वास या छलावा उजागर हो जाता तो अमृत महसूस करती कि ऐसे अवसरों को वे उससे चतुराईपूर्वक छिपा ले जाते। शायद हर सभ्यता के इस तरह के अपने गुप्त झोल हुआ करते हैं जिसे किसी बाहर वाले से साझा न करने की एक अलिखित परम्परा चलती आ रही होती है।
अमृत न सिर्फ़ बाहर वाली थी, अपितु पिताजी की अपेक्षा आधुनिक व युवा भी थी। पढ़ी-लिखी थी, शहर में रहती थी और समकालीन जगत् से वाक़फ़ियत रखती थी। ऐसे में सदियों से चलती आई किसी प्रथा-परम्परा के औचित्य को विज्ञान-संगत ढंग से व तर्कपूर्वक रखने की एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी पिताजी के कन्धों पर आ गयी थी। चूँकि वे अपने स्वरूप में धर्मपरायण व पारम्परिक थे, सो इस ज़िम्मेदारी को वे रमन की तरह झटककर पूरी तरह मुक्त भी न हो सकते थे। यह करते व्यक्तिगत रूप से उनकी उन आस्थाओं और मान्यताओं की हेठी होती जिनको उन्होंने अभी इस उम्र तक पाले रखा, सदैव उनकी रक्षा करते रहे। इन परम्पराओं व मान्यताओं के एकाएक झूठा पड़ने से उनका पूरा जीवन ही अकारथ हो जाता। अमृत इसे समझती थी, इसलिए वह एक हद तक ही टोकाटाकी करती, फिर बात बदल दिया करती। लेकिन दिक़्क़त यह थी कि पिताजी, अमृत के इस समझने को भी समझते थे।
उत्तर भारत की तरह ही दक्षिण भारत में भी किसी परिवार के लोग सामूहिक रूप से अमूमन सबसे ज़्यादा निकट भोजन के वक़्त आते हैं। रमन के यहाँ ज़मीन पर बैठकर खाने की परिपाटी थी, हालाँकि घर के आधुनिकीकरण के क्रम में वाशिंग मशीन, फ्रिज आदि के साथ-साथ डायनिंग टेबल का भी प्रवेश हो चुका था। अमृत को ज़मीन पर बैठ सबके साथ पंगत लगाकर खाने में कोई दिक़्क़त न थी, लेकिन पिताजी ने अपनी पहल पर डायनिंग टेबल को साफ़ किया, उस पर रखीं शीशी-बोतलों, पुराने रद्दी अख़बारों और घर की दूसरी उन चीज़ों को रफ़ू किया जिनका खाने-पीने से दूर-दूर का वास्ता न था। इन्हें हटाकर इनकी जगह नये प्लेसमैट लगाये गये, अचार और जैम की शीशियाँ जमायी गयीं, कहीं से ढूँढ़कर काँटे-चम्मच निकाले गये। रमन इस परिवर्तन को देखकर मुस्करा रहा था, अकेले में अमृत को शाबाशियाँ दे रहा था।
‘हमारे यहाँ के साउद इंडिया’ वाला मामला ऐसे ही किसी आत्मीय अवसर पर घटित हुआ था, तो उसके बाद वे जब-जब साथ में खाने पर बैठते, हास्य का कोई भटकता सिरा जाकर उसे वापस खींच ही लाता। अमृत को शुरू में एक-दो बार बड़ी शर्म आई, लेकिन फिर वह इस लतीफ़े पर सबकी तरह ही खुलकर हँसने लगी। यह उनका पारिवारिक-घरेलू चुटकुला बन गया। नाश्ते-खाने के वक़्त परोसने, आग्रह-मनुहार व बरजने के स्वरों के साथ-साथ नाना स्वादों के तिरते भाप उठते और अपनी भीनी आत्मीयता से सबको बाँध देते। पिताजी, अमृत और रमन ही नहीं, घर में सबसे ख़ामोश रहने वाली रमन की माँ को भी तब एक उतावली बड़-बड़ घेर लेती। बातचीत के रेशे खुलने लगते। अमूमन इन अवसरों पर बातचीत खाने-पीने और इन्द्रियों की ज़द में आने वाली चीज़ों से ही शुरू होती, मसलन नमक का कम या ज़्यादा होना, पानी की ठंडक से लगाकर स्वास्थ्य का ख़्याल रखना, आदतों की मनमानियाँ, आधुनिक पहनावा इत्यादि, और फिर धीरे-धीरे इस वार्तालाप का विस्तार उन चीज़ों तक होने लगता जो किंचित् सूक्ष्म और दूर की होतीं, मसलन बदलता मौसम, शहर की भागदौड़, धार्मिक आस्थाएँ इत्यादि।
इस बातचीत को बल देने व बहाल रखने के लिए अक्सर पिताजी और अमृत वाद-विवाद की रोचक शैली अपना लेते तथा रमन व रमन की माँ अवसरानुकूल कभी पिताजी के तो कभी अमृत के समर्थन में पाला बदलते रहते। हालाँकि इस शैली में बात को तूल देते हुए कभी तिक्तता को तरजीह नहीं दी जाती, लेकिन इसकी संरचना ही ऐसी थी कि दोनों पक्ष बारहाँ अपनी-अपनी दलीलों से कट्टरतापूर्वक चिपक जाते। जब बातचीत का कोई निष्कर्ष न निकलता दिख पड़ता तो ऐसे में अक्सर रमन की माँ दोनों को खारिज़ करती-सी उन्हें किसी प्रत्यक्ष व्यावहारिक धरातल पर उतार लातीं, मसलन अब बस भी करो तुम लोग, खाना ठंडा हो रहा है, अथवा देर हो रही है सोना नहीं क्या?

लेकिन एक बार यह क्रम उलट गया और बातचीत पहले उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत की खानपान की शैलियों-जैसे दूरस्थ विषय से शुरू होकर इस परिवार के लोगों तक आते-आते अन्ततः पूरी तरह अमृत और पिताजी की इकाई तक आ पहुँची। कहना न होगा, मुद्दा शाकाहार और मांसाहार का था। पिताजी को इस विषय पर बोलते सुनकर रमन को अहसास हुआ, उन्हें इस बात की बख़ूबी जानकारी है कि वह दिल्ली में रहते हुए मांसाहार करने लग पड़ा है। शुरू की कई बातें बिना नाम लिये मानो सीधे-सीधे उसी को सम्बोधित थीं जब पिताजी कह रहे थे कि संस्कारों का कोई दोष नहीं, न ही यह स्वाद का तक़ाज़ा है, बल्कि यह वातावरण और संगत का असर होता है कि कोई व्यक्ति अचानक से मांसाहार शुरू कर देता है। वे शाकाहार को आहार का प्रगतिपरक सोपान मानते हुए कह रहे थे कि मांसाहारियों और नरभक्षियों में कोई फ़र्क़ नहीं। इस कटुता को विसर्जित करने के उद्देश्य से फौरन इसमें हास्य का पुट बहाल करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई फ़र्क़ है तो बस इतना कि नरभक्षियों को मांसाहारियों के मुक़ाबले बेहतर मांस के सेवन का अवसर मिलता है।
रमन की माँ को लगा कि अमृत कहीं बुरा न मान जाए, यह सोचकर उसका ध्यान बँटाने की गरज से वे तत्काल ही उसकी थाली में कुछ और डालने का उपक्रम करने लगीं। अमृत ने हाथ के इशारे से उन्हें मना करते हुए इस बात का पर्याप्त संकेत दिया कि घबराने की कोई बात नहीं, वह जानती है कि यह महज़ बहस-भर है, इसे वह व्यक्तिगत आलोचना के रूप में नहीं ले रही। इसके बावजूद उसने परिपक्व समझदारी और वार्तालाप की इस शैली के प्रति आदर का प्रदर्शन करते हुए पिताजी से पूछा कि किसी चुटियाधारी के एकाएक मांसाहारी हो जाने के पीछे वे जिस ‘वातावरण’ और ‘संगत’ को कसूरवार समझते हैं, उसे ज़रा स्पष्ट करें।
पिताजी के वार को जिस दिलेरी के साथ झेलते हुए अमृत ने ‘चुटियाधारी’ शब्द से प्रत्युत्तर दिया था, उसे अब सहन करने की बारी पिताजी की थी। वे अनुभव-सम्पन्न थे, सुदृढ़ थे, किन्तु अपनी धारणाओं अपने आचरण के औचित्य को लेकर शास्त्रार्थ का यह अनुभव उनके लिए नया था। अमृत के साथ वार्तालाप की सरणियाँ उन्हें विचार के नित नये भूदृश्य दिखा रही थीं और इसके लिए वे कृतज्ञ थे। साथ ही उन्हें उससे हारते भी सुख मिलता था मानो कोई अपराजेय योद्धा अपनी सन्तान अथवा शिष्य के हाथों परास्त होकर उल्टे गर्व का अनुभव करे। यह सुख उन्हें रमन ने नहीं दिया था, उसने सदैव उनकी फ़रमाँबरदारी की। पिताजी से भिन्नता उसने अर्जित भी की तो उनके पीठ-पीछे दिल्ली जाकर। अमृत में यह न था, वह रमन के चोर-व्यक्तित्व के विपरीत जो भी थी, पूरे दम-ख़म के साथ थी। इसलिए उससे उलझते हुए धीरे-धीरे पिताजी के हृदय का अहं विसर्जित होता जाता था और सर्वथा एक नयी भावना अँखुवा रही थी। उनकी दृढ़ता द्रवित होकर भी उन्हें समृद्ध करती जाती थी। उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘संगत’ से उनका आशय वह नहीं जो अमृत समझ रही है। अमृत ने भी हँसते हुए कहा कि ‘चुटियाधारी’ से उसका आशय भी वह नहीं जो पिताजी समझ रहे हैं। दोनों हँसने लगे। दोनों के इस मेल-मिलाप से अब तक तनाव में आ गये रमन और उसकी माँ को राहत-सी मिली।
अमृत का कहना था कि वातावरण की बात एक हद तक ही सही है जब हम कहते हैं कि ठंडे प्रदेशों में मांसाहार का प्रचलन ज़्यादा है। लेकिन इसे उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत, आर्य-द्रविड़, शैव-वैष्णव, हिन्दू-मुसलमान के रूप में देखने का कोई तुक नहीं बनता। मछलियों की खपत दक्षिण भारत में भी कम नहीं, दूसरी तरफ़ भारत में सर्वाधिक शाकाहारी हरियाणा-राजस्थान में पाये जाते हैं। दिल्ली में हम जिस फ्लैट में किराये से रहते हैं, उसका मालिक कोई जैन है, जो सूरज डूबने के बाद भोजन ग्रहण नहीं करता— अमृत ने बताया तो रमन ने जल्दी से सिर हिलाकर अपनी सम्मति प्रकट की। उसे ऐसा करते देख पिताजी बस हँस दिये।
शाम को रमन जब अमृत को अपने प्राथमिक स्कूल घुमाने ले गया, तो उसने व्यक्तिगत रूप से अमृत का आभार प्रकट किया। दोपहर की बातें अभी अमृत के ज़ेहन में न थीं, सो एकबारगी उसे समझ में नहीं आया। रमन ने साफ़ किया कि पिताजी के स्वभाव में पहले एक प्रकार की जो ज़िद थी, अपनी शुचिता और अपने संस्कार जैसी तमाम बातों को लेकर दबा-छिपा दर्प था, उसी के चलते आज तक वे कभी दिल्ली उनके यहाँ नहीं आये। अमृत के लिए यह सूचना नयी थी। उसे याद आया कि इससे पेश्तर जब-जब उसने रमन से यह कहा किया था कि वह अपने माता-पिता से दिल्ली आने का आग्रह करे, हर बार वह कोई न कोई बहाना करते हुए टाल जाया करता था। लौटते समय रमन ने बताया कि न सिर्फ़ उसे, बल्कि उसकी माँ को भी यह अहसास हो रहा है कि अमृत के आने से पिताजी के स्वभाव में बदलाव लक्षित किया जा रहा है, जो कई अर्थों में पहले से तो बेहतर ही है।
तो चलो, इसी ख़ुशी में आज पिताजी को अपने हाथ का बना मटन रोगनजोश खिलाती हूँ! अमृत ने हँसते हुए कहा था।

उनकी छुट्टियाँ समाप्त होने को आईं। वापसी का टिकट कल का था। पिताजी ने सुबह-सुबह ही गाड़ी निकालकर उसे डिटर्जेंट के पानी से रगड़-रगड़कर साफ़ किया था। जब तक सब सोकर उठते, न सिर्फ़ गाड़ी, बल्कि वे स्वयं भी नहा-धोकर चमक रहे थे।
अमृत बेटा, जल्दी से फ्रेश होकर तैयार हो जाओ। आज तुम्हें मन्दिर में कुलदेवी के दर्शन कराने ले चलते हैं। यह अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है। यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं, शाम तक वापस आ जाएँगे। हँसते हुए बोले— मुझे मालूम है, तुम यह सब नहीं मानतीं, लेकिन यों समझो कि दिल्ली लौटने से पहले हमारे साथ यह एक छोटी-मोटी आउटिंग है। दोपहर का खाना कहीं बाहर ही खा लेंगे।
इस औचक कार्यक्रम की उद्घोषणा से घर के बाक़ी सदस्यों में सुखद क़िस्म की झुँझलाहट-सी मच गयी। रमन की माँ एकाएक हड़बड़ा गयीं कि अगर जाना ही था तो पहले से बता देते, वे कुछ घरेलू तैयारियाँ कर लेतीं। रमन वॉशरूम की तरफ़ दौड़ा। उसे हमेशा देर लगती है। अमृत ने चूल्हे पर चाय के लिए पानी रख दिया और इलायची की डिबिया ढूँढ़ने लगी। इधर इस एक बार के सामूहिक सूचना-प्रसारण के बाद पिताजी डायनिंग टेबल से लगी कुर्सी पर आराम से बैठ गये और सबकी भागादौड़ी का लुत्फ़ लेने लगे। कहीं कोई काहिली दिखती तो ऊँचे स्वर में हाँक लगाते और हो-होकर हँसने लगते। थोड़ी ही देर में अमृत उनके लिए चाय लेती आई तो पहली ही चुस्की के बाद उनके चेहरे पर तृप्ति का झीना मलमल बिछ गया। आहा-हा! आज पहली बार उन्होंने अमृत के हाथों बनी चाय पी थी। वही दूध, वही पत्ती, वही शक्कर, लेकिन चाय न कहो अमृत कहो। स्वाद की रसाई तो हाथों में होती है, उन्होंने मन-ही-मन कहा।
चाय अभी ख़त्म भी न हुई थी कि बाहर से किसी ने उन्हें पुकारा। झाँककर देखा तो गैब्रियेल था। अब आया है कमबख्त जब सब उठ गये, उन्होंने सोचा और एक नज़र इधर-उधर देखते हुए चुपके से खूँटे पर टँगा तौलिया उतारा और बाहर चले गये।
रमन की माँ ने अपने हाथों से अमृत को पारम्परिक परिधान पहनाया, वेणी में गजरे सजाये। वह मानो अपनी किसी पुरानी साध को पूरा कर रही थीं, जिसे अनुभूत कर पता नहीं क्यों अमृत को ग्लानिबोध-सा हो रहा था। पहली बार उसे महसूस हो रहा था कि उसने किसी का हक़ मार लिया है। रमन ने भी पारम्परिक परिधान धारण किया हुआ था। इन धवल वस्त्रों में पास-पास खड़े दोनों पहले से कहीं ज़्यादा पति-पत्नी लग रहे थे जिसे देखकर रमन के माता-पिता की आँखें जुड़ा गयीं।
सुबह दस बजे के क़रीब वे लोग घर से निकले। गाड़ी पिताजी स्वयं ड्राइव कर रहे थे। उनके अनुभवी हाथों में यह गाड़ी अपनी चाल में सर्वोत्तम से तनिक कम, इसलिए समझदारी से चलती प्रतीत हुई। एक अजीब क़िस्म के पारिवारिक भरोसे से अमृत का हृदय धीरे-धीरे समृद्ध व अभिभूत हो रहा था। गाड़ी को इस क़दर धोया-चमकाया गया था कि वह पहाड़ी की गँदली, पथरीली राह पर नये कपड़ों के पाँयचे उठाये किसी बहुरिया-सी चल रही थी। रास्ते के घर-द्वारों पर बैठे लोग, चरते-भटकते ढोर-डंगर उत्सुक नज़रों से देख रहे थे और पिताजी मानो मुनादी करते हुए अमृत को अपने समाज के बीचोंबीच से गुज़ार रहे थे।
वे पीछे मुड़-मुड़कर मन्दिर की प्राचीनता, कुलदेवी के प्रताप और दर्शनोपरान्त मन को मिलने वाली शान्ति की बाबत बताते जा रहे थे। अमृत को महसूस हो रहा था कि आज वह पहली बार अपनी ससुराल में दाख़िल हो रही है, कुटुम्ब में शामिल हो रही है, उसे खुले दिल से अंगीकार किया जा रहा है। पहाड़ की चोटी पर मन्दिर का ध्वज लहराता दिख रहा था। इतनी ऊँचाई पर से कुलदेवी उसे स्नेह व सहानुभूति से देख रही थीं।
मन्दिर वाक़ई अत्यन्त प्राचीन और किंचित् भग्न-रूप में था। छत न थी, सो वर्षों से धूप-धूल-जल की अबाधित आवाजाही ने उसे बीहड़ बना डाला था। इस वनैलेपन ने उसे तमाम कृत्रिम आडम्बरों से एकाएक मुक्त कर सहजात रूप प्रदान कर दिया था। कहीं किसी गुप्त सोते के बहने की रहस्यमयी आवाज़ थी जो दिखाई नहीं पड़ने के कारण थोड़ी ही देर में बाहर से ज़्यादा भीतर बजती प्रतीत होने लगती थी।
अमृत ने पिताजी को देखा, वे पूरी तरह ध्यानमग्न थे। ऐसे में वे बड़े भंगुर और वेध्य लग रहे थे। पहली बार अमृत ने उनकी उम्र का अन्दाज़ा लगाते हुए पाया कि वे दारजी से पाँचेक बरिस बड़े ही होंगे। उसे उनके साथ बहसों के दौरान आज़माये गये अपने तमाम दाँव-पेंचों की याद-भर ने शर्मिन्दा कर दिया। शर्म की इसी सिहरती लौ में मानो किसी चमत्कार की तरह उस पर यह ज़ाहिर हो गया कि यह जानते हुए भी कि अमृत की धार्मिकता सन्दिग्ध है, आज अचानक पिताजी उसे यहाँ क्यों लेते आये। यह उनकी आस्था का अन्तिम प्रकोष्ठ था, ख़ानदानी सन्दूकची का सातवाँ ताला, उसके यहाँ से लौटने से पेश्तर जिसे खोलकर उन्होंने अमृत के आँचल में औंधा दिया था। आज उनका तरकश पूरी तरह रिक्त हो चुका था। प्रत्युत्तर में अमृत ने अपने अन्तर्मन में छिपी-छिटकी समस्त श्रद्धा को उलीचते हुए कुलदेवी के आगे मत्था टेक दिया।
लौटते-लौटते शाम के सात बज गये। घर में प्रवेश करते ही रमन की माँ निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गयीं और अपने दोनों पैर फैलाते हुए बैठे-बैठे ही तनिक झुककर हाथों की पहुँच-भर दूर के पैर दबाने लगीं। पिताजी ने लाइट जलाकर आदत के अनुसार प्रणाम किया और बोरिंग की तरफ़ हाथ-मुँह धोने चले गये। रमन तथा अमृत चेंज करने के लिए कमरे में जाने लगे कि अमृत ने रुककर पीछे से माँ के गले में अपनी बाँहों की माला डाल दी। झुककर उनके कानों में बोली— सरसों तेल तो यहाँ मिलने से रहा, सोने से पहले नारियल के तेल से ही आपके पैरों की मालिश कर दूँगी।
थोड़ी देर बाद जब सब पुनः चाय पर इकट्ठा हुए, पिताजी ने तनिक हिचकिचाते हुए अमृत से कहा—बिटिया, कल तो तुम चली जाओगी! रमन की माँ की इच्छा है, हम जल्द ही दिल्ली तुम्हारे घर आयेंगे। और सुनो, आज रात खाने पर न हो तो अपने हाथ से कटहल की सब्ज़ी बना दो। मसालेदार, तरी वाली सब्ज़ी। फिर उन्होंने रमन की माँ से पूछा कि घर में गरम मसाले तो हैं न!
मसाले तो सारे हैं, लेकिन कटहल कहाँ है? रमन की माँ ने मुस्कराते हुए कहा।
पिताजी भीतर अपने कमरे में गये और तौलिये में लिपटे साबुत एक कटहल को लेते आये। आँखें नीची रखते हुए उन्होंने कटहल को डायनिंग टेबल पर रख दिया और बोले— सुबह गैब्रियेल ज़बर्दस्ती देता गया था। कितना समझाया उसे कि हमारे घर में यह सब नहीं पकता, लेकिन तुम तो जानती ही हो उसका स्वभाव। फिर उन्होंने अमृत की तरफ़ देखा और पूछा— तुम समझ गयीं न, इसे किस तरह बनाना है!

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