महकता जीवन चहकते संसार की सिद्धि है !

अगरू गंध की लहराती धूम्र राशि अनोखे आलोक के वृत्त रचती है ! सुबह की सुगंध पवित्रता की कहानी सी हमारे मन को उजला कर जाती है ! संध्या वंदन के अपने अंदाज में लहराती  दीप ज्योति की चंदन कथा सूक्ष्म जगत् की सुगंध सृष्टि का भाष्य है ! मलयानिल अकारण ही हमारी चेतना को नहीं सहला जाती ! सुगंध से हमारा पल पल का सम्बन्ध है ! चंदन वन हमें पावन ऋचाओं के गुंजार सा लगता है ! कदम्ब की सुधि आते ही मुरलीवाले की महक मन में बस जाती है ! विश्व के कण कण से विश्वनियन्ता की अलौकिक गंध आती है ! प्रभु की पाती समझ हर सुगंध सार को लालायित रहने वाला मानव मन सौरभ के संसार को सुखद ही नहीं उत्कृष्ट जीवन की आश्वस्ति मानने लगा ! मन के औदात्य और औदार्य से सूक्ष्म सुरभि छंद मनुष्य की आत्मा के आह्लाद के कारण बन गये !

मानव के जन्म की कहानी प्रभु ने बैकुंठ के  उपवन में बैठ कर रची ! यत्र तत्र अलौकिक सुगंध से सुवासित सुरम्य वातावरण में सुरुचिसम्पन्न मन की संरचना की !  सृष्टिकर्ता ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों की तरंग से प्रमुदित प्रसन्न रहने वाले मानव मन को मूर्त के साथ अमूर्त तत्वों को प्रसाद भाव से ग्रहण करने की योग्यता का अधिकारी माना ! पंच तत्वों “छिति जल पावक गगन समीरा “ अर्थात् पृथ्वी जल अग्नि आकाश और वायु को मानव देह की संरचना का आधार बनाया तो पंच तन्मात्राओं रूप ,रस ,शब्द ,स्पर्श और गंध को उसके मन का आसव बनाया ! पंच तन्मात्रायें हमारे सूक्ष्म मनोजगत् की अधिष्ठात्री भी हैं और स्थूल को सूक्ष्म से जोडने की प्रभु की युक्ति भी हैं ! पंच महाभूतों को हमारी ज्ञानेन्द्रियों  से जोडने की संकल्पना ने मनुष्य का जीवन आनन्द से ओत प्रोत कर दिया है !

अद्भुत है यह कि मानव इन्द्रियों में तन्मात्राओं का अनुभव कराने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाय। मनुष्य को संसार में जीवन-यापन की सुविधा भले ही हो पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एकमात्र कारण ‘तन्मात्र’ शक्ति है।ये मनुष्य ही है जो हर पल स्थूल और सूक्ष्म के समन्वय की यात्रा तय करता है ! स्वयं मानव जीवन की सत्ता स्थूल शरीर और सूक्ष्म मन स्थूल कर्मेन्द्रियाँ और सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियों के सहचरी भाव से सम्पन्न होती रहती है !

ईश्वर अंश जीव अविनासी ! चेतन अमल सहज सुख रासी ! कहने का तात्पर्य यह कि स्थूल और सूक्ष्म का यह महामिलन

पृथ्वी तत्व को सूक्ष्म रूप से  गंध जल तत्व को रस  …! अग्नि तत्व को रूप  बनाकर ….आकाश को शब्द बनाकर … वायु को स्पर्श तन्मात्रा से जोडकर जीवन को रस रूप गंध स्पर्श और शब्त का अनहद विस्तार बना दिया ! इन ज्ञानेन्द्रियों के कारण ही गोचर शरीर में अगोचर की विभा का आनंद और प्रकाश शब्द और गंध का अतीन्द्रिय अनुभव और सुख लेते हुए जिन्दगी की थाह सी लेता रहता है मानव मन  ! तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा “ नरतन सम नहिं कवनिउ देही  “ !

पंच तन्मात्राओं में गंध , महक ,सुरभि ,सुवास , सुगंध , परिमल और सौरभ सबसे निराला है ! हवाओं की लहरों पर लहराता बलखाता सा सौरभ मनुपुत्र के अन्त: प्रकोष्ठ में दस्तक देकर उसकी चेतना के छोरों का स्पर्श करता है ! कुछ ऐसे अंदाज में स्पर्श करता है कि मन की दशा ऐसे चषक सी हो जाती  है कि “ भरै न खाली होय “ ! महकता मन चेतना के छोरों के अनकहे  दिव्य वैभव को व्याख्यायित करना चाह कर भी  पूरा नहीं समझा सकता क्योंकि उस अमूर्त की झाँकी को मन स्वयं समझे तो न समझाये ! बस , मन के किनारों पर आता हुई लहरों के तिलिस्म को पढने की कोशिश करता ही रह जाता है ! कभी तय नहीं कर पाता कि कौन सी लहर कितने महत्व की कौन सी तट को छू के जायेगी कौन सी मन को भिगो के जायेगी ! इसी ऊहापोह में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच दोनों के सेतु पर दौडता सा रहता है !

शब्द ,रूप, रस ,स्पर्श सब प्राणों की सुगंध चाहते हैं ! कहते हैं मनुष्य की उदात्त चेतना के लिये तीन तत्व आवश्यक हैं सौरभ …. प्रकाश और संगीत ! किन्तु प्रकारान्तर से देखा जाये तो प्रकाश में भी एक सुगंध व्याप्त रहती है और संगीत में भी ! वस्तुत: संगुंफित सा रहता है सौरभ जीवन के हर पक्ष में ! 

हमारे सूक्ष्म शरीर यानी अमूर्त चेतना के लिये सुगंध आवश्यक है क्योंकि सात्विक अन्न से शरीर पुष्ट होता है तो सुगंध से सूक्ष्म शरीर। यह शरीर पंच कोष वाला है। जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। सुगंध से प्राण और मनोमय कोष पुष्ट होता है। इसलिए जिस व्यक्ति के जीवन में सुगंध नहीं उसके जीवन में शांति भी नहीँ शांति नहीं तो सुख और समृद्धि भी नहीं।

हमारी ऋषि परम्परा इस सत्य को भलीभाँति जानती थी तभी तो पंचोपचार की पूजा में प्रात:काल की दिनचर्या में सुगंध का महत्व है ! हमारा प्रिय मन्त्र है “ ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधि पुष्टिवर्धनम् “ सुगंध से प्राणों को पुष्टि की याचना करना हमारी पवित्र प्रार्थनाओं में है !

हमारा जीवन गंध बिम्बों का संगुंफन है !

हमारे संस्कारों में सुगंध के सिलसिले बुनकर उस निर्व्याख्या को व्याख्यायित किया जाता है ! जन्म से पहले ही माँ के आपन्नसत्वा होते ही गर्भ की सुगंध , पुसंवन से लेकर सीमन्तोनन्यन संस्कार में आपन्नसत्वा माँ की दोहद पूर्ति सुगंध का सुरुचि संपन्न व्यापार ही है ! जन्म लेते ही सोहबर की सुगंध पूरे परिवार में पवित्र वात्सल्य का जादू सा बुन देती है ! माँ के स्तन्य की गोवत्समयी सुरभि मानो जन्म जन्म का प्राणतत्व  संतति में भर देती है ! अद्भुत सौन्दर्य लिये गुरु गृह पढने जाते हुए न जाने कितनी उत्सुकता , जिज्ञासा , अबोध निर्मल मन का सौन्दर्य आदर भाव और पूज्य संस्कारों की सुगंध लिये चेतना जगत् को पावन पावन करते का अमिय संकल्प ही तो है ! विनत प्रार्थनाओं , कल्याण मंत्रों से जीवन के पाथेय की ऋचाओं के अनुवाद करता मानव मन अपरिमित साहस ,धैर्य ,संतोष और विवेक के दुकूल को जिजीविषा के रंग में रंगता है ! ब्रह्मचर्य यानी जीवन मंत्रों को रच लेने की सुगंध मनोमय कोश को पुष्ट करने का पवित्र उपचार ही तो है !

सुबह से शाम तक भावों विचारों और संकल्पों की सुगंधों को जीता हुआ मनुष्य स्वयं एक जीता जागता आश्चर्य बन कर जीवन संग्राम में उतर आता है तो केवल सुगंधपुष्ट चेतना की शक्ति के बल पर ! ये सारे उपचार अतुलनीय शक्ति सम्पन्न वैचारिक सौरभस्नात व्यक्तित्व के ताने बाने को बुनने वाले संस्कृति के जुलाहे का तिलिस्म ही तो है ! यद्यपि मानवेतर प्राणियों में घ्राण शक्ति , स्पर्श शक्ति अधिक है हमने अपनी क्षमता की बारीकियाँ भुला दी हैं किन्तु सार्थकता बोध मनुष्यों में ही है ! चेतना के छोरों को निश्रेयस और अभ्युदय तक ले जाने की यात्रा में गंध का चयन , गंध का सजन और गंध की प्रमुखता मनुष्य जीवन की सहायक और प्रेरक बनती है !

मानव जीवन के उत्कर्ष की गाथा में धीर ललित नायक सा मन नवोढा यौवना सी चेतना प्रणय रस में डूबकर एक बार फिर शृंगार की सुरभि से महकने लगते हैं ! मन मानो पुष्प वाटिका के राम सीता सा और कदम्ब की अलौकिक गंध में बाबरा मन लिये वंशी बजाते कृष्ण सा हो उठता है ! चेतना की राधिका मन के टटके माखन को श्याम से बचाने के हजारों उपाय खोज कर भी हृदय हार बैठती है ! प्रणय रस में नखशिख लाज की रतनारी किरणों की सुगंध चेतना को कोहबर के द्वार पर ला कर खडा कर देती है ! यहाँ भी दधि , दूर्वा , अक्षत , हल्दी , कुमकुम , मेंहदी , सिंदूर से मंडित रसराज शृंगार की सुरभि मन के रसिया को रसलोक की यायावरी कराती है ! समर्पण की सुगंध से सुवासित नवयुगल दिनकर की ‘ उर्वशी ‘के पुरुरवा की तरह कह उठता है “गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है “ ! नववधू की अपनी सुरम्या सुगंध है

देह गंध ही देह राग बनी मन के सितार के तार छेडती है कुछ इस तरह कि सात आसमानों तक गूँज चली जाती है !

इसी सुगंध के द्वारे खड़े बिहारी कह उठते हैं

अमिय हलाहल मद भरे सेत स्याम रतनार

जियत मरत झुकि झुकि परत यहि चितवत इक बार !

कहना न होगा कि अमृत हलाहल और मदिरा तोनों में सुगंध के अपने अपने मधुर कटु तिक्त आयाम हैं ! यही जीवन के जीने मरने और मद में बहने की जुगलबंदी करके प्रतीत होते हैं !

यहीँ से प्रारभ होता है कटु ,मधुर ,लवण, तिक्त ,काषाय और अम्ल का संसार ! कहने को तो ये षट् रस हैं पर हैं इनमें रसायन की सुगंध ! विश्व की कोई रसोई गंध विहीन नहीं है ! हीँग की महकती खुशबू हो या शुद्ध गाय के घी में जीरे के बघार लगी दाल हो ! तरह तरह के छौंक सुरभि के अनुष्ठान से हमारे जीवन रस को पुष्ट करते हैं ! हमारी रसना की आरती उतारते ये स्वाद के चटकारे हमें  जीवनी शक्ति देते हैं ! हमारी सूक्ष्म चेतना को गढते हैं तभी तो हमारे यहाँ कहा जाता है “ जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन “ और “अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात”जब उपनिषद का ऋषि कहता है तो बासमती चावल टटके दधि , सुरभि के दूध की खीर और हजारों तरह के व्यंजनों की सुगंधि से ही आत्मा तृप्त हो जाती है ! विश्व के प्रत्येक देश की प्रत्येक प्रांत का प्रत्येक प्रांत के प्रत्येक नगर का और प्रत्येक नगर के प्रत्येक परिवार के भोजन का संसार नितान्त निजी निराला और सरस स्वाद सुगंध से सराबोर है ! यही नही कायस्थों के अलग गंध बिम्ब हैं तो ब्राह्मणों के अलग क्षत्रिय के अलग तो पठानों कश्मीरियों , दक्षिण भारतीयों की रसोई की महक अलग ही कहानी रचती हैं ! मराठी, पंजाबी की निराली तो गुजराती, कोंकणी ,मालवी की अलग ही रसोई गाथा अपने अपने लोक रचती हैं ! भूमंडलीकरण ने इन स्वादग्रंथियों को बहलाने फुसलाने की , घालमेल करने की कोशिश की है पर स्थिति यह है अमरीका में रह रहे  उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय की रसोई के छौंक और खुशबुओं के अंदाज दस पंद्रह हजार किलोमीटर की दूरी पर भी बाकायदा सुरक्षित हैं ! हमारे यहाँ तो छप्पन भोग छत्तीसों व्यंजन अपनी सुगंध की कहानी खुद लिखते हैं और उस पर दृढ रहते हैं ! गर्व करते हैं ! स्त्री के मायके के गंधों की कहानी ससुराल के स्वाद संसार से विलग होती है फिर भी स्त्री सेतुबंध कर ही लेती है !

यहाँ तक कि इन्हीँ स्वाद और सुगंध के संतुलन पर मन के अनुबंध टिके रहते हैं तभी तो कहावत है कि “पति के हृदय पर राज करने के रहस्य पेट से होकर जाते हैं ! सबके पीछे उसी रस रहस्य के चितेरे का हाथ है जो दशहरी आम में अलग सुगंध भरता है और हापुस में अलग ! हर फल को मुहर लगा कर बंद करनेवाला ही तो विश्वचेतना का चितेरा है !

जितने आसमान में सितारे हैं सागर में लहरें हैं और तट पर सिकता कण हैं उतने ही विश्व में स्वाद की सुगंध हैं ! मछली से लेकर केशर तक सब निराली कहानी लिये !

शृंगार को रसराज बनाने वाले सौरभ के छतनार कदम्ब कुंजों में जीवन की वंशी के राग चेतना को आह्लाद के आयामों का पता देते हैं ! इस आह्लाद से जिजीविषा के मंत्र पढता मन , जीवन संग्राम की हर दुर्गंध को सुगंध में बदलने का उपक्रम करता चला जाता है !

महान विचारकों जगद्गुरुओं के सुविचारों के इत्र से लेकर संस्कृतियों की सुगंध तक सबकी सुरीली सुरभि से मनविहग बँधा रहता है ! सुगंध का व्यापार हजारों लाखों का करोड का यूँ ही नहीं है ! स्थूल संसार में सूक्ष्म मन की तरह सुगंध का संसार अमोलक है !सती संत और शूरवीरों के चरित्रों  की खुशबू से तो पूरा अस्तित्व महकता है !

सौरभ का आदान -प्रदान नहीं है तो और जीवन क्या है ! सौरभ को बचाने की युक्ति है ! बची रहे सामंजस्य की खुशबू बस ! और जब कुवास का आक्रमण होता है तो चेतना सारी शक्ति लगा देती है ; हलाहल को अमृत में बदल देने के लिये ! जीवन की इस अगरू – गंध  की पवित्रता बची रहे इसीलिये तो मनुष्य जगह -जगह हर संबंध को उपवन सा रचता रहता है !

सप्तगंधा पवन सा पावन मन रहे इसलिये तो ठौर ठौर सौरभसने बौर  की कामना रहती है ! मन की वीथी वीथी को उपवन बना लेने की उत्कंठा में संस्कारों के चंदन वन लगाये जाते हैं !  सुगंध का राज है मनुष्य के मन पर तभी तो वसंत के लिये भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं “ऋतुनांअहं कुसुमाकर “!

मनुष्य की मनोवृत्तियों की बात करें तो आश्चर्यजनक रूप से पराग और मकरंद का पुजारी भी है और उन्हें जीवन की अँजुरी में सँजोकर भी रख लेना चाहता है ! तरह- तरह के गुलाबों की आब से मन और जीवन की बगिया महकाने की सहज प्रवृति ही मनुष्य के सत्वोद्रेक की पहचान बनती है ! केशर  सी कमनीय कान्तिवान दुर्लभ गंध को मन की डिबिया में रेशा -रेशा सहेजा जाता है !शिरीष सा अल्हड मन लिये झौर के झौर सद्गुणों की सुगंध  से समाज में सुकर्मों का सौरभ जाल बुना जाता है ! बेला , चमेली रजनीगंधा  सी रसबतियों के आकर्षण में मीत ,गीत ,संगीत की मनुहारें की जाती हैं ! जुही सी कमनीय सुरभि सी बेटियों का कन्यादान कनेर सी हल्दी से हाथ पीले कर के सूरजमुखी सी पिय की अनुगामिनी बने रहने के आशीष के संग विदा कर अगस्त्य के पुष्पों सा पवित्र उदास मन लिये जीवन की संध्या तक आया जाता है ! सुगंध सुवास सौरभ और सुरभि के उजास का आराधक मानव मन महाकवि प्रसाद के सुमन की वाणी में कह उठता है :

यदि दो घडियों का जीवन

कोमल वृन्तों में बीते

कुछ हानि तुम्हारी है क्या

चुपचाप चू पड़े जीते !!

ये जीवन सुरभि ही  है ,जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ती ! संतान के लिये तो प्रसाद का ‘आँसू ‘खंड काव्य में दिया बिम्ब बहुत सटीक बैठता है :

“मादकता से आये तुम

संज्ञा से चले गये

हम व्याकुल पडे बिलखते

थे उतरे हुए नशे से “

नशा यानी मद्यपान भी गंधबिम्ब का सशक्त उदाहरण है !

 जब संतान अपने प्रणय रस सौरभ के सरोवर में गोते लगाने लगती है तो जीवन कमल सा अनासक्त बना अपने ही मन के सूरज के साथ रोज निकलता है और अपने ही मन के सूरज के साथ बंद हो जाता है ! गीता गायक की तरह “ पद्मपत्र इव अम्भसा “ जल में कमल के समान ! निस्संग! अनासक्त !!वानप्रस्थी सौरभ में डूबता उतराता मन ईश प्रणिपात की सुरभि में रमता है ! ब्रह्मकमल जैसे सौरभ से खिल उठता है !

गंध बिम्ब फिर भी सदा साथ रहते हैं ! माँ के दूध की सुगंध से औषधि की अयाचित ,अवांछित गंध के संसार तक ! एक दिन जीवन की संध्या में चेतना दवाओं की दुरभिसंधि से जूझती तरह तरह के क्वाथ , अरिष्ट और आसवों की वास के मेले में खोने लगती है ! फिर एक बार उसे “त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधि पुष्टिवर्धनम् “का विचार आता है !

 जीवन भर मनुष्य सुगंध स्नान करता न जाने कितनी वनस्पतियों के सार को ग्रहण करता है न जाने कितने रसायनों की सुगंधि उसके प्राणों को पावन करती है कपूर ,गुग्गल , लोबान जैसे अनेकानेक तत्वों से सूक्ष्म ऊर्जा प्राप्त करता मनुज अपनी सारग्राही चेतना के साथ जन्म चक्र पूरा करने के बाद एक बार पुन: पंचतत्व में विलीन हो जाता है ! दिवंगत होते ही उसकी अन्त्येष्टि की यात्रा सुगंधित धूम्र से होती है ! अंतिम संस्कारों में घी की आहुति से ही उसके सूक्ष्म प्राण तृप्त होते हैं ! अंत में मनुज के कर्मों की सुगंधि सर्वत्र पूजी जाती है ! वाह रे ! सारग्राही !

लाख जीवन भर जिजीविषा की साधना करने के बावजूद मनुष्य को श्मशान के गंध बिम्ब से छुटकारा नहीं मिलता ! मर्त्यलोक के मर्त्य जीव को एक न एक दिन उस अनित्य गंध बिम्ब का साक्षात्कार करना ही होता है ! कोई गंध नित्य नहीं है ! हम अनित्य हैं ; क्षण भंगुर हैं इसीलिये शायद हम गंध को अपना सहधर्मी मानते हैं ; उसे चाहते  हैं ; उसकी कामना करते हैं और पूरे जीवन भर चेष्टा करते हैं आस- पास के वैचारिक गंध को दुर्गंध न बनने दें ! उसे प्रभु की प्रार्थना रूपी अगरू गंध की तरह सुवासित कर सकें ! इसी सुगंध की  रचना करना मानव जीवन की यात्रा का ध्येय भी है ; पाथेय भी !

भारतीय संस्कृति के तीर्थों के भी विचित्र गंध बिम्ब होते हैं ! मंदिरों के देवों के अलग -अलग सौरभ के संजाल स्वरूप बिम्ब प्रतिबिम्ब होते हैं ! देवी मंदिर के अलग ; शिव मंदिर में आक, धतूरे ,भाँग ,कच्चा दूध बिल्ब पत्र सारा निर्माल्य , अद्भुत गंध बिम्ब रचता है ! दरगाह का मजारों का मस्जिदों का सुरभि संधान अलग ही कहानी रचता है ! कृष्ण मंदिरों का हनुमान मंदिरों का , भक्तों का , भक्तों की अद्भुत आस्थाओं का , शक्ति पीठों का , मठों का सबका अपना निजी अलग सा सौरभ संसार है ! वही हमारी चेतना के तन्तुओं को बुनता है ; पुष्ट करता है ; हमें खींचता है ; सम्मोहन मंत्र से पढकर हमें बुलाता है ! बुलाकर अद्भुत संजीवनी प्रदान करता है ! अपना पूरा जीवन मातृभूमि की वेदी पर अर्पित कर जानेवाला बलिदानी वीर सैनिक रणांगन के यज्ञ में प्राणों की पवित्र आहुति देकर वीरत्व की सुगंध बन  अमर हो जाता है !

स्थूल जगत का सहचर , सूक्ष्म जगत मनोमय कोश प्राणमय कोश विज्ञानमय कोश से होकर आनंदमय कोश की यात्रा तक का सहयात्री बनाता है ; उसी यात्रा का पाथेय ‘गंध संसार ‘है जो हमारी चेतना के  तारों को झंकृत कर हमें चिदानंद की झलक तक ले जाता है ! आत्मा सुवासित होकर अलक्ष्य के संधान की ओर प्रस्थान कर जाती है ! सारग्राही मानव जीवन अमूर्त होकर  पुन: अनंत की सुगंध में विलीन हो जाता है !

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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