अपनी पीठ और कन्धों पर नजरों का दबाव महसूस करने के बावजूद मैं जिद करके किताबों की अलमारी के सामने खडी रही। कुछ है , जो मुझे पलटने को मजबूर कर रहा है और मैं पलट नहीं रही। पता नहीं कितनी अलमारियाँ देखने के बाद मैं दो किताबें निकाल पाई हूँ और दोनों मेरे कोर्स की नहीं हैं। पूजा देखेगी तो फिर मुझे काट खाने को दौडेग़ी। एक के पन्ने पलट कर देखा कुछ मिनट, फिर एक तरफ रख दी। दबाव बढने के साथ मेरी बेचैनी बढी।
अपनी जगह से पलटना मुझे नागवार गुजरने लगा और मैं थोडी नाराजगी से पीछे पलटी – सामने लम्बी सी मेज पर पूजा अपने प्रोफेसर मि देसाई से उलझ रही थी। वह अपनी कोई बात समझाने की कोशिश कर रही थी जी जान से, पर वे बिलकुल समझने को तैयार न थे। अब ये गई काम से। टेबल के दोनों तरफ लडक़े-लडक़ियाँ बैठे हुए। मेरी दाहिनी तरफ मि सरकार, लाईब्रेरियन, किसी रजिस्टर पर झुके हुएआसपास के तमाम शोर को पीछे धकेलते हुए। मैंने निगाहें घुर्माई मेरे सामने कुछ दूरी पर किताबों की अलमारियाँ और एक अलमारी के सामने खडे क़िताबें ढूंढते वोमुझे उन पर गुस्सा आ गया। मैं अलमारी खुली छोड धीमी चाल से चलती हुई उनके पीछे पहुँची

” एक्सक्यूज मी ।

वे पलटे। देखती रह गई मैं उन्हें। यकबयक सारे शब्द फ्रीज हो गये मेरे अंदर इतनी परिचित सी क्यूँ? कहाँ? क्षण के हजारवें हिस्से में उन आँखों की छुअन मैं ने अपने अन्दर महसूस की।

” यस, प्लीज अावाज अाई उधर से । लगभग 40 के आसपास की उम्र, मध्यम कद, गोरा रंग, भरा-भरा सा बदन, कानों की लाल लवें उसी क्षण देखीं मैंने

” गो ऑन
 नहीं, कुछ नहीं ।  मैं धीरे से बुदबुदाई।
 देन?

तुमने क्यूं हिलाया मुझे अपनी जगह से , कहना चाहा, पर कहा

” सॉरी टू डिस्टर्ब यू।

मैं देखती रहना चाहती थी थोडी देर और, कोई ऐसी चीज, क़ुछ ऐसा, जिस पर थोडी देर टिका जा सके। पकडा जा सके जिसे, लम्हे भर को सही, पर उस वक्त नहीं, और मैं पलटी

” लिसन प्लीज
 नहीं पुकार नहीं थी वह, पर पुकार के सिवा और क्या थी? एक बार फिर देखा, मैंने मुडक़र  गाढे क़्रीम रंग की पेन्ट पर लाईट क्रीम शर्टकाले शूमाथे के बाल पीछे की ओरआधी काली-आधी सफेद कनपटियां
 सॉरी। एक बेहद हल्की सी मुस्कान।

नही,ं मैं नहीं देख पाई उसे पूरा। उसके जाने के बाद की खाली जगह देखी और फिर भरने के खयाल से हँस पडी। ज़गह भर गयी। सुन्दर है, एकदम अलगमासूम सी अल्लसुबह की धूप के नन्हे टुकडे क़ी तरह बेलाग
हम कुछ क्षण यूं ही एक-दूसरे की तरफ देखते रहे, फिर मैं ने किताबों की खुली अलमारी की ओर इशारा किया

” आय एम जस्ट कमिंग, प्लीज वेट।
 मैं प्रतीक्षा में ही हूँ।

मैं अपनी जगह से हिल गई। वे अपनी जगह से हटे नहीं। मैंने हवा में ठहरी उनकी गंध को काटा और उसके पार निकल गई। मैं जब वापस आई, वे दूसरी खाली टेबल के उस ओर , प्रतीक्षारत ठहरे हुए सेमुझे बहुत धीरे-धीरे वहाँ तक पहुँचना था पर मैं काफी जल्दी पहुँच गई। उन्होंने टेबल के दूसरी ओर बैठने का इशारा किया

” आपको यँहा पहली बार देखा है।

मैं ने अपनी कुहनियाँ टेबल पर टिका दोनों हाथ बांध कर उस पर अपना चेहरा टिका दिया।

” आप यँहा पढाती हैं क्या?
 मैं क्या आपको इतनी बडी लगती हूँ?

मैं ने शिकायत की। धीमे से मुस्कुराते हुए

” मैच्यौर। आपमें ऐसा कुछ नहीं, जो आपको छोटा बनाए
 उसके लिये क्या करना होता है? मैं ने पूछा, हांलाकि मुझे कहना था
 थैंक्स फॉर कॉम्पलीमेन्ट्स।
 आपमें चाह क्यूं है ऐसी? वे फिर मुस्कुरा पडे।
 ग़ैरवाजिब है?
 नहीं, गैरवाजिब तो आपमें कुछ नहीं।
 आय एम डूईंग एम ए इन इंग्लिश
 फाईनल ईयर?

उन्होंने ओके के साथ होठ गोल करके फिर पूछा।

” या कह कर मैं चुप हो गई। वे भी। मुझसे रहा नहीं गया
 मैं आपको पहली बार देख रही हूँ यँहा।  मैं ने एक-एक शब्द धीरे-धीरे उन्हें देखते हुए कहा।
 इसके पहले मैं नहीं था। मैं तो बस अभी हूँ।  उन्होंने टेबल पर रखी आडी-तिरछी किताबों को सीधा किया।
 एक खास वक्त के लिये

मुझे क्यूं लगा कि आखिरी वाक्य मेरे लिये कहा गया है, क्या अर्थ है इसका?

” मे आई आस्क योर नेम? इफ यू वोन्ट माईन्ड।
 यसशीरीन।

देखते रहे वे उसी तरह मेरी ओर।

” आपइफ यू?
 मि प्रोफेसर!

मैं चौंक कर खडी हो गई।

बैठिये-बैठिये, ऐसा क्या कह दिया मैं ने

मैं खडी रह गई। मुझे समझ नहीं आया, अब क्या?

”अब बैठ भी जाईए। आग्रह भरा स्वर।

मैं आहिस्ता से बैठ गई। उनकी तरफ देखती।

” प्लीज क़म बैक। इस शब्द ने तो आपको बहुत दूर फेंक दिया, लगता है।
 मैंने सोचा भी नहीं था। मैं यूं ही बुदबुदाई।
 मत सोचिये। मैं आपका प्रोफेसर तो हूँ नहीं। बॉटनी का प्रोफेसर हूँ। दो दिन पहले ही आया हूँ।

मुझे क्यूं लग रहा है, मुझे वहाँ से खींच लिया गया है, जहाँ मैं अपने अनजाने चली गई थै। कहाँ? क्यूं? अन्दर एक भी शब्द नहीं बचा कि उनसे कुछ कहा जा सके। मैं चुप लाईब्रेरी में आते-जाते लडक़े-लडक़ियों को देखती रही। कुछ लडक़ों ने अन्दर आते हुए सीटी से एक खास किस्म की धुन बजाई, जिन्हें समझना था, वे समझ कर बाहर चली गईं। पता नहीं क्यूं मुझे यह उस वक्त निहायत बचकाना लगा। किसकी आवाज पर कौन उठता है, कौन जागता है, कौन जाने?

” मुझे भी अब उठना चाहिये। मेरे अन्दर किसी ने कहा और इसी के साथ मैं ने देखा – पूजा और मि देसाई साथ ही उठे।
 आप बहुत वक्त लेती हैं क्या?  वे धीरे से हंसे।

इसके पहले कि मैं कुछ कहूँ पूजा और मि देसाई हमारे निकट आ गए। मैं खडी हो गई

” हाऊ आर यू  उन्होंने मुझे देखते हुए कहा।
 ऑलमोस्ट फाईन सर, थैंक्स
 एण्ड यू मि संजय?

उन्होंने धीमे से मुस्कुराते हुए सिर हिलाया।

” संजय!  मैं ने मन ही मन दोहराया।

मि देसाई विदा लेकर चले गए। मैं ने पूजा का परिचय उनसे करवाया। उन्होंने कहा कुछ नहीं, चुप बने रहे। उनसे विदा लेकर हम बाहर आ गए। लगातार लगता रहा, अभी वे अन्दर हैं, अभी रुका जा सकता है, थोडी देर और।
क्या है ऐसा उनमें जो मुझे एक साथ सुकून भी देता है और बेचैनी भी। अभी तो ठीक से देख भी नहीं पाई मैं उन्हें

” ए, कौन थे वो? उसने मुझे टोका।
 कौन ?  मैं अनजान बन गई।
 वही जिसके साथ तू बैठी थी।
 बॉटनी के प्रोफेसर हैं। नये आये हैं।
 ओ उसने होंठ गोल करके सीटी सी बजाई।
 तेरा कितना काम अभी बाकि है?
 बहुत है, मदद करोगी?
 कर दूंगी। मैं ने अहसान सा जताया।
 ए, यह उसीके साथ का चमत्कार तो नहीं वरना, तू और मेरा काम उसने मुँह बिचकाया।
 अहसान फरामोश, और तेरे लिये नोट्स कौन बनाता है?

मैं ने उसे अपने टू-व्हीलर पर बिठाया और उड चली।

ठीक से याद करने पर मुझे उनका पूरा व्यक्तित्व इस तरह याद नहीं आ रहा, जैसा कि मैं उन्हें सोचना चाह रही हूँ। पानी में गिरती परछांई की तरह वे मेरी आँखों में उतरतेहल्के-हल्के हिलता पानी। जहाँ कोई चीज स्थिर नहीं। और मुझे लगता है मैं उसी पानी में उन्हें पकडने की कोशिश कर रही हूँ। जितनी ज्यादा मैं कोशिश करती, पानी उतना ही बेकाबू होता जाता। एक बार और मिलना पडेग़ा उन्हें देखने के लिये मैं ने उसकी शक्ल देखीवह अपनी प्रेक्टकिल फाईल बनाने में अतिव्यस्त

” ए लाईब्रेरी चलें क्या? मैं ने उसे कुहनी मारी-  क्यूं? उसने पूछा।
 किताबें बदलवानी हैं।
 झूठ! बोल न, गोरस बेचन, हरि मिलन। उसने अपनी गहरी नजरों से मुझे देखा। मैं एकाएक कुछ न बोल सकी, सिर्फ हंस दी।

एक झटके से उसने मेरी कॉपी अपनी तरफ खींच लीमैं ने झपट्टा मारा तो वह तीर्रसी दूसरी तरफ निकल गई
मैं असहाय सी उसकी तरफ देखती रह गई वह पढने लगी

” आय लाईक द फील ऑफ योर नेम ऑन माय लिप्स, आय लाईक द वे योर आईज ड़ांसेज, व्हेन यू लाफआय लव द वे यू लव मी, स्ट्रांग एण्ड वाइल्ड, स्लो एण्ड इजी, हार्ट एण्ड सोल सो कम्पलीटली

वह पढती जाती, मुझे देखती जाती मैं गुस्से में उठी और बाहर आ गई। यूं भी तो पीरियड खाली ही है। लाईब्रेरी की तरफ जाते हुए मेरे कदम बढ ही नहीं रहे। कोई जरूरी नहीं कि वे मिल ही जाएं, अगर मिल जाएं तो लडक़े-लडक़ियों की भीड चीरती हुई मैं वहाँ तक पहुँच ही गई। नहीं कोई नहीं है। मैं ने एक नजर में सारी लाईब्रेरी देख डाली, फिर साथ लाई किताबें लाईब्रेरियन के सामने रख दीं। सहसा देखादरवाजे पर वे, अंदर आने को एक पैर आगे बढा हुआमैं पल भर ठिठकी, फिर चलती हुई उनके नजदीक पहुँच गई

” हलो

उन्होंने कहा कुछ नहीं, सिर्फ मुस्कुराये, मेरी तरफ देख कर

” मैं ने सोचा था, आज आप नहीं आएंगी।
 मैं इतना ज्यादा वक्त नहीं लेती। मैं हंस दी।

सिगरेट की हल्की सी गंध मुझ तक आ रही है। मैं ने एक गहरी सांस ली। कहाँ पता था इसके पहले कि सिगरेट की गंध भी एक दिन अच्छी लगने वाली है। कौनसा ब्राण्ड है? कितने ब्राण्ड होते होंगे? एक बार पीकर देखी जाए क्या? पर उसमें इन होठों की महक कहाँ होगी? इन कपडों की, इस जिस्म की, यह निहायत अलग-सी महकमेरे साथ-साथ चलती। यह ख्याल ही उस समय इतना विलक्षण लगा कि जी चाहा उनका चेहरा अपनी ओर मोड क़र चूम लूं। मैंने उनका चेहरा नहीं देखा और अपना चेहरा भी झुका लिया। मैं नहीं चाहती कि उनकी ओर देखती पकडी ज़ाऊं।

तुमतुम तो नहीं देख रहे हो न मुझे? पर क्यूंनहीं देख रहे?

बरामदे के बाहर एक विशाल आसमानबदलियों से ढंकाआज शायद बारिश हो। अच्छी लगती है यह बेमौसम बारिश? ये शोर कितना अच्छा लग रहा है। यह तुम्हारे कदमों की आहटपीछा कर रही है शायद मेरी आहट का

ह्नअगर मैं ठहर जाऊं, तुम मुझे पकड लोगे, पकड लोगे न?

लम्बा बरामदा खत्म हो गया, हम दोनों वहीं आकर रुक गए, एक किनारे पर घंटी बजने की आवाज वातावरण में गूंज रही है। समूचे वातावरण को फलांगती वह घंटी जैसे मेरे ही अंदर बज रही है। उस शोर में से आँखे उठा कर उनकी तरफ देखा।

” मेरी क्लास है। उनकी अत्यंत धीमी आवाज।

मैं ने सिर्फ हल्के से सिर हिलाया और वे बरामदे की सीढीयां उतर गए। मैं वहीं खडी रह गई। उनकी अनुपस्थिति अपने भीतर महसूसती। उनकी अनुपस्थिति में उन्हें अधिक तीव्रता से अपने भीतर महसूस किया जा सकता है। मैं कुछ पल बंधी खडी रही। सीढीयां उतर मैं पता नहीं किस ओर चल पडी। ज़हां रुकी, वहां देखा बॉटनी की क्लास चल रही है, मैं बाहर खडी हूँदीवार से पीठ टिका करउनके लेक्चर की आवाज अा रहीबाहर तक। वह सारे शब्द ग्रहण करती रही, जिनका मुझसे कोई वास्ता नहीं और वह आवाज ज़िसका वास्ता सिर्फ मुझसे है।

” यू आर एयर, दैट आय ब्रीद, गर्ल, यू आर द ऑल दैट आय नीड एंड आय वान्ट थैंक यू लेडी, यू आर द वर्डस, दैट आय रीड, यू आर द लाईट दैट आय सी एंड यू आर लव , ऑल दैट आय नीडयू आर सांग दैट आई सिंग,
गर्ल यू आर माय एवरीथिंग

बारिश तेज, बहुत तेजउपर छत परमैं अकेली आज बह जाना है मुझेपूरा समूचा! नाचते हुए मेरे पैर फिसल-फिसल जाते हैं मैं रुकती नहीं। ऐसी बारिश देखी किसीने? तुमने देखी है संजय? क्या तुमने मुझे देखा है ठीक सेया मैं तुम्हारी सकुचायी आंखों से दूर ही रह गई। ये मेरे कांपते होंठ, उडते कपडे, बिखरे बाल, यह थरथराता जिस्मएक बार छुओ इसे, सिर्फ एक बार मैं सिर उपर कर बारिश की बूंदे अपने होंठों पर लेती हूँ आह! कितनी प्यास?

एक सैलाब है, जो मेरी देह की सीमाओं को तोडता हुआ बाहर आने को छटपटा रहा हैएक गहरी खाली छतपटाहट है, जो भरे जाने की मांग करती हैकोई ले ले मुझे अपनी बांहों की सख्ती में और चूर-चूर करदे । किसी के होंठों पर होंठ रख कर अंतहीन समय का वह गीत बुनूं, जो कभी खत्म नहीं होता। यह कौनसा रहस्य है, जिसे मेरी देह ने मुझसे ही छुपाया आज तक। ऐसी भीषण चाह नहीं उठी कभी किसी के लिये। हाय! मेरी देह यह कौनसा राग गा रही है, जिसका अर्थ मैं किसी को नहीं समझा सकती। इतना तापकि आज यह बारिश भी कम लगती है।

संजय, ओ संजय, क्या तुमने इस देह का नृत्य देखा है देखो यह देह किस तरह नृत्य की मुद्राओं में बार बार उतरती-लहराती है। ये पैर किस ताल पर थिरक रहे हैं? तुमने ज्वार देखा है? क्यूं उठता है ज्वार? किसके इशारे पर? और अगर मैं ये सारे किनारे तोड दूं जो तुम्हारे चारों तरफ हैं? तो तो संजय, आओ,आओ हम इस समंदर में एक साथ उतरेंवो देखो दूर उस किनारे पर मेरे कपडे रखे हैंसंजय मैं यहां तक कैसे आ पहुँची? यह भी क्या तुम्हें समझाना पडेग़ा, मेरे महबूब! देखो पानी मेरे घुटनों तक आ गया है। दूर लहरें मुझे बुला रही हैं और मुझे तैरना नहीं आतापर मैं रुकूंगी नहीं। मैं लहरो के आव्हान को ठुकरा नहीं सकती। कितना अद्भुत होगा, जब लहरें मुझे अपनी गिरफ्त में ले लेंगी। मैं अपना बोझ तुम्हारे हवाले कर दूंगी थोडी दूरबस थोडी दूर औरफिर सब कुछ डूब जाएगा। सब कुछ.. हम भी..।

मैंने अपनी बोझिल पलकें उठाईंजाने कब तक नाचते-नाचते मैं फर्श पर गिर पडी, और टेपरिकार्डर चल-चल कर बंद हो चुका था। कुछ देर मैं यूं ही भीगी पडी रही। मेरा जिस्म किसी अदृश्य ताप से जल रहा था जैसे। मैंने जिस्म को सीधा किया और उपर आसमान को देखा। बारिश लगभग खत्म हो चुकी थी, मैं बहुत देर उस बदलियों से ढके आसमान को देखती रही, जो कल से बरसते रहने के बावजूद खाली नहीं हुआ है। कहाँ से आता है इतना पानी?
मेरे गीले कपडे अस्तव्यस्त चिपके हुए हैं। कोई मुझसे कहता है –  उठो, छत पर ऊपरी दरवाजा खोल दो। उतरो
नीचे, कोई ढूंढ न रहा हो। उठो, आज कॉलेज नहीं जाना?

मैंने हाथ उपर करके आसमान पर टिकी बदली को अपनी बाँहों में भरकर चूम लिया। वो देखो इन्द्रधनुष! संजय,
देखा है कभी इन्द्रधनुष इतना सुन्दर! क्या हम रच सकते हैं इसे? इससे भी सुन्दर, अद्भुत! क्या कभी तुम जान सकोगे ये जो बदली है मेरी बांहों में , ऐसे क्यूं थरथरा रही है। मैं क्यों थरथरा रही हूँ?

मैं उठी और छत पर बने उस अकेले कमरे में गई, जहाँ मैंने वे छुपा रखीं थीं, उन्हें निकाला और अपने सामने रख लिया इन सारी सिगरेट्स में तुम्हारी कौनसी है संजय?

कैसे ढूंढू वह महक…वही महक, जिसका खयाल ही मुझे पागल बना देता है। चलो आज इन सभी को आजमाया जाये। मैं ने एक सुलगाई और होंठों से लगा ली

मैं जब घर से निकली, लगभग बारह बज रहे थे। क्लासेज दो बजे तक होती हैं।आज हालांकि लग रहा था कि क्लासेज चलेंगी ही नहीं, फिर भी मुझे तो जाना ही है। बारिश फिर तेज हो गईगडग़डाते हुए बादलों का शोर, बरसते पानी में भागता टू-व्हीलर, चेहरे पर पानी की बौछार, कीचड भरे गङ्ढों से गाडी क़ा उछलना और मेरा गिरते-गिरते बचनाजी चाहता है अपनी कायनेटिक होन्डा से उतर कर पानी में छप-छप करती चलूं। मेंरी देह अभी तक गर्म हैतेज हवा में टूट कर गिरते पत्ते और उडता दुपट्टा। किसे संभालूं और क्यूं?

बारिश में भगिती हुई जब मैं पूजा के घर पहुँची तो वह मुझे देख आश्चर्य में पड ग़ई

” आज भी चलना है कॉलेज?
 क्यूं? आज क्यूं नहीं?
 इतनी बारिश में कौन आएगा?

” कोई तो आएगा!  मैं ने झटके से उसे अपनी तरफ खींचा और चूम लिया। इस गंध से वह गंध कितनी अलग होगीअलग और जानलेवा।

” ए, तेरे मुंह से ये कैसी गंध आ रही है?  उसने मुझे ध्यान से देखा
 कैसी है? अच्छी है न?  मैं ने हँसते हुए पूछा और अपने भीगे हुए बाल उसके दुपट्टे से पौंछने चाहे तो उसने छीन लिया और एक तौलिया मेरे मुंह पर फेंक दिया।

” सिगरेट??  वह पास आकर फुसफुसाई। मैं ने सहमति में सर हिलाया। उसने खींच कर एक घूंसा मेरी पीठ पर रसीद किया और तैयार होने चली गई। मैं ने तौलिया अपने मुंह से लगाया , एक गहरी सांस फेंकी फिर खींचीकहाँ है वह महक बिलकुल वैसी, वह तो वहीं है, बस।

जब हम पहुंचे, सच ही चालीस-पचास स्टूडेन्ट्स से ज्यादा नहीं थे। एक भी क्लास नहीं होनी थी।प्रोफेसर्स प्रिन्सिपल ऑफिस में बैठे गप्पें मार रहे थे। किसी का इरादा नहीं था, कुछ भी काम करने का। हम जब लाईब्रेरी पहुंचे, मि सरकार अपनी खिडक़ी से बाहर हो रही बारिश देख रहे थे।

” देखो  पूजा ने मुझे घुडक़ा।
 चल थोडी देर यूं ही बैठते हैं, बारिश कम होगी तो चले चलेंगे।

हम अन्दर आकर उसी टेबल पर बैठ गए।

” अच्छा आई हूँ तो कुछ देख ही लूं। वह उठ कर किताबों की अलमारी के पास चली गई। मैं बैठी रही – चुप, अकेली अन्दर- बाहर का वह शोर सुनते हुए, जिसमें बहुधा हमें वह आवाज सुनाई नहीं देती , जिसे सुनने को हम
तरसते रहते हैं। अपने पेन से टेबल के कोने पर लिखा संजय फिर अपनी उंगलियों से मिटा दिया। अपनी नीली उंगलियां देखीं और अपने गीले होठों पर रख लीं। थोडी ही देर में वह वापस आ गई ।

” लेट्स गो। उसने मुझे हिलाया। मैं उठ खडी हुई और हम बाहर आ गए। बहते पानी में छप-छप करते हुए हम प्रिन्सिपल ऑफिस के सामने से गुजरे। मेंरी रफ्तार कम हो गई।

” वो अन्न्दर होंगे, बुला लाऊं? ”  पूजा ने इतने आकस्मिक अंदाज में कहा कि मैं हडबडा गई
” किसे? ”
” संजय सर को।”

मैं ने उसका चेहरा देखा धीरे से बुदबुदाई

” वाटर वाटर एवरी वेयर
ऑल ओशन डिड श्रिन्क
वाटर्रवाटर एवरी वेयर
एंड नॉट ए ड्रॉप टू ड्रिन्क”

” वो देख तेरा समन्दर ” उसने मेरा चेहरा पकड क़र दूसरी तरफ मोड दिया। मेरी नजर प्रिन्सिपल ऑफिस के दूसरी ओर मुडने वाले बरामदे की ओर गई। वे दूर खडे क़िसी से बातें कर रहे थे, क्षण भर अपने से बाहर आ बारिश देखते – फिर बातों में खो जाते। पता नहीं क्यों उस क्षण मुझे उनका वहाँ खडा होना विलक्षण लगा।

” एंड बट नॉट ए ड्रॉप टू ड्रिन्क ” उसने व्यंग्य से कहते हुए एक हल्का सा धक्का दिया मुझे।
” नहीं , आज नहीं।” उसकी बांह पकड मैं ने गेट की तरफ मोड दिया। जाने क्यूं लगा, मेरी कान की लवें जल रही हैं , छुकर देखा तो सचमुच गर्म थी।
” आज क्यूं नहीं? ”
” आज मेरे मन की हालत ठीक नहीं ।”
” तेरे मन की हालत कभी ठीक नहीं रहने की, तूने सुनी नहीं वो बात रोमांटिसिज्म किल्स लाईफ।”
” नहीं यार, एक प्रेम और सारा संसार बदल जाता है। कहाँ देखे थे इतने रंग इसके?” ”  संसार नहीं तू बदल गई है। बदलता कुछ भी नहीं शिरीन, बस देखने का अंदाज बदलता है। और यार, एक सच आज मैं तुझसे कह ही दूं। यह सब ठीक नहीं है। क्या होगा इस सब का अंजाम? ”

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया- अंजाम तो दो ही होते हैं हमेशा।

” तूने तो बहुत पढा होगा और देखा होगा। ऐसी बहुत सी पागल लडक़ियां होती हैं, जो अपने प्रोफेसर और उनका होता क्या है, कुछ नहीं।”

आज इसने तय ही कर लिया है कि मुझे समझा कर ही रहेगी। हम स्टैण्ड पर आ गए, अपनी गाडी क़े पास-
मैं ने गाडी स्टार्ट करके उसकी तरफ देखा

” तुझे बैठना है या मैं जाऊं? ”

उसने बैठते हुए अपनी बांह मेरी कमर में लपेट ली। उस हल्की-हल्की ठंड में जरा सी गरमी ही बेहद भली लगी।

” शिरीन सुन, तेरे माँ-बाप तेरे लिये कोई पंजाबी लडक़ा ढूंढ देंगे और तू उस सरदार जी के साथ गुरुग्रंथ साहिब के फेरे लगा के चली जाएगी। यही होता है प्रेम का अंजाम।”

गाडी ग़ङ्ढों में उछलती आगे बढ रही है। हमारी सलवारों के पांयचे कीचड में लथपथ हो गए हैं। उसने पीछे से मेरे कंधे पर अपनी ठोढी टिका दी और एक गर्म सांस फेंकी

” प्रेम बंधन है यार। यह सारी उमर उस दूसरे की दया का मोहताज बना देता है।” उसने कहा और मैंने अपनी गाडी क़ी रफ्तार एकदम बढा दी। सामने से आ रही कार से टकराते-टकराते बाल-बाल बचीपूरी ताकत से ब्रेक मारते पैरों को जमीन पर घसीटते हुए हमने कार को छुआ भर। कार वाले ने ब्रेक न मारे होते तो कुछ भी हो सकता था।
पीछे वह गिरती-गिरती बची। उसने उतर कर कार वाले को सॉरी कहा और मुझे एक झटके से नीचे उतार दिया।

” तू पीछे बैठ, मैं चलाती हूँ, खुदकुशी ही करनी है तो अकेले कर।”

आसान नहीं था वह निर्णय, अंधेरे के समुद्र में छलांग लगाने जैसा जोखिम भरा, पहली मुलाकात में तुम्हें देखा और समझ गई, तुम वो नहीं हो जो दिख रहे हो। और मुझे तुम तक पहुँचना ही है चाहे जितना लम्बा रास्ता मुझे तय करना पडे, और मैं उसी क्षण निर्णय पर पहुँच गई। मैं अपने बाहर कभी नहीं गई थी, पर जिस क्षण मैं ने अपन लिये दरवाजे ख़ोल लिये, उस पल भी यह नहीं जानती थी कि मैं अब की गई हुई लौटूंगी कब या कभी नहीं, और कभी-कभी दुबारा लौटना असंभव हो जाता है। हम पाते हैं, न द्वार वही है, न जगह, न हम तब?

फल पक गया था शाख परमदद की थी उसकी धूप ने, बारिश ने, हवाओं ने , मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक ने, चमकती बिजलियों ने उस पर किरणें फेंकी थी अपनी और वह पक चुका था अपने ही सद्भाव से और पक कर जब वह फटा दाने जमीन पर बिखर गएनर्म नाजुक लाल दानेऔर इस तरह जन्म हुआ कइयों कामेरा भी।

इच्छा मात्र एक इच्छा मुझे कहाँ से कहाँ लिये जा रही है। आज पहली बार यह सत्य जाना कि इच्छाएं ही फैल कर आकाश बनती हैं। इच्छाएं ही टुकडा-टुकडा बादलों की तरह उमडती हैं। इच्छाएं ही बारिश बन धरती पर उतरती हैं। इच्छाएं ही झरने-सी टूट कर गिरती हैं, नदी की शक्ल में, फिर सागर से जा मिलती हैं। ज्वार-भाटे सी उमडती हैं, वहाँ भी इच्छाएं ही किनारे तोड बसे-बसाए शहर उजाड देती हैं। इच्छाओं का शहर सचमुच किसी ने देखा है?

सुनो संजय ! क्या तुम्हें सच ही कुछ समझ में नहीं आता? जो लडक़ी सारी दुनिया को अपनी ठोकर पर रखती हुई तुम्हारे पास आती है, क्या उसके कदमों की आहट तुमसे कुछ नहीं कहती? तुम्हें देखते ही जिसके लिये सब कुछ सिमट कर एक केन्द्र बिन्दु में आ जाता है, उसका देखना संजय, तुम नहीं समझ रहे तो और क्या समझोगे? कभी-कभी एक जिद सी भरती जाती है अन्दर, जी चाहता है तुम्हारा हाथ पकड लूं और कहूँ सुनो, तुम सुनते क्यों नहीं?

समझो! समझो कि दीवानावार सागर की उत्ताल लहरें अपनी दीवानगी में समूचा शहर डुबो देती हैं। समझो कि हवाएं जब पागल होती हैं तो समूचा जंगल हिलने लगता है, आंधियां आने लगती हैं। प्रकृति का उद्दण्ड रूप देखा है तुमने?
संजय तुमने क्या बना डाला मेरा जीवन? एक हँसती-खेलती लडक़ी को ये कहाँ ले आए तुम? और एक मिनट भी नहीं सोचते। आज लग रहा है, मैं ने भी न जाने कितने दिल तोडे हैं और आज उसीकी सजा भुगत रही हूँ। मैं ने किसी की ओर पलट कर नहीं देखा इस अहंकार में कि कोई मेरे लायक नहीं। और अब जिसे देखा वही मुझे अपने लायक नहीं पाता। मिल गई न मुझे मेरी सजा।

संजय, मुझे कहना नहीं चाहिये परतुमसे ही कह सकती हूँमैं एक बार उस तूफान से गुजरना चाहती हूँ। हाँ,
मैं एक बार अपने काँपते हाथों में तुम्हारा चेहरा लेकर उस पर झुक जाना चाहती हूँ। संजय, मेरे संजय! प्यार बहुत दु:ख देता है। बहुत रुलाता है। मेरे कदमों में कैसी भटकन भर गई है कि कोई रास्ता नजर नहीं आता सिवा तुम्हारे रास्ते के। मैं क्या करूं, अपनी इस बेहिस व्याकुलता का

दिनअजीब दिनकभी बारिश में भीगते अपने बोझ से थर-थर काँपते दिन कभी बदली की तरह तमाम दिन इधर-उधर बरसे-बिन बरसे भटकते दिन, कभी तेज धूप से तपते दिन, कभी झर-झर बहते झरने से टूट कर गिरते दिनहाथों में न संभलते दिन। कभी हाय-हलो, कभी ज़रा सी बातचीत, उन पेडों, पौधों और पत्तियों की बाबत – जिनकी दुनिया मेरी दुनिया से निहायत अलग और तकरीबन वैसी ही सनसनीखेज खबरों से भरी जितनी मेरीऔर मेरे पास कितनी जानकारियां हैं? पौधों की बाबत ज्यादा, उनकी बाबत कममैं ने कभी किसी से कुछ पूछा नहीं। मैं पूजा से भी कम बात करती हूँ उनकी। जब भी मौका मिला, वह भाषण देने से चूकेगी नहीं। मैं जानती हूँ।

दिन भर उन्हीं के खयाल में बाजार जाती हूँ तो किसी की पीठ देख कर चौंक जाती हूँ। फोन की घंटी बजती है तो सबसे पहले मैं दौडती हूँ। हांलाकि आज तक एक भी बार उन्होंने फोन किया नहीं। अंदर कोई अदृश्य टेपरिकॉर्डर फिट है, उनकी आवाज बार बार उस कैसेट पर सुनती हूँ और अपनी शानदार रिकॉर्डिंग पर फख्र महसूस करती हूँ।

लो फोन की घंटी बज रही है, लपक कर उठाया और अत्यन्त मीठी आवाज में कहा –

” हलो ”
” हाय सदके जावां। इतना मीठा हलो मैंने आज तक नहीं सुना, वो भी तुमसे पूजा दी।”
” तू बेमुरव्वत इतने दिन कहाँ थी? कॉलेज नहीं जाते तो तू दिखती ही नहीं
” अभी आ रही हूँ। तुमसे कुछ बात करनी है।आ जाऊं? ”  उसने पूछा।
” बात! भाषण देना है तो मत आ। ”
” हाँ हमारा कहा भाषण लगता है आपको। वैसे तुझे आज के बाद भाषण की जरूरत ही नहीं पडेग़ी उसकी आवाज संजीदा थी।”
” यानि पहले थी? ”
” हाँ! थी।”
” अच्छा, तू और बडबड मत कर, जल्दी आ।” मैं ने फोन काट दिया।

जाने क्यूं दिल धडक़ रहा है? पता नहीं सचमुच कोई बुरी खबर है या मजाक कर रही है कमबख्त? असह्य बेचैनी में मैं दरवाजे पर खडी हो गई। जब वह आई, मैं सीधे उसे खींचती हुई ऊपर कमरे में ले गई।

” बोल क्या है? ”
” तू सुन लेगी न! ”  उसने चिंतित स्वर में पूछा।
” अब तू आई है तो मुझे सुना कर ही छोडेग़ी, नहीं? ” मैं ने मुस्कुरा कर उसके गाल पर चपत मारी, पर सच मेरा गला सूख रहा था।
” कल स्मिता संजय सर के घर गई थी।”
” कौन स्मिता? मैं ने चौक कर पूछा।
” यार स्मिता सेन बॉटनी की स्टूडेन्ट.. ”
” हाँ तो? ”
” कह रही थी वह झिझक गई.. ”
” क्या कह रही थी ? ”
” कह रही थी, संजय सर की वाईफ काफी खूबसूरत है।” वह झटके से बोल गई।

मेरी सारी देह जैसे सुन्न हो गई। आँखे उस पर टिकी रह गईं, कई पल यूं ही गुजर गए।

” शिरीन, तू ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की, पर इसके सिवा दूसरा कोई सच हो ही नहीं सकता था।”

” सच! तुम्हें क्या पता पूजा। हर इंसान का अलग-अलग सच होता है और यही जब आपस में टकराते हैं तो तो… ”
” मैं ने कुछ नहीं कहा, मेरी आँखे अब भी उस पर टिकी रहीं.. ”

” शिरीन, अब भी वक्त है लौट आ।”

वक्त किसका वक्त ? और ये वक्त भी आखिर होता क्या है। क्या सच की तरह वक्त भी सबका अलग-अलग होता है? और लौटना किसे कहते हैं पूजा? लौटता तो कभी कोई नहीं, टूटकर बिखरता जरूर है।

” हमारे यँहा पुरूष हमेशा पत्नी का होता है, प्रेमिकाएं तो दिल-बहलाव की चीज है।” हम पत्नी को, प्रेमिका को दया…बचा-खुचा प्रेम  वो भी डर डर के…. प्रेमिका वो फालतू चीज है, जिससे कोई वादा नहीं करना पडता। कुछ नहीं। जितना उधर से बच जाता है, इधर दे दिया। खुरचन जिसे तुम जैसी उल्लू की पठ्ठियां अहोभाव से ले लेती हैं। उसकी आवाज में गहरी नफरत थी।”

सारी रोशनियां एक-एक करके बुझ गईं। अन्दर भी बाहर भी.. जब मैं उसे छोडने बाहर आई तो मैं ने ऊपर देखा – उजले रंगों से भरे आसमान पर एक गहरा सलेटी रंग छा गया र्है कुछ भी नहीं है वहाँ, एक चिडिया तक नहीं।

” टियर्स आइडल टियर्स, आई नो नॉट व्हाट दे मीन… ”

हाय, कोई नहीं आया। शाम के लम्बे होते सायों से मैं घिरती जा रही हूँ। कैसी है ये हवातेजरेत के कण चुभ रहे हैं मखमली बदन परकहाँ आऊँ मैं कि वह आवाज मेरे पीछे न आ सके। वह जो सुबह-शाम दूर क्षितिज से इशारों से मुझसे बातें करती, चुप- खामोश मुझे देख रही – मुझे ढंक लो, शाम के लम्बे होते अंधेरों में कुछ देखना नहीं चाहतीओ मोहब्बत, मैं तुझसे कितनी दूर चली जाऊं कि तू पीछा करना छोड दे। कौन हंस रहा है इस अंधेरे में? कौन रो रहा है? ये कैसी हंसी है जो किरचों सी चुभती है? क्या चाहा था मैं ने यही? यही सब.. हंसो.. हंसो…मुझ पर.सब हंसो मुझ परसब! प्रेम! ये आँसुओं का लम्बा दरिया है, बहती हुई मैं कहाँ जाकर गिरूँगी मुझे नहीं पताहाय ये आसमान इतना काला कैसे हो गया? कौन चुरा कर ले गया वो सारे सितारे? और मेरा चाँद? और ये आसमान इतना बिलख कर क्यूं रो रहा है? क्या इसे नहीं मालूम कि रोने से कुछ नहीं होता। कुछ भी नहीं।

रात भर पानी बरसता रहा  बरसता रहा। सब कुछ जल निमग्न हो गया। मैं इस पानी पर पीठ के बल लेटी किसी प्रलय का इंतजार करती रही, आज पहली बार मैं ने आह्वान किया है उसका और वह आएगी। समूचे को एक झपाटे से अपने साथ लेकर चली जाएगी। भंवर में किश्ती देखी है डूबते मैंने।हर चीज ग़ोल-गोल घूमती अपने अंत की ओर अग्रसरमैं एकदम नजदीक आ गई उसके अब बस, चन्द लम्हें औरमैं ने अपनी आँखे बंद कर लीं। संजय, तुम कभी नहीं जान पाओगे कि एक पूरा जीवन तुम चूक गए- कि प्रेम की नदी में उतरना और भंवर में खुदको छोड देना। कि अगरचे जीवन ये नहीं तो और क्या है?

मैं भंवर के ठीक मध्य में हूँ, कई चक्कर लगाए मैंने और उस अंधेरे में डूब गई।

सुबह सब कुछ साफ था। कहाँ गई प्रलय? कैसे बच गई में? मैं ने उठ कर खिडक़ी से बाहर देखा- सब कुछ साफ और स्वच्छ, हवाएं चल रही हैं, पेड झूम रहे हैं। फूल-पत्ती मुस्कुरा रहे हैं। मैं ने एक पौधा देखा – जो जाने कब प्रलय को नकारता धरती की कोख से बाहर आ हंस रहा है, संजय कुछ भी खत्म नहीं होता। कुछ भी नहीं। प्रेम तो कभी नहीं। तुम हो न, चाहे मेरे पास न सही, फिर भी सब कुछ है तुमसे। मैं शायद तुम्हारे जीवन में वह जगह न ले सकूं, न सही। एक बार कह दो बस कि तुम, मुझसे प्रेम करते हो। कि तुम जानते हो। तुम कहीं भी रहो मैं जी लूंगी तुम्हारे बगैर? क्या सचमुच? क्या इतना आसान है यह सब? जो भी हो, मैं एक बार कहूंगी तुमसे,अपने दिल की बात। सिर्फ एक बार संजय, तुम मेरी बात सुन लो ।एक बार कसके गले से लगालो अपने। फिर मैं जी लूंगी। संजय, उम्मीद अभी भी है, अभी भी बाकि है बहुत कुछ। अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ, बचाया जा सकता है कुछ। मैं जानती हूँ, जब कहूंगी तुमसे तो यूं उठोगे और कस कर लगा लोगे गले से मुझे। क्या तुम प्रतीक्षा नहीं कर रहे इस बात की कि मैं कहूँ। तुम्हारे लिये मुश्किल होगा, जानती हूँ, मुझे ही कहना है, मैं ही कहूँगी। अभी भी तुम इतनी दूर नहीं गए हो कि लौटाया न जा सके। अभी भी मैं तुम्हें आवाज देकर बुला सकती हूँ।

संजय, ये कैसा यकीन है, जो तुमने कभी दिलाया नहीं और मैं ने कभी छोडा नहीं।

फरवरी जा चुकी है। ये मार्च के उजडे और उबाऊ दिन हैं एकदम शुरू मार्च के कॉलेज में बेहद कम स्टूडेन्ट्स सब अपनी परीक्षाओं की तैयारियों में मश्गूल और चिंतित…

उस दिन के बाद कई दिन मैं कॉलेज नहीं गई, एक धुंधली सी उम्मीद थी कि वे पूजा से पूछेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और वह उम्मीद भी बुझ गई। पूजा ने बताया कि आजकल काफी व्यस्त दिखते र्हैं कभी प्रिन्सिपल ऑफिस में, किसी मीटिंग में, जो आजकल अकसर हो रही हैं, कभी स्टाफ रूम, कभी सीढियों पर किसी से बातें करते , जल्दबाजी में चढते-उतरतेवह एक निषिध्द दुनिया थी, जिसमें मैं चाहने के बावजूद शामिल नहीं हो पा रही थी।
और यह लाईब्रेरी में किताबें वापस करने का आखिरी दिन था, जब मैं गई और अनायास वे दिख गए। लाईब्रेरियन के सामने कुर्सी पर बैठे किसी किताब के पन्ने पलटते।

दो ही खयाल आए उन्हें वहाँ देख कर- या तो भाग कर उनके गले लग जाऊं या यहीं से वापस लौट जाऊं। और मैं दोनों में से कुछ भी न चुन सकी।

” गुडमॉर्निंग सर ” मैं ने जब धडक़ते दिल से उनके सामने पहुँच कर धीरे से कहा तो उन्होंने चौंक कर अपना सिर उठाया।
” गुडमॉर्निंग”  मेरे धीमे स्वर का उन्होंने काफी उत्साह से जवाब दिया।
” हाउ आर यू? ”
” नॉट वेल” मैं ने फीकी मुस्कान से कहा।

लाईब्रेरियन मि. सरकार मुझे देख रहे हैं, मैंने किताबें टेबल पर रख दीं।

उन्हें देखते ही लहू में कुछ होने लगा है। कितना मुश्किल है, स्वीकार और नकार के ठीक मध्य में खडे रहना। हम कुछ नहीं जानते, पर हम जोखिम लेते हैं। यस और नो के मध्य एक पूरा जीवन बिताते हैं, किसी एक तरफ छलांग लगाने को तत्पर – और हैरत की बात है, वह छलांग कभी लगती नहीं । मुझे इस समय अपना ये खयाल बडा अजीब लगा।

” व्हाट हैपन्ड मिस शिरीन? यू आर लुकिंग सो पेल।” उन्हें खुद को बडे ध्यान से देखता पाया।
” नथिंग।” मैं ने किताबें वापस करदी अब मुझे जाना है।
” कम हियर प्लीज, आपको देर तो नहीं हो रही?” वे उठे और उस लम्बी सी टेबल के दूसरी ओर आ गए।

मैं उनके पीछे गई और हम दोनों आमने-सामने बैठ गए। अब मैंने उन्हें ठीक से देखा- क्या है इस चेहरे में कि इसे देखते ही एक तूफान मेरे अंदर दस्तक देने लगता है। आज तो मैं देर तक देख भी नहीं पा रही। मैं ने अपनी निगाहें खिडक़ी के बाहर कर लीं।

” देर तो बहुत हो चुकी है सर अब कुछ नहीं हो सकता ” मैंने कहना चाहा पर लगा, कुछ भी कहने की कोशिश पागलपन है। ये क्या जानता है कुछ भी तो नहीं।
” आपका पहला पेपर कब है? ”
” फ्रॉम ट्वेन्टी सैकण्ड।”
” तैयारी कैसी है? ”

तुम हमेशा वाहियात प्रश्न ही पूछोगे। यह नहीं कि कहो शिरीन, कहाँ रही इतने दिन? मैं ने तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा! और ये क्या हो गया है तुम्हें, ये कहाँ ले आई हो तुम अपने आप को?

” आय डोन्ट नो, मैं ने इस तरह से न सोचा, न तैयारी की।”

मैं ने एक उचटती नजर उन पर डाली और अपने हाथों की उलझती-सुलझती उंगलियां देखती रही। कभी ऐसा होगा कि ये हाथ तुम तक पहुंच कर तुम्हें थाम लेंगे। ओह, ये दुनिया कितनी असंभव घटनाओं से भरी पडी है। मेरे ही साथ कुछ क्यों नहीं होता?

” जीवन में कुछ पाने के लिये बहुत मेहनत करनी पडती है। देअर इज नो अदर वे टू सक्सेस। पता है आपको? ”
” ये आप मुझे क्यूं कह रहे हैं सर? उन्हें कहिये जिन्हें सक्सेस चाहिये।” मैं ने सर उठा कर कुछ सख्त स्वर में कहा।
” आपको क्या चाहिये मिस शिरीन? ”  वे जरा सा सामने झुके और वही सिगरेट और उनकी मिली जुली महक, जिसके लिये मैं न जाने कब से मारी-मारी फिर रही हूँ। मैं ने जरा सा आगे झुकते हुए टेबल पर कोहनियाँ टिका अपना चेहरा हथेलियों में ले एक लम्बी गहरी साँस भरी और देर तक उसे रोके रखा।

मैंने उनकी बात का जवाब नहीं दिया। मुझे लगा, यह क्षण, वही क्षण है, जिसका मुझे इंतजार है।

” ये आपका फाईनल ईयर है। इसके बाद क्या करेंगी, सोचा है? ”

क्या था उनकी आवाज में कि मैं तिलमिला गई। मैं ने पैनी हो आई आँखे उन पर टिका दीं –

” मैरिज ”

जाने क्यों वे हडबडा से गए। शायद उन्हें मुझसे ऐसे उत्तर की उम्मीद न हो।

” मैरिज ” उनके मुंह से अस्फुट सा निकला, फिर वे संभल गए। हल्के से मुस्कुराए
” एण्ड आफ्टर मैरिज? ”
” एण्ड आफ्टर मैरिज व्हाट.. ऑल दैट व्हाट नॉनसेंस कपल डू? ” मेरी पैनी हो आई आँखे उन पर टिकी रहीं।
” बस यही है आपके जीवन का।” उन्होंने मानो निराश होते हुए एक गहरी साँस बाहर फेंकी और अपनी पीठ कुर्सी से टिका ली। वह गंध मुझसे दूर हो गई।
” लक्ष्य होना जरूरी होता है क्या? ”  और अगर मैं कहूँ तुमसे, मेरा लक्ष्य है तुम तक पहुंचना, तो संजय फिर वही आवेग, मैं ने उसे पीछे धकेला।
” यँहा प्रश्न जरूरी होने या न होने का नहीं है । सवाल हमारे जानने का है। एंड मैरिज इज ऑनली ए सिचुएशन। यू नो इट बेटर।”

कई रंग मेरे चेहरे पर आए और चले गए। क्या कभी तुम समझोगे? क्या कभी नहीं समझोगे? जरूरी है क्या कि सभी कुछ कहा ही जाए। अगर जरूरी है तो मैं क्यूं कुछ भी नहीं कह पा रही। मैं ने उनकी आँखों में देखा- मुझे कभी नहीं लगा कि तुम कुछ भी समझ नहीं रहे, फिर कहते क्यूं नहीं कुछ ?

एक स्टूडेण्ट अन्दर आया और उनसे कुछ पूछने लगा। वह चला गया तो वे मेरी ओर उन्मुख हुए। मैं जैसे उसके जाने की ही प्रतीक्षा कर रही थी। मैं ने पूछा –

” डू यू नो योर गोल? ”
” ऑफकोर्स आई नो! ”
” और आप खुश हैं उससे।”
” प्रोबेब्ली, यस।”
” आपको नहीं लगता, आपने इसके अलावा कुछ और चुना होता तो जीने में आसानी होती।”
” किसके अलावा? ”  वे उत्तर देते में शान्त हैं।
” उसी के जिसे आप लक्ष्य कहते हैं ।”
” पता नहीं।अभी तक नहीं लगा।”
” अगर कभी लगे तो? ”
” तो मैं लक्ष्य बदल सकता हूँ। कभी भी इतनी देर नहीं होती कि हम रास्ते न बदल सकें।”
” यही तो, यही तो मैं कह रही हूँ कि कभी भी इतनी देर नहीं होती कि हम रास्ते न बदल सकें।” आवेश में मेरी मुठ्ठियां भिंच गईं।
” पर एक दूसरी बात भी उतनी ही सच है शिरीन।” मैं ने अब उनकी आवाज क़ी गंभीरता को लक्ष्य किया।
” कभी-कभी दुबारा चुनना असंभव हो जाता है। और हम एक पूरा जीवन चूक जाते हैं।”

मेरे मुंह से एक बोल तक नहीं फूटा, मैं सन्नाटे में बैठी रही

” इसलिये आपसे कह रहा था कि जो भी चुनें, समझ कर कि इसमें आप कितने शामिल हैं। और जहाँ तक मैं समझता हूँ मिस शिरीन विवाह सिर्फ मुर्दे करते हैं। सिर्फ वे जिन्हें जोखिम नहीं सुरक्षा चाहिये। ये अपने आस-पास देख रही हैं न इतने सारे लोग – इनके लिये बना है विवाह। आप इनमें से तो नहीं हैं।”
”तो मैं हूँ क्या? मैं क्यूं बनी हूँ? किसलिये? तुम्हारे लिये संजय.. क्या तुम समझ रहे हो? ”
” लव इज टू बि इन बिटवीन ”  उनकी आवाज ज़ैसे कहीं दूर से आई।

मैं स्तब्ध बैठी रही। मुझे एकाएक समझ नहीं आया कि अब क्या ? यह सिर्फ मुझसे कहा गया है, या एक जनरल स्टेटमेंट है।

” मिस शिरीन” उनकी आवाज से चौंक कर मैंने उन्हें देखा,
” आप खुशी ढूंढ रही हैं, वह भी अपने से बाहर।”

खुशी! सिर्फ खुशी? मेरा मन भर आया – जब मैं तेज बारिश में भीगती हुई, भागती हुई कॉलेज आती हूँ और मुझ भीगी हुई को तुम अन्दर आते देख मुस्कुरा देते हो और मैं डगमग कदमों से आगे बढती तुम तक पहुंचती हूँ, तो क्या यह सिर्फ खुशी है?

जब मैं महज तुम्हारी महक के लिये उन रास्तों पर बार-बार जाती हूँ जिनसे तुम गुजर कर गए हो, तो क्या यह सिर्फ खुशी है? जब मैं तुम्हारी आवाज अपनी देह पर लिबास की तरह पहन लेती हूँ, और सारा-सारा दिन उससे लिपटी-लिपटी घूमती हूँ तो क्या यह सिर्फ खुशी है?

यह जो मैं गा-गाकर रोती हूँ, रोते-रोते गाती हूँ, सारा दिन हवाओं पर तुम्हारा नाम लिखती हूँ, तो क्या यह सिर्फ खुशी है? और यह सिर्फ खुशी भी आखिर है क्या? यह सिर्फ खुशी नहीं संजय, पूरा जीवन है मेरा। मैं ने कुछ कहने को मुंह खोला ही था कि एक स्टूडेन्ट को अपनी ओर आता देख चुप हो गई। वह आकर उनकी बगल में बैठ गया और कुछ पूछने लगा

असह्य बेताबी से भर कर मैं ने उनकी ओर देखा-

” सुनो, मुझे तुम्हें एक बार छूना है। सिर्फ एक बार । देखो मेरे हाथों को सिर्फ क्षण भर तुम्हें छूने को ये कितनी दूर से चलकर आते हैं। एक बार तुम्हारा चेहरा अपनी हथेलियों में लेने की अदम्य आकांक्षा मुझे किस तरह भटका रही है। लव इज टू बि इन बिटवीन हाँ, संजय देखो मैं कहाँ खडी हूँ देखो सिर्फ एक कदम और – और मैं नहीं बचूंगी। मैं नहीं बचना चाहती, तुम्हारी बांहों में मर जाना चाहती हूँ। मेरे संजय, मेरे धैर्य की परीक्षा मत लो मेरे प्यार! इतना प्यार मुझसे संभलता नहीं मैं क्या करूं? क्यूं लिखा था बायरन ने यह,  वाटर्स सॉ हर मास्टर्स एण्ड शी ब्लश्ड… ”

स्टूडेन्ट चला गया और फिर उन्होंने मेरी तरफ देखा

” यस गो ऑन। ”

कह दूँ आज? आज कह ही दूँ। ये जो मेरी आँखों से, मेरे हाथों की कंपकंपाहट को नहीं समझ रहा तो कहीं यह कहने से ही समझे। वह एक लम्हा, जिसका मैं इंतज़ार कर रही थी कि यह ही कहेगा और मैं शर्म से लाल पड ज़ाऊंगी, शायद जीवन में कभी नहीं आएगा। कुछ चीजें जीवन में कभी नहीं होंगी और जीवन फिर भी होगा। ये जो दिन-रात अपने आपसे बातें करती हूँ, एक बार कह दूं इसेक्या होगा, हाँ या ना, यह जो असह्य यातना के बीच खडी हूँ उससे तो छुटकारा मिलेगा –

” मि संजय”

हम दोनों ने चौंक कर उधर देखा। लाईब्रेरी की खिडक़ी के बाहर कोई प्रोफेसर बुला रहे हैं उन्हें। उन्होंने उधर देख कर हाथ हिलाया कि आ रहे हैं। फिर मेरी तरफ देखा-

” आय एम सॉरी मिस शिरीन, आपको कुछ कहना है, मैं जानता हूँ। मैं कल यहीं लाईब्रेरी में आपका इंतजार करुंगा, दो बजे के बाद। ”

मेरी देह की कंपकंपाहट उनके कदमों से लिपटी दूर तक घिसटती चली गई। वे दरवाजे से बाहर गए और वह वहीं गिर गई। मेरी आँखे भर आईं। मैं ने हथेलियों में चेहरा छुपा लिया और उन्हें घूंट-घूंट पीती रही। पता नहीं कितना वक्त गुजर गया।

वह एक गुच्छा-गुच्छा सी रात थी, जो मेरी बाँहों में अलसाई सी सो गई। बहुत देर बिलखने के बाद। मैं देर तक उसका सिर थपक कर उसे दिलासा देने की पूरी कोशिश करती रही। हर रात के अपने किस्से होते हैं। कुछ चकमक करते रंगीन पत्थर, कुछ अनगढ छोटे बडे मिट्टी के ढूह, कोई पुराने बाँस की पोली बाँसुरी जिसमें से अतीत की कभी कोई दबी-दबी सी कराह सीटी की तरह बजती और सोती हुई रात के स्वप्नों को खबर हो जाती। बहुधा वे इस तरह की आवाजों से तितर्र बितर हो जाते, हलचल शांत होते ही फिर तिरते से उपर आ जाते।

आज मेरे मन की हालत बडी अजीब है। ये क्या होता जा रहा है मुझे, मैं बिलकुल भी नहीं समझ पा रही। मैं टकरा जाना चाहती हूँ किसी राह चलती बस से। मेरे चिथडे-चिथडे उड जाएं, मैं बिखर जाऊं इन्हीं हवाओं में जिनमें तुम साँस लेते हो। हाय, अपना बोझ तक नहीं उठा पा रही मैं। ये रेत का रेगिस्तान कैसे पार करूं मैं? मैं लडख़डाते कदमों से ही अन्दर घुसी। किसी-किसी वक्त मेरी आँखों के आगे अंधेरा-सा छाने लगता – और मैं सर झटक कर खुदको ठीक करती। मेरी हथेलियाँ पसीने से तर हैं। बिना किसी की ओर देखे मैं आगे बढती जा रही

मैं ने जब लाइब्ररी में कदम रखा – ठिठक गई। एक मिनट लगा, वापस लौट जाऊं आज का दिन ठीक नहीं मेरे लिये। पता नहीं क्या हो खुद पर भी वश नहीं। मेरी नजर सामने गई वे उसी टेबल पर बैठे कुछ लिख रहे थे। चेहरा इतना झुका हुआ कि सिर्फ उनके बाल दिख रहे थे, आधे काले, आधे सफेद। तब तक लाईब्रेरियन मुझे देख चुका था, मैं ने अभिवादन में सर हिलाया और सीधी चलती हुई उनके सामने जाकर रुक गई। उन्होंने एक पल को मुझे देखा और अभिवादन के जवाब में मुझे बैठने का इशारा कर फिर कागजों पर झुक गए। बैठते हुए मैं ने एक गहरी साँस फेंकी और थकान से भरा मेरा जिस्म कुर्सी पर मानो ढर्हसा गया। मेरा गला सूख रहा था, मैंने इधर-उधर देखा सीढियों के पास कोने में घडा रखा था और कांच के कुछ ग्लास पर मैं उठी नहीं।

मैं कई पल इस आधे झुके चेहरे को देखती रही-

” देखो न, मैं तुमसे छिपना नहीं चाहती, ये मेरी प्यास है, ये मेरी चाहत, तुम्हें छूने की लालसा है यह, जो अपनी पकड से कुछ छूटने नहीं देना चाहती। यह मैं हूँ, मुझे देखो, मुझे छुओ, मैं तुम्हारा हाथ पकड क़र इतनी दूर जाना चाहती हूँ कि तुम्हें कुछ भी याद न रहे। शायद तुम कभी न जान पाओ कि कितनी कोमल भावनाएं तुम्हारे कदमों से टकरा कर बिखर गई हैं। ”

कितने दिन तुम मेरी बेचैनी अनदेखी करते रहोगे? आखिर मेरा कुसूर क्या है, यही कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और…और आज तक तुम्हें छुआ तक नहीं। नहीं कुछ भी नहीं हो रहा, उस तरफ खामोशी है, अंतहीन बिना लहरों का ऐसा समंदर, जो समूची भावनाएं अपनी अतल गहराइयों में खींच लेता है। मैं भी क्यूं इसमें छलांग लगा अपना वजूद तक खो देना चाहती हूँ।

देखे जा रही हूँ मैं उन्हें एक जानलेवा तटस्थता मेरी बेचैनी बढाए जा रही है। जी चाहता है उनके चेहरे को झिंझोड दूँ, ये जो आवरण ओढ क़े बैठे हैं गंभीरता का मेरे सामने, इसे एक झटके में चीर कर इनसे अलग कर दूँ और देखूँ, जो ये हैं पूर्णतया नग्न कैसा होता है.. आदमी कैसे हो तुम? गुस्से से मेरी मुठ्ठियां भिंच रही हैं।

” मुझे तुमसे कुछ कहना है, आज अभी, इसी वक्त। मैं इंतजार नहीं कर सकती। मैं क्यूं करूं इंतजार कि तुम्हें समय हो, सहूलियत हो। कितने निष्ठुर हो तुम, हृदयहीन, पर क्यूं हो तुम ऐसे? मेरे लहू में ये कैसा पागलपन सवार है? मेरे चारों ओर कैसे सींखचे हैं। मैं इन सबसे मुक्ति पाना चाहती हूँ। मैं अपना सिर टकरा रही हूँ। मेरा माथा लहूलुहान हो गया है, और तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता। प्रेम यातना है! हाँ, प्रेम यातना है! यह दूसरे से अनवरत तुम्हारे पास आती है। तुम्हें सिर्फ सहते रहना है। देखो, मुझे तुम्हारी यह स्थिरता नहीं चाहिये, तुम्हारी तडप, व्याकुलता, तुम्हारा जुनून, दीवानगी हाय! मैं कहाँ जाऊं , क्या करूं? आज पहली बार अपने उपर दया आ रही है। मैं तरस खा रही हूँ खुद पर? मैं तो ऐसी न थी। किसी दिन तुम भी मुझ पर तरस खाओगे, हाय बिचारी! नहीं मैं नहीं सह सकती, मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।”

अवश क्रोध में मेरी मुठ्ठियां भिंच रही हैं। देह की समूची शिराएं तनी हुई। मेरी कनपटी गर्म हो गई हैगाल धधक रहे हैं। माथे पर गिर रहे बालों को एक झटके से पीछे किया मैं ने। नहीं कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा तुम्हेंकुछ भी नहीं। अचानक एक झटके से टेबल पर रखे सारे कागज़ों को मुट्ठी में भरकर मसल दिया मैं ने। मुट्ठियां खोलींमसले कागज टेबल पर बिखर गए और उनकी तरफ देखे बगैर मैं उठी और बाहर निकल गई।

दरवाज़ा बंद था और मैं देर से खडी थी – अनिश्चित-सी खटखटाने न खटखटाने, रुकने या चले जाने के गहरे असमंजस और तनाव में। खुद को खुद से परे करते हुए मैं ने घंटी के बटन पर उंगली रख दी। अन्दर कहीं सन्नाटे में वह ध्वनि गूंजी और मैं ने खुदको जानी-मानी प्रतीक्षा में पाया। मैं ने उन्हें तुरंत पहचान लिया, जितना उनके बारे में सुना था, उससे कहीं ज्यादा मैं पिछले दिनों उनके बारे में सोचती रही हूँ। लंबा कद, छरहरा बदन, गोरा रंग, बडी-बडी आँखें, तीखी नाक और गोल ठोडी उनके होठों पर एक सहज मुस्कान र्है आश्वस्त करती सी। मैं ने दोनों हाथ जोड उन्हें नमस्कार किया।

” आओ, आओ।” वे हल्के से सर हिलाते हुए दरवाजे से हट गईं।

हम एक कमरे को पार करते हुए दूसरे कमरे में आ गए जो शायद इनकी बैठक है। पहले कमरे में किताबों से भरी अलमारियों के सिवा कुछ भी न देख पाई। वह साधारण और सुंदर सी बैठक मानो उसमें रहने वालों की बाबत कोई सूचना देती हो। हम बैठ गए।

” आप शायद मुझे पहचानती नहीं।” मैं ने हल्की सी मुस्कान के साथ उनकी ओर देखा।
” पहचानती हूँ। तुम शिरीन हो न! ”  वे मुस्कुराती हुई मुझे देखती रहीं।
” आपको किसने बताया मेरा नाम? ”  मैं अपने चौंकने को बडी सफाई से छुपा गई।
उन्होंने अन्दर कमरे की ओर इशारा किया। वे आपकी काफी तारीफ करते हैं।
” तारीफ? मेरी? ” मैंने हल्के से व्यंग्य से कहा और चुप हो गई।

कितनी बेतकल्लुफी से तुमने नाम लिया संजय। मैं ने गहरे विषाद के साथ सोचा। एक बार यही नाम इसी तरह पुकारने की मेरी लालसा से कितनी अपरिचित हो तुम?

” हाँ! हाँ! ” उन्होंने मानो मुझे किसी निराशा से बचाते हुए कहा।
” वे बहुत कम ही किसी की तारीफ करते हैं। मुझे सिर्फ उनके एक या दो वाक्यों से ही समझना होता है।”

मैं ने सिर झुका लिया।

” मैं इन्हें बुलाती हूँ। कह कर वे अन्दर चली गईं।”

अब? क्या कहूंगी मैं उन्हें? उस दिन की घटना से मैं स्वयं इतनी शर्मिन्दा थी कि फिर चार दिन कॉलेज ही नहीं गई। कहीं न कहीं एक धुंधली सी उम्मीद थी कि वे फोन करें शायद यह जानने को कि क्या हो गया है मुझे? पर नहीं। किसी तटस्थ योगी कि तरह उन्होंने मेरा वह गुस्सा भी स्वीकार कर लिया और चुप बने रहे। और मुझे ही आना था। मैं ही आई। मैं ही क्यूं ? मैं ही क्यूं चल कर आती हूँ। वह दूसरा क्यों नहीं चलता, चाहे दो कदम।

वे अन्दर आए और मैं उठ कर खडी हो गई।

” बैठिये-बैठिये ” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा और बैठ गए, पीछे वे भी आईं और बैठ गईं।
” घर ढूंढने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई।” यूं ही सा सवाल।

मैंने उन पर उचटती सी निगाह डाली।( तुम्हें ढूंढने के मुकाबले बेहद कम )

” नहीं कुछ खास नहीं।”
वैसे ये जो चाहती हैं ढूंढ ही लेती हैं। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा। वे मुस्कुरा दीं।

मुझे अचानक याद आ गया, मैं ने पूजा से कहा था एक दिन- पूजा, पत्नी शब्द से मुझे डर लगता है। क्या है ऐसा इस शब्द में, जो हमें सारे रिश्तों से तोड देता है। क्यूं इस शब्द को इतनी ज्यादा जगह की जरूरत होती है? और क्यूं प्रेम एक छोटी सी जगह के लिये भी राजी हो जाता है? पूजा, क्यों डरते हैं दोनों एक दूसरे से?

” आप आई नहीं पिछले दिनों तो मैं ने सोचा आप बाहर गई हैं।”

मैं बाहर ही चली गई हूँ, तुम्हारे जीवन के एकदम बाहर। मुझे अन्दर आने की अनुमति चाहिये। क्या मिलेगी? मेरा गला भर आया।

” मैं चाय के लिये बोल कर आती हूँ। वे सहसा उठीं और अन्दर चली गईं।” अब मैं ने उनकी तरफ देखा
” आय एम सॉरी” मैं ने सिर्फ इतना कहा और आँसुओं की बाढ अा गई।
” डोन्ट बी सिली, तुम्हें कभी मुझे सॉरी कहने की जरूरत नहीं, तुम इतना क्यूं सोचती हो? ”

उन्होंने अत्यंत कोमल स्वर में कहा और मुझे लगा, जैसे किसी ने कोई बोझ मेरे कन्धों पर से उतार दिया। तुम सिर्फ इस शब्द ने मुझे अंधेरों से निकाल कर रोशनी की दुनिया में खडा कर दिया। मैं उनकी तरफ देखना चाहती थी, मैंने एक गहरा पल निकाल कर कृतज्ञ हो उन्हें देखा और सहज और आश्वस्त हो गई। हममें से फिर किसी ने कुछ नहीं कहा। एक लडक़ा आया और उसने सेन्टर टेबल पर पानी रख दिया। मैंने हाथ नहीं बढाया, वह चला गया। वे फिर अंदर आईं और बैठ गईं।

वे अपने कॉलेज में सम्पन्न हुई किसी मीटींग की बातें करने लगे। इस बीच वही लडक़ा आकर चाय रख गया और हमने एक साथ खत्म की।

अब मुझे उठना चाहिये, मैं ने सोचा और उनसे इजाजत मांगते हुए खडी हो गई। वे दोनों भी खडे हो गए।

” आपने ट्रक के लिये कह दिया था न? कोई आया नहीं बात करने।” सहसा उनकी पत्नी ने इनसे कहा, वे मानो किसी नींद से जागे-
” अरे, मुझे तो याद ही नहीं रहा।”
” देखो” उन्होंने नाराज होते हुए मानो मुझसे शिकायत की
” अगले हफ्ते जाना है और इन्हें याद नहीं।”
”अगले हफ्ते? ”  पर छुट्टियों में तो अभी देर है। मैं ने आश्चर्य से कहा। और इनका सामान कहाँ ले जाना है ट्रक में? कहना चाहा पर कहा नहीं।
” क्या आपके कॉलेज में किसी को मालूम नहीं कि हम जा रहे हैं? ”

उन्होंने कुछ हैरत से उन्हें देखकर कहा।

” जा रहे हैं? क्यूं? ” बेवकूफों की तरह मेरे मुँह से इतना ही निकला।
” अरे, हम तो सिर्फ तीन महीनों के लिये आए थे, इन्हें बुलाया गया था खासतौर सेअब बस परीक्षाएं खत्म हो रही हैं इनका काम भी खत्म।”

एक प्लेन उंचाई पर जाकर फूट जाता है।

अचानक कैसे खाली हो गई ये दूर-दूर तक फैली सडक़ें। जहाँ लोग थे, शोर था, फूल और सपने थे। हरे भरे पेड थे चारों तरफ चिडियां और कबूतर के घोंसले थे शाखों पर जो हवा के डर से कस कर चिपके रहते पेडों पर जबरदस्त संभावना से भरे हुए अण्डे थे, हल्के भूरे, चितकबरे, गर्म नाजुक गरमायी सेकते जीवन लेते आतुर और उत्सुक नदियां-जंगल थे, इनके हजारों रंग थे। ये क्या हो गया कि चारों तरफ बिछे पहाडों के सिवा कुछ नजर नहीं आता। यँहा खुशियाँ चिडियों की तरह फुदकती-चहकती थीं। इस डाल से इस डाल, सिर्फ एक तिनके के लियेकहाँ गईं सब? सिर्फ एक आदमी जा रहा है और सब कुछ खत्म हो गया? कहाँ है वह? उसकी पीठ भी नहीं दिखाई दे रही , सिर्फ उसके जाते हुए कदमों की आहट सुनाई दे रही है। कितनी साफ है वह आवाजधाड-धाड क़ही पसलियों में बजती हुईबस करो मेरी पसलियाँ टूट रही हैं। बस करोकितना सितम और करोगे, क्या किया है मैं ने सिर्फ प्यार? ओ खुदाया, सिर्फ इसी के लिये तूने इतनी सजा तजबीज क़ी। वो देखो जाता हुआ संसार जाते हुए संसार की पीठ देखी है मैंने? कुछ भी तो नहीं देखा मैंने। कब मैं संसार के मध्य थी और कब वह मुझे छोड क़र चला गया। कहाँ देख पाई मैं ठीक से। अरे अब मैं इन खाली सडक़ों पर क्यूं भागी जा रही हूँ? किसे पकडना है? और अगर पकड लूं – क्या अब भी कोई उम्मीद बाकि है?

प्लेटफार्म पर पैर रखते ही मैं ने इधर-उधर देखा दूर तक कोई नहीं दिखा सिवाय भीड क़े और मैं चलने लगी। जब से तुम मिले चल ही तो रही हूँ लगातार। एक वरदान की तरह लगता रहा वह चलना और आज उसकी मियाद खत्म हो रही है।भीड क़ा एक रेला है उसके और मेरे बीच हमेशा मैं ने पार किया था आज भी कर रही हूँ और दूर से ही देख लिया मैं ने उन्हें भीड में खोया-खोया सा स्वप्निल चेहरा जिससे मेरी जन्मों की पहचान है इसका एक-एक रेशा, एक-एक उतार-चढाव जिसे मैं ने हजारों बार छुआ और जो आज तक अस्पर्शित है।

मैं खडी रह गई वहीं। पुकारना चाहती थी मैं उसे, आवाज देना चाहती थी, लहर की तरह दूर जा रहा है, भीड क़े समंदर में वह मुझसे। उसके कंधों पर एक छोटा बैग टंगा देखा है मैंने क्या-क्या ले जा रहे हो तुम? मेरी हंसी के टुकडे, मेरी उदासी के पल, मेरी कविताएं, मेरे रंगीन लम्हेऔर क्या-क्या?

वे अन्य प्रोफेसर्स से बात कर रहे थे जब मैं उनके नजदीक पहुंची। सबने चौंक कर मुझे देखामैं ने सभी को एक साथ विश किया।

” अरे, आप उन्होंने बहुत धीरे से कहा। मैं ने उनकी तरफ देखा, कहा कुछ नहीं। मेरे पैरों के नीचे लम्बी अंधेरी सुरंग में से जैसे एक धू-धू करता ज्वालामुखी बाहर आने को छटपटा रहा था।वह लगातार धक्का दे रहा था नीचे से और मैं खुद को पलभर भी सरकने नहीं दे रही थी।

मैं जरा दूर खडी रह गई। वे चलते हुए मेरे करीब आए मैं ने उनकी आँखों में देखा- एक तीव्र आवेग उठा अंदर से, कस के गले लगा लूं, कुचर्लमसल डालूंखुद कोइसेहड्डी से हड्डी मज्जा से, मज्जा खून से, खून मिल कर एक हो जाए असहनीय वेदना से मैं ने अपनी आँखे परे कर लीं। मैं जनती हूँ वे मेरी तरफ देख रहे हैं। मैं प्लेटफार्म पर आती-जाती भीड क़ो कुछ पल यूं ही गुजर गए।

” मैं जानता हूँ, तुम मुझसे नाराज हो।”

नहीं, नहीं! नहीं जानते तुम। कुछ नहीं जानते । अगर जानते तो इस तरह? बिना कहे, बिना सुने कुछ भी कौन किसको जान सका है, कोई नहीं, कुछ नहीं मैं ने उनकी तरफ नहीं देखा।

” शिरीन, इधर देखो ”

मेरे अन्दर सब कुछ लडख़डा गया। पल भर में जो इतने दिनों साध-साध कर खडा किया था। मैं ने उनकी तरफ देखा, आह इस चेहरे को छू लेने की इस अदम्य कामना के सम्मुख मैं हार चुकी हूँ।

” तुम्हें तो ऐसा लगता है न कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ! ”

तत्काल मेरी आँखे भर आईं। मैं ने पलकें झुका लीं नहीं , यँहा नहीं।

” शिरीन वह आवाज क़ि जिसने यकबयक मेरे होंठ आकर छू लिये। मैं सिहर उठी। जोर से हवा चली, सूखे पत्ते झरने लगेझरते रहेमेरे चारों ओर सूखे पत्तों का ढेरबीच में अकेली खडी मैं… ”

” नथिंग, द ऑटम फॉल लीव्स.. ”
” अच्छा तुमने लूथर बुरबांक के बारे में सुना है? ”

मैं ने अपनी सिहरती देह संभालते हुए उनकी तरफ देखा, कहा कुछ नहीं-

” वह बातें करता था पौधों से बीजों से.. वह एक पागल अमरीकी था, वृक्षों और पौधों का प्रेमी। उसे लगता पौधे सुन रहे हैं। लोग हँसते थे उस परफिर उसने कैक्टस पर एक प्रयोग किया सात वर्ष तकसात वर्ष बाद कैक्टस में एक नई शाखा उगी, बिना कांटों वाली। शिरीन तुम्हें लगता होगा मैं ने बहुत देर कर दी। कैक्टस ने सात वर्ष लागाए समझने में, मैं सात ही पलों में समझ गया था, पर उससे क्या होता है?

उसका चेहरा मेरे सामने धुंधला गया। आँसुओं की तीव्र बाढ हाय! अब कह रहे हो, जब मैं कुछ नहीं कर सकती, जब कुछ नहीं हो सकता।

” शिरीन कहने की कोशिशों में तुम खुद को बांट भी लेती हो, उसका क्या जो नहीं कह पाता।” तभी वे चलती हुई हमारे बीच आ गईं। वे सहसा चुप हो गए। अपने बीच किसी की उपस्थिति का आभास पाकर मैं ने चेहरा उनकी तरफ मोडा, उनके होंठों पर मुस्कान है। मैं ने अपने होंठों का काँप कर फैलना महसूस किया।

उनके भूरे बाल धूप में चमक रहे हैं।उनकी दुबली-पतली देह पर प्रिंटेड साडीछोटे-छोटे काले फूलउन्होंने इनसे कुछ कहा, फिर मुझसेमैं ठीक से सुन नहीं पाई। मैं ने चौंक कर उनकी तरफ देखा

” एक्सक्यूज मी ”

वे मुझसे कुछ और कहने जा रही थीं कि उनके साथ आई किसी अन्य प्रोफेसर की पत्नी ने कुछ कहा वे मुझसे  पार्डन मी कहकर उनकी ओर मुखातिब हुईं।

ट्रेन आने में शायद अभी भी थोडी देर र्है हालांकि दूसरी घंटी हो चुकी है।

मैं ने उनकी तरफ देखा आज पूरी कर दो अपनी अधूरी बात। आज कहो वह जिसे सुनने के लिये मैं इतनी दूर से चलकर आती रही हूँ। कुछ कहो संजय-

हमारी आँखे मिलीं। उन्होंने कुछ कहने के लिये मुँह खोला ही था कि घंटी बजने की तेज आवाज पूरे प्लेटफार्म पर फैल गई, एक पल को बेबस मुस्कान उनके होठों को छूकर विलुप्त हो गई। बैठे हुए लोग खडे हो गए, अपना सामान उठाने लगे। कुली और ठेलेवाले इधर-उधर भागने लगे।

सारे प्रोफेसर्स तितर-बितर हो गए और अपने-अपने हाथ में एक-एक सामान उठा लिया। मैं ने जल्दी से निकट रखा एक एयर बैग उठाने की कोशिश की तो उन्होंने बरज दिया।

” नहीं, नहीं तुम रहने दो। ” हमारे हाथ एक साथ झुके, एक साथ रुके अब हमने एक दूसरे की तरफ देखा पहली बार, हाँ पहली बार मैं ने उनकी आँखों में वह काँपती बेचैनी देखी। वह पुकार, जो उस घडी अनजाने उनके अन्दर से उठ थी, मुझे चारों तरफ से घेरती मुझमें कहीं खो रही थी।

उन्होंने अपना हाथ आगे बढा दिया-कांपता हुआ हाथ, जिसने मुझे कभी कुछ नहीं कहा, कोई आश्वासन तक नहीं दिया कभी, और आज मेरे अन्दर सब कुछ शून्य हो गया। सारा शोर, सारी भीड मेरी आँखों से ओझल हो गए सिर्फ बढा हुआ हाथ और वे उन आँखों में वह छलछलाती बेचैनी, जो उस दोपहर की धूप में साफ-बेलौस चमक रही थी। बेसाख्ता मेरा हाथ बढा और उनके हाथ में समा गया।

गले में नीचे दबे सैलाब एक जोर का धक्का पडा मैं लडख़डाई , मेरी आँखे फिर डबडबा आईं। मैं सख्ती से अपने होंठ भींचे उनके वजूद को पीती रही अनंत जन्मों की प्यासी मैं उस एक पल के समंदर में आकंठ डूब जाना चाहती हूँ। सिर्फ एक कदम आगे रखूंगी और खो जाऊंगी उनमें। फिर क्या किसी से भी ढूँढी जा सकूँगी? मैं ने उनका हाथ कस कर पकड लिया उन्होंने मेरा हाथ हल्के से दबाया फिर मेरी डबडबा आईं आँखों और काँपती देह को देखा, फिर धीरे से होंठ फडफ़डाए-

” लेट इट बी सो लेट इट बी सो इन यू आय एम। ”

एक जोर की लहर आई और मुझे अपने साथ बहा कर ले गई।
उन्होंने मेरा हाथ छोड दिया और झुक कर सामान उठाने लगे।

” लेट इट बी सो ” इसे ऐसा ही होने दो।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

आज का शब्द

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.