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दो जुगलबंदीकार संगीतज्ञों की डायरी

असित-अमित युवा संगीत कार हैं। असित सितार बजाते हैं और अमित सरोद। प्रख्यात संगीताचार्य सितारवादक पं. जशकरण जी के सुपुत्र ये दोनों जुड़वां भाई शायरी का बहुत शौक रखते हैं। अमित तो शायरी भी करते हैं। कई सम्मानित पुरस्कारों से सम्मानित ये दोनों युवा संगीतज्ञ कोरोना-समय की लॉकडाउन डायरी का एक-एक पृष्ठ हिंदीनेस्ट के पाठकों से साझा कर रहे हैं।

ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जाएँगे क्या?

--अमित गोस्वामी

इक अजब ख़ौफ़ से फिर घर की तरफ़ लौट आया

घर से जब शहर में तन्हाई के डर से निकला

एक अजीब सी कशमश है. घर में पड़े पडे बाहर निकलने का सोचता हूँ
, तो इस ख़ौफ़नाक वबा के डर से सिहर उठता हूँ. ऐसी बेचारगी पहली बार नज़र आरही है. ये क़ैफ़ियत सिर्फ़ ही नहीं है, यक़ीनन आप सब की होगी. गोया

हम हुए तुम हुए कि मीर हुए,

उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए

असीरी यानी क़ैद, कितनी अज़ीयतनाक होती है, ये इन दिनों पता चल रहा है. ऐसे मोड़ पर आकर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमने हमारी धरती, हमारी प्रकृति हमारे पर्यावरण से खिलवाड़ करके ख़ुद अपने लिए, इंसान की ज़ात के लिए कैसे ख़ौफ़नाक सूरत−ए−हाल पैदा कर लिए हैं. 

हम बीकानेर वालों को ये ज़ौम था, कि हमने आज तक कभी कर्फ़्यू नहीं देखा. अब जनता कर्फ़्यू के बहाने ही सही, हम इस अज़ाब से भी दो चार हो ही गए. 22 मार्च का दिन जैसे तैसे गुज़रा ही था कि एक और फ़रमान आ गया..

इक सज़ा और असीरों को सुना दी जाए

यानी अब जुर्म−ए−असीरी की सज़ा दी जाए

ज़िन्दगी मानो थम सी गई है.. घर से बाहर गली, गली के नुक्कड़ पर पेड़, पेड़ की छाँव सब मानो अजनबी हो गए हैं. धूप भी छत की सीढ़ियाँ उतरती है तो चेहरा यूँ देखती है कि हाँ.. कहीं देखा तो है..

ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं

हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं

14 अप्रेल तक हम सब को अपने घर में ही रहना है. अपने ही घर में क़ैद. लेकिन ये असीरी अपने साथ एक एहसास−ए−ज़िम्मेदारी भी लेकर आई है. ज़िम्मेदार शहरी होने के नाते ये हमारा फ़र्ज़ है कि हम इस गिरानी−ए−वक्त़ से घबराएँ नहीं. केन्द्र और राज्य सरकारों की तरफ़ से जो हिदायतें आयद की गई हैं, उन पर सख़्ती से अमल करें. जो मुफ़लिस−ओ−नाचार लोग ज़रूरत मंद हैं उनकी जितनी हो सके मदद करें.

इस मुश्किल वक़्त में और दूसरी दुशवारियाँ तो एक तरफ़ हैं, सबसे बड़ा मसअला ये है कि ये लम्बा वक़्फ़ा जो हमें घर में अपने अपने क़ैदख़ानों में गुज़ारना है, वो वक़्त कैसे गुज़ारें. निर्मल वर्मा एक जगह लिखते हैं कि कल रात सोच रहा था कि ये कठिन वक्त, यह सफ़रिंग, जो हमारे हिस्से आई है, उसका अगर हम कुछ बना नहीं पाते हैं, तो उसका आना बिल्कुल व्यर्थ कहा जाएगा−शीयर वेस्ट

हम बीकानेरियों के लिए घर के अंदर बँधे रहना यूँ ही मुश्किल है. बीकानेर में पैदा होने और यहीं पले बढ़े और रचे बसे होने के नाते मेरे लिए भी यह बहुत मुश्किल है. पर जो  शख़्स किसी सियाह ज़ुल्फ़ में बँधा हो, वो ज़ंजीर से क्या भागेगा? और जो किसी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो, किसी क़ैदख़ाने से क्या भागेगा? ग़ालिब ने भी यही तो कहा है

ख़ानाज़ाद−ए−ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों?

हैं गिरफ़्तार−ए−वफ़ा ज़िन्दाँ से घबराएँगे क्या?

      और यूँ भी क़ैद तो जिस्म पर होती है, जज़्बात और अहसासात कहाँ किसी क़ैद में बँध कर रहते हैं?

गर किया नासेह ने हमको क़ैद अच्छा यो सही

यू जुनून−ए−इश्क़ के अंदाज़ छुट जाएँगे क्या?

जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं ये ख़ाली वक़्त कैसे गुज़ार रहा हूँ? रेलवे महकमे ने भी प्रधान मंत्री के इस लॉक डाउन की हिदायत पर सख़्ती से अमल किया है और ज्यादा से ज्यादा मुलाज़िमों को घर से की काम करना है. इस नाते दफ़्तर का काम घर से ही निपटा लेता हूँ. पर उसके बाद भी चूँकि कहीं और आना जाना नहीं है, तो वक़्त ही वक़्त है.

किताबें
, और मौसीक़ी.. ये दो ही काम रह गए हैं. तकनीक और गैजेट्स की बदौलत सारी दुनिया का अदब और मौसीक़ी आपकी दस्तरस में है. जब चाहे जो पढ़ो, जब चाहे जो सुनो. तो इन दिनों खूब पढ रहा हूँ, और खूब सुन रहा हूँ. और हाँ.. कभी कभी कुछ लिखना भी हो जाता है. इतने बरसों से पढ़ने लिखने का जो तज़ुर्बा है, उसकी बिनाह पर इतना कह सकता हूँ, कि काग़ज़, क़लम और किताब को दिया गया वक़्त कभी ज़ाया नहीं होता. तो  अपने क़फ़स में बिताए गए इस ख़ाली वक़्त का इस्तेमाल करें और अपने तईं एक नई तर्ज़−ए−बयाँ ईजाद करें−

हमने जो तर्ज़−ए−फ़ुग़ाँ की थी क़फ़स में ईजाद

फ़ैज़गुलशन में वही सबकी ज़बाँ ठहरी है

 

-अमित गोस्वामी

कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

डॉ० असित गोस्वामी

 

- In the dark times, will there also be singing? Yes, there will be singing, about the dark times - Bertold Brecht.

ये फ़ुरसत के दिन है, हालाँकि दुर्दिन है । हम सब डरे सहमे आशंकित अपने अपने घरों में क़ैद बैठे है. समय ठहर गया-सा जान पड़ता है. न हम कलेंडर देख रहे हैं, न घड़ी. दिन और रात के होने का कोई विशेष फ़र्क़ हमें नहीं पड रहा है. ग़ालिब कह ही गए हैं फ़रदा-ओ-दी का तफ़रिक़ा यक बार मिट गयायानी  बीते कल और आनेवाले कल का अंतर ही मानो मिट गया हो.  लेकिन हालत ऐसे हैं कि इस वक़्त इस क़ैद में ही हम सबसे ज़्यादा सुरक्षित भी हैं.  ग़ालिब का ही एक शेर याद आता है-

ने तीर कमाँ में है न सैयाद कमीं में

गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है

यानी न तो कोई तीर कमान में है, न कोई शिकारी घात में है, पिंजरे के इस कोने में ही मुझे बहुत आराम है।

Quarantine शब्द का असल अर्थ 40 दिन तक isolation या एकांतवास है। दोनों लॉक डाउन की कुल अवधि भी 40 दिन रही है - पहला 21 दिन एवं दूसरा 19 दिन। संगीत में भी इस प्रकार 40 दिन की एकांतवास की अवधि का  बहुत महत्त्व है. एक ही अभ्यास को लगातार एकांत में  40 दिन तक किये जाने की यह कठिन प्रक्रिया  चिल्ला या चिल्ला-कशी कहलाती है। इस दृष्टि से हम संगीत जगत से जुड़े लोगों के लिए तो यह लॉक डाउन एक तरह से मुफ़ीद ही साबित होगा.

यह क़ैद जहाँ एक ओर हमारी रोज़मर्रा की गतिविधियों को बाधित कर रही है, वहीं दूसरी ओर हमारे लिए बहुत सी संभावनाएँ और अवकाश भी पैदा कर रही है। हम पहले से अधिक समय अपने परिवार के साथ बिता रहे हैं. छोटे से छोटे काम के लिए हमारी घरेलू नौकर-चाकर पर निर्भरता पर अंकुश लगा है. हम बहुत आवश्यक होने पर ही बाज़ार से ख़रीददारी करने जाते हैं. हम विलासिता को त्याग कर आवश्यकता आधरित जीवन शैली को अपनाने की ओर उन्मुख हो रहे हैं. इन दिनों हम मोटर-गाड़ियों का शोर कम और चिड़ियों का चहकना अधिक सुन रहे हैं. हम पहले से अधिक खुली और स्वच्छ हवा में साँस ले रहे हैं. शाम का पहला सितारा हमें  अपनी छत से पहले से अधिक साफ़ दिखाई देता है.  किसी भी तरह की हड़बड़ी, चकाचौंध और आपाधापी से हम बचे हुए हैं.  इसके साथ-साथ हमारे पास बहुतायत में ख़ाली समय की उपलब्धता है. इस ख़ाली समय का सदुपयोग हम मनोरंजन, ज्ञानवर्धन एवं अन्य रचनात्मक काम में कर सकते हैं.

यह समय है थोड़ा ठहरकर अब तक के किये धरे का जायज़ा लेने का, वह करने का, जो रोज़मर्रा की भागदौड़ में अब तक नहीं कर पाए. हम भले ही अपने-अपने सीमित दायरे में क़ैद हैं, परन्तु इन्टरनेट की सहज सुलभता की वजह से हर तरह का संगीत, सिनेमा, पुस्तकें हमें अपनी हथेली पर उपलब्ध हैं. हम अपनी रूचि के अनुसार अपने ख़ाली समय का उपयोग कर सकते हैं.  बहुत से मित्र इस समय कविताएँ रच रहे हैं गीत गा रहे हैं. बच्चन जी के कविता संग्रह एकांत संगीतके एक कविता की पंक्तियाँ हैं-

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

जब रजनी के सूने क्षण में,

तन-मन के एकाकीपन में

कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,

विश्व की बहुत सी महानतम लेखकीय कृतियां क़ैद के दौरान लिखी गई है ।  अडोल्फ हिटलर की आत्म कथा माइन केम्फ”,  जवाहर लाल नेहरू की   कालजयी कृतियाँ 'ग्लिम्पसेज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' और 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया',   फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की 'ज़िन्दांनामा' और 'नक़्श-के-फ़रियादी' मार्टिन लूथर किंग की लेटर्स फ्रॉम बर्मिंघम जेल नेल्सन मंडेला की कन्वर्सेशन विथ माइसेल्फ पाइपर केरमेन की ऑरेंज इज द न्यू ब्लैक”  जैसी महान कृतियाँ क़ैद में ही रची गईं थीं. 

"ग्लिम्पसेज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री"   की भूमिका में नेहरू लिखते हैं- "Prison life has its advantages.  it brings both pleasure and a measure of detachment."  क़ैद के अपने लाभ हैं। यह हमें आवश्यकताओं के प्रति निर्लिप्तता  के तरीके   और आनंद भी देती है। हम सबने यह महसूस किया होगा कि इन दिनों हम सब कम से कम आवश्यकताओं के साथ जीना सीख रहे हैं।

यह एकांत हमें सोचने-विचारने का अवसर प्रदान कर रहा है. हम अपनी कल्पनाशीलता से अपने एकांत को अपनी मनचाही दुनिया में बदल सकते हैं. एक बार फिर मेरे प्रिय शायर और मेरे द्वारा बहुधा उद्धृत ग़ालिब याद आते हैं. वे कहते हैं-

है आदमी ब जा-ए-ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल

हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यों न हो

अर्थात आदमी खुद एक कल्पनाओं का हुजूम है इसी कारण  हम एकांत को भी एक महफ़िल ही समझते हैं.

हम सब उस आने वाले सुखद पल की ओर नज़र जमाए हुए हैं जब सब कुछ सामान्य हो जाएगा और ज़िन्दगी फ़िर से अपनी उसी रफ़्तार से चलने लगेगी। फ़िराक़ गोरखपुरी लिखते हैं -

इन क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा

कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़  की बातें करो

यह सच है की समय कठिन है पर यह डर के बरअक्स साहस, निराशा के बरअक्स आशा, आशंका के बरअक्स आस्था और विश्वास को बनाए रखने का समय है. और, संगीत, कलाएं और साहित्य इस साहस, आस्था, और आशा को बनाए रखने में हमारी मदद  करते हैं. बक़ौल  फ़ैज़-

लेकिन अब ज़ुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं

इक जरा सब्र के फ़रियाद के दिन थोड़े हैं

चंद रोज़ और मेरी जान, फक़त चंद ही रोज़

-डॉ असित गोस्वामी

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