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गुवाहाटी प्रवास : एक डायरी अंश नंद भारद्वाज जी के कवि और आलोचक स्वरूप से हम सभी परिचित हैं। वे दूरदर्शन में डायरेक्टर पद से सेवानिवृत्त हुए हैं इसके चलते उनके हिस्से में भी अलग-अलग किस्म के प्रवास आए हैं। यहाँ उनके गुवाहाटी प्रवास का डायरी अंश गुवाहाटी, 21 अक्टूबर, 1998 अब तक जिस तरह के वातावरण में रहने का अभ्यस्त रहा हूं, देश के उत्त्र-पूर्व का यह शहर (गुवाहाटी) उससे काफी अलग तरह का है। जिसका प्राचीन नाम ही प्राग्ज्योतिषपुर रहा हो, उसके साथ प्रागैतिहास काल का स्मरण हो आना स्वाभाविक भी है। शायद इस ओर का रुख करते हुए अवचेतन में कहीं यह संदर्भ अटका रहा भी हो और इस अनुभव में उस स्मृति का समावेश अनायास ही जुड़ गया हो। वैसे भी मैं वर्तमान के किसी काल-खण्ड को उसके अतीत से अलग करके कम ही देखता हूं। वह बात दूसरी है कि व्यवहार में अधिक ध्यान उसके वर्तमान पर ही केन्द्रित रहता है। यों तो यह हिन्दुस्तान के आम शहरों जैसा ही एक शहर है - वही बनी-अधबनी सड़कें, बदहाल संकड़े रास्ते और वही बाजार - रोजमर्रा की चीजों से अंटे हुए। वही रिक्शा-तांगा-ऑटो-धकेल और चमचमाती बंद गाडि़यों के बीच फंसे ग्राहक और बिसाती। आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं से भरे बड़े शो-रूम और बहुमंजिला इमारतों की भी यों कमी नहीं है, लेकिन इसी बाजार या नयी बस्तियों के बीच असमिया शैली के एक मंजिला पारम्परिक घरों और टीन-टप्पर की छोटी-छोटी दुकानों की मौजूदगी कुछ अलग तरह का ही दृश्य उपस्थित करती हैं। मध्यम दर्जे की पहाडि़यों और घने दरख्तों के आगोश में बसी हुई बोसीदा-सी बस्तियां, हर समय गौधूलि बेला का सा वातावरण, वही बेमेल घरों की बेतरतीब बसावट, तंग गलियां और अपनी रोजी-रोटी के लिए हाथ-पांव मारते सीधे-सादे लोग। लेकिन जो बात अलग है, वह यहां इन्हीं के बीच रहने और लोगों के निकट संपर्क में आने के बाद धीरे-धीरे स्पष्ट होती है। पहला फर्क उभर कर तब सामने आता है जब आप यहां के आम निवासी से संवाद कायम करने की कोशिश करते हैं। वे हिन्दी समझते हैं, लेकिन सहज ढंग से उसमें अपने को व्यक्त नहीं कर पाते। अंग्रेजी उनके लिए उतनी ही असहज और अटपटी है, जितनी कि किसी गैर-अंग्रेजी आदमी के लिए हो सकती है। दफ्तरों में, या कहिये, थोड़े पढ़े-लिखे दीखने वाले लोगों में अंग्रेजी बोलने का चाव देखने को मिल सकता है, लेकिन थोड़ी ही देर में उस चाव की सीमाएं भी दिखाई देने लगती हैं। अंग्रेजी से कोई खास लगाव हो, ऐसा भी नहीं है, लेकिन हिन्दी प्रदेश से आए व्यक्ति से वे हिन्दी जानते हुए भी अंगे्रजी में बतियाने को वरीयता देते हैं और इस मनोविज्ञान को समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन इस आवरण के चलते संवाद का वह सहज रिश्ता नहीं बन पाता, जहां देश के सुदूर हिस्से से आया हुआ आदमी अपनापन और आत्मीयता अनुभव कर सके, जिसकी वह एक हमवतन के नाते अपेक्षा करता है। जो लोग व्यावसायिक जरूरत से मिलते हैं, उनके बोल-बरताव और दिखाई देने वाले सद्भाव का अपना अलग अर्थ होता है। वह सम्मान, सद्भाव, रुझान या मित-व्यवहार प्रकारान्तर से उसी व्यावसायिक पर्यावरण का हिस्सा होकर सामने आता है। उसमें कुछ लोग संयोग से ऐसे भी निकल आ सकते हैं, जिनसे मिलना और एक तरह का औपचारिक रिश्ता बन जाना और निभ जाना आपको अच्छा लग सकता है। अपनी अभिरुचि और स्वभाव से मेल खाते ऐसे लोग भी संयोग से इन जगहों पर निकल आते हैं, जिनके साथ पहले से कोई संबंध-संपर्क न होते हुए भी उनसे मिलते हुए ऐसा लगता है जैसे उनसे पहले भी इसी भाव से मिलते रहे हों। यह संबंध जिस अनायास ढंग से विकसित होता है, उसे प्रयत्न करके घटाना या बढ़ाना शायद ठीक भी नहीं होता। गुवाहाटी में इस पौने दो साल की छोटी-सी अवधि के दौरान ऐसे जो भी रिश्ते बने उनसे इस सुदूर हलके में आने का अजनबीपन और अपरिचय कुछ कम तो अवश्य हुआ, लेकिन अपनेपन का जो आत्मीय रिश्ता देश के अन्य नगरों में अपने कार्यक्षेत्र और अभिरुचि से जुड़े लोगों के बीच स्वाभाविक ढंग से बन जाता है, वैसा यहां भी संभव हो सके तो निश्चय ही यह आपके लिए एक उपलब्धि होगी। यहां के वातावरण में जो बात सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करती है, वह है यहां के लोगों का अपनी ही धुन में डूबे रहना। देश-दुनिया में कहां-क्या हो रहा है, उससे जैसे कुछ भी सरोकार न हो। और इसी बेगानेपन को किसी उल्टी दिशा में खींच ले जाने के प्रयत्न में कुछ ऐसे संगठन भी आ जुटे हैं, जो दुहाई तो उन्हीं की मुक्ति और कल्याण की देते हैं, लेकिन असलियत में उन्हें इनकी मुक्ति या कल्याण से लेश मात्र भी सरोकार नहीं होता - उन्हें किसी भी देश या मनुष्यता से कोई सरोकार नहीं होता। उनकी अराजक गतिविधियों से समूचे पूर्वांचल में कानून और व्यवस्था की कुछ ऐसी दिक्कतें पैदा हो गई हैं, जिनके कारण इस परिक्षेत्र की सारी प्राथमिकताएं पलट गई हैं। जिस तरह का असुरक्षा-भाव राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोचने वाले लोगों के मन में पैठ रहा है - जो चुनौतियां यहां के बुद्धिजीवियों को मिल रही हैं, वह वाकई चिन्ताजनक है। उत्तर-पूर्व को प्रकृति ने जो नैसर्गिक सौन्दर्य और अखूट प्राकृतिक संपदा प्रदान की है - जिसके पास ब्रह्मपुत्र जैसी विशाल नदी हो, जिसके गर्भ में प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल की अमूल्य निधि हो, जिसके पास देश के चाय उत्पादन की पचास प्रतिशत से भी अधिक की सामर्थ्य मौजूद हो, जहां काजीरंगा जैसा विशाल अभयारण्य उपलब्ध हो, जहां शिलांग, चेरापूंजी, तवांग जैसे अनगिनत प्राकृतिक सुषमा वाले पर्वतीय क्षेत्र स्थित हों, वहां प्रगति और पर्यटन की सारी संभावनाएं मौजूद रहते हुए भी यदि कोई सार्थक प्रक्रिया शुरू न हो सके तो यह वाकई बड़ी विडम्बना की बात है। आज विश्व के और देशों की तरह हिन्दुस्तान में भी पर्यटन विकास की नई संभावनाएं बन रही हैं, जहां राजस्थान जैसा पिछड़ा हुआ प्रदेश आज पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण साबित हो रहा है, ऐसे पूर्वाचल जैसा प्राकृतिक सम्पदा से सम्पन्न प्रदेश इस प्रक्रिया में शामिल ही न हो पाए तो दुर्भाग्य के अलावा क्या कहा जाए। पर्यटन की दृष्टि से गुवाहाटी निश्चय ही देश के मानचित्र में अपना अलग स्थान रखता है। इसे पूर्वांचल का मुख्य द्वार कहा जाता है, लेकिन उस दृष्टि से जो बुनियादी सुविधाएं और माहौल यहां विकसित होना चाहिए, वह अगर नहीं हो पा रहा है, तो उन कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए। यह भी देखा गया है कि जो लोग पूर्वांचल के आकर्षण में गुवाहाटी तक आ पहुंचते हैं, वे शिलांग और काजीरंगा से आगे जाने का मानस नहीं बना पाते, बल्कि इन स्थानों पर भी मुक्त मन से विचरण करने में प्रायः संकोच ही महसूस करते हैं, जहां जाना और पर्यटन करना उन्हें स्पंदित कर सकता है। अपने ही देश के लोगों के बीच इस तरह का असुरक्षा भाव और अवि’वास वाकई दुखद है। इसके राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हो सकते हैं, लेकिन उन्हें ठीक तरह से समझने और लोगों के बीच वि’वास और समझदारी का रिश्ता कायम करने के सार्थक प्रयास नहीं हो पा रहे हैं, तो नि’चय ही यह एक विचारणीय प्रशन है। अजीब बात यह भी है कि उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में निवास करने वाले आदिवासी समूहों के बीच भी बेहतर रिश्ते नहीं हैं। ब्रिटिश शासन में जिस तरह आदिवासी समूहों को एक दूसरे से अलग रखने के पीछे एक सोची समझी चाल रही है, ऊपरी असम और निचले असम के लोगों को अलग रखने में उनका जो स्वार्थ रहा है, आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी अगर हालात वैसे ही बने रहें तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना है। इन समूहों के आज भी पुराने जातिवादी संघर्ष जारी हैं। उत्तर-पूर्व को बाकी हिन्दुस्तान से अलग समझने वाले लोगों में इस बात को लेकर कोई एका या आपसी समझदारी नहीं है कि वे समूचे उत्तर-पूर्व को एक राजनीतिक इकाई के रूप में देख-समझ सकें। यों ऐसे अलगाववादी लोगों को उकसाने में पड़ौसी देशों के आपराधिक तत्वों और वहां की राजनैतिक कारगुजारियों का भी गहरा दखल रहता है, इसके बावजूद यह अजीब बात है कि लोग ऐसी गतिविधियों का न खुलकर विरोध कर पाते हैं और न उनसे अपने आप को बचाने का कोई उपाय ही। राज्य सरकारें और केन्द्र की मशीनरी इन गतिविधियों को नियंत्रित कर पाने में अक्सर असमर्थ या अपर्याप्त साबित होती हैं। कोई राजनैतिक इच्छा-शक्ति भी नहीं दिखाई देती - एक खास तरह की कामचलाऊ मानसिकता हर तरफ व्याप्त दिखाई देती है। राजकीय विभागों और उपक्रमों में काम करने वाले लोगों की प्रकृति और कार्य-संस्कृति इतनी खराब हालत में पहुंच गई है कि उसे फिर से पटरी पर ले आना आसान काम नहीं है। साधनों और सुविधाओं का दुरुपयोग आम चलन-सा हो गया है। कार्य के प्रति निष्ठा और ईमानदारी अब शाब्दिक विलास होकर रह गई है। एक राष्ट्रीय इकाई के रूप में जहां भौगोलिक, एतिहासिक, सामाजिक और सभ्यता-संस्कृति से जुड़े अनेक पक्षों में गहरी एकता और साम्य दिखाई देता है, वहीं इसी सभ्यता-संस्कृति और जीवन-शैली के अनेक पक्ष हैं, जो इस क्षेत्र के लोकजीवन को अलग और विशिष्ट भी बनाते हैं। अलग लगने वाली अन्य बातों में खान-पान, वेषभूषा और कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी बुनियादी विशेषताओं में साम्य के बावजूद कुछ ऐसी बातें हैं, जिनका अलग होना स्वाभाविक है और वह वैशिष्ट्य आकर्षण भी पैदा करता है। यहां का साहित्य, संगीत और कलाएं मेरे लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रही हैं और इसे मैं अपनी खुशकिस्मती ही मानता हूं कि यहां रहते हुए इस क्षेत्र के लोकजीवन संस्कृति को नजदीक से देख-समझ और जान सका। मुझे आज भी वे आत्मीय जन याद आते हैं, जिन्होंने मेरे इस प्रवास को एक सुखद अनुभव में बनाने में मेरी हर तरह से मदद की। -नंद भारद्वाज |
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