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स्वयं के विरुद्ध राजाराम भादू
स्वयंकेविरुद्ध/१ अपनी कल्पना के नायक सर्जक को वह अपने वास्तविक जीवन में उतार लाना चाहता है। वह अपनी जीवन यात्रा का ऐसा नायक है जो शब्दों की दुनिया से यथार्थ के संसार में सशरीर उतर आया है। वह उन लोगों की तरह तसवीर के फ्रेम में शीशे के पीछे कैद आत्म- छवि में मुग्ध नायक सर्जक नहीं है बल्कि तसवीर का फ्रेम तोडकर बाहर निकल आया एक फटेहाल ' प्रतिनायक' है। वह अपना काल्पनिक जीवन वास्तविकता में और उसकी परिपूर्णता में जीना चाहता है, हालांकि इससे उसकी वास्तविक जिन्दगी की मुश्किलें और बढ जाती हैं। अवसाद शब्द आधे-अधूरे हैं और पीडा है अनन्त- अतल। भाषा की चादर में कहां तक फैलाऊं पांव। जितने रंग हैं उनमें यह रंग इस्तेमाल नहीं होता। कौन - सा रंग है स्वप्नों के ध्वस्त हो जाने का। दर्द का दरिया फूट पडा है आत्मा की सूखी कठोर चट्टानों से। ये किस सुर में झर रहा है जिसमें सारे आंसू सूख गये हैं। ये लहू के थक्के रिस रहे हैं- आत्मा के आर्द- संतप्त संगीत में। स्वयंकेविरुद्ध/२ मृत मां के लिए शोक- गीत मां, ओ मृत मां...! इस नीरव रात्रि में मौन मैं तुम्हें याद करता हूं। इस वक्त मैं तुम्हें आवाज नहीं दे रहा, शोर के डर से, मगर देना चाहता हूं। मां, मैं मन ही मन तुम्हारी लोरी गुनगुना रहा हूं। दुहरा रहा हूं कहीं दूर से सुनायी देती हर पंक्ति। मां , तुम बहुत पास बैठी मुझे थपकियां दे रही हो। तुम जाना नहीं मेरा गला भर आया है। मां, तुमने आज कुछ नहीं खाया पिता से झगडा करके तुम मानिनी, मुझे पता है तुम आज भी नहीं खाओगी। तुम मानिनी पी जाती हो सारा दुख। सह लेती हो तनाव- अभाव- उपेक्षा सब। तुम मर क्यों नहीं जातीं मां? तुम सच में मर गयी हो। और देखो, यहां कैसी घास और जंगली पौधे उगे हैं।
स्वयंकेविरुद्ध/३ हाथ नहीं आती छायाएं
अस्तित्व का ठोस प्रमाण है छाया, खुद को छूती और खुद से दूर । अपने सदैव नजदीक और नितान्त असम्पृक्त। अंधेरे में साथ छोड देती है छाया। तब हमें खुद ही अपने अस्तित्व की गवाही देनी होती है। जितनी रोशनी गिरती है तिरछे कोण से छाया उतनी ही होती है लंबाकार। जब प्रकाश सीधे सिर पर पडता है- छाया खुद हम में समा जाती है । छायाएं- जो हमारे साथ जन्मी हैं और जो हमारे अदृश्य होने के साथ अदृश्य हो जाती हैं। कहते हैं कि हम स्वयं अदृश्य छायाओं में बदल जाते हैं। हमारे पास रहकर भी हमसे कितनी दूर हैं वे। छायाएं कभी नहीं करतीं संवाद। हाथ नहीं आती छायाएं । मैं अपनी छाया से मुक्त होना चाहता हूं तो यह छा जाती है मुझ पर एक प्रेत- छाया बनकर। स्वयंकेविरुद्ध/४ प्रलाप तंत्र है बहुत ताकतवर, कैसे छोडूं मैं मृत्यु के चिन्ह, अपनी हत्या के कोई निशान। इस सदी के मुहाने पर बहुत कठिन है विद्रोह को क्रिया में घटित करना या सिर्फ मुखरित करना अथवा कविता में भी कह पाना। कविता में कह पाना? यह होगा महज एक प्रलाप, जिस पर आधे यकीन न करेंगे और बाकी आधे चाहकर समझेंगे नहीं। ऐसे समय में ऐसा होता है। जब हम मरते हैं बिना शिनाख्त के और इतिहास हमें चीन्ह नहीं पाता। कोई नहीं रोता हम पर क्योंकि रोने वालों को नहीं मिलती हमारी मौत की खबर। और जिन्हे यह पता होता है वे रो नहीं पाते। बहुत ताकतवर है यह तंत्र जो हंसने नहीं देता, रोने भी नहीं देता। आवाज को फूटने नहीं देता। हत्या करने पर भी नहीं देता हत्या का अता-पता । विरोध को बेमानी कर देता है और आवाज रह जाती है आर्तनाद। कविता कह नहीं पाती कोई कथ्य। शब्दों का यकीन नहीं करता कोई , स्वर रह जाते हैं प्रलाप । तो क्या हो गयी है सब चीजों की इतिश्री। हम रह जायें सिर्फ बदहवास जबकि अभी - अभी किसी की हत्या हुई है देखो कहीं। मैं कह सकता हूं हुई है हालांकि मेरे पास नहीं है कोई प्रमाण। लेकिन हुई जरूर है, आदमी की ही तो, अब आप मानो न मानो लेकिन यह ठीक नहीं हुआ।
स्वयंकेविरुद्ध/५ अपमानित होने के बाद वह भी और दिनों जैसा ही दिन था मगर खिंच गयी थी एक विभाजक रेखा अपमानित होने से पहले के दिन और उसके बाद के दिन के बीच, दिन हो गया श्वेत- श्याम। फिर जीवन पर पडी इसकी छाया। आत्म- विश्वास छोड गया साथ। सदा के लिए उत्कंठा मुरझा गया लू में लता की तरह। अपमान का अदृश्य बोझ लदा रहता है। पांव भारी उठते हैं। किसी से भी बात करने से पहले लगता है, इसे भी पता है- यह भी जानता है। अपमानित होने के बाद मैं वह मैं नहीं रहा जैसे मार खाने के बाद स्त्री। जीवन वैसा न रहा सहज प्रवाहमान। तो क्या अपमानित होने के बाद जीना जीवन का अपमान तो नहीं?
स्वयंकेविरुद्ध/६ भटकना पतन की गलियों में ऐसा नहीं है कि हमें पता नहीं होता कि हम कहां भटक रहे हैं। यह भी पता होता है, लोग हमें कैसे देख रहे हैं, हम पर कैसी फब्तियां कसी जा रही हैं। सब कुछ, सब पता होता है। लेकिन एक जिद होती है, एक नशा तारी होता है। सिर्फ नशा कहने से काम नहीं चलेगा मित्रो, एक जुनून, एक पागलपन होता है जो मदहोश किये रहता है दिन- रात। कहते हैं वे, देखो इस आदमी का क्या हुआ, किन गंदी नालियों में जा गिरा यह! आप परवाह नहीं करते और देखते हैं- कहां है गंदगी यहां। देखें, हमारा क्या बिगाड लेता है ये कथित दलदल। हां, कथित ही तो क्योंकि आपको तो यह सब न गर्हित लगता है न नर्क और न दलदल। और दूसरी दुनिया द्वारा चीजों की दी गयी परिभाषाएं आप नकार चुके होते हैं। पतन की गलियों का अपना आकर्षण है, अपना रूमान। आप एक नयी दुनिया खोज रहे होते हैं। आप नयी इबारत पढते हैं जीवन की। आप सिर्फ आप जानते हैं और कह सकते हैं- हे पिता, उन्हे हो सके तो माफ करना क्योंकि वे नहीं जानते कि असल में पतित कौन है। और चूंकि वे आपको नजरअंदाज नहीं कर सकते और आप उनकी आंखों में कांटे की तरह चुभ रहे होते हैं। ठीक उसी समय आप अपनी अब परिचित हो चुकी गलियों में रूसो, ज्यां जेने और भुवनेश्वर से मुलाकात के मंसूबे बांध रहे होते हैं।
स्वयंकेविरुद्ध/७ उत्खनन के लिए प्रतिश्रुत और तो कुछ बचा नहीं कहीं, मेरे जीवन में खोदो, वहां निकलेगा एक खण्डहर। खण्डहर जिसमें अब भी साबुत हैं समानान्तर सडकें, स्वच्छता की वाहक नालियां। एक खण्डहर है जो पर्याप्त संकेत देता है- मेरे स्वप्नों का,और सोच का। हालांकि आप शायद न मालूम कर सकें कि इसके शिखर कैसे ध्वस्त हुए। बहुत- सी सामग्री है जो बनायेगी मेरी संस्कृति का नक्शा- डायरी, आलेख और अधूरी कविताएं। लोगों की चिट्ठियों से पता चलेगा मेरे संबंधों का तंतु- जाल। कैसे मैं एक खण्डहर में बदल गया और मेरे पर छा गयीं समय की अनंत परतें, यह मुद्दा बहस- तलब ही रहेगा वर्षों। लेकिन मित्रो, मेरा उत्खनन तो करो। मुझे भरोसा है मैं ने एक काबिल सभ्यता जी- ध्वस्त हो दबने से पहले अनंत के। क्या मेरे आत्मघात की यह सफाई काफी नहीं है।
स्वयंकेविरुद्ध/८ जर्जर होती जाती है देह अब जर्जर होती जाती है मेरी देह। मेरी पत्नी ओर बच्चा इससे अपना हिसाब मांगते हैं। जो हुआ सो हुआ लेकिन जरा सोचो, आपने हम पर कितना खर्च किया। मैं कहां जाऊं हिसाब मांगने? जर्जरता तो बिना बुलाये आ गयी सहसा और मेरी देह को घुन की तरह खोखला करने लगी। कहां खर्चे मैं ने अपनी देह के मूल्यवान तत्व? इसका रक्त, मांस- मज्जा और मेधा। मुझे पता ही नहीं चला। आखिर समय आ ही गया मेरे वजूद के अवसान का। कोई हिसाब- किताब करने की आदत कहां थी। सब खुला खाता था। सब कुछ सार्वजनिक रहा सदैव। क्या विलय होना ही है मुक्ति?
स्वयंकेविरुद्ध/९ सब कुछ के बावजूद जो लडकी तुम्हे प्यार नहीं करती, वह खडी थी दरवाजे पर- शबीह की तरह। उसने कहा- जिसे तुम आन्दोलन कहते हो, वहां अंधेरे में कोहराम मचाती भीड है। तुमने गली में ठिठके- सहमे बच्चों को रास्ता पार कराया, जो झगडते कुत्तों से भयाक्रांत थे। अब तुम जहां हो खुद को एक मामूली आदमी महसूस नहीं करोगे जैसा गगनचुम्बी इमारतों के नीचे खडे होने पर करते हो। महानगर से दूर यहां नंगी चट्टानें हैं। बीमार सूरज छुपा है कोहरे में। पीला उदास आलोक फैला है चारों तरफ। वहां झरने से धुआं उठ रहा है। तुम चीखते हो। चीख- जो बेबसी और विद्रोह की चरम- अवस्था है। सब कुछ के बाबजूद देर तक सूने खण्डहरों के बीच थरथराती रहती है इसकी अनुगूंज - बहुत देर तक।
स्वयंकेविरुद्ध/१० धुआं यह धुआं है। धुएं से कुछ भी नजर नहीं आता। मेरे इर्द- गिर्द फैला धुआं - अगरचे मैं आंच हूं आंच। तुम आंखें मलती मुझे ढूंढती बढ रही हो। तुम्हें आशंका थी, मैं एक दिन धुएं के बीच खो जाऊंगा। मैं तमाम कूडा - करकट- कबाड इकट्ठा कर रहा धा अपने गिर्द। बहुत दिनों से। तुम्हे पता था किसी दिन मुझे सनक चढेगी और इस कूडे के ढेर को एक तीली दिखा दूंगा। तुम बेतहासा आगे बढती हो - अभी मुझे छू लोगी जैसे। मुझे टटोलने का उपक्रम करती। मैं तुम्हे पाना चाहता हूं अपने आलिंगन में। आखिरी बार। ओह! कितनी देर हो चुकी। अंत कैसे आ जाता है एकाएक।
स्वयंके विरुद्ध/११ जाओ बसंत, मेरे जीवन से जाओ। मनुष्य के जीवन में नहीं लौटते तुम- एक बार जाने के बाद। जैसे पतझर में झरे पत्ते हो जाते हैं अदृश्य। प्रकृति है बहुत समृद्ध- जहां लौटता है पतझर के बाद बसंत- हर बरस। लेकिन मेरी जिंदगी से जाना बसंत का वापसी की यात्रा के ढलान की शुरुआत है। इस यात्रा से लौटता हूं मैं। देखे हुए, भोगे हुए बसंत की पोटली कंधे पर टांगे। दूसरों के उपवन में बसंत को छाते देखता। वहीं तो प्रतिबिंबित है मेरा अतीत। विदा बसंत विदा मेरे जीवन से। मैं अपने अलाव के लिए अपने झरे पत्ते समेटता हूं। -राजाराम भादू
राजाराम
भादू पत्रकार, कवि - लेखक - आलोचक हैं। प्रतिरोध का स्वर ही उनकी लेखनी का
मुख्य स्वर है। वे अपनी युवावस्था से ही मजदूर आंदोलनों से जुड़े हैं,
पत्रकार के तौर पर समकालीन जनसंघर्ष में काम किया और महनगर टाईम्स मुंबई
में सब-एडीटर रहे। जनचिंतन ही उनकी लेखनी से आज भी निसृत होता है। |
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