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एक समय की डायरी : प्रेमचंद गांधी काल-कलूटा बड़ा क्रूर है...
बड़े दिनों बाद चौड़े रास्ते की इस पटरी से गुज़रते हुए एक माह पहले का वह दृश्य आंखों के सामने फिर जीवित हो गया है-फुटपाथ के किनारे, साइकिल और स्कूटर-कारों के बीच के हिस्से में बैठा बूढ़ा। वह चबाता जा रहा है कंकर-पत्थर-कचरा... उम्र का अंदाज़ लगाना मुश्किल... आखि़र बुढ़ापे की भी कोई उम्र होती है... जब स्नायु-तंत्र और कोशिकाएं शरीर का साथ छोड़ने लगें तो बुढ़ापा आक्रमण कर ही देता है। बुढ़ापे की क़ैद में जकड़ा यह वृद्ध इतना अशक्त कि कमर दोहरी हो गई है। सफ़ेद कुर्ता-सफ़ेद धोती-काली टोपी-लंबीकमज़ोर टांगें-वैसे ही हाथ-चेहरा झुर्रियों से भरा-जैसे बुरी तरह मुसा हुआ कोई गंदा कपड़ा-रंग गेंहुए और सांवले के मिश्रण से युक्त-माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी-पसीने से फैली हुई-माथे को रंगती और नाक तक बह आयी बिंदी। जर्जर हाथों में एक में छड़ी-आंखें बुरी तरह भीतर धंसी हुईं, जैसे हालात ने ताक़ीद कर रखा हो कि बाहर न रहो। एक हाथ से यह बूढ़ा मिट्टी पर से कंकर-कचरा इकट्ठा करता जा रहा है और जैसे भूखा भोजन पर टूट पड़ता है-खाए जा रहा है कंकर-कचरा। पोपले मुंह में क्या तो चबाए जाएंगे कंकर और क्या खाया जाएगा कचरा... फिर भी वह खा रहा है-मुंह में फिरा रहा है और हर बीस-पचीस सैकंड के बाद कंकर और कचरा मुंह से थूक देता है ‘थूं’। लगता है यह कचरा या कंकर-पत्थर खा नहीं रहा-उनका स्वाद ले रहा है। लगातार। इस क्रूर दुनिया में क्या यह दृश्य ही बचा है देखने को। सामने की दुकान के मालिक से मैंने कहा, ‘अंकल, इसे कुछ खाना मंगवा दो न।‘ बोले, ‘भेजा है लड़के को।‘ मैंने भी अपनी जेब में बचे सात रुपयों में से पांच उस बुजुर्ग के नाम मालिक को दिए और आगे बढ़ गया। मेरी हिम्मत नहीं थी यह दृश्य और सहन करने की। अपना काम समाप्त होते ही मैं भाग लिया। यथार्थ कड़वा होता है, ख़ूब सुना-पढ़ा है-परंतु इतना कष्टकारक होता है, पहली बार देखा-जाना और भीतर तक हिल गया। वाल्मीकि ने सीता का धरती में समा जाने का प्रसंग ऐसे ही क्षणों में लिखा होगा... क्यों नहीं फट जाती यह ज़मीन... आसमान क्यों नहीं खा जाता... सच कहते हैं केदार बाबू, ‘काल-कलूटा बड़ा क्रूर है/उसका चाकू और क्रूर है।‘ इस महानगर में एक बूढ़ा व्यक्ति, जो कपड़ों से किसी संभ्रांत परिवार का सदस्य ही लगता है-बुजुर्ग-उसके लिए क्या रोटी भी नहीं है। यमराज क्यों नहीं उठा लेते इसे... किसी शौक़ से तो खा नहीं रहा-कंकर-कचरा यह बूढ़ा। फिर क्या कारण है... बुढ़ापे में बेटे-बेटी माता-पिता को दु:ख देते हैं-लेकिन ऐसा सताना भी किस काम का... एक बूढ़े को रोटी न दे सके वह परिवार-वह बेटा-बेटी क्या अपने बुढ़ापे के ऐसे दृश्य की कल्पना कर सकता है.... भीड़, पुलिस, दहशत और कर्फ्यू... 15 दिसंबर, 1997 पूरे पांच साल बाद यह पहला मौक़ा था जब अपने घर से कुछ क़दम की दूरी भी मुझमें दहशत पैदा कर गई। पिछली बार (दिसंबर, 1992) अपने घर को देखता हुआ भी मैं नहीं जा सका था सीधे रास्ते, क्योंकि पुलिस के मुताबिक दो फर्लांग की दूरी भी मेरे लिए ‘ख़तरनाक’ हो सकती थी। इस बार पुलिस ने रोका तो नहीं, लेकिन बीच सड़क पर पड़े असंख्य ईंट-पत्थर, बंद दुकानें, बंद घरों की खिड़कियों और छतों से झांकते लोग, दहशत भरे सन्नाटे में पुलिस के जवान और मेरे जैसे आते-जाते इक्का-दुक्का लोग… मुझे चार दिन पहले की उस सभा की याद ताज़ा करा गए जिसमें कब्रिस्तान को खाली कराने के लिए ‘जेहाद’ की घोषणाएं हो रही थीं। हज़ारों की भीड़ ठीक घर के सामने थी, उसमें से जैसे-तैसे रास्ता बनाकर यानी एक ख़तरा पार करते हुए मैं घर के भीतर पहुंचा। घर वालों के चेहरे पर एक अद्भुत शांति थी। बाहर भीड़ शांत, लेकिन उत्तेजित थी। भीड़ के नेताओं से पुलिस की वार्ताएं जारी थीं। घर में पता चला आंसू गैस का एक गोला घर के बाहर फूटा था थोड़ी ही देर पहले, पूरा घर पानी से आंखें धो-धोकर थक चुका था। मुझे महसूस हुआ, मेरी आंखों में भी जलन हो रही है। कपड़े बदल कर छत पर पहुंचा, पता चला काफ़ी हंगामा हो चुका है। कुछ थडि़यां और घर जला दिए गए हैं, कुछ दुकानें-घर तोड़े जा चुके हैं। जम कर पथराव-लाठी चार्ज और आंसू गैस का प्रयोग हो चुका है। भीड़ में से आधे जा चुके हैं और जो बचे हैं उनकी उम्र 13 से 25 के बीच है, नेताओं को छोड़कर। पुलिस और नेताओं के माइक पर बार-बार कहने के बावजूद भीड़ में से कुछ लोग पथराव द्वारा अपना सक्रिय विरोध गाहे-बगाहे प्रदर्शित कर रहे हैं। पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए कुछ लोगों के छोड़े जाने के बाद बड़ी मुश्किल से भीड़ लौट सकी। हमने राहत की सांस ली। सब नीचे आ गए। लेकिन झगड़े का अंदेशा तो अभी भी बना हुआ था। पुलिस जीपों और सायरनों की आवाज़ें अभी भी आ रही थीं। टीवी पर मैच आ रहा था-पाकिस्तान और इंग्लैंड का। सवा नौ के आसपास का वक़्त था। अचानक पटाखे चलने की आवाज़ें आने लगीं। मुझे लगा मैच से कोई संबंध बन रहा हो... लेकिन उधर तो पाकिस्तान के विकेट भी गिर रहे हैं तो फिर ये पटाखे... ख़तरा... मैं दहशतज़दा छत पर गया, लगा पड़ौस में कहीं गोलियां चल गई हैं। गोली की आवाज़ सुनने की हमारी आदत नहीं होने के कारण लगा कि पटाखे होंगे... भीड़ दूसरे रास्ते आगे बढ़ी होगी, जिसे रोकने के लिए पुलिस ने रबर की गोलियां चलाई होंगी। अब जल्द ही सब कुछ शांत हो जाएगा... लेकिन यह क्या... भीड़ तो हमारे घर के सामने तक भी बढ़ चुकी थी, निर्बाध गति से पथराव करती हुई। पुलिस पहले तो आगे बढ़ी लेकिन, भीड़ को रोकती हुई-सी और ख़ुद का बचाव करती हुई भी। माइक से पुलिस की घोषणा हुई, ‘यदि आप लोग शांत नहीं हुए तो हमें सख़्त से सख़्त कार्रवाई करनी पड़ेगी।‘ इतने में तो भीड़ और बढ़ गई, पथराव भी बढ़ गया। पत्थर घरों तक में आने लगे... मुख्य सड़क पर से पुलिस का एक दल आया और उसने भीड़ को खदेड़ने के लिए करीब सौ गज की दूरी से भीड़ पर रबर की गोलियां चलाईं। भीड़ पीछे भागने लगी और पुलिस उसे खदेड़ते हुए बहुत पीछे तक चली गई। पुलिस ने हम लोगों को छतों-खिड़कियों-दरवाज़ों से घोषणा मात्र से ही खदेड़ कर घरों के भीतर बंद कर दिया। अजीब दहशत छा गई वातावरण में। दस-पंद्रह मिनट बाद एक जीप घोषणा कर गई, ‘आपके इलाके में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगा दिया गया है।‘ आतंक और ठण्ड के मारे रजाई भी गर्मी नहीं पैदा कर पा रही थी। यह मेरा वहम था या दहशत, कह नहीं सकता... रात ढाई बजे जाकर सोने की स्थिति बनी, नींद तो उसके भी बहुत देर बाद आई। -प्रेमचंद गांधी - प्रेमचंद गांधी को आप सब जानते हैं अपनी कविता ‘तमहारिणी’ के ज़रिये। वे कवि-अनुवादक हैं, पैरेलल लिटरेचर फेस्टिवर जयपुर के संस्थापकों में से एक हैं, उनके जनसरोकार आक्रामक नहीं मगर बहुत गहरे हैं। वे एक बौद्धकालीन उपन्यास लिख रहे हैं, जिसका मुझे तो बेसब्र इंतज़ार है, क्योंकि उसे मैंने बीज से विशाल वृक्ष बनते देखा है। उसके लिए शोध की गहनता को जाना है कि प्रेमचंद पालि शब्द्कोश और व्याकरण तक से परिचित हो रहे हैं। ऎसे ही अनूठे कवि-लेखक-अनुवादक की डायरी के पन्ने। |
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