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"धुआँ सदा नहीं रहेगा इसलिए उसका रास्ता भी"

डायरी अंश - पारुल पुखराज

1

प्रभा अत्रे मारु बिहाग गा रही हैं । मेरे सामने इस वक्त उनकी आवाज़ कोई गलियारा है जिसमें पुराने दुख की तरह एक शब्द बार-बार कौंधकर वहीं  कोनों अतरों में समा जाता है। शब्द  गुज़र जाने के बाद  पुनः उनके गान के चौबारे में लौटने वास्ते, बंदिश में उसके दोहराव पर मैं ख़ुद को हर दफ़ा उसे सुनने से बचा लेती हूँ । 

जीवन में अनगिनत लम्हे दर्ज हुए जिनमें अक्षुण्ण रह पाना हमारे लिए दुरुह था । जिनके इर्द-गिर्द बने रहने से परहेज करते बारहा ख़ुद को ख़ारिज करते रहे।

यूँ भी महसूस होता है, अप्रिय परिस्थितियों में किसी अन्य को ख़ारिज करने से कहीं बेहतर है ख़ुद ख़ारिज हो जाना।  

मारूबिहाग का वह शब्द अपनी अनुगूँज द्वारा मेरे चित्त को गान से विलग कर जुलाई की एक फीकी दोपहर हाइवे पर किसी पुरानी एम्बैसडर में छोड़ आता है। हल्के नीले रंग की उस एम्बैसडर में कुछ बच्चे बड़ों के साथ कहीं से लौट रहे हैं। उसकी पिछली सीट पर बैठी दो स्त्रियों में एक की आँखें किसी के  विछोह में रो-रो कर सूज गयी हैं जबकि दूसरी स्त्री के चेहरे पर  चिंता की अबूझ लकीरों की आमदो-रफ़्त साफ़ देखी जा सकती है। रोती हुई स्त्री का पति उसे सड़क पर बिक रहे उबले अंडे खिला कर खुश करने का प्रयास करता है। स्त्री अंडा खाते हुए अपनी सिसकी कहीं छुपा देती है ।  

सड़क किनारे  सूरजमुखी फूलों के खेत देर तक साथ चलते हैं जिनके  पीछे सुस्त-सा छोटीलाइन रेलवे ट्रैक आरामफ़रमा है। रेलवे ट्रैक के मुत्तालिक बचपन से ही मुझे किस्म-किस्म की हैरानियां घेरे रहीं, जिनमें एक यह कि अँधेरी रात वीराने में ये कितना अकेला होता होगा। सूरजमुखी खेतों के पीछे  गुमसुम बिछी पटरियां जिधर से हम लौट रहे हैं उस ओर जा रही हैं। 

चिंताग्रस्त स्त्री गाड़ी के शीशे पर एक वृद्धा का चेहरा उकेरती है।

प्रभा अत्रे के  मुखड़ा दोहराने के बीच मैं ख़ुद को फिर उस एक शब्द "अकुलाने" से बाहर खड़ा पाती हूँ।

कंठ में  रोती हुई स्त्री की छिपाई गयी सिसकी निरंतर डंक मारती  है। 

***********

 2 

वह कहता है प्रत्येक व्यक्ति के पास इस धरती पर अपना एक रास्ता है लेकिन उसके पास कच्चा या पक्का किसी भी क़िस्म का कोई रास्ता नहीं है। रास्ता न होने की सूरत में उसकी गर्दन हमेशा आकाश की ओर उस तरफ़ उठी रहती है जहाँ धुएँ की एक रेखा गतिमान है जिसके पीछे-पीछे उसके पाँव बढ़ते जाते हैं।  

देखा जाए तो बेख़याली में ही सही मगर इस तरह उसका और धुएँ का एक ही रास्ता बन गया है या कह लें धुएँ का रास्ता ही अब उसका रास्ता है। उसके अनुसार वह रेखा जब तक और जहाँ तक जाती दिखाई देगी, उसके क़दमों को उस बिंदु तक अस्पष्ट ही सही मगर एक पगडण्डी-सी मिलती रहेगी। 

वह बताता है—मेरे तलवों के नीचे घास या दूब भी नहीं है। बल्कि उन पर तो अजब क़िस्म के स्याह निशान उभरे हैं जैसे किसी ने  प्रतीक्षा चिन्ह के रूप में वहाँ खड़ी लकीरें उकेर दी हों। मानो उसके तलवे, तलवे न होकर सख़्त चट्टानें हों जिनके नीचे अक्सर उसे गैलनों पानी कुलबुलाता महसूस होता है। पानी के जीव उसकी त्वचा में गथी रेखाओं को चुग कर तृप्त होते हैं, उनकी तृप्ति उसकी सुषुप्त नाड़ियों को जगमगा देती है। 

चलते हुए चाँद के पास मछली दिखती है, जैसे उसे निगलने बढ़ी जाती हो। एक कौवा पृथ्वी को चोंच में दबाए बादल पर पंजे टिकाने की जगह ढूँढता दिखता है।

किसी की दुखद दास्तान हवा में पुर्ज़ा-पुर्ज़ा उड़ती हुई। 

लकीर विलुप्त होने तक उसका रास्ता आकाश में खुला है।

वह कहता है—

धुआँ सदा नहीं रहेगा इसलिए उसका रास्ता भी। 

जीवन और उसके अनगिनत भ्रमों के बारे में किसी भी तरह का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर पाने में वह अब तक असमर्थ है। 

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3 

एक मई है या फ़रवरी की कोई सुबह । हल्की खुनक है मौसम में। मेघाच्छन आकाश। कोयल और कॉपरस्मिथ बार्बेट के स्वर विपरीत दिशाओं से कानों पर गिर रहे हैं।  महोख इस अंतराल में अपनी हूक पिरो देता है। मैना युगल टेलीफ़ोन के उजड़ेे खम्भे को इंसानों द्वारा बिसराई निरर्थक वस्तुओं से भरता जा रहा है।यह काम उनकी कई पीढ़ियाँ करती आई हैं। न जाने कब से मैं स्वयं भी उनके इस परिश्रम की गवाह हूँ। वे इस पंद्रह फ़ीट खोखले खम्बे को क्यों भर रहे हैं कोई नहीं जानता। पर हर सुबह यह बिला नागा घट रहा है इसका पता मेरे सिवा इस घर की चहारदीवारी को भी है। 

मेरे तलवों में शायद कभी बरगद के बीज रहे हों, जिनसे जड़ें फूट कर इस मकान की नींव में पसर गयी हैं। मैं एक  अरसे से इस आँगन को उलट-पलट कर नया और रोचक बनाने के प्रयास में अथाह धूल और गारे के नीचे निरंतर ख़ुद को दबाती चली जा रही हूँ। कहीं भी जाकर यहीं लौट आती हूँ।  

लोग आसानी से मकान बदल लेते हैं। हँसी-ख़ुशी अपना पोस्टल ऐड्रेस भी। वे इमारतों, छज्जों, मेहराबों, दरवाज़ों के अनर्गल मोह से मुक्त हैं। 

सुबह की मुलायमियत में सनबर्ड अपने घोंसले में लौट आयी है। मैं बरामदे में झूले पर बैठी धीरे-धीरे पेंग भर रही हूँ। उसकी चोंच भर जो दिखती है, तनिक खुल कर बंद हो जाती है जैसे मेरी तरह वह भी सुबह को घूँट-घूँट चख रही हो। 

सुग्गों का कर्कश संकीर्तन पसार पाएगा ज़रा देर में। दहियल दिन झुके टीस भरे गीत गाएगी। घुघूती का उपराम जोड़ा ‘जगत मिथ्या’, जान कर दबे पाँव मुँडेर पर आ बैठेगा, यदा-कदा खोलेगा कोई सूत्र ।अपनी गुरु गम्भीर बोली में जपेगा कोई मंत्र ।  

कौए के शव को भी हवा प्यारी है। 

************** 

4 

ये अजीब और नामालूम-सी उदासी भरे दिन हैं। उदास होने की कोई ठोस वजह न होने के बावजूद उसकी नम आँखें हमेशा अपनी ओर उठी पाती हूँ। उदासी की  बेढ़ब अंगुलियाँ हर वक़्त मन के ताने-बाने में गाँठ बांधती महसूस होती हैं। कुछ पढ़ लो, किसी से कितना ही बात कर लो, सुबह-शाम सैर कर लो, कहीं जाओ और वापस चले आओ, वह अपने बोझिल हाथ मेरे कंधे पर टिकाए सदा हमराह मिलती है।  

सुबह अग्रज कवि ध्रुव शुक्ल से फ़ोन पर बात हुई। उन्हें मेरे संग्रह की कविताएं पसंद आई यह जानकर अच्छा लगा। 'कवि समवाय' दिल्ली में भी कविताएँ सुनकर कहा था उन्होंने-छोटे मंत्रों सी कविताएँ हैं तुम्हारी।

बात होती रही कविता, भाषा, कविता के प्रचलित मुहावरे के बारे में और फिर अटक गई उसी एक बिंदु- 'उदासी' पर।

मैंने उन्हें बताया, जैसा कि अक्सरह कहती हूँ कि यहाँ का लैंडस्केप बहुत उदास है। वे बोले ज़रूर होगा- नीरस। मैंने कहा नीरस नहीं- 'उदास।' वे बोले हाँ डिप्रेसिंग होगा। मैंने दोहराया उदास है डिप्रेसिंग नहीं। वे बोले अच्छा समझ गया उस उदास को।

कुछ दिन पहले भी किसी ने कहा था, तुम्हारे इलाके का रुख करता हूँ तो मन अजीब होने लगता है, जैसे दम घुट रहा हो। 

(शीघ्र प्रकाश्य डायरी पुस्तक 'आवाज़ को आवाज़ न थी' से कुछ अंश)

 - पारुल पुखराज

पारुल पुखराज गहरी संवेदनाओं की कवियत्री हैं, प्रकृति का कविताओं में मानवीयकरण होता है। उनकी अपनी अनूठी शैली है जो उन्हें विशिष्ट बनाती है। पारुल की डायरी के कुछ अंश....

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