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शिमला में सदानन्द शाही (मेरे नाना जी इंटरमीडियट कॉलेज के प्रिन्सिपल थे। बेहद जुझारू । कॉलेज बनाने में जीवन खपा दिया। वे नियमित डायरी लिखते थे। गीता प्रैस की छोटी डायरी । कभी बचपन में कहा था डायरी जरूर लिखना चाहिए। उनकी यह बात लेकिन मैंने जीवन में कभी कुछ व्यवस्थित नहीं किया .....
1.10.2004 रात जागते हुए बीत गयी । पता नहीं कैसी उद्विग्नता थी –किस बात की । जा तो बस शिमला ही रहे थे। इधर एक अजब सी बात होने लगी है । देर रात तक नींद नहीं आती । कुछ काम करने का मन भी नहीं होता। ज्यों ज्यों सुबह आती है नींद आने लगती है । सारी सिखावन एक तरफ । सुबह जब जगाने का समय तब नींद से दो चार होते रहते हैं । पर आज तो मुगलसराय से कालका पकड़नी थी वह भी सुबह पाँच बजे । सो नींद को रास्ते के लिए मुल्तवी किया और स्टेशन के लिए निकल पड़े। सिद्धार्थ के साथ । बाइक पर । एक भरी पूरी अटैची के साथ बाइक पर पीछे बैठ कर 15-20 किलोमीटर जाना । गए। ट्रेन मिली । मुझे दिन का सफर बहुत बेकार लगता है । लगता है जैसे वक्त जाया हो रहा है। जैसे घर रहकर बहुत तीर मार लेते हों ... । यह ट्रेन ठीक चौबीस घंटे लेती है काल्का पहुँचने में । सोते जागते पढ़ते खीझते यात्रा पूरी हुई। 2.10.2004 सुबह पाँच बजे कालका पंहुच गए । मन में आगे के आरक्षण को लेकर आशंका बनी हुई थी । बहरहाल आरक्षण का चार्ट में अपना नाम देखकर आश्वस्ति हुई। शिवालिक एक्स्प्रेस,जो कालका से शिमला जाती है,अपने खेल खिलौने वाले अंदाज में शिमला की ओर चल पड़ी । काल्का से शिमला 96 किलोमीटर की दूरी करीब साढ़े पाँच घंटे में तय करती है। इस बीच 103 छोटे बड़े टनेल होते हैं ,जिन्हें पार करती हुई यह खेलगाड़ी समुद्र तल से 7467 फिट की ऊंचाई पर पंहुचती है। यों तो शिमला के लिए और भी बहुत से साधन हैं पर इस खिलौना रेलगाड़ी का मजा ही कुछ और है। लगता है किसी जादू लोक में चलते चले जा रहे हैं। डिब्बे में छुट्टी मनाने वाले सैलानी ही भरे पड़े थे। अधिकांश बंगाली लोग। ये हबड़ा काल्का मेल से कलकतते से आने वाले लोग ही होते हैं। ट्रेन से लंबी दूरी की यात्रा करने पर अक्सर बंगाली मध्यवर्ग का देशाटन प्रेमी तबका मिल जाता है। बंगाली मध्यवर्ग का यह देशाटन (केवल तीर्थाटन नहीं)प्रेम खूब बचा हुआ है। बंगला जाति के रूप में इनकी पहचान मुझे हमेशा अच्छी लगती है-खास तौर से उनका संस्कृति प्रेम भी। मेरे बगल में एक दंपति अपने बेटे के साथ थे । दिल्ली में कोई सरकारी अफसर हैं,पत्नी किसी एडवरटाइजिंग कंपनी में काम करती है। दोनों पति पत्नी बेटे से घूमा फिराकर गणित का सवाल किए जा रहे थे,या कहें एक तरह से पढ़ा रहे थे जबकि बच्चा बाहर के मनोरम दृश्य का आनंद लेना चाहता था। आजिज़ आकार बोला –पापा छुट्टी मनाने जा रहे हैं तो छुट्टी की तरह मनाइए । घर लौटकर तो पढ़ना ही है। बच्चे की बात मुझे मजेदार लगी,शिक्षा को हमने बोझ बना दिया है। उसे देखकर ईशान की याद आती रही। दूसरी तरफ एक पहाड़ी औरत अपने पति के साथ बैठी थी । स्वस्थ सुंदर और गोल मटोल । गर्भावस्था के अंतिम दिन थे । ख़यालों में खोई। अक्सर अपने पेट पर हाथ फेरती हुई । मानो अपने बच्चे से बात कर रही हो। कालका से शिमला की यात्रा में और भीतर चल रही विचार यात्रा में जब तब चाय नाश्ता लेकर पहुँचने वाला अटेंडेंट आ जा रहा था। बड़ा ही खुश मिजाज और मज़ाकिया । अपने काम में मुश्तेद और खुश दिल ,मौका मिलते ही हंसी मज़ाक करने वाला। धरम सिंह । चाय नाश्ते के बाद धरम सिंह अखबार दे जाते हैं। अखबार में जगह जगह गांधी जी छपे हैं। सुधीर कक्कड़ की किताब गांधी और मीराबेन को लेकर चर्चाए छपी हैं। गांधीवादी किताब को लेकर बहुत नाराज थे। उनकी शिकायत थी कि देश कितना कृतघ्न है ,गांधी तक का चरित्र हनन करने से नहीं चूकता। टिप्पणियॉ से लग रहा था कि नाराज लोगों ने किताब पढ़ी नहीं है । गांधीवादी नाराज हों और वह भी बिना किताब पढे तो उनके गांधीवाद के बारे में सोचना चाहिए। हिन्दी अखबार खोलते ही नामवर सिंह का लंबा चौड़ा बयान देखा। देखकर आश्चर्य भी हुआ खुशी भी हुई। एक दो दिन पहले आसपास आए थे, सुधीर कक्कड़ की किताब पर पत्रकारों ने उनसे बातचीत की थी। नामवर सिंह ने भी मीरा और महात्मा पढ़ी नहीं थी। सुधीर कक्कड़ के लेखन से परिचित थे और इस बिना पर आश्वस्त थे कि जैसी चर्चा है ,किताब में वैसा कुछ नहीं होगा। उनका मानना था कि मीराबेन वाले प्रकरण पर बातचीत होने से गांधी का चरित्र हनन नहीं होने जा रहा है । गांधी के व्यक्तित्व का आकलन मूल्यांकन होते रहना चाहिए। इसी वक्तव्य में हिन्दी पर संकट जैसे किसी सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था –अभी तो देश पर संकट है ,देश बचेगा तो हिन्दी भी बचेगी। इसलिए देश की चिंता कीजिए। अखबार पढ़ते हुए नामवर सिंह से हुई पिछली मुलाक़ात याद आ गयी। वे वीर भारत तलवार द्वारा संपादित किताब ‘राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द’का लोकार्पण करने आए थे। वीर भारत तलवार ने किताब की भूमिका में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि शिव प्रसाद सितारे हिन्द को हिन्दी में खलनायक मान लिया गया है और इसके पीछे भारतेन्दु और भारतेन्दु मण्डल का हाथ है। यह ऐसी बात है जो आसानी से गले नहीं उतरने वाली । लोकार्पण गोष्ठी में इसकी धज्जियां उड़ गईं । वीर भारत ने उत्तर देते समय मुख्य आपत्तियों को छोड़ दिया और प्रूफ की भूलों आदि की बात करने लगे । अंत में नामवर जी आए और अपने खास अंदाज में कहा –‘जब मार पड़ी शमशीरो की तब जी हुजूर हम नाई हैं’वाली मुद्रा न अख़्तियार करें ।,जो सवाल उठे हैं उनका जवाब दें। आगे नामवर जी ने कहा- होगी दिल्ली साहित्य की राजधानी पर साहित्य का ,हिन्दी साहित्य का पानीपत तो बनारस है ,यहाँ जीतेंगे तब बात बनेगी। बहरहाल गोष्ठी को यही छोड़ते हैं । मेरा मन इस पर अटक गया कि क्या बनारस साहित्य का पानीपत रह गया है? क्या साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रीय केंद्र दिल्ली कि चकाचौंध के आगे मद्धिम नहीं पड़ गए हैं-जैसे सवाल मन में आते रहे। इसी के साथ यह भाव भी दृढ़ हुआ कि संस्कृति के क्षेत्रीय केंद्र की अपनी अहमियत है और उन्हें जाग्रत और स्पंदनशील बनाए रखने की कोशिश करते रहना चाहिए। नामवर जी की यही खासियत है कि उनकी उपस्थिति यथास्थिति के विरुद्ध एक प्रस्ताव की तरह जान पड़ती है। रौ में आ जाएँ तो वे आज भी ठहरे हुए जल में कंकड़ फेंक कर हिलोर पैदा कर सकते हैं। वे साहित्यिक विमर्श के दायरे को विस्तारित करते हैं,वे महज ‘हिन्दी वाले’ नहीं हैं,क्योंकि वे और बड़े सरोकारों को छूते हैं । वे सत्ता के केंद्र में रहते हुए भी सत्ता के नहीं प्रतिपक्ष के विमर्शकारहैं। कुछ कुछ ग्राम्सीके आर्गेनिक इंटेलेक्चुअल की तरह। उन्हें बोलते –सुनते हुए बरबस एडवर्ड स ईद की ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं-….A critical attitude, just as doing criticism and maintaining a critical position are critical aspects of the intellectual’s life. मेरे बगल में बैठा बच्चा रास्ते में पड़ने वाले टनेल की गिनती कर रहा था । एक सौ एक,एक सौ दो,एक सौ तीन आवाज मेरे कानों में पड़ रही थी । अब ट्रेन शिमला स्टेशन पर थी। थोड़ी देर प्रतीक्षा के बाद IIAS फोन किया। वहाँ से मुझे लेने के लिए गाड़ी आई । और मुझे IIAS ले गई । अबकी एसोशिएट कुछ ज्यादा आ गए हैं ,लिहाज़ा मुझे फ़ेलोज के लिए आरक्षित आवास में ठहराया गया । दूधनाथ जी के बिलकुल बगल में । अभी मैं सामान आदि रख कर चाय आदि के बारे में सोच रहा था कि दूधनाथ जी आते हुए दिखे । हमेशा की तरह प्रफुल्ल। वे मुझे सिंहलद्वीप के नागरिक लगते हैं। जायसी से थोड़ी छूट लेते हुए – ‘जब देखो तब हँसता मुखी’ । कुछ देर गपियाने के बाद वे अपने कमरे में गए और मैं तैयार होकर पंकज(चतुर्वेदी) से मिलने चला गया । हमेशा की तरह तपाक से मिला पर अपने साथियों से खीझा हुआ था । अरुण कमल की कविता यातना को बार बार उद्धृत करता हुआ- यातना समय के साथ-साथ बदलता है यातना देने का तरीका बदलता है आदमी को नष्ट कर देने का रस्मो-रिवाज बिना बेड़ियों के बिना गैस चैम्बर में डाले हुए बिना इलेक्ट्रिक शाक के बर्फ़ पर सुलाए बिना बहुत ही शालीन ढंग से किसी को यातना देनी हो तो उसे खाने को सब कुछ दो कपड़ा दो तेल दो साबुन दो एक-एक चीज़ दो और काट दो दुनिया से अकेला बन्द कर दो बहुत बड़े मकान में बन्द कर दो अकेला और धीरे-धीरे वह नष्ट हो जाएगा भीतर ही भीतर पानी की तेज़ धार काट देगी सारी मिट्टी और एक दिन वह तट जहाँ कभी लगता था मेला गिलहरी के बैठने-भर से ढह जाएगा । आई आई ए एस शिमला का भव्य भवन, जो कभी गर्मियों में भारत के वाइसराय का आवास हुआ करता था, अपनी तमाम सुंदरता के बावजूद उसके तहखाने भय पैदा करते हैं ।आजादी के बाद यह भारत के राष्ट्रपति का आरामगाह बना। राधाकृष्णन जब राष्ट्रपति हुए उन्होंने यहाँ उच्च अध्ययन संस्थान बना दिया ताकि चिंतक /विचारक इस सृजनशील एकांत में कुछ उधेड़ बुन कर सकें। यह सही है कि कभी कभी यहाँ के निचाटपन से उपरति भी हो जाती है और आप को ‘निर्जन में दिया गया हूँ डाल’ की अनुभूति होने लगती है। मुझे ऐसी अनुभूति इसलिए नहीं हुई कि पहली बार (2002)जब आया था , भाभी जी (प्रो शुभा राव)परिवार सहित मौजूद थीं । अबकी जगहें जानी पहचानी हैं ,दूधनाथ जी और निर्मला जी बगल में हैं,पंकज तो खैर हैं ही। स्मृतियाँ भी खूब होती हैं ,एकाकी होते ही उमड़ घुमड़ आती हैं । गांधी जयंती पर संस्थान बंद था । अच्छा ही था, अब आराम की सख्त जरूरत थी। 3 अक्तूबर 2004 दिन भर पानी टपकता रहा और यादें टीसती रहीं। थोड़ी देर लाइब्रेरी में बैठा । इसी बीच हरनोट (एस आर हरनोट,सुप्रतिष्ठित हिन्दी कथाकार)का फोन आया। शिमला में हरनोट हिन्दी साहित्य के अखिल भारतीय राजदूत हैं।कहीं से कोई आए हरनोट का स्नेह /सहयोग शिमला को अपना सा बना देता है । शिमला आने वाले हर साहित्यिक जीव के पास हरनोट का नंबर होता है ,वह हरनोट के संपर्क में होता है । इसका एक फायदा यह होता है कि शिमला पधारे ही पता चल जाता है कि कहाँ कहाँ से कौन कौन से मित्र आए हैं। तो उनसे भेट होती है। उन्होंने सूचित किया कि दिगंबर और आशु आए हुए हैं। बात हुई । शाम को रिज पर मिलना तय हुआ। शाम को निकलने को हुए तो पानी बरस रहा था। ऐसे में दूधनाथ जी ने बिना मांगे अपना छाता दे दिया और छाता खरीदने की सलाह भी दे दी। मैं रिज पर आशियाना गुफा में पंहुच कर इंतज़ार करने लगा । यद्यपि अक्तूबर महीना ऑफ सीजन है फिर भी ऐसे सैलानी मौजूद थे जिन्हें अन्यान्य कारणो से ऑफ सीजन अनुकूल लगता है। आशियाना गुफा एक रेस्टोरेंट है, संभवत: हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम का,जो काफी चुहुलगुल लग रहा था। मैं रिज की ऊंचाई से शिमला के सौन्दर्य का जायजा ले रहा था। कि हरनोट ने प्रवेश किया। वे जिस ऊष्मा और हार्दिकता से मिलते हैं उसी से मिले। अभी कुछ बातचीत शुरू ही हुई थी कि दिगंबर और आशु भी आ गए। साथ चाय पी गयी । हरनोट कुछ अस्वस्थ से थे ,लिहाजा उन्होंने विदा ले ली। संगठन से अलग हुए एक युग से कुछ ज्यादा समय बीत गया था । युग की धारणा कहीं चौदह तो कहीं बारह वर्ष की मानी जाती है । राम का वनवास चौदह वर्ष का और पांडवों का बारह वर्ष का । यहाँ पंद्रह वर्ष हो रहे थे। जिन परिस्थितियों में हम सब अलग हुए थे कुछ कटुताएं,कुछ विचलित कर देने वाली हरकतें कुछ नापसंदगियाँ ही शेष रह गयी थीं। हम अलग राहों पर बहुत दूर तक चलते चले आए थे। रिश्तों की जीवंतता समय के अंतराल में वैसे भी खो ही जाती है । इस सब के बावजूद हमने कुछ देर और साथ रहना गंवारा किया । ऐसा क्यों? कुछ देर साथ रह लेने की जरूरत क्यों महसूस हुई। आशु के साथ मेरे रिश्ते नितांत औपचारिक ही रहे। शुरुआती दिनों में उसके मुंह से बड़ी बड़ी बातें सुनकर लगा कि दूर ही रहने में भलाई है। खासतौर से मेरे चुनाव हार जाने के बाद हुई मीटिंग में उसकी तीखी आलोचना ने उसकी बड़ी बड़ी बातों कि हास्यास्पदता को उजागर कर दिया था । बहरहाल वह किस्सा फिर कभी .... ऐसा लगता है कि शिमला जैसी अपरिचित जगह ने साझा अतीत के साथ कुछ समय बिताने की प्रेरणा दी होगी। हुआ भी यही ,हम लोगों ने बात करते खाते पीते पूरी रात बिता दी । यह भी लगा कि हितों का टकराव न हो ,कोई प्रोफेशनल प्रतिस्पर्धा न हो तो बीच कि कटुताओं को पारकर बातचीत की सुख भूमि निकल सकती है। यह जानकार आश्चर्य और दुख दोनों हुआ कि आशु आजकल अवसादग्रस्त है। आश्चर्य इसलिए कि वह जिस तरह की मजबूती का दावा करती थी ,उसे कैसे अवसाद हो सकता है ,दुख तो खैर स्वाभाविक था। मैं उससे कुछ हल्की फुलकी बातें करता रहा जिसे सुनकर वह खुश होती रही । बच्चों की तरह खिलखिलाकर हँसती रही । पहली बार लगा कि यह किसी मशीन का पुर्जा या नेता का माउथपीस नहीं जीती जागती इंसान है। जब संस्थान लौटे चार अक्तूबर की सुबह हो गयी थी। 5 अक्तूबर 2004 शाम को अपने कमरे में पंकज चतुर्वेदी के साथ बैठा था । यों ही कुछ बातचीत हो रही थी। तबतक दूधनाथ जी ने दस्तक दी । पंकज ने ही दरवाजा खोला । दूधनाथ जी के आते ही बैठकी महफिल में बदल गयी । तरह तरह की बातें और दूधनाथ सिंह की दूधिया हंसी। इसी बीच दूधनाथ जी के पास फैजाबाद से अनिल सिंह(हिन्दी कवि और दूधनाथ जी के शिष्य) का फोन आया। गुरु शिष्य में कुछ देर बात हुई । बातचीत खत्म करते हुए दूधनाथ जी ने थोड़ा ज़ोर से कहा कि रघुवंश मणि को बता देना कि मेरे साथ पंकज चतुर्वेदी भी बैठे हैं। पता नहीं क्यों यह वाक्य सुनकर पंकज थोड़े असहज हो गए। पंकज दूधनाथ सिंह से पूछने लगा कि यह आखिरी वाक्य आपने क्यों कहा। बार बार पूछने पर दूधनाथ जी ने बताया कि रघुवंश मणि कह रहे थे कि पंकज ने मुझसे कहा कि आपको क्या पड़ी थी दूधनाथ सिंह का इंटरव्यू लेने की। यह सुनते ही पंकज का मूड उखड़ गया । उसने दूधनाथ जी से अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की ,पर दूधनाथ जी अपना काम कर चुके थे। घूमते फिरते बात दूधनाथ जी के लेखन की ओर मुड़ गयी । उनका उपन्यास आखिरी कलाम चर्चा में था । अयोध्या मुद्दे पर यह अकेली महत्वपूर्ण कृति है । इस मिल रही प्रसंशा से दूधनाथ सिंह प्रसन्न हैं। मैंने बीच में रोककर उनसे कहा कि आप ‘माई का शोकगीत’ और ‘धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे’ जैसी शानदार कहानियाँ लिखने के बाद बीच बीच में खराब कहानियाँ क्यों लिख देते हैं। मेरा इशारा नमो अंधकारम और निष्कासन जैसी टार्गेटेड कहानियों की ओर था,जिसमें कुछ मित्रों /छात्रों को लक्ष्य करके लिखा गया था । दूधनाथ सिंह ने मुझसे इतनी सहमति जताई कि निश्चय ही ‘माई का शोकगीत’ और ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ मेरी बेहतर कहानियाँ हैं, पर इसमें निष्कासन का नाम भी जोड़ना चाहूँगा । जो भी वजह रही हो दूधनाथ जी ने नमो अंधकारम को डिफ़ेंड करने की कोशिश नहीं की,सिवाय यह कहने के कि कहानी के बाद भी मार्कन्डेय जी या मालती जी से मेरे सम्बन्धों में कोई फर्क नहीं पड़ा। इस बहस- बहसी में काफी देर हो गयी थी । उधर से निर्मला जी ने साझी दीवाल जो प्लाईवुड की थी ,खटखटाना शुरू किया और दूधनाथ जी ने विदा ली। उनके जाने के बाद भी हम लोग उन्हीं की चर्चा करते रहे । पंकज का कहना था कि मुझे दूधनाथ जी की सभी कहानियाँ कंट्राइव लगती हैं। पंकज इस बात पर भी चकित था कि मैंने दूधनाथ जी के सामने ही उनकी कुछ कहानियों को टार्गेटेड और खराब कह देने का साहस कैसे कर दिया। 6 अक्तूबर 2004 आज संस्थान में पंकज चतुर्वेदी ने कुँवर नारायण पर पर्चा पढ़ा । दूधनाथ जी की अध्यक्षता में । अपेक्षा के अनुरूप बहुत अच्छी प्रस्तुति। सुनते हुए मेरे मन की कुछ गांठें खुलीं । हम उन्हें आत्मजयी के रचनाकर और दार्शनिक कवि के रूप में जानते रहे हैं। पंकज की प्रेरणा से हम कुंवर नारायण की ओर उन्मुख हुए। हालाँकि कुँवर नारायण के विष्णुकुटी में मैं उनसे कभी 92-93 में मिल चुका था और उनकी सहजता की छाप मन पर आजीवन बनी रही । आज रात खाने के वक्त फिर घंटी बजी । दरवाजे पर हाथ में दूध का गिलास लिए दूधनाथ जी खड़े थे। भीतर आए । वे दूध पीते रहे और बात करते रहे।दूध पीते हुए दूधनाथ सिंह को देखना भी एक सुख था। बातचीत का सिलसिला कुछ ऐसा जमा कि रात कौन कहे भोर के तीन बज गए । दूधनाथ जी ने कहा कि नामवर के निमित्त के लिए बी एच यू ने जगह न देकर वैसी ही गलती की जैसी हजारी प्रसाद द्विवेदी को निकाल कर । मैं इस प्रकरण के बारे में मैं बहुत नहीं जानता था लेकिन जितना जानता था कुछ प्रतिवाद किया । संभवत:नामवर के निमित्त आयोजन के स्थानीय कर्ता धर्ता कथाकार काशीनाथ सिंह इस बात को लेकर स्वयं अनिच्छुक थे । शायद वे नहीं चाहते थे कि यह आयोजन बी एच यू में हो । आयोजन को लेकर ऐसी गोपनीयता बरती जा रही थी जैसे वह कोई साहित्यिक आयोजन नहीं, कोई षणयंत्र हो । मैंने यह भी कहा कि अगर मुझे मालूम होता तो मैं ही बी एच यू में जगह कि व्यवस्था सुनिश्चित कर देता । पर दूधनाथ जी अपने स्टैंड पर बने रहे। मुझे भी कोई गरज नहीं थी कि मैं उस मुद्दे पर ज्यादा बहस करूँ जिससे मेरा सीधा सरोकार नहीं था । वजह जो भी रही हो नामवर के निमित्त कार्यक्रम का बी एच यू में न होना हम सब के लिए एक टीस की तरह सालता रहेगा। बहरहाल बात आगे बढ़ गयी । और दूधनाथ सिंह और उनके लेखन के बारे में बात होने लगी। दूधनाथ सिंह ने पी एच डी नहीं की थी । इसलिए उन्हें प्रोफेसर नहीं बनने दिया गया । ‘बनने नहीं दिया गया’ का मैं खास तरह से इस्तेमाल कर रहा हूँ। विश्वविद्यालयों और अकादमियों में कुंठा कलित हृदयों की कमी नहीं है ,ऐसे लोग प्राय: उन लोगों के पीछे पड़े रहते हैं जिनमें कुछ मौलिक प्रतिभा होती है। दूधनाथ सिंह आजीवन इसके शिकार होते रहे । मैं उन्हें 1988-89 से जानता हूँ। उनके भीतर एक खास तरह का खिलंदड़ व्यक्ति निवास करता है । वे जब मिलते हैं एक खास तरह का आनंद भाव में मिलते है। कुल मिलाकर लोकतान्त्रिक स्वभाव । उन पर जब जब हमले हुए ,जब अपमानित करने की कोशिशें हुईं उन्होंने इसका जवाब लेखन से दिया । आज की सारी रात जो बातें हुईं उसे निष्कर्षत : इस प्रकार कह सकते है-लिखने से सुख मिला, लिखने से जीना संभव हुआ,लिखने से जीने का हाथ पैदा हुआ,लिखने से दुनिया को पहचाना, लिखने से हम सयाने हुए,लिखने से हमारी विचित्र नमक हराम उदासी बार बार लौट कर आई। लिखने से हमने जाना कि हम एबनारमल आदमी हैं,लिखने से ही हमने जाना कि कमीनापन, उजड्डता,क्रूरता बुरी बाते हैं,लिखने से हमने प्यार करना सीखा ,लिख कर हम मुक्त हुए और खुल कर रोए ॥आदि आदि इत्यादि । दूधनाथ सिंह के बारे में आलोचकों ने जब जब यह कहना शुरू किया कि वे चुक गए हैं, उन्होंने एक रचनात्मक विस्फोट से इसका जवाब दिया।यमगाथा,धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे या आखिरी कलाम रचनात्मक विस्फोट ही है। हम तीन बजे रात तक बात करते रहे । बातचीत का कुल हासिल यही रहा कि लेखक के लिए लिखना ही प्रज्ञा है और लिखना ही उपाय है। -सदानंद शाही सदानंद शाही जी से हिंदी जगत में कौन नावाक़िफ़ होगा, कबीर विषयक विशेषज्ञ, साखी के संपादक, बनारस हिंदु विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और स्वयं महत्वपूर्ण कवि हैं। हाल ही में उन्होंने बनारस में ‘क’ संस्था और चित्र-विथिका का गठन किया है जिसके तहत वे कलाओं, साहित्य पर विभिन्न कार्यक्रम करवाते रहते हैं। उनमें से एक बहुत अनूठा कार्यक्रम है ‘चलो लेखक के घर’ इस कड़ी में भारतेंदु जी के घर ‘मल्लिका’ कार्यक्रम में शिरकत करना बहुत अलौकिक अनुभव रहा। |
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