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जुगाड़ डायरी
देवेश पथसरिया
1 . दो घड़ीसाज़
2017, शिन चू, राजगढ़
कभी-कभार ही ऐसा होता है कि मेरा मन किसी मंहगी चीज़ के लिए करे। यह कभी
कभार वाली एक मटीरियलस्टिक इच्छा थी कि मैं कैल्विन क्लीन की घड़ी पहनूं।
आमतौर पर जो लोग मुझे जन्मदिन पर कुछ देते हैं, उनकी संख्या इकाई के अंक
में है और इकाई के अंक में भी अधिकतम सीमा (नौ) से शर्मनाक होने की हद तक
कम। इन बहुत कम लोगों के सामने मैं नकटा हो सकता हूँ। जीवन में एक ऐसे
माध्यम की गुंजाइश हमेशा बची रहनी चाहिए जहां इंसान बिना किसी पर्देदारी के
सामने आ सके। इन लोगों को जन्मदिन के आसपास मैं खुद ही बता देता हूं कि मुझ
पर पैसे खर्च ही करने हैं तो मुझसे ही पूछ लें कि मुझे क्या चाहिए। साल में
एक यही दिन तो होता है जिस दिन मैं किसी से कुछ लेता हूं। तो बहुत सारे
लोगों ने मिलकर उस घड़ी को मुझे जन्मदिन पर गिफ्ट किया और इस तरह मेरी
इच्छा पूरी हुई। अब कुछ महीने बाद वही घड़ी खराब हो गई थी। मैंने वह भारत
से खरीदी थी और अब मैं ताइवान आ गया था तो वारंटी वगैरह जैसा कुछ समझ नहीं
आ रहा था।
मैं उसे सही कराने ताइवान में अपनी यूनिवर्सिटी के पास वाले दुकान वाले के
पास गया। मुझे वह दुकान वाला इसलिए पसंद था क्योंकि उसके पास एक बिल्ली थी,
जिसे वह दुकान पर ही रखता था। घड़ी में सेल डलवाने के बहाने मैं उस बिल्ली
की कुछ फोटो खींच लिया करता था। बिल्ली के साथ साथ दुकानदार को फ्रेम में
लेना। फोटोजेनिक शक्ल- दुकानदार और बिल्ली दोनों की।
बात सिर्फ सेल बदलने की होती तो अलग या आसान बात होती।पर इस बार सेल खराब
नहीं हुआ था। कुछ ऐसी गड़बड़ थी कि दुकानदार ने मना कर दिया। जितना उसका कहा
मुझे समझ आया, ख़राबी सही करने के लिए शीशे को तोड़ना पड़ता और सही करने के
बाद नया शीशा लगाने की तरकीब नहीं मिल पा रही थी। शायद यही या इससे
मिलती-जुलती कोई समस्या थी। अंत में दुकानदार ने कहा कि अपने साथ किसी लोकल
लड़के को लेकर ताकि वह आना लोकल लड़के को बता सके उस दूसरी दुर्लभ दुकान का
पता, जहां यह घड़ी शायद सही हो सकती है।
कुछ दिनों बाद मैं छुट्टी पर ताइवान से भारत चला आया और उसी घड़ी को अपने
कस्बे के दुकान वाले के पास लेकर गया। उसने उसका फीता वैसे ही मरोड़ा जैसे
वह अपनी दुकान पर आई हर घड़ी का मरोड़ता है, बिना इस बात की कद्र किए कि वह
घड़ी कैल्विन क्लीन की है। उसकी इसी अदा ने मेरा दिल जीत लिया, जैसे किसी
गडरिये के लिये सारी भेड़ें एक जैसी, वैसे घड़ीसाज़ के लिए सभी घड़ियाँ एक
जैसी। अभी इसे मेरा दिल जीते हुए कुछ ही क्षण हुए थे कि इस कस्बे वाले
दुकानदार ने घड़ी मेरे हाथ में पकड़ा दी। कहा- "सही हो गई, दस रुपए दे
दीजिए।"
2. साईकिल
2015, शिन चू
मेरे पास हमेशा से साइकिल ही रही है। मेरा शौक़ रहा है, शाम होते होते
साइकिल की सवारी करना। बचपन से मैं साइकिल लेकर पूरे कस्बे की गलियों में
निकल जाता था। जब गलियों में घूमने से ऊब जाता, तो सड़क पर। छोटे कस्बों से
बाहर जाने की सड़कें भी कोई बहुत चमकदार या चमत्कारिक नहीं होतीं। उन
सड़कों से वापस कस्बे ही में लौट आने वाले जरूर चमत्कारिक होते हैं।
मेरी पहली साइकिल 20 इंच की थी। वह काले रंग की सेकंड हैंड साइकिल थी। आगे
चलकर बच्चे की लंबाई बढ़ ही जानी है, इसलिए बच्चे की शुरुआती साइकिल पर
निम्न मध्यमवर्गीय परिवार ज़्यादा खर्चा नहीं करता। उसके बाद मेरी दूसरी
साइकल लाल रंग की, 22 इंच ऊंचाई की थी। उस साइकिल की भी हालत मेरी नौवीं
दसवीं में आने तक इतनी ख़राब हो गई थी कि ब्रेक तक पूरी तरह सही नहीं थे
उसके। कभी-कभी कूदकर उतरना पड़ता था। अब सोचता हूं तो डर लगता है कि मैं
ऐसा भी करता था। वह भी तब जब कभी-कभी सामने से रोडवेज की सरकारी बस आ रही
होती थी, जिनके कुछ ड्राइवर ऐसे होते हैं कि बस कभी-कभी ही सड़क की तरफ देख
लेते हैं। इन विषम परिस्थितियों में कतई खराब साइकिल चलाने का मतलब है, आप
जुगाड़ की कला में माहिर हो जाते हैं। मैं भी हो ही गया था।
जब मैं 2015 में ताइवान आया तो समझ आ गया था कि साइकिल के बिना मेरा काम
चलना नामुमकिन था। इसलिए मैंने एक साइकिल आते ही खरीद ली थी। कुछ महीने बाद
यह पता चला कि गर्मियों की छुट्टी ख़त्म होने के बाद पिछले साल की जो
लावारिस साइकिलें यूनिवर्सिटी में खड़ी रह गयीं थीं, उन्हें यूनिवर्सिटी की
पुलिस ज़ब्त कर लेती है और एक दिन वे साइकिलें मुफ्त में बांटी जाती हैं। जो
जितनी पहले लाइन में लग गया, उसे उतना पहले साइकिल चुनने का हक़ मिलेगा।
मेरे पास तो साईकिल थी पर मेरे सारे मित्र जो भारत के थे, वे सब लाइन में
लगने वाले थे, तो मैं भी लग गया। हम शाम से ही चादर बिछकर बैठ गये थे और
ताश-अंताक्षरी खेलते रहे। कुछ ताइवानी छात्र अस्थायी टैंट भी ले आये थे। एक
अलग ही उत्सव जैसा माहौल था और सबको रात भर ऐसे ही रुकना था। वह एक एक
मज़ेदार रात थी। अगली सुबह मैंने एक और साइकिल चुन ली थी, यानी अब मेरे पास
दो साइकिलें थीं। वे दोनों ही गियर वाली साइकिलें थीं जो मैंने भारत में
नहीं चलाई थी और सुधारी तो बिलकुल नहीं थी। जब पहली बार मेरी नयी गियर वाली
साइकिल की चेन उतरी, तो समझने में दिक्कत हुई पर जैसा कहते हैं कि जिसने
भारत की सडकों का सामना कर लिया, वह कहीं भी काम निकाल लेगा, वैसा ही कुछ
भारत के वाहनों के बारे में भी है। तो मैंने काम चलाना, चेन चढ़ाना सीख
लिया।
एक दिन मैं यूनिवर्सिटी में अपने ऑफिस जा रहा थाम। रास्ते में देखा कि एक
लड़का साइकिल की चेन चढाने की कोशिश कर रहा था। उसे घेर कर तीन लड़कियां खड़ी
थीं। एक लड़की ने हाथ में टिश्यू पेपर का बॉक्स लिया हुआ था ताकि लड़के के
हाथ गंदे ना हों। गर्मी का मौसम था, इसलिए दूसरी लड़की ने हाथ में पानी की
बोतल भी पकड़ी हुई थी।
जाने कब से लगा था वह अपना युद्धवीर लड़का और चेन नहीं चढ़ा पा रहा था। मैंने
अपनी साईकिल स्टैंड पर खड़ी की। उनसे इशारों में कहा कि मुझे देखने दें।
टिश्यू पेपर पकड़ी हुई लड़की ने मुझे टिश्यू पेपर देने की कोशिश की। जिस आदमी
का बचपन साइकिल सुधारने के बहुत देर बाद हैण्डपम्प से गंदे हाथ धोने में
बीता हो, वो कहाँ टिश्यू पेपर लेता।वैसे भी वे कालिख को पूरी तरह साफ़ नहीं
करते। हाथ गंदे होने का डर रखकर चेन नहीं चढ़ाई जाती। गियर वाली साईकिल
सुधारने के अपने अनुभव इस्तेमाल करते हुए मैंने पहले पीछे के पहिए की तरफ
वाले चक्के से भी चेन उतारी। फिर पीछे के चक्के ऊपर की तरफ से और आगे सबसे
छोटे चक्के पर नीचे की तरह चेन फँसायी और पैडल को उलटा घुमाया। आधे मिनट
में सारा काम ख़त्म। मैं उठा, और अपनी साइकिल लेकर चला गया। वे चारों
हक्के-बक्के देखते रहे मुझे।
~ देवेश पथ सारिया
एक
अनूठा, जिज्ञासु युवा कवि जो ताईवान में वैज्ञानिक है। जिसकी कविताएं बड़े -
बड़े कवियों को हैरत में डाल जाती हैं। देवेश के पास अनुभव तो अनूठे हैं ही
उनको समेटने के लिए नितांत मौलिक अभिव्यक्ति है।
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