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प्लेटफार्म पर एक रात – नवंबर 2008
कुमार मुकुल
उसके जाने के बाद एक रोशनी वाली जगह पर जाकर बैठ गया, भूखी लगी थी पर कहीं
कुछ था नहीं खाने को, तो बैठा रहा सोचता किक्या किया जाए, रोशनी के चलते
मच्छर नहीं थे पर कुछ देर में एकाध निकल आए, उपर कबूतरों का जोड़ा बैठा था
दो ओर मुंह किए, उन्हें भी मच्छर तंग कर रहे थे तो बीच में सिर हिलाते थे
वे, बीच में कोई गाड़ी आती तो एक झूठी आशा जगती कि शायद मित्र हों, लेनेआयी
हों कि चलिए घर ...
ओह घर, जिसके पास अपना घर होता है उसे ही लोग अपने घर ले जाते हैं, बेघरों
को कौन घर ले जाता है, हा हा हा ।
बीच में एक गाड़ी आयी तो कहीं से एक चाय वाला अपना ठेला ले आया, तो मैं भी
लपका और पूछा कि गुड-डे है : पहले उसने हां कहाफिर कहा कि नहीं कई और हैं
कोई ले लीजिए। मैंने देखा सारे किसी स्थानीय कंपनी के थे तो एक लिया और
गटका। कमजोरी लग रहीथी, खाना खाए पंद्रह घंटे तो हो ही गए थे।
फिर चाय पी और अपनी सीट पर आ बैठा, कुर्सी लोहे की थी सो गड़ रही थी पर
विकल्प क्या था।
बीच में तीन पुलिस वाले आए राउंड पर तो पास वाला आदमी संभल कर बैठ गया मैं
भी सीधा हो गया।
डर भी रहा था कि कहीं पूछ दिया कि कहां से आए हो कहां जाना है इतनी रात को,
तो क्या बताउंगा, आपका नाम भी नहीं बता सकता, क्या सोचेगा कि कैसी मित्र
है …
उसे कैसे समझा सकूंगा कि नहीं .....
फिर ऐसे ही बेवकूफ सा इधर उधर देखते रात बीतने लगी,पौने पांच के आसपास चहल
पहल शुरू हो गयी। फिर मैं भी उठ गया औरठहलने लगा इस कोने से उस कोने।
लोग लाइन मे लगे थे ठिकट के लिए तो पहले मैं भी लग गया, फिर लंबी लईन देख
खीजकर बाहर आ गया कि कुछ दिन निकलने परबस अडडे ही चला जाउंगा।
फिर हो हल्ला बढने लगा। करीब आधा घंठा टहलने पर लाइन खत्म हो गयी तब जाकर
दस रूपये का टिकट लिया और प्लेटफारम परचला आया। गाड़ी आने में देर थी। समय
कटा किसी तरह, एक गाडी आयी तो बैठ गया उसमें।
गाडी चली तो गोल लाल सूरज विदा कर रहा था सोचा - अब तक यह स्वागत करता था,
आज विदा कर रहा।
फर्नांदो पैसोआ कई नाम से लिखते थे – अगस्त 2008
नहीं,
मेरे भीतर आप अलग तरह से काम करती हैं।
मुझसे मत पूछिए कि क्यों नहीं लिखा, अपने आप से पूछिए …
हम तो लिख ही रहे हैं
कुछ चीजें आगे पीछे लिखी जाती हैं
वे लिखी ही जाएंगी...
नहीं,
फर्नांदो पैसोआ कई नाम से लिखते थे, मेरा भी एक नाम ......... हुआ, हा हा
हा...
और नाम क्यों, मेरा तो एक चेहरा भी हो गया ...
और
वह, पैसोआ के पास नहीं था हा हा हा...।
नया साल, ठंड और लोदी गार्डन – जनवरी 2009
तीन की सुबह जगा तो जनवरी की ठंड जैसी होती है वैसी थी। ठंड मुझे हमेशा
अपने बिल से निकलने को बाध्य करती है सो अपने कमरेसे निकला तो लगा कि मौसम
ऐसा है कि बिना चले गर्मी आएगी नहीं, तभी अपने कवि मित्र पंकज पराशर की याद
आयी जिनका फोनअक्सर आता कि कहां हैं भाई साहब, जब से नजदीक आए हैं, नजर
नहीं आते। सो तय किया कि यह दो किलोमीटर का मंगलम सेपांडव नगर का फासला
चलकर तय किया जाए तो गर्मी आ जाएगी।
हल्की हवा और कुछ कुहरीला मौसम चलने में आनंद दे रहा था तभी मैथिली कवि
महाप्रकाश की याद आयी जिनके मैसेज का जवाबनहीं दिया था अब तक, चार दिन हो
गये थे, सो फोन लगाया और बताया कि परेशान तो डेढ दो साल से हूं या ताउम्र
परेशान ही रहा हूंऔर रहना है - मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए
क्यों...।
उन्होंने कुछ सलाह दी कि अपनी भावनाओं को व्यक्त कर दिया करो, उन्हें
रोको नहीं, इस तरह। उन्हें कैसे बताता कि वे इतने अपने हैं, किउनसे क्या
व्यक्त करूं।
खुद से ही खुद को कैसे व्यक्त करे कोई।
आगे बढा तो दो लडकियां एक रिक्शेवाले से जूझ रही थीं - सडक पार करती वे
चीख रही थीं - बीस की जगह तू पचास रख ले, तुझेभीख चाहिए ना ... वही सही।
ऐसा कहती वे पास के एक होटल में घुसते हुए रिक्शेवाले को देखे जा रही थीं
कि उसकी सदाशयता कबप्रकट होती है...।
मैं भी मुड कर देख रहा था कि क्या करता है रिक्शेवाला। तो उसने धीरे से
रिक्शा बगल की गली में लुढका दिया। शायद सामने सडकपर जाते जाना उसे सहन ना
हो रहा हो, नैतिकता के लिहाज से।
मैंने सोचा अच्छा है, कि लडकियों का इस तरह का गुस्सा अच्छा है और
रिक्शेवाले का इस तरह आंखें चुरा लेना, इसका विकल्प कहांउसके पास...।
पंकज के पास पहुंचा तो उनका बेटा दरवाजे पर ही खेलता मिला, अपनी बडी बडी
आंखों से देखे जा रहा था वह...।
उससे संवाद की कोशिश करता भीतर दाखिल हुआ। वहां पंकज की मोहतरमा सामने रसोई
में लगीं थीं, काम धाम में...।
पंकज ने मिलते ही बताया कि उनका एक कविता संकलन आया है मैथिली में, देखा तो
उसमें संगीत की शब्दावली व रागों से संबंधितकई कविताएं थीं। फिर उन्होंने
अखबार की नौकरी और समय की किल्लत की बातें कीं, हालांकि इस बीच भी वे
दिल्ली की संगीत कीमहफिलों में जाने का समय निकाल लेते हें। हम बात में
लगे थे तब तक गोभी के पराठे आ गये गर्म गर्म, टमाटर की चटनी के साथ।
खाने वाले हम तीन जने थे, एक बच्चे के नाना जी, सो मोहतरमा को तेजी से हाथ
चलाना पड रहा था।
इस तरह जाडे के लिहाज से अच्छी और मनपसंद खुराक मिल चुकी थी तो निकल पडा
लोदी रोड की तरफ, वहां विनोद जी के यहां सेमनोवेद के नये अंक लेने थे। अंक
लेते धर्मेंद्र श्रीवास्तव से बात हुयी तो बोले - अरे आइए...।
-कुमार मुकुल
कुमार
मुकुल लोकप्रिय कवियों में से हैं - एक उर्सुला होती है उनकी प्रसिद्ध
कविता है इसी नाम से प्रसिद्ध कव्य संग्रह भी। कुमार मुकुल ज़हीन पत्रकार तो
हैं ही लेकिन उनका अध्ययन बहुत गहन और वृहत है। उनकी डायरी का एक पन्ना आप
सबके लिए।
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