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नये साल की रोटी में पुराने साल का नमक
ओम नागर
1 जनवरी 2018
पुराने साल का जो आटा नाखूनों में भरा था। वो नये साल में धोया गया। पुराने
साल में जो नमक अपने हाथों आटे में मिलाया था। उसका स्वाद नये साल में चखा
गया। साल बदल गया लेकिन नये साल की रोटियों में पुराने साल के नमक का स्वाद
ज्यों का त्यों ही रहा। अब नमक का भी कोई स्वाद बदलता हैं भला। बस मनुष्य
में खाएं हुए नमक की स्मृति अधिक दिनों तक नहीं टिकती। यह समयगत विडम्बना
हैं ।
अभी पुराने साल के चार रोटी के आटे जो नमक मिलाया था। उसे चखने में एक बरस
लग गया। तीन रोटियाँ तवे पर पुराने साल में ही सिकी। बस चौथी रोटी को एक
पलटी दी ही थी कि टीवी के एंकर का यह कहा कानां में पड़ा-“ दोस्तों !! भारत
सहित आधी दुनिया नये साल के जश्न में डूबी हैं , स्क्रीन पर आप जो देख रहे
हैं , वो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता व जयपुर से लाइव तस्वीरें हैं । आप सब
लाखों-करोड़ों दर्शकों को नया साल मुबारक़...हैं प्पी न्यू ईयर।“ इतना कहा
मेरे कानों ने देखा-सुना।
दो रोटियों के घी 2017 में लगा चुका था। तीसरी रोटी पर घी पिघलता रहा और
इसी बीच नया साल आ धमका। बस चौथी रोटी नए साल की हैं और भूख पुराने साल की।
क्या करता ? स्कूलों में शीतकालीन छुट्टिया लगी हैं । बिटिया की ज़िद की जीत
गई और श्रीमतीजी चली गई पीहर। दफ़्तर अख़बार का हो तो कब किसे बख़स्ता हैं ।
निकलते-निकलते साढ़े ग्यारह बजने को आई। घर पहुँच कर रसोई में जुट गया।
बड़े लोगों ने कहा हैं -“ भूखे उठो जरूर लेकिन भूखे सोओ मत।“ प्रभु ! कोई
भूखा न सोए बस, इस जगत के हर प्राणी पर इतनी सी कृपा बनी रहें। अपने से भूख
तो रत्ती भर भी सहन नहीं होती। यूँ नये साल की रोटी में गए साल के नमक
स्वाद बरकरार हैं । रोटियों के आकार-प्रकार का क्या ? बिटिया होती तो
हँस-हँस के लोटपोट हो जाती और श्रीमतीजी से कहती-“ देख मम्मी ! पापा नै
कतनी बड़ीभार रोटी बणाई छै...म्हूँ तो न्हं खाऊँ ...।“
उजाले से अंधेरे को देखते हुए
04 जनवरी, 2018
’’मत पूछो आकाश में कोहरा घना हैं ।’’ ग़ज़लकार दुष्यन्त ने ग़ज़ल के इस मिसरे
में कोहरे के बारे में पूछने की मनाही की हैं , देखने की नहीं। कोटा से
जयपुर जा रहा हूँ, रेल से। इसी कोहरे के धुंधलके को चीरते हुए दयोदय
एक्सप्रेस आगे बढ़ रही हैं । खिड़की से बाहर देखने के दायरे पर बैरण धुंध ने
डाका डाल रखा हैं । कुछ पेड़ दूर के हैं , वो धुंध से ढ़के हैं । पास वाले
पेड,़ रेल के विपरीत-दिशा में सरपट भाग रहे हैं । यह जाड़े के दिनों का सूरज
बेचारा, उगा हैं तब से अपनी किरणों की कृपाण से धुंध को काटने छाँटने की
ज़द्दोज़हद में जुटा हैं। कोहरा कितना ही घना हो उसकी नियती छँट ही जाना ही
हैं ।
रेल जैसे-जैसे गंतव्य की ओर दौड़ती जा रही थी। खिड़की से बाहर मेरी आँखों की
दृश्यता बढती़ जा रही थी। पेड़ों के पत्तों का हरापन धूप के साये में फिर से
दमकने लगा था। धीरे-धीरे वो दूर का डूँगर भी दिखने लगा था। जिसके लिए बड़े
बुज़ुर्गों ने कहा हैं क़ि “ दूर के डूँगर दूर से ही सुहावने लगते हैं ।“ एक
अधेड़ उम्र की महिला मेरे सामने की सीट पर स्वेटर बुन रहीं थी। बुनने की
रफ़्तार क्या कहना ? बुनने की रफ़्तार ने ही बुनने को बचाएँ रखा हैं । वरना
अब स्वेटर को बुनने जितना धैर्य किस में बचा हैं । मशीनों ने पहले पहल
मज़दूरों के हाथ खाएँ फिर हाथों का हुनर।
धुंध इस पार की छँटी थी अभी। डूँगर के उस पार के आकाश में तो अभी भी
हल्की-सी धुंध बाकी थी। स्वेटर का बुनना भी। इस बीच खिड़की से आते धूप के एक
टुकड़े ने ऊन की दमक में इज़ाफ़ा किया। मैं उसकी उँगलियों की रफ़्तार देखकर
सोचता रहा कि यह अधेड़ महिला धुंध छँटने के बाद धूप बुनेगी।
दूजे दिन लौटते में भी शाम की, वहीं दयोदय एक्सप्रेस। चौथ का बरवाड़ा रेलवे
स्टेशन। जातरियों से प्लेटफार्म खचाखच भरा था। ये सब चौथमाता के जातरी थे।
कल बड़ी चौथ हैं । कल तो गिनती करना ही मुश्किल हैं । जातरी होने के सुख से
साधन सम्पन्न लोग सदा विपन्न रहे हैं । रेल का डिब्बा खचाखच भर गया। फिर भी
प्लेटफार्म पर लोग छूट गए। अब वो कोई दूजी ट्रेन के इंतज़ार में रात काली
करेंगे। कष्ट और दुःख, जातरी की जातरा के सद्गुण हैं । तमाम साधनों के साथ
की गई जातरा में कष्ट से अधिक मनोरंजन और पर्यटन की मौजूदगी दिखती हैं ।
जातरा की असल आभा पैदल जातरियों के चेहरे पर फबती हैं ।
प्रभु अपने निर्धारित दिन के अलावा किसी और थानक के लिए गमन करते होंगे।
चौथमाता के दर्शन का भी दिन निर्धारित हैं । लेकिन कभी सोचता हूं कि इतर
तिथि को किये गये दर्शन से ईश्वर की आशीष पर क्या अंतर पड़ता होगा भला ?
लेकिन जिस जातरा में कष्ट न हो उसे जातरा मान लेना हमारे लोकमानस को
स्वीकार ही नहीं। जीवन में कष्टों से मुक्ति की आकांक्षा में की गई यह
कष्टप्रद यात्राएँ हमारे हज़ारों वर्षों की आस्था का प्रमाण हैं । दुःख जीवन
में सुख की कीमत का पता देता हैं ।
कभी-कभी सोचता हूँ कि ईश्वर का अंतिम आसरा न होता तो अक्षम और लाचार आदमी,
किस के भरोसे फिर से जी उठता। ईश्वर सारे कष्टों का अंतिम सिरा हैं । जिसे
मनुष्य टॉर्च की तरह पकड़कर न जाने कब से अपने रास्ते का घोर अँधेरा छाँटता
रहा हैं । विचारों की उधेड़बुन में सवाईमाधोपुर आ गया। रेल के डिब्बों से
निकले जातरी, बस स्टेंड पर अपने-अपने गाँव की ओर जाने वाली अंतिम बसों और
जीपों के लिए जल्दी में दिखे। किशोर जितने भी थे उन सब के माथे पर “ जय
माता दी “ वाला दुपट्टा बंधा था। इन दिनों तो गाँव-गाँव ऐसे दुपट्टों का
चलन ख़ूब बढ़ गया। अब तो ईश्वर भी इनके मंसूबे भाँपकर अधिकतर विश्राम की घड़ी
से बँधे रहते हैं ।
रेल अब चल रही थी। खिड़की बाहर सिर्फ़ अँधेरा था। जब भी खिड़की के पार
झाँकता। उजाले से अंधेरे को देखते हुए बीच वाले शीशे पर मेरा ही प्रतिबिम्ब
दिखता। लगा कि जैसे सारे रंग अंधेरे से ही बने हैं । रेल तो अपनी गति से अब
भी चल ही रही थी। बस अँधेरा पीछे छूटता जा रहा था। इतना पता था कि सुबह जिस
भी स्टेशन पर यह रेल पहुँचेगी, वहाँ उजाला होगा।
सब मन हुए की बात
13 फ़रवरी .2018
अपनी पूरी धमक के साथ सर्दी फिर से लौट आई हैं । अभी-अभी अखबार के दफ़्तर से
घर पहुँचा हूँ। बीच रास्ते में जो कोहरा अभी से रोड लाइट की रोशनी को ढ़के
जा रहा हैं , अलसुबह तक क्या होगा ख़ुदा जाने। हमें तो क्या पता, उस ख़ुदा
को सब पता हैं कि ये रात के चेहरे पर कोहरे का दुप्पटा क्यों बंधा हैं ।
सुबह से तो वेलेंटाइन वाला डे लग जाना हैं और रात हैं कि अभी से कोहरे का
दुशाला ओढ़ सो गई। कितने गुलदान हैं जिनमें आज ही के दिन पहले फूल खिलते हैं
। नरम नाज़ुक अँगुलियों के बैठे बिठाएँ जो फँदे बुने गए, वो खुलने, सुलझने
को बेताब हैं । ये जो रेशमी लट को कान के पीछे रखकर सतर्क हुई तो हो लेकिन
कुछ चोरियों का पता ताउम्र नहीं लगता। दिल इक उम्र में बार-बार गुमशुदा
होने को होता हैं । इतना कि कभी दिनदहाड़े लुट भी जाओं तो बे-गम ही रहों।
मियाँ और आरज़ू भी क्या, आसरा भी क्या, मशविरा भी क्या ? ये तो सब मन हुए की
बात हैः-
“आकाश का जब भी मन हुआ
कि कुछ कहा जाएं धरती के कान में तो
बारिश के हाथ भिजवायी सारी चिट्ठियाँ
हथेली पर टपक गई टप-टप
नदी का जब भी मन हुआ
कि समंदर से मिला जाएं बाँथ भर तो
दौड़ पड़ी पहाड़ से मैं दान की ओर
लाँघती घाटियाँ पुलों पर पानी फेरते हुए
तितली का जब भी मन हुआ
कि फूल पर ही मंडराती रहूँ सदा तो
उड़ कर बाग़ से चली आई तेरी खिड़की पर
पंख नाज़ुक हैं जरा आहिस्ता सूरजमुखी
कविता का जब भी मन हुआ
चली आई तुम्हारी रहगुज़र से होकर
कागज़ पर हिना के रँग में महके हुए अल्फाज़
इक नज़र पढ़ ले जरा तो कयामत हो जाएं।“
आज नीलकंठ महादेव का पर्व महाशिवरात्रि भी हैं । ये कवि-लेखक सब नीलकंठ ही
तो हैं । जो दुनिया के विष को शब्दों से कमतर करने की कोशिश में जुटे रहते
हैं । “सत्यम शिवम सुंदरम।“ दुनिया को सुंदर बनाने के लिए शब्दों के हार
बुनते हैं ।
देखते हुए पिता की पगथलियां
13 मार्च-2018
इन दिनों पिता बीमार हैं । जो रात गुजरी, वो पिता ने खाँसते हुए ही गुजारी।
होता हैं जब दवा भी असर नहीं करती और दुआ भी। डॉक्टर ने जाँच रिपोर्ट आने
के बाद ही ट्रीटमेंट लिखने की बात कहीं हैं । पिता शहर में कुछ दिन मेरे
पास रहकर गाँव लौट भी जाते हैं तो भी, मेरी नींद में कई रातों तक उनका
खाँसना, ज्यों का त्यों बना रहता हैं । बीती रात तो सच में खाँस रहे थे। कई
बार तो ऐसा भी होता कि अधजगा-सा उनके कमरें तक चला जाता और फिर बे-बात
मुस्कराता अपने बिस्तर पर लौट आता। बीती रात ऐसा भी हुआ कि उनकी नींद देखने
के लिए अपनी नींद को उछीटता रहा।
पिता के पैर चादर से बाहर थे। ये मौसम ही ऐसा हैं । कभी ओढ़ने का मन होता
हैं तो कभी गर्मी का हल्का अहसास। पिता के पैरों की पगथलियों की शक़्ल बीते
दिन नासिक से मुंबई पहुँचे उन हज़ारों-हज़ार किसानों से मिलती हैं । किसान
कहीं का भी हो उसके चेहरे और पगथलियों से उसके संघर्ष की इबारत पढ़ी जा सकती
हैं । पिता की हथेलियों और पगथलियों के छालें पककर आंटण हो चुके। अब पाँच
दशक की मेहनत के दिनों के बाद आराम के दिन नसीब भी हुए तो पिता को
बीमारियों ने जकड़ लिया। मुंबई के आज़ाद मैं दान में जमा हुई हज़ारों किसानों
की भीड़ में मुझे मेरे पिता से मिलते-जुलते कई चेहरे एक साथ दिख रहे थे।
बीती रात को पिता की पगथलियों के सारे पके हुए छालें एक बार फिर से रिसते
हुए दिखे। यह दीग़र ख़्याल हैं कि सत्तासीनों के मुँह में झूठा भरोसा बँधाते
कभी छालें नहीं पड़ते।
अभी जब मैं भरी दुपहर अपने पिता की पगथलियों के छालें स्मृत कर रहा हूँ तो
बचपन में उनकी गर्मियों के दिनों घर से निकलने से दी जाने हिदायत याद आ रही
हैं - “ ओम प्रकाश..छौरां...बारै तरकाळ पड़ रही छै ... अब असी भळसणी में कठी
जावैगो....चप्पलां तो न्हं पहरे...रोतो फिरै छै उबाणौ-पुबाणौ...। मेरी
आँखों में भरी दुपहरी नमी उतर आई। ऐसा कई बार होता हैं जब पिता की पके
छालों वाली पगथलियाँ और हथेलियां बार-बार आँखों के समक्ष तैरने लगती हैं ।
सोचता हूं कितना खुरदरा था पिता का कल। आज हमारे दिन जितने भी नरम हैं , वो
पिता की बदौलत हैं ।
कोई दिन, इस शहर से
16 मार्च 2018
धूप में दिनों दिन तल्ख़ी बढ़ रही हैं । आधा मार्च बीत गया। जंगल में बचे
हुए पलाश दहकने लगे हैं । नवान्न खेत से घर लाने के दिन हैं । चैती हवा का
क्या कहे उसे तो आप फसल कटाई के दिनों खेत की मेड़ पर खड़े होकर ही महसूस
सकते हैं । खेत वाले पिताजी का अब स्वास्थ्य पटरी पर हैं । दो दिन से छह-छह
घण्टे की ड्रिप से शरीर में नमक की जितनी ज़रूरत होनी थी, उतना हो गया। बीती
शाम डॉक्टर ने जाँच देखकर कहा था अब ठीक हैं ..पानी थोड़ा कम दीजियेगा..
किडनी की क्षमता इतनी नहीं हैं कि जितना पीओ उतना उत्सर्जन लायक बना दे।
पिताजी ने बस इतना ही कहा कि वो कम पानी पियेंगे तो थक जायेंगे, हलक
गर्मियों में यूँ भी बहुत सूखता हैं । क्या जीवन की सारी स्फूर्ति जल से
हैं ? पृथ्वी की किडनियाँ तो यह बचे हुए पेड़ ही हैं । जो धीरे-धीरे कमजोर
पड़ती जा रही हैं । अपराह्न की साढ़े तीन बजने को हैं । कमरे की खिड़की के
बाहर हवा पूरे चैत से बह रही हैं । सोचता हूँ कभी धरती की कोख में सोडियम
की अत्यधिक कमी हुई तो क्या वो स्मृतिलोप का शिकार हो कर अपनी ही संतानों
को बिसरा देगी। किसे पता मैं तो बीमार पिता के चेहरे में पृथ्वी की उदासी
की झलक देखता हूँ।
अरविन्द सोरलजी, कोटा नगर के प्रमुख साहित्यकार हैं । वो इस शहर में मेरे
अभिभावक हैं । मेरी कविता की कॉपी के पहले जाँचकर्ता। स्नेह इतना कि जब से
उन्हें पिताजी की बीमारी का पता लगा हैं रोज हालचाल पूछ लेते। आज सुबह फोन
आया तो कह रहे थे पाँच बजे आएँगे, पिताजी की तबियत पूछने। उस पिता की जो
मेरी “ पिता की वर्णमाला “ कविता में हैं। यह लिखते हुए घड़ी में पौने चार
हो गए। कमरे में एक पँखे की आहट हैं और दूसरी सिलाई मशीन की। जो छत के एक
छोटे से छायादार कोने से कानों तक आ रही हैं ।
श्रीमतीजी सिलाई में व्यस्त हैं । नाराज़गी में हैं इन दिनों। कुछ दिन और
रूठे रहने देना हैं अभी। साल-छह महीनें में एक बार रूठे हुए को मनाने का भी
अभ्यास ज़रूरी हैं । गाँव होती तो खेत में गेंहू काट रही होती और मैं, कटे
हुए गेंहू की ढेरियाँ बाँध रहा होता। कोई ढेरी ठीक से नहीं रखने में आती तो
उसके रूठने में गुस्सा शामिल हो जाता। बस क्या कहे ? शहर में रहकर, खपकर,
गाँव तो बस ख़्वाबों-ख़्यालों में बचे हैं। कई बार लौट जाने का मन तो करता ही
हैं । कोई दिन, इस शहर से सदा के लिए रूठकर गाँव चले भी जाएँगे लेकिन
स्मृतियों का वो गाँव तो कब लुट का चुका हैं ।
वो ! हरसिंगार नहीं चुनती
14 फरवरी 2020
बारिश के दिनों, माया नगरी मुंबई के आकाश की पनघट पर जलभरी बदरियों की
मटकियाँ, पूरे चैमासे छलकती रहती हैं । मुंबई की बारिश, आनंद और आफ़त दोनों
संग लिए आती हैं । चैबीसों घंटे की अपनी मौज बहते इस शहर की आबोहवा ही ऐसी
हैं कि हर कोई यहाँ बस जाने का मोह पाल लेता हैं । मोह से मुक्ति किसे मिली
हैं । ऐसा ही मोह मेरे अपने शहर कोटा से भी हो जाता हैं । साधन और सुविधा
जहाँ मिली आदमी हैं कि फिर मोहित हुए बिना नहीं रहता। मुझे इस महानगर में
रहते, बसते और विचरते हुए डेढ़ बरस होने को हैं । लेकिन यहीं बस जाने का मोह
से अभी मुक्त हूँ। इस मुक्ति के कारणों में अनेक कारण शामिल हैं।
खैर ! बस जाने की चाह घरौंदा बनाकर, चारदीवारी की कैद में चले जाने से
भिन्न भी होती हैं । घरौंदे दिलों में भी बनते हैं । वह वक़्त के साथ उजड़ते
और बनते भी हैं । लेकिन माटी की गंध नहीं जाती। आज प्रेम का दिन
वेलेंटाइन-डे हैं । वैसे प्रेम का कोई दिन तो होता नहीं, सर्व दिन प्रेम के
दिन होतो अच्छा। लेकिन ऐसा होता हैं अधिकांश कि ज़िदंगी की गति न्यारी और
आदमी की नियती भिन्न। लेकिन फिर भी उम्र के किसी मोड़ यह अबूझ चाह ख़त्म
नहीं होती। उम्र बीत जाती हैं , इंतज़ार की घड़िया नहीं बतती। ऐसी ही चाह से
भरपूर सुवासित दो अधेड़ प्रेमियों को मैं रोज दादर इलाके के एक मैं दान में
रोज देखता। अब तो वो मैं दान भी छूटने वाला हैं , लेकिन आज वेलेंटाइन-डे के
अवसर पर ’वो’ और उसके ’वो’ की रोज़ की कहानी ’मैं’ को याद आ रहीं हैं । जो
’मैं’ की ज़ुबानी इस तरह से घटित हैं -
’वो’ थोड़ी जल्दी चली आती। ’वो’ जिसका रोज इंतजार करती ’वो’ थोड़ा विलंब से।
पचपन पार इश़्क की राह में भी हजार रोड़े हो सकते हैं । जो ’वो’ और ’वो’ की
राह में होंगे, नहीं होंगे। ’मैं’ तो बिल्कुल नहीं जानता। ’मैं’ उनको मैं
दान के एक कोने में जब भी चुप चुप-सा बोलता हुआ देखता तो ’मैं’ को उसकी ’वो
’ याद हो आती। ’मैं’ को लगता कि उसकी ’वो’ भी इसी तरह उम्र के ऐसे पड़ाव पर
हाँफती हुई, इंतज़ार में मैं दान के चक्कर पर चक्कर पर काटती हुई मिले।
’मैं’ अक्सर मैं दान में ’वो’ देखकर लगता, सचमुच प्यार की कोई उम्र नहीं
होती। अब इस ’वो’ को ही देख लो इस उम्र में भी अपने ’वो’ के इंतज़ार में
सूरज उगने से पहले मैं दान चली आती हैं ।
’वो’ को अपने ’वो’ के इंतज़ार में हरसिंगार के फूल भी कभी अच्छे नहीं लगें।
शायद इसीलिए ’मैं’ ने ’वो’ को इंतज़ार की घडियों में कभी हरसिंगार के फूल
चुनते हुए नहीं देखा। अग़रचे हरसिंगार की डाल से खिरे हुए फूल तो मैं दान की
परिधि पर आयताकार बने फुटपाथ पर ’ मैं ’ को रोज दिखाई देते हैं । लेकिन
’मैं’ ने ’वो’ को कभी हरसिंगार के फूलों को चुनते हुए नहीं देखा। जबकि उससे
अधिक उम्र की महिलाएं हो या फिर आधी से अधिक उम्र की, अक्सर हरसिंगार के
ताज़ा खिरे फूल चुनती रहीं। हरसिंगार के फूल तो वैसे भी बेचारे इतने नरम
बंधन से बंधे होते हैं कि सूरज उगने से पहले ही डाल से बिलग हो जाते हैं।
फिर भी ’ वो ’ को कभी इन फूलों के प्रति नरमी बरतते हुए ’ मैं ’ ने नहीं
देखा। ’मैं’ अक्सर सोचता क्या ’वो’ इतनी पत्थर दिल तो नहीं होंगी कि उसकी
नज़र, डाल से खि़रतें और ज़मीन को खूबसूरत करते, नाज़ुक फूलों पर एक बारगी भी
नहीं पड़े। ऐसा भी होता हैं भला कि पथ पर बिखरे फूल भी लक्ष्य से न डिगा
सकें।
लेकिन ’वो’ ऐसी ही थी। ’वो’ फूलों से अधिक अपने ’वो’ से प्रेम करती थी। जिस
के इंतज़ार रोज बे-नागा मैं दान मारने चली आती। इस मैं दान में रोज ’मैं’
हैं कि ’वो’ को ऐसे ही अपनी उम्र को जीतते हुए देखता। धीरे-धीरे ’मैं’ के
भीतर ’वो’ लेकर कई जिज्ञासाएँ घर कर गई थी। कुछ दिन तक तो ’मैं’ की
मॉर्निंग वॉक में ’वो’ और उसके ’वो’ को देखना नियमित रूप से शामिल हो गया
था। कभी-कभी तो ’मैं’ को लगता कि ’मैं ’भी ’वो ’ को देखने ही मैं दान जाता
हैं । दूसरों के प्रेम को देखकर हमें अपना प्रेम याद आने लगें, यही प्रेम
की सर्वव्यापकता हैं । प्रेम ही हैं जो सामान्य व्यक्ति को भी दार्शनिक में
तब्दील कर देता हैं । वो भी ऐसे समय में जब कोई किसी को प्रेम करते हुए
नहीं देखना चाहता हो। ’मैं’ रोज ’वो’ को प्रेम सराबोर होते देखता। जैसे खुद
अपने ही हाथों अपने ही जख़्मों को कुरेद कर मरहम लगा रहा हो।
ऐसा भी नहीं हैं कि ’वो’ का इंतज़ार सिर्फ़ उसके ’वो’ को ही होता हो। मैं
दान में शेरनी की तरह टहलती दो-तीन बिल्लियों को भी ’ वो ’ का मैं दान आने
का इंतज़ार रहता। बिल्लियाँ भी ’वो’ को ही नहीं ’वो’ हाथ में रहने वाले गहरे
नीले रंग के थेले को भी बड़े अच्छे से पहचानती थी। बिल्लियाँ भी एक-दो रंगी
नहीं थी। प्रेम की तरह उनके भी कई रंग थे। एक चितकबरी-सी। एक आधी सफेद, आधी
काली। एक तो पूरी की पूरी काली थी। लेकिन ’वो’ का प्रेम रंग देखकर भिन्न
नहीं होता। ’वो’ सबको बराबर-सा चुग्गा डालती। तीन अलग-अलग पुड़ियां, तीन
अलग-अलग बिल्लियों के लिए। इन बिल्लियों को जब ध्यान से देखना शुरू करेंगे
तो हर रंग की तलहटी में एक भिन्न रंग की मौज़ूदगी दिखेंगी।
मुंबई माया नगरी ही नहीं, बिल्लियों की भी नगरी हैं । यहाँ के फुटपाथ पर
राह चलते हुए अगर आप,इसीलिए रूक गए कि किसी बिल्ली ने आपका रस्ता का काट
दिया हैं । और आप उसे अशुभ मानकर थमते रहें तो फिर इस रफ़्तार भरे शहर में
थम-थमकर ही विचरना होगा। चाळ वाले मोहल्ले की तो फिर बात ही अलहदा हैं ।
’मैं’ का मोहल्ला भी तो कोहिनूर चाळ वाला मोहल्ला था। ‘मैं’ को एक दिन ’वो’
तो भोईवाड़े की किसी बिल्ंडिग से निकलते दिखाई दी थी। और ’वो’ के ’वो’ का तो
कोई पता नहीं। ’वो’ रोज़ स्कूटर पर सवार, मैं नगेट से मैं दान में प्रविष्ट
होता हैं और जामुन पेड़ के नीचे पड़े सीमेंट के बड़े-से पाइप पर अपनी भारी
भरकम देह टिका देता।
‘वो’ ज्यादातर पहले आती हैं । ‘वो’ पहले आ भी जाता तो क्या करें ? भारी
भरकम देह के बावज़ूद मैं दान के चक्कर मारने का मन नहीं होता था। मन तो ’वो’
के इंतज़ार में उलझा रहता था ना, होगा भी कैसे। ‘मैं’ तो यहीं सोचता था। फिर
‘वो’ का मन कहीं भी क्यों न हों। प्रेम करने वाले आदमी का मन, प्रेम के
सिवा और होता भी नहीं। प्रेम करते हुए अगर यहीं सच हो तो और भी अच्छा हैं
-’’ ऊधो ! मन न भएं दस-बीस‐‐‐।’’
‘मैं’ने कई महीनों ‘वो’ को देखा हैं । लेकिन दिन बदले, मौसम बदले। मैं दान
मारने वाले लोग बदलें, उनके सुबह की सैर के रूटीन बदलें। नहीं बदला तो,
‘वो’ का पहनावा नहीं बदला,न पहनावें का रंग बदला। एक ही रंग का। एक ही
जैसा, सलवार शूट पहनकर सुबह की सैर को आती थी। हल्का केसरिया, उस पर सफेद
रंग के बेलबूटे। पैरों में मेरून रंग की बधियों वाली सादा-सी चप्पलें। रोज़
‘वो’ चप्पल पहनकर सुबह की सैर करती थी। तभी तो ‘मैं’ को कई बार लगा कि
चप्पलों में भी सुबह-सुबह घूमने निकलता हैं कोई। ‘वो’ की उम्र की और भी तो
कई महिलाएं थी, जो एक से एक स्पोर्ट्स शूज़ पहनकर रोज़ मैं दान मारकर लौट
जाती थी। वह सबकी सब सेहत के लिए घूमती थी। और ‘वो’ प्रेम के लिए। इसके
बावज़ूद उन औरतों से ‘वो’ की सेहत कमतर नहीं थी। ‘वो’ के मुँह में आगे का एक
दाँत नहीं भी था तो, कौनसा चाहत पर कोई फ़रक पड़ने वाला था। जो अब तक निभ रहा
था,उसे अंतिम साँस तक निभना था। ‘मैं’ को तो उन्हें देखकर ऐसा ही लगता था,
आप की आप जानो।
प्रेम ही तो हैं जिसकी बदौलत मृत्यु के करीब आते हुए भी आप जीवन का दामन
पकड़े रहना चाहते हैं । प्रेम से वंचित सृष्टि में जीवन की कल्पना मुश्किल
हैं । मृत्यु को प्रेम में अमर होने का वरदान हैं । ‘मैं’ इसी तरह कभी-कभी
प्रेम करते हुए, प्रेम को महसूस करते हुए दार्शनिक हो जाता हैं । यह प्रेम
का ही असर हैं , या फिर कोई और बात हैं । ‘वो’ और ‘वो’ के बीच की ’ कोई और
बात को’ तो ‘मैं’ भी पूरी तरह से नहीं जानता। यहीं लौकिक का अलौलिक होना
हैं शायद।
दिन-ब-दिन, महीनें गुज़र गये। इधर ‘वो’ का इंतज़ार अब सिर्फ़ बिल्लियाँ ही
नहीं करती थी। एक काला चितकबरा, झबरीला-सा और एक हल्का केसरिया रंग का
कुत्ता भी करने लगा था। जैसे ही ‘वो’ मैं दान के मैं नगेट की तरफ, जामुन के
पेड़ की ओर जाने को होती, दोनों कुत्ते भी दुम हिलाते पीछे-पीछे चल देते।
‘वो’ के थैले का बोझ पहले से बढ़ गया था। बिल्लियों की तरह से उन दो कुत्ता
के लिए भी ‘वो’ रोज़ कुछ न कुछ खाने का ज़रूर से लाती। अब ‘वो’ का मैं दान
में आने का इंतज़ार तीन बिल्लियाँ और दो कुत्ते एक साथ करते थे। एक रविवार
तो जामुन के पेड़ के नीचे दर्ज़नों कव्वौ को अपने हिस्से का दाना चुगते हुए
भी ‘मैं’ ने देखा। आस-पास कव्वै अपने पंख फड़फड़ा रहें थे और दोनो ‘वो’
सिमेंट के पाइप पर बैठकर आराम से बतिया रहे थे। प्रेम की भाषा में कव्वौ की
कांव-कांव से कोई विध्न नहीं पड़ता। उस दिन ‘मैं’ ने उसी मैं दान में घटित
होते देखा, जिस मैं दान में ‘वो’ अपने ‘वो’ का रोज़ इंतज़ार करती।
किसी दिन फिर से विरह हुआ तो यह काले-काले काग ही, किसी खिड़की, किसी
रोशनदान से कांव-कांव कर, एक-दूजे की याद का संदेश पहुँचायेंगे-‘’ उड-उड रे
म्हारा काळा रे कागला, कद म्हारा पीवजी घर आवै।’’ आदमी, आदमी का संग भले ही
छोड़ दें, पशु-पक्षी कभी आदमी का साथ नहीं छोड़ते। आदमी, मनुष्य होकर भी
मनुष्य नहीं होता और जानवर मनुष्य नहीं होकर भी, आदमी से बेहतर अपने साबित
होते हैं । अब ‘वो’ और ‘वो’ के प्रेमग्रंथ में कुत्ता, बिल्ली और कव्वौं के
भी अध्याय शामिल थे। इस चराचर जगत का हर जीव, प्रेम की बोली का मर्म अच्छी
तरह से समझता हैं । ’मैं’ को तो यहीं लगता हैं । आपको लगेगा देखो प्रेम का
ज़िक्र करते ‘मैं’ फिर से दार्शनिक हो गया। प्रेम इसी तरह से एक से आरंभ
हों, असंख्यों में समा जाता हैं । सारे सितारों में चाँद की रोशनी हैं ,
चाँद, सूरज के दम पर दमकता हैं । ये दोनों धरती से बहुत प्रेम करते हैं ।
तभी तो अपनी-अपनी रोशनी धरती पर उंडेल, क्षितिज के उस पार, अपने घर लौट
जाते हैं -’’ गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस, चल खुसरो घर आपने रैन भई
चहुं देस।’’
ऐसा भी नहीं कि ‘वो’ को ही ‘वो’ का इंतजार रहता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि
‘वो’ तो मैं दान तक चला आता, लेकिन ‘वो’ का अता-पता नहीं। ऐसे में ‘वो’ के
पास मैं दान के धीरे-धीरे ही सही, चक्कर काट लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं
बचता। लेकिन वह इश्क़ ही क्या जिसमें इंतज़ारशुदा प्रेमी की पलकें प्रेमिका
के आगमन-पथ पर नहीं बिछी रहें। ‘वो’ की नज़रे भी जब तक ‘वो’ नहीं आती दीखती
, मैं दान के मैं नगेट पर ही टँगी रहती। और मजे की बात तो यह-’’ जैसे ही
हाथ में नीले रंग का थैला लटकाएं ‘वो’ की एक झलक मिलती नहीं कि ‘वो’ उल्टे
पैर जामुन के पेड़ के तले लौट आता।’’
‘वो’ और ‘वो’ जामुन के पेड़ के नीचे घंटा-आधा घंटा में क्या, कितनी बातें
करती थे और कैसी बातें करते थे। वह सब बातें ‘मैं’ को बिल्कुल नहीं पता।
‘मैं’ तो अहसास पर यह कहानी लिख रहा हैं । जिसकी इस कहानी से दूजी भी कोई
और ही कहानी हो सकती हैं । एक कथा की, कई उपकथाएँ होती हैं । कई बार कथा से
उपकथा निकाल दो तो कथा-कथा नहीं रहती। अब देखो ना ‘मैं’ की कथा में से एक
‘वो’ और कुत्ता, बिल्ली और कव्वौं को निकाल बाहर करें तो क्या शेष रह जाना
हैं , कवि गीत चतुर्वेदी की काव्य-पंक्ति की तरह कि-‘‘ प्रेम में डूबी,
स्त्री का चेहरा, बुद्ध जैसा दिखता हैं । ’’
‘वो’ और ‘वो’ की बातें, किसी और ने सुनी नहीं सुनी हों, जामुन के पेड़ ने तो
ज़रूर से सुनी होगी। ‘मैं’ सुबह से यही सोच रहा हैं कि कल पक्का दोनों ‘वो’
के पहुँचने से पहले मैं दान पहुँचेगा। और जामुन के पेड़ पूछेगा कि बताओं,
दोनों ‘वो’ ने तुम्हारे तले बैठकर वेलेंटाइन-डे के दिन क्या बातें की थी ?
पेड़ बोलेगा, नहीं ना बाबा। पेड़ की भाषा, मौसम से समझ आती हैं ।
’मैं’ ने फिर सोचा !! चलो अभी नहीं, जामुन के पेड़ से बारिश में पूछेंगे, जब
उसकी नरम डाल से जामुन पककर जमीं पर खिर रहें होंगे-टप-टप। तब धरा का रंग
भी जामुनी होगा। ठीक उनके प्रेम के रंग की तरह। फिर भी जामुन का पेड़ बोला
नहीं ,तो दोनों ’वो’ की जीभ के रंग से उनके प्रेम का रंग पहचान लेंगे। वह
भी तब, जब ‘वो’ लौटते में किसी बात पर चुहल करते, खिलखिलातें पकड़े जायेंगे।
‘मैं’ फिर से दार्शनिक होने लगा, क्या प्रेम का असल रंग जामुनी हैं ? नहीं,
नहीं‐‐‐उसने तो आज लाल रंग की साड़ी पहनी थी। तो क्या प्रेम का रंग लाल होता
हैं। किसी दिन उसी की आँख में देखूँगा, अपने प्रेम का रंग। तब हम दोनों के
प्रेम का रंग सांवला होगा, काली कमली वाले साँवरे कन्हैया के रंग की तरह
सांवला।
साहित्य अकादेमी के युवा पुरस्कार व नवलेखन पुरस्कार से प्रतिष्ठा पा
चुके ओम नागर, युवा कवि एवं गद्यकार हैं\ वे राजस्थानी और हिंदी दोनों में
समान अधिकार से लिखते हैं। उनकी डायरी के अंश उनके ज़मीनी जुड़ाव की
बानगी हैं।
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