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पानी, बालू और बारिश
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सिद्धेश्वर सिंह
सिद्धेश्वर
सिंह लोकप्रिय लेखक-कवि और प्रकृति प्रेमी चिंतक हैं। उनकी यह कविता भी
अपने आप में एक प्रकृति के संग साथ की डायरी है।
कल दोपहर बाद
जब थम चुकी थी बारिश और निकल आई थी धूप
शुरू होने लगे थे थमे हुए काम
तभी काठ फोड़ता दिखा एक कठफोड़वा
नीरस - विरस हो चुके ठूँठ में
अपनी नुकीली चोंच से
जैसे डालता हुआ प्राण
बेहद चौकन्ना
इधर - उधर चपल चौकस निगाह
जैसे कि किसी और की भीत में लगा रहा हो सेंध
मैंने कहा यह तुम्हारा ही वन है प्यारे पाखी
किंतु उसे हुआ ही नहीं यकीन
कितने गहरे तक धँस गया है अविश्वास
इस संक्रमण से जंगल भी नहीं रहा शेष
गुजर रहा था मैं भीगी हुई छरहरी गैल से
काम से वापस अपने डेरे की ओर
और उधर निर्माण की प्रक्रिया में था
किसी का अपना खुद का घर।
तारीख़: १५ अगस्त, साल: १९९१
बारिश के अपने नियम हैं
अपने कायदे,
जब दिन होता हैं खाली - उचाट
तब पहाड़ की भृकुटि पर उदित होता हैं
स्मृति का अंधड़,
हरे पेड़ होने लगते हैं और हरे -और ऊंचे '
जहां जाना था उसके बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिल पाई थी । भूगोल विभाग
के प्रोफेसर रघुवीर चन्द जी ने एक बड़े से नक्शे में एक छोटे से बिन्दु की
ओर संकेत कर बताया था कि वहां पहुंचने के लिए सबसे पहले एक बड़ी नदी पार
करनी होगी और उसके बाद एक छोटी नदी, फिर उससे छोटी एक नदी और। फिर?`फिर तो
तुम्हें जाकर ही पता चल पाएगा ।´ और मैं चल पड़ा था।
रात तिनसुकिया रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में काटी थी, मच्छरों की
कवितायें सुनते हुए। सुबह सूरज जल्दी निकल आया था - शायद राह दिखाने के
लिए। आओ सूरज दद्दा! आओ मेरे गाइड! तुम यहां भी वैसे ही हो। वैसा ही हैं
तुम्हारा ताप। लेकिन इतनी जल्दी? रात को ठीक से सोए नहीं क्या ?
बस के कंडक्टर से जब तेजू का टिकट मांगा तो वह ऐसे देखने लगा मानो मैं किसी
अन्य ग्रह-उपग्रह से आया हूं - एलियन।` तेजू का टिकट तु फिफ्तीन अक्तूबर के
बाद मिलेगा।´ तब तक मैं? कहां? छोटी - छोटी मिचमिची आंखों वाले कंडक्टर को
मेरी `मूर्खता´ शायद पसंद आई। वह गंभीर हो गया । बोला - अभी नामसाई का तिकत
लो उसके बाद का रस्ता हाम बता देगा। बाद का रस्ता? यह कैसा रहस्यमय रास्ता
हैं भाई!
नामसाई यानी पानी , बालू और बारिश। नामसाई में प्रवेश से पहले नोवादिहिंग
या दिबांग को पार करना पड़ता हैं । मानो स्वर्ग में प्रवेश से पहले वैतरणी।
यह वही बड़ी नदी हैं ! नोवादिहिंग बारिश के मौसम में मजे की खुराक ले कर
मस्ता गई हैं । उसका हहराता बहाव डराता कम हैं , बांधता ज्यादा हैं । क्या
ऐसे ही दृश्यों के लिए बांग्ला में ` भीषण शुन्दर ´ उपमान गढ़ा गया हैं ? वह
अपने प्रवाह में सब कुछ बहाये चली जा रही हैं - मिट्टी , वनस्पतियां , जीव-
जंतु। बस उसकी धार को संभल- संभल कर चीरते हुए चल रही हैं हमारी फेरी। मानव
की बनाई एक नौका मशीन की ताकत के सहारे प्रचंड प्रकृति की प्रवाहमान
पटिट्का पर अपने हस्ताक्षर कर रही हैं ।नामसाई के आगे दूसरी बस से जाना हैं
चौखाम तक। बारिश हो रही धीरे-धीरे ।यहां आप बारिश को सुन सकते हैं। उसके
बरसने की लय के साथ बदलती जाती हैं आवाजें। सत्यजित दा की `पथेर पंचाली´ का
बारिश वाला दृश्य ! उससे भी थोड़ा और आगे , थोड़ा और सूक्ष्म । `वृष्टि पड़े
टापुर- टुपुर ´ । बारिश बाधा नहीं हैं यहां । जीवन चलता रहता हैं अविराम ।
यह एक नया संसार हैं , छोटी -सी जगह । मैं भी तो ऐसी ही छोटी जगह से आया
हूं , पर जाना कहां हैं ?
लाइफ मैं टर्स लाइक दिस
इन स्माल टाउन्स बाइ द रिवर
वी आल वान्ट टु वाक विद द गाड्स।´
चौखाम से दिगारू तक छोटी नाव में जाना हैं । यात्री कुल पांच हैं और नाविक
सात । बड़े- बडे रस्सों और लग्गी के सहारे हमारी नाव आगे बढ़ रही हैं मानव की
ताकत और तरकीब के बूते । हर तरफ पानी , पानी और पानी । जहां पानी नहीं वहां
बालू हैं और जहां न पानी न बालू वहां पेड़ - हरे और ऊंचे । मल्लाह सचेत करते
हैं यह दिगारू बाबा का `मेन करेन्ट´ हैं - सावधान !
`बोल दिगारू बबा की जय ´ और मेन करेन्ट पार । अगर पार न हो पाते तो ? सुना
हैं लगभग हर साल बह जाती हैं कुछ नावें , हर साल `उस पार ´ की अनंत यात्रा
पर चले जाते हैं कुछ यात्री कुछ मल्लाह । नदी नहीं नद हैं दिगारू ,
ब्रह्मपुत्र की तरह । तभी तो मल्लाह दिगारू बाबा की जय बोलते हैं दिगारू
माता की नहीं । दिगारू `नदी´ का भी नाम हैं और जगह का भी । दिगारू को तीन
तरफ से काट रहा हैं दिगारू का प्रवाह । यहां एक छोटी -सी बस्ती हैं और छोटा
-सा प्राइमरी स्कूल । अपना प्यारा तिरंगा लहरा हैं वहां । आज पन्द्रह अगस्त
हैं -आजादी का दिन , आजादी की सालगिरह।
यहां से अब कहां ? यह खड़खड़िया बस तेजू तक ले जाएगी । बात बस इतनी हैं कि
पगली नदी में ज्यादा पानी न हो नहीं तो हाथी पर सवार होकर नदी पार करनी
पड़ेगी । `सुबे तु जब हाम आया था तब थोरा पानी था।´ बस चालक अपनी वीरता का
बखान कर रहा हैं कि कैसे उसने सुबे थोरे पानी में `बरी´ बस को निकाल लिया
था , बिना किसी नुकसान के।
पगली नदी तेरा नाम क्या हैं ? सहयात्रियों से पूछने पर सब हंसते हैं।कहते
हैं पगली नदी हैं यह। ऊपर पहाड़ों पर जब बारिश होती हैं तो इसमें उफान आ
जाता हैं अचानक। कभी इस पर पुल भी बना था जिसे यह एक दिन अपने पागलपन में
बहा ले गई। वह देखो पुल का टूटा हिस्सा- पागलपन के इतिहास का प्रमाण , बंधन
से मुक्ति का स्मारक। पहाड़ अब करीब आ रहे हैं। जंगल का घनापन घट रहा हैं ।
दिखने लगी हैं छोटी - छोटी बसासतें। शायद करीब आ रहा हैं तेजू- धुर पूरबी
अरूणाचल प्रदेश के लोहित जिले का मुख्यालय , मेरा नया निवास स्थल। सड़क अब
सड़क जैसी लग रही हैं । नहीं तो इससे पहले जगह-जगह पानी और बालू में खड़े-गड़े
सीमा सड़क संगठन के बोर्ड ही बताते थे कि यहां एक सड़क हैं ( या सड़क थी ) -
नेशनल हाई वे।
सड़क के हर कदम पर अंकित हैं
कई- कई तरह के निशान
मैं फिर देखती हूं नदी को ।
पेड़ की टहनियों को मरोड़ती हुई हवा
धंसा देती हैं मुझे स्मृतियों के जंगल में।´
अपनी बस अब तेजू में दाखिल हो रही हैं । सबसे पहले छावनी ,फिर कालेज,
केन्द्रीय विद्यालय, इण्डेन गैस गोदाम ,जिला अस्पताल और यह बाजार। बस रूक
गई हैं , सवारियां उतर रही हैं । सबसे आखीर मैं उतरता हूं ,अपनी अटैची और
बैग के साथ । सामने चौराहा हैं - चार रास्ते । बाद में पता चला कि चौराहे
को यहां `चाराली´ कहते हैं- चार रास्ते । मैं अपने आप से प्रश्न करता हूं-
` तुम्हें किस रास्ते पर जाना हैं डाक्साब?´ इससे पहले कि जवाब आए अरे वह
देखो आ गई बारिश । और मैं भीग रहा हूं नए जगह की नई बारिश में नए रास्ते को
खोजता हुआ।
***
( इस सफरनामें में शामिल किए गए कवितां ममांग दाई के संग्रह `रिवर पोएम्स´
से साभार ली गई हैं )
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सिद्धेश्वर सिंह
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