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डायरी के कुछ बिखरे ,बेतरतीब पन्ने
श्रद्धा आढ़ा
इकत्तीस जनवरी 2019
कच्चे घड़े थे तब किसी ने कहा आंव में तप जाओ मज़बूत बन जाओगे ,फिर चोट सहन
कर लोगे ।जम कर आग में पके पर पकने पर ये अहसास हुआ कि पकना भी उतना ठीक
नहीं था अब टूटने पर कुछ न बचेगा,कच्चेपन के साथ वो सहूलियत थी ।
फ़िर लगा सोने की तरह तपना था और कुछ मिलावट की भी जरूरत थी,पर वो हो न सका
।अब चुल्हे की राख की नीचे दबाए गए अंगारों की तरह अंदर की विराट जलन को
ऊपर पड़ी राख की तरह शांत और निस्पृह दिखाना होता हैं ।
पूरे भागते सौरमंडल में रुकने के कोई अवसर नहीं होते, चलना आवश्यकता हो न
हो विवशता हो जाती हैं ,चाहे पैर ज़वाब दे जाएं, चाहे कहीं पहुंचने की
इच्छा मर चुकी हो,चाहे चौराहे,तिराहे और दुराहे नापते नापते आप नप चुके हों
लेकिन फ़िर भी चलना होगा । उस पर दुधारी शमशीर ये कि पीछे लौटने जैसा कुछ
नहीं होता 'नो यू टर्न '।पीछे की राहों को देखकर या तो रोया जा सकता हैं या
बेसाख्ता हँसा जा सकता हैं लेकिन यहाँ भी दोराहा हैं ।याद कीजिए कि किसी
रोज़ सिखाया गया था रोना चरित्र की दुर्बलता हैं ,औरतों का तो हथियार भी
।हँसना चरित्र का हल्कापन और बेहयायी भी । गोया जेल में आजादी का प्रहसन
रचा जा रहा हैं ।मुसुकारने से पहले तय करना हैं कि कितने इंच कहां
मुसकाएं।रोने से पहले आँसू गिन लेने हैं ।
इन चौराहों और दुराहों पर कहने को चालक आप होते हैं पर चलना तय रास्तों पर
होता हैं । विकल्प नहीं होते मगर गलतियों पर ज़िम्मेदार ठहराये जा सकते हैं
।अक्सर किंकर्तव्य- विमूढ हो देखने के अलावा कोई चारा नहीं होता
।सुविधानुसार अपनी छाती या सिर पीट कर आप विलाप कर सकते हैं कि ये" तो कहां
चाहा था? " पर अफसोस कि आप की चाहत को पूछता कौन हैं ।अपनी धेले भर की औकात
के साथ संकल्प और विकल्पहीन दुनिया में जीवन गुज़ारते हुए बड़े बड़े फ़लसफ़े
पढि़ए ,आशावादी कविताएँ कीजिए, दूसरे के दुख में ढांढस बंधाइए ऐसे कामों
में लगे रहिये जिन में ख़ूद से दूर भागा जा सके ।
कई पछतावों में पछतावा ये भी होता हैं कि फ़लां काम को ऐसे नहीं वैसे करते
तो ठीक होता ।वो बात जो साफगोई में कहीं कूटनीतिक कहते, योजना बना कर कहते
तो बेहतर होता ।लेकिन वो केवल पछतावे होते हैं ।हर जग़ह परिस्थिति मुफ़िद
भी नहीं होती योज़नाओं के लिए ।
कितना लिखा जाए कि मन खाली हो जाए ।
उस शम्अ की तरह से,जिसको कोई बुझा दे
मैं भी जले हुओ में ,हूं दाग-ए-नातमामी ।[ग़ालिब ]
फरवरी 03 दो हजार उन्नीस
उम्र खुल कर खिलखिलाने वाली हो । चौतरफा हैं रत पसरी हो,ख़्वाब की चादर के
बाहर संसार सोया लगता हो , आँखों के इन्द्रधनुष सही रंगो को देखने से रोक
रहे हों,कभी झांसी की रानी, कभी शकुंतला तो कभी मीराबाई के भेस धरे जाते
हों दिमाग की सुनने से साफ़ इन्कार हो ।दिल की अदालत ही आख़री हो ।
ऐसे दिनों में किसी रोज़ तंग गली का नुक्कड़ , हाथ में सामान लिए पैदल आ रहे
हों। कि अचानक सामने से बैल आ जाए बड़े और नुकीले सींगो वाला, भय के मारे
लगे की सांड के सींग सीधे आपके पेट के आर पार हो जाएंगे, पीछे मुड़ने का भी
फायदा नहीं वहां कोई बचने का उपाय नहीं हैं ।हाथ पैर कांपने लगते हैं, साहस
जवाब दे जाता हैं ।वैसे भी कितने ही साहसी हो सांड से कैसे भिड़ोगे ।चलो
मान लें पुरूष हो भिड़ जाए महिला हो तब !
तंन्त्रिका -तंत्र पर नियंत्रण कमजोर पड़ा,दृष्टि अंधकार से बाधित हुई ।
लड़खड़ा कर गिरे।सामान मीट्टीसात ।सांड बिना कुछ किए गुज़र गया ।खुद के घुटने
पर चोट लग गई ,पर चोट इतनी गहरी भी नहीं कि उसके गीत गाए जा सकें । निगोड़ी
हल्दी के लेप से ही भर गई पर भीतर गहरी लगी हर सर्दी में तकलीफ देगी,टीस
उठेगी, आयोडेक्स मलते हुए किसे कोसेंगे,खुद को गाय को या परिस्थिति को
?कोसना आयोडेक्स से बेहतर मरहम हैं ।
ये बेहद सामान्य उदाहरण हैं किसी के भीतरी जख़्म सोच से भी गहरे हो सकते
हैं ।
आप ने एक भ्रम का अद्भुत शीश महल बना रक्खा था।उसमें दुनियां जहान की भली
और आदर्श से भरी बातें थीं ।लोग स्नेह करूणा, प्रेम से भरे हुए थे, सच्चाई
और ईमानदारी,मानवता और भी बहुत कुछ पर खुद ही के हजार चेहरे दिखाने वाला
शीशमहल । भ्रम के शीशमहल,, खुबसूरत तिलिस्म 'इल्युजन' हकीक़त के पत्थरों से
दरकते जाते हैं ।उन्हें बचाया नहीं जा सकता बचाने वाला लहुलुहान हो सकता
हैं ।दुनिया की अपनी चाल हैं ,साथ चलें, पिछड़े , हांफें या रेंगे सुविधा और
खतरे दोनों चुनने वाले के । कोसने के लिए कोई न होगा
ऐसे ही कई दर्द जिनमें किसी को न कोसा जा सके भीतर भरते जाते हैं ।बाहर से
स्वस्थ दिखते हुए भी आप दर्द के अडंगों का स्टोर बन जाते हैं,मन में अंधकार
के विवर बनते जाते हैं उनमें बसे बिच्छू कभी भी दंश दे सकते हैं , स्वयं का
मूल उन सब पीड़ाओं के नीचे दबा रहता हैं ।न चाहते हुए भी बिना सर्दी के भी
मन कभी कसैला , पनीला ,सीलन भरा हो जाता हैं , कई बार बेबात इसका उल्टा हो
जाता हैं । खुशहाल माहौल हैं और अनायास ही मूड उखड़ गया हास्य के बीच
निर्वेद पसर गया,आस पास के निर्दोष बेवजह की सनक का शिकार बन कर भी प्रेम
जताएं ,आप प्यार से बुलाने वाले को भी झिड़क दें ।
परिवार जन दुहाई देंगे, क्या कमी हैं तुझे। इतना किसी और के पास होता तो
...फलां को देख, ढिमका को देख ।यहां गम क्या गम परछाई भी नहीं....
पर आपका मूड ठीक नहीं होता ।अतिशय प्रेम से भी कोफ्त होने लगती हैं बेवजह
आँसू निकल आते हैं, अपना होना मात्र व्यर्थ जान पड़ता हैं ।आस पास वाले खुद
को बिना कुसूर के दोषी मानने लगते हैं ।
मनोविज्ञान में शायद इसे मूड स्वींग्स कहते हैं ।आप कभी भी कैसे भी रिएक्ट
कर सकते हैं ।वही बात जिस पर आप कल हँसे थे आज चिढ़ पैदा कर सकती हैं ।वह
चिढ़ भीतर से आई बाहर से कोई प्रयोजन नहीं ।बाहर कोई अवाक् हो सकता हैं ।
संवेदनाओं के शिखर बहुत निर्जन,एकांत भरे, चुभती शीत युक्त ,सुन्न होते
मस्तिष्क ,तीव्र भावुकता वाले होते हैं ।समय पर वहां से उतर आया जाए तो ही
ठीक हैं अन्यथा ऐसी अमरबेल अपने भोजन और आश्रयदाता को ही खा जाती हैं ।
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घमंड भले ही छीने पर ईश्वर किसी का गुरूर चूर न करे ।
'ग़ालिब ' वज़ीफ़ाख़्वार हो ,दो शाह को दुआ
वह दिन गए जब कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं ।
फरवरी 18 ,दो हजार उन्नीस
जाना कहीं नहीं और ठहरने का भी मन नहीं जीवन त्वरित गति से भाग रहा हैं और
एक एक पल गुज़ारना भारी हैं ।सारे दिन धूप के पीछे भागते रहो , शाम को फिर
भी हाथ ठिठुरन लगती हैं ।दिन भर इधर उधर से टुकड़ा टुकड़ा जमा की हुई
खिलखिलाती बातें शाम होते ही जाने कहाँ गायब हो जाती हैं ।हाथों पर लकीरें
बढ़ रही हैं , त्वचा गुजरते दिनों के साथ पतली होती जा रही हैं ।
एक लम्बी यात्रा पर निकली बस में बैठी हूँ ।लोग आते हैं, बैठते हैं , उतर
जाते हैं, कुछ जाने -अनजाने चेहरे ।किसी से परिचय, किसी से बात, कहीं
घनिष्ठता।कभी कभी किसी से पूछ बैठती हूँ हम पहले कभी मिलें हैं क्या?यात्री
कहता हैं सवाल गलत हैं ।कोई किसी से कभी नहीं मिलता,मिलना असम्भव हैं ।जीवन
सरल रेखाओं सा हैं ।सरल रेखाएं मिला नहीं करती सब अकेले हैं । ये कैसा जवाब
हैं ?मुझे उसकी बातों पर यकीन न हुआ ।अगला सवाल करने से पहले यात्री अपने
मोबाइल में खो गया किसी लड़की की तस्वीर दिखी मुझे, कौन होगी, यात्री से
क्या सम्बन्ध होगा ।नहीं नहीं जो हो मुझे क्या ।कुछ देर में उस चेहरे की
जगह दूसरा चेहरा , फिर कोई और ।एक चेहरे के बड़ी गोल बिन्दी लगी हैं गोद में
बच्चा जोर जोर से रो रहा हैं मगर वो बच्चे को चुप नहीं करवाती कहती हैं
थककर चुप हो जाएगा। हर चेहरा कुछ समय बाद गायब होता जाता हैं ।बिछड़ने के डर
से कई बार किनारा करती हूँ। तो कई बार उतर गए लोगों के पीछे बेतहाशा भागती
हूँ लेकिन उतरे लोग मुड़ कर नहीं देखते उन्हें मेरे होने का अहसास ही नहीं
शायद या रूचि नहीं मेरे होने में । सबके अपने गन्तव्य हैं ।मेरा कोई गंतव्य
हैं क्या?या मैं लक्ष्यहीन पतंग हूँ।मैं इस बस से कब उतर पाऊँगी? सारे उतरे
हुए लोग क्या कर रहे होंगे।कुछ का तो पुनर्जन्म भी हो गया हो शायद ।काश कुछ
चेहरे फिर दिख जाएं।लेकिन क्या फिर मन सुखी हो जाएगा, दर्द का सुराख भरेगा?
बस को और तेज चलना चाहिए, बहुत तेज ।
भागते दरख्तों के पत्ते नज़र नहीं आते फिर भी गाना मन में बजता हैं 'जैसे
पात गिरे तरूवर से मिलना बहुत दुहेला' ।
काली और सफेद चादर में अन्तर चिन्हित करना मुश्किल हैं इन दिनों ।
फरवरी बीस, दो हजार उन्नीस
जीवन की तुला में सुख का पलड़ा ही क्यों भारी चाहिए?ग़म के सुर भी सजे रहें
तो क्या बुरा हैं ।
'कबहुक हौं यहिं रहनि रहौंगो, परिहरि देह जनित चिंता- सुख दुख समबुद्धि
सहौंगों'।तुलसी ने जो चाहा वैसी ही वाणी में गहरी समझ रखने वाली राईका जाति
के एक संत ने एक बार माँ से कहीं थी । जब भाई चला गया था 'ऐ माँ !माता
कोंता ए तो मोगे न दख लिदु तु ए ' वो संत महाभारत के प्रसंग की बात कर रहे
थे की कुंती ने कृष्ण से दुख मांगा था कि दुख में तुम अधिक याद आते हो सुख
तुम्हें बिसरा देता हैं ।
रिवाज के मुताबिक ससुराल की देहरी में मुख्य द्वार से चार कदम पहले ही हाथ
भर घूंघट काढ रूदन प्रारम्भ किया था हांलाकि ये रिवाज अजीब प्रहसन ही लगता
हैं कि आवाज के साथ रोया जाए , आंसू और आवाज साथ शुरू नहीं होते हां कंठ
बहुत भर जाने पर आवाज निकल सकती हैं ।सामूहिक रूदन और मुख प्रक्षालन के बाद
निगाह उस खाट वाली जगह को टटोलती रही जहाँ उनका बिराजना रहता था, हर बार
मिलने से पहले खुद को ठीक से देख लेना होता था कि पहनावे -ओढ़ावे में कहीं
कुछ कम न रह गया हो, बिछिया, पाजेब, मेहंदी, नेलपेंट कहीं कुछ कमी न रह जाए
और अपनी नजर में पूर्णतः ठीक होने के बावजूद भी कुछ वो पारखी नज़रें पकड़
लेतीं 'बिनणी गोटों कुण लगायो हैं ?" बस इतना कह कर बात समाप्त, कहाँ क्या
कम हैं खुद समझो, स्पेस लेने देने की परम्परा उस माहौल में हैं ही नहीं की
आगे प्रश्न किए जाएँ।बड़ी सास का मान भी बड़ा, गम्भीर और समझ से भरी महिला
थीं।92 वर्ष तक भी सजग और सशक्त रहीं।
ऐसे शोक में मायके में पुराने वस्त्रों के साथ हरे या आसमानी ओढ़ना ओढ़ने
की रीत हैं , वहां दुख के रंग गहरे हैं पर खुशियों के उतने चटख नहीं हैं ।
पर ससुराल में रीत हैं हरा पीला, लहरीया ओढने की, वो भी बिल्कुल करीब की
बहुओं के लिए , बेटियाँ तो गोटे वाले भी पहन सकती हैं , सुख में बहुत गहरे
शोख रंग पहनो दुख में बहुत हल्के ।पीहर पर्वतों वाला देश हैं , ससुराल रेती
वाला, सारी रीतें विपरीत सी हैं।
ग्यारह दिन सारी रस्में चलीं, सबसे ठीक वाली पथवारी पूजना,जिसके तहत रोज
शमी के वृक्ष में सारी महिलाएं जल अर्पण करती हैं।रेगिस्तान में पेड़ को
सींचने से बड़ा धर्म हो भी क्या सकता हैं । । बाकी रस्में ह्रदय तोड़ने वाली
होती हैं। वर्णन छोड़ याद से भी सिहरन हो ।बारहवे को सबने तर्पण किया आटे के
गोल पिण्ड,मिट्टी के घड़े, धान के पीढे,यज्ञ
मंत्रोच्चार । मुक्ति के सारे कर्मकांड,पर अगर मोक्ष लिए ये सब पर्याप्त
होता तो बुद्ध सिहांसन छोड़ते क्या ?
शोक की हर एक रस्म के बाद महिलाएँ करूण रूदन करती हैं मानो जीवन की सारी
पीड़ाएँ सिमट कर घनीभूत हो गई हों ।वो जाने वाले पर रोती हैं या खुद पर? ये
जानना कठिन होता हैं ।हर एक का जीवन शोक का सागर लगता हैं ।औरतें अंदर से
इतनी पीड़ा से भरी क्यों होती हैं? क्या महिलाओं पर चुटकुले बनाने वाले इसका
ज़वाब जानते होंगे ?
पुराने लोगों ने शोक के लिए निर्धारित भीड़ भरे बारह -पन्द्रह दिन गहरे
मनोवैज्ञानिक चिंतन के पश्चात तय किए होंगे शायद, जमघट, आना जाना, खिलाना
पिलाने और रिवाजों में व्यस्त हो कर परिवार गए व्यक्ति के दुख से सहज मुक्त
हो पाता हैं ।कई दिनों का निरन्तर रूदन अन्दर के दर्द को बाहर निकाल देता
हैं , ये सब न हो तो अकेलापन मार डाले ।विषष्य विषमौषधम् ।दर्द ही दवा बन
जाता हैं कई बार ।
कच्चा पत्ता टूट जाए तो वृक्ष को घाव दे जाता हैं पर एक स्वाभाविक और सहज
मृत्यु जीवन का ,प्रकृति का हिस्सा होती हैं फिर भी किसी को खोना तो खोना
ही हैं ।
मुझे तो यही लगता हैं कि सुख का पलड़ा जितना दुख के पलड़े के पास रहेगा जीवन
का संतुलन उतना ही बेहतर बना रहेगा ।
'सब ठाठ यहीं रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा ।'
अप्रेल सात दो हजार उन्नीस
आँधियाँ करवट ले उठ बैठी, साँय साँय का स्वर बादलों की गरज में घुल रहा हैं
।पेड़ों के रहे सहे पत्ते जमींदोज हो रहे हैं ।
कुछ शामें गहरे काले लिबास में आती हैं, पर बिजली की चमक में मुस्कुरा देती
हैं ।आसमानी बिजली की चमक से लजा जमीनी बिजली छुप गई हैं ।
कुछ दिनों की सूनी दीवार कलरव से भर गई। तो मानों मन मयूर नृत्य कर बैठा ।
मयूर केवल मन में ही नहीं हैं । यहाँ रेगिस्तान में हर शाम जमघट सा लग जाता
हैं ।कई मयूरियाँ ,और चार मोर। आनुपातिक रूप से मोर कम होते हैं प्रकृति
में मोरनियाँ अधिक सो मादाओं की बैचेनी जायज हैं ।मोर मोरनी की अपेक्षा
सुन्दर तो होता ही हैं गर्विला भी होता हैं ।।
सारी मादा मोर सामने के पीपल पर बैठ एक स्वर में पुकार करती हैं।मोर मोबाइल
टॉवर पर महफिल में रहते हैं ।उन्हें मानो मयूरियों के स्वर में कोई आकर्षक
ही नहीं हैं ।या वे कुछ और की प्रतीक्षा में हैं ।
कुछ कुछ गोपियों वाला हिसाब दिख रहा हैं । कान्हा को पुकारो और वो कभी
मथुरा नरेश हैं तो कभी कुब्जा के रनिवास में हैं ।शुक्ल जी का 'भम्रर-गीत'
के सन्दर्भ में कहना था कि कुछ कोस के फ़ासले पर गोपियां कृष्ण के लिए हाय
तौबा मचाती हैं तो लगता हैं मानो
गोपियों का वियोग दिखावटी हैं ।जाएं मथुरा और मिल आएं माखन चोर से
।द्विवेदी जी ने इस बात का खण्डन कर , न जाने को नारी स्वाभिमान से जोड़ा कि
शुक्ल जी समझ न पाए ।स्थान की दूरी भी कोई दूरी हैं भला ।
ऐसे ही मान की मारी मयूरियाँ दूर से आवाज़ लगाती हैं ।टाॅवर पर बैठे साथी
को।खुद कैसे चली जाएँ ।पर ये क्या सहसा एक मोरनी उड़ कर टाॅवर पर पहुँच जाती
हैं जैसे उसने सारे लाज और मान के बन्धनों पर प्रेम को प्रतिष्ठित कर दिया
हैं ।जैसे कोई मूमल जा पहुँची हैं । प्रियतम के देश ।
जैसे उसे शेष मयूरियों के तानों और तंज़ों का भय न रहा, जैसे लाज की
निछरावल कर दी हो ।बरसती बूँदों में पक्षियों के जोड़े को वहीं छोड़ खाट भीतर
खिसका ली ।
एक प्यारा मिथक ये भी हैं कि मोर के आँसू पीना ही मोर मोरनी का मिलन होता
हैं ।काश ये मिथक सत्य होता तो कितना मारक होता ।
हवा का सस्वर प्रवाह जारी हैं ।महकती ख़बर का कपूर सुगन्ध फैलने से पहले न
जाने क्या सोच कर हटा लिया गया ।दिया बाती के समय खयाल आया ।
दिन भर के तपते धोरे थकने लगे हैं ।बरसात से रात्रि की शीतलता बढ़ेगी ।
रेगिस्तान की रातें बहुत सुकुन भरी होती हैं ।गाँव में आना कम होता हैं पर
सुखद होता हैं ।
-श्रद्धा आढ़ा
लेखनी
की धनी श्रद्धा भले ही आजकल वापी ,गुजरात में रहती हों लेकिन उनकी लेखनी
हमेशा राजस्थान की रेत, गीतों और इस माटी से उपजी कहानियों और हकीकतों को
रचती रहती है। वे भले बरसों विदेश रह आएं लेकिन राजपूती पोशाक और यहाँ के
गाँवों से नाता नहीं छोड़तीं।
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