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बम्बई...?

मोहन राकेश

दिन-भर परिभाषाएँ घड़ते रहे। साहित्य की, जीवन की, मनुष्य की। बे-सिर-पैर। सभी पढ़ी-सुनी परिभाषाओं की तरह अधूरी और स्मार्ट। दूसरों ने जितनी स्मार्टिंग की कोशिश की, उससे ज़्यादा खुद की। जैसे परिभाषा नहीं दे रहे थे, कुश्ती लड़ रहे थे। महत्त्व सिर्फ़ इस बात का था कि दूसरे को कैसे पटखनी दी जाती है। या फिर पटखनी खाकर भी कैसे बेहयाई से उठ खड़े होते हैं। 'साहित्य का वास्तविक लक्षण यह है कि...,' 'जीवन की आध्यात्मिक व्याख्याओं से हटकर वास्तविक व्याख्या इस रूप में दी जा सकती है कि...' 'नीत्शे की मनुष्य की कल्पना बहुत एकांगी है। मेरे विचार में मनुष्य का वास्तविक स्वरूप यह है कि...।'जिसे जितने गुर आते थे कुश्ती के, उसने वे सब इस्तेमाल कर लिये। नतीजा? कुछ नहीं, सिवाय भेल-पूरी की दावत के। साहित्य, जीवन और मनुष्य, तीनों पर एक-एक डकार और बस के क्यू में शामिल।

बम्बई...?

बहुत उलझन होती है अपने से। सामने के आदमी का कुछ ऐसा नक्शा उतरता है दिमाग़ में कि दिमाग़ बिल्कुल उसी जैसा हो जाता है। दूसरा शराफत से बात करे, तो बहुत शरीफ़। बदमाशी से बात करे, तो बहुत बदमाश। हँसनेवाले के सामने हँसोड़। नकचढ़े के सामने नकचढ़ा। जैसे अपना तो कोई व्यक्तित्व ही नहीं। जैसे मैं आदमी नहीं, एक लेंस हूँ जिसमें सिर्फ़ दूसरों की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं। कभी जब तीन-चार आदमी सामने होते हैं, तो डबल-ट्रिपल एक्सपोज़र होता है। अपनी हालत अच्छे-खासे मोंताज की हो जाती है।

कन्नानोर : 8.1.1953

आगरा से चलने के बाद आज मानसिक स्थिति ऐसी हुई है कि यहाँ कुछ लिख सकूँ। भोपाल में, बम्बई में,गोआ में, मंगलौर में-सब जगह मन में विचार आता था कि अपनी किन्हीं प्रतिक्रियाओं को बैठकर लिखूँ,परन्तु या तो व्यस्तता रहती थी या थकान, या दूसरे लोग उपस्थित रहते थे।

घर से इस तरह आकर मैं कह सकता हूँ कि मुझे मानसिक स्वस्थता मिली है। यद्यपि ऐसे क्षण आते हैं, जब घर के सुखों का आकर्षण अपनी ओर खींचता है, और मन में हल्की-हल्की अशान्ति भर जाती है, फिर भी अहर्निश नूतन के सान्निध्य की अनुभूति, केवल निजत्व का साहचर्य, और चारों ओर के जीवन को जानने की रागात्मक प्रवृत्ति, इन सबसे सुस्थिति बनी रहती है...

मैंने अपनी यात्रा के नोट्स में कहीं लिखा है कि किसी भी अपरिचित व्यक्ति से, चाहे उसकी भाषा, उसका मज़हब, उसका राजनीतिक विश्वास तुमसे कितना ही भिन्न हो, यदि मुस्कराकर मिला जाए तो जो तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाता है, वह कोरा मनुष्य होता है : कुछ ऐसी ही मुस्कराहट की प्रतिक्रिया नाना व्यक्तियों पर मैंने लक्षित की है। यह ठीक है कि बाद में भाषा, मज़हब और विश्वास के दाग़ उभर आते हैं, परन्तु वे सब फिर उस वास्तविक रूप को छिपा नहीं पाते, और मनुष्य की मनुष्य से पहचान बनी रहती है। मुझे याद आता है कि डेल कार्नेगी की पुस्तक 'हाउ टु विन फ्रेंड्स एंड इन्फ्लुएंस पीपल' में एक जगह उसने लिखा है कि ''जब अपरिचित व्यक्तियों से मिलो, तो उनकी ओर मुस्कराओ।'' यद्यपि लेखक एक मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन करने में सफल हुआ है, फिर भी मनुष्यता के इस गुण का व्यापारिकता, और परोक्ष लाभ की कूटनीति से सम्बन्ध जोडक़र उसने एक अबोध सत्कौमार्य को कटे-फटे हाथों से ग्रहण करने की चेष्टा की है। वह मुस्कराहट जो तहों में छिपे हुए मनुष्यत्व को निखारकर बाहर ले आती है, यदि सोद्देश्य हो तो, वह उसके सौन्दर्य की वेश्यावृत्ति है।

गाड़ी के सफर में मेरी कापरकर से जान-पहचान हो गयी, जहाज़ पर मोतीवाला से, कन्नानोर आकर कपूर से, और कल शाम को समुद्र-तट पर धनंजय से-बस उसी मुस्कराहट के बीज से। साधारण चलते जीवन में ये सबके सब 'साधारण व्यक्ति' हैं-इनमें से किसी में भी कोई ऐसी विशेषता नहीं, जो इन्हें 'जानने योग्य'व्यक्ति बनाती हो। फिर इनसे मिलना भी किसी चयन का परिणाम नहीं, केवल आकस्मिक योग ही था। परन्तु इन सबमें ही एक तत्त्व निखरकर सामने आया-वह तत्त्व जो प्रत्येक मनुष्य में रहता है, परन्तु बहुत कम ही कभी व्यक्त हो पाता है, शायद सभ्यता के संस्कार के कारण-यहाँ तक कि बहुत-से 'जानने योग्य'व्यक्तियों में भी उसके दर्शन नहीं होते-और वह या मनुष्य का मनुष्य में सहविश्वास, बिना किसी आरोप के, बिना किसी बाधा के, बिना किसी कुंठा के।

भोपाल में बिताई गई शाम का वातावरण अपनी हल्की-सी छाप छोड़ गया है। मुग़लकालीन जीवन की जो कल्पना मस्तिष्क में थी, उसको कुछ अंशों तक मूर्त रूप में देखकर एक ओर तो यह पुलक हुआ कि मैं एक कल्पना को साकार रूप में देख रहा हूँ और दूसरे शायद यह रोमांच हुआ कि मैं वर्तमान से कुछ पीछे हट आया हूँ। अतीत की एक शाम में, अतीत के एक नगर में, अतीत के वातावरण में, मुझे कुछ क्षण जीने का अवसर मिल गया है। वह चौक और वहाँ की दुकानें, वे तश्तरियों में दस-दस, बीस-बीस पान लेकर खाते और खिलाते हुए शायर, वे बिकते हुए मोतिया और चमेली के हार, वे मस्जिदों-जैसे घर और शुद्ध उर्दू में बात करते हुए ताँगेवाले-मुझे महसूस हो रहा था कि अभी किसी शहज़ादे या शहज़ादी की सवारी भी उधर से आ निकलेगी, और लोग झुक-झुककर उसे सलाम करेंगे।

परन्तु सोफिया मस्जिद की आधुनिकता देखकर अतीत का यह सपना टूट गया। फिर वोल्गा होटल के कीमे की गन्ध भी मुगलिया नहीं, डालडा के आविष्कार के बाद की थी...

बम्बई विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन पर उतरकर यह नहीं लगा कि मैं दो वर्ष बाद वहाँ आया हूँ। ऐसा लगा जैसे मैं दादर से वहाँ आ रहा हूँ। रोज़ ही आता हूँ, और वहाँ के जीवन से उसी तरह ऊबा हुआ हूँ। वही मछलियों की गन्ध, वही जल्दबाज़ी, वही सूखे मुरझाए हुए शरीर, वही कुछ खोकर उसे ढूँढऩे की हताश चेष्टा का-सा जीवन-कहीं जाने का मन नहीं हुआ, किसी से मिलकर हृदय उत्साहित नहीं हुआ। जिस यात्रा में वहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में पुनरावृत्ति है, वह दो वर्ष बाद एक दिन के लिए भी उकता देनेवाली थी, जो वह पुनरावृत्ति जीवन-भर के लिए जिए जा रहे हैं, उनके स्नायुओं में कितनी जड़ता भर गयी होगी?

शाम को इक्वेरियम में मछलियाँ देखकर हृदय और आँखों में विस्फार आ गया। शीशे के पीछे पानी था, जहाँ उपयुक्त पृष्ठभूमि देकर उसे नाना रंगों की रोशनी से आलोकित किया गया था। अपने-अपने केस में तरह-तरह की मछलियाँ, केकड़े और इन्हीं श्रेणियों के कुछ दूसरे जीव इठला रहे थे। वह उनके लिए साधारण रूप से जीना होगा, जो हमारी आँखों को 'इठलाना' नज़र आता है। मैं मछलियों के नाम भूल गया। केवल रंगों की और उनकी गति की कुछ स्मृति रह गयी है। चौड़े शरीर और छोटे आकार की वे मछलियाँ, जिनके नीचे,रेशमी डोरे-से पीछे की ओर फैले रहते थे-एक नर्तकी के लचकते हुए शरीर से कई गुना अधिक लचकती हुई नाना चितकबरे रंगों की डेढ़-दो फुट की मछलियाँ-सामूहिक रूप से एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर जाती हुई नाना आकारों की मछलियाँ-नाखून भर के आकार तक की मुँह के रास्ते साँस लेती हुई भगत मछलियाँ, जिन्हें यह नाम शयद इसलिए दिया गया है कि उनके मुँह के खुलने और बन्द होने में वही गति रहती है जो 'राम' नाम के उच्चारण में-और अन्यान्य कई तरह की मछलियाँ। मैं फूलों और तितलियों को देखकर ही सोचा करता था कि रंगों के और आकारों के इस वैविध्य की सृष्टि करनेवाली शक्ति के पास कितनी सूक्ष्म सौन्दर्य-दृष्टि होगी-परन्तु नाखून-नाखून भर की मछलियों के कलेवर में रंगों की योजना देखकर तो जैसे उस विषय में सोचने से ही रुक जाना पड़ा...

पूना में थर्ड क्लास के वेटिंग हॉल में कुछ समय बिताना पड़ा था। वहाँ बहुत-से ऐसे स्त्रियाँ-पुरुष थे, जो या तो विकलांग थे, या आकृति के रूखेपन के कारण मनुष्येतर-से मालूम पड़ते थे। किसी के सिर पर रूखे बाल उलझे हुए खड़े थे, किसी की दाढ़ी महीने भर की उगी हुई थी। स्त्रियों में किसी की आँखें रूखी और लाल हो रही थीं और किसी का भाव-शैथिल्य मन में एक जुगुप्सात्मक भाव भर रहा था। ऐसे व्यक्तियों की एक श्रेणी ही है जो देश के किसी भी भाग में पायी जा सकती है। काले पड़े हुए शरीर, सूखी हुई त्वचा, जीवन के प्रति नितान्त निरुत्साह भाव, चेष्टाओं में शैथिल्य और बुद्धि के नियन्त्रण का अभाव। जिस समाज में मनुष्य की एक ऐसी श्रेणी बन सकती है, उसके गलित होने में सन्देह ही क्या है?

जब मैं अपने-आपको मानसिक दुर्बलता के किसी क्षण में पकड़ पाता हूँ, तो अपना-आप बहुत भिन्न-साधारण से कहीं स्तरहीन प्रतीत होता है। ऐसे समय एक ओर तो मैं अपने चेहरे के शिथिल प्रतिभ भाव को देखता हूँ, और फिर द्रष्टा के रूप में उस भाव पर मुस्कराता हूँ...सचमुच वह अपना शिथिल-प्रतिभ रूप दर्शनीय होता है। देखा नहीं जाता।

मार्मुगाँव से मंगलोर तक जहाज़ पर की गयी उन्नीस घंटे की यात्रा में वह पुलक प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी मुझे आशा थी। समुद्र का अपना आकर्षण था, जहाज़ के डोलने में भी थोड़ा आनन्द था, खोजने में दृष्टि को कहीं न कहीं कुछ सौन्दर्य मिल ही जाता था, पर थर्ड क्लास के डेक पर मनुष्य से जिस रूप में सफर करने की अपेक्षा की जाती है वह किसी भी तरह सह्य नहीं। जो जहाज़ पशुओं को ले जाते हैं, उनमें पशुओं के लिए शायद इससे कहीं अच्छी व्यवस्था होती होगी।

कन्नानोर के सागर पुलिन पर टहलते हुए मैं बच्चों के रेत पर बने हुए घरौंदे देखने लगा था। बच्चों के पिता साथ थे-श्री धनंजय-जिनसे बाद में परिचय हो गया। उन्होंने जब मेरा विशद परिचय जानना चाहा तो मैंने बताया कि मैं एक लेखक हूँ, घूमने के लिए निकला हूँ, पश्चिमी घाट का पूरा प्रदेश घूमने का विचार रखता हूँ। इस तरह अपना परिचय देकर मुझे एक रोमांच हो आया। मुझे लगा जैसे मैं कोई बहुत बड़ी बात कह रहा हूँ। यह होना, और ऐसे होना, जैसे जीवन में बहुत कुछ पा लेना है। मैंने एक बार लहरों की ओर देखा जो शार्क मछलियों की तरह सिर उठाती हुई तट की ओर आ रही थीं। फिर बच्चों के घरौंदों को देखा। फिर दूर क्षितिज के साथ सटकर चलते हुए जहाज़ को देखा जो कोचीन की ओर जा रहा था। डूबते सूर्य का लगभग एक इंच भाग पानी की सतह से ऊपर था, जो सहसा डूब गया। कुछ पक्षी उड़ते हुए पानी की ओर से मेरी ओर आये। बायें हाथ कगार के नीचे काली चट्टानों के साथ एक लहर ज़ोर से टकराई। कुछ बच्चों की किलकारियाँ सुनाई दीं। पीछे पुल के पास से कोई कार चल दी।

आज मेरा जन्मदिन है। आज मैं पूरे अट्ठाईस वर्ष का हो गया। मुझे प्रसन्नता है कि मैं यहाँ हूँ। होटल सेवाय दिन भर शान्त रहता है। रात को रेडियो का शोर होता है, पर $खैर! मैं यहाँ रहकर कुछ दिन काम कर सकूँगा।

कन्नानोर : रात्रि-21.1.53

कल सहसा चल देने का निश्चय कर लेने के अनन्तर मुझसे कुछ भी काम नहीं हो पाया। यह व्याकुलता जो सहसा जाग उठी, बिल्कुल आकस्मिक नहीं कही जा सकती। मैं जानता हूँ...चाहे यह विरोधोक्ति ही लगती है-कि मुझे अर्ध-चेतन रूप से सदा अपने से इसकी आशंका रही है। जहाँ तक चलते जाने का प्रश्न है, चलते जाएा जा सकता है। परन्तु जहाँ ठहरने का प्रश्न आता है, वहाँ बहुत-सी अपेक्षाएँ जाग्रत हो उठती हैं और उन सब की पूर्ति असम्भव होने से, फिर चल देने की धुन समा जाती है।

यहाँ रहकर एक बात हुई है, जिसे मैं सन्तोषजनक कह सकता हूँ। उपन्यास की आरम्भिक रूपरेखा के विषय में मैं इतने दिनों से संशययुक्त था...वह रूपरेखा अब बन गयी है। परन्तु मेरे इस सन्तोष को इतना मूल्य क्या कोई देगा, जितना इसके लिए मैंने व्यय किया है?

एक बात और। घूमने और लिखने की दो प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें शायद मैं आपस में मिला रहा था। अन्योन्याश्रित होते हुए भी ये अलग-अलग प्रवृत्तियाँ हैं, ऐसा मुझे अब प्रतीत हो रहा है। मैं कैसा भी जीवन व्यतीत करता हुआ घूमता रह सकता हूँ, परन्तु बैठकर लिखने के लिए मुझे सुविधाएँ चाहिए ही।

कन्याकुमारी : 31-1-53

कन्याकुमारी आकर जैसे मेरा एक स्वप्न पूरा हो गया है। यह एक विडम्बना ही थी कि मैं सीधा यहाँ आने का कार्यक्रम बनाकर भी सीधा यहाँ नहीं आया। पर उससे आज यहाँ आकर पहुँचने का महत्त्व मेरे लिए और भी बढ़ गया है। साधारणतया देखने पर यह एक समुद्रतट ही है, परन्तु यह केवल समुद्रतट ही नहीं है। यह एक कुँवारी भूमि है, जहाँ निर्माता की तूलिका का स्पर्श अभी गीला ही लगता है। यहाँ आकर आत्मा में एक सात्विक आवेश जाग उठता है। यहाँ आकर रहना अपने में ही जीवन की एक आकांक्षा हो सकती है! शायद टेलिपैथी की तरह का कोई और भी विनिमय होता है जो दो मनुष्यों के बीच नहीं, एक मनुष्य और एक स्थान के बीच सम्भव है। उसे अणुओं का अणुओं के प्रति आकर्षण कह सकते हैं। इसे एक स्थान का आवाहन कहना शायद कवित्वमय या शिशुत्वपूर्ण लगे। परन्तु व्यक्ति अपने भावोद्रेक के अनुसार ही जीवन की व्याख्या करने से नहीं रह सकता। मैं इस समय जिस भावोद्रेक में हूँ, उसे समझने के लिए बंगाल की खाड़ी,हिन्द महासागर और अरब सागर के इस संगम-स्थल को एक बार देख लेना आवश्यक है। कितना भी भटककर एक बार यहाँ आ जाएा जाए, तो उस भटकने में सार्थकता है।

आगरा : 21.2.53

एक वस्तु का अपना प्राकृतिक गुण होता है। व्यक्ति का भी अपना प्राकृतिक गुण होता है। मूल्य व्यक्ति और वस्तु के प्राकृतिक गुण का न लगाया जाकर प्राय: दूसरों की उस गुण को बेचने की शक्ति का लगाया जाता है। संसार में जितने धनी व्यक्ति हैं, उनमें से अधिकांश दलाली करके-वस्तु या व्यक्ति के गुण को बेचने में माध्यम बनकर धन कमाते हैं। यह दलाली वस्तु और व्यक्ति के वास्तविक मूल्यांकन और मूल्य ग्रहण में बाधा है।

जिस हवा में फूल अपने पूरे सौन्दर्य के साथ नहीं खिल सकता, वह हवा अवश्य दूषित हवा है। जिस समाज में मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूरा विकास नहीं कर सकता, वह समाज भी अवश्य दूषित समाज है।

डलहौजी : 17.6.53

मनुष्य के विकास का ज़िक्र करते हुए यह तो माना गया कि जीवों को परिस्थितियों के अनुकूल अपने शरीर, त्वचा आदि का विकास करना पड़ा...सर्वाइवल के लिए यह अपेक्षित था कि वे बदलती हुई अवस्थाओं में या तो बदलें या नष्ट हो जाएँ। परिस्थितियों के अनुकूल विकास करते-करते धीरे-धीरे मनुष्य ने जन्म लिया। यह सब तो ठीक है। परन्तु रंगों के विकास के विषय में क्या कहा जा सकता है? कुछ जीवों में तो हम देखते हैं कि परिस्थिति के अनुकूल ही आत्मरक्षा के लिए रंग का भी विकास हुआ है, जैसे कुछ तरह के घासों के कीड़ों आदि में। परन्तु रंगों के क्षेत्र में हम ऐसा भी वैविध्य पाते हैं जिसका सम्बन्ध जीवों की आत्मरक्षा के लिए विकास करने की प्रवृत्ति के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। जहाँ तक योनिज प्राणियों का सम्बन्ध है, हम रंगों की विशेष विविधता नहीं देखते और जो विविधता है, उसे उनके वायुमंडल द्वारा प्रभावित भी कह सकते हैं, यद्यपि बिल्कुल काले और बिल्कुल गोरे का अन्तर पृथ्वी के वर्तमान वायुमंडल में बहुत बड़ा अन्तर है। योनिज प्राणियों को छोडक़र जब हम इन्द्रियों और अंडजों के क्षेत्र में आते हैं तो रंगों के नाना विभेद, नाना संयोजन, जो सब मानवीय दृष्टि को अत्यन्त कलापूर्ण प्रतीत होते हैं, देखकर सहसा उसके पीछे किसी चेतन प्रवृत्ति का आभास होता है। उन संयोजनों में जो ज्यामिति न्याय या जाति सादृश्य और व्यक्ति विभेद दिखाई देते हैं, उन्हें केवल घटनावश या बस 'यूँ ही' कहकर हट जाने को हृदय स्वीकार नहीं करता। रंगों के विकास के मूल में 'सर्वाइवल' के अतिरिक्त और क्या रहा है, यह सोचने का विषय है।

डलहौजी : 18.6.53

बादल बरस रहे हैं। मेरे कमरे के बाहर घाटी में हल्के-हल्के सफेद बादल भरे हुए हैं। अपनी वासना के उन्माद में बादल गरजता है-बरसती बूँदों से धरती में वही वासना नर्तन करती है। धरती उन बूँदों को पीकर तृप्ति को स्वीकार करती है...नए अंकुर, नए जीवन के रूप में सारी हरियाली धरती के अन्दर से फूट पडऩे के लिए करवटें लेने लगती है। मेरे पौराणिक दोस्तो, माँ धरती तुम्हारे सामने अभिसार करती है और तुम्हारी नैतिकता की भावना, तुम्हारी पहरेदारी, तुम्हारी जीवन के विकास को रोकने की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं होती? यदि यह विश्वमय अभिसार तुम्हारी व्याघातक प्रवृत्तियों को जाग्रत नहीं करता तो मेरे पौराणिक दोस्तो, तुम यह क्यों नहीं सोचते कि हम भी माँ धरती की सन्तान हैं, और हमारे निर्माण का सबसे बड़ा भाग वही धरती है, जो इतनी आतुरता से बरसते हुए बादलों की बूँदों को पी रही है।

डलहौजी : रात्रि-21.6.53

एक व्यक्ति को इसलिए फाँसी की सज़ा दे दी जाती है कि वह व्यक्ति न्याय-रक्षा के लिए खतरा है। वह व्यक्ति जो न्याय-रक्षा के लिए खतरा हो सकता है, वह नि:सन्देह उस न्याय से अधिक शक्तिवान होना चाहिए।

न्याय, जो सदियों से नस्लों और परंपराओं का सामूहिक कृत्य है, यदि एक व्यक्ति के वर्तमान में रहने से अपने लिए आशंका देखता है, तो वह न्याय जर्जर और गलित आधार का न्याय है।

वास्तव में ऐसे न्याय के लिए खतरा कोई एक व्यक्ति नहीं होता-व्यक्ति तो उसके लिए खतरे का संकेत ही हो सकता है। उसके लिए वास्तविक खतरा भविष्य है, जिसे किसी भी तरह फाँसी नहीं दी जा सकती।

अतीत कभी भविष्य के गर्भ से बचकर वर्तमान नहीं रह सका।

समय सदा दिन के साथ और अगले कल का साथ देता है।

मनुष्य को फाँसी देकर नष्ट करना वहशत ही नहीं, पागलपन भी है। यह पागलपन और वहशत डरे हुए हृदय के परिणाम होते हैं जो अपने पर विश्वास और नियन्त्रण खो देता है।

समय ऐसे हृदयों का साथ नहीं देता।

वे झडक़र नष्ट हो जानेवाले पत्ते हैं, जो झडऩे से पहले अपनी कोमलता खो बैठते हैं।

जालन्धर : तिथि याद नहीं

अब यह डायरी कुछ दूसरा रूप ले रही है शायद। ऐसा लग रहा है कि अब जो कुछ मैं इसमें लिखूँगा वह अधिक वैयक्तिक होगा। परन्तु, जो जिस रूप में बाहर आना चाहता है, उस पर बन्धन नहीं होना चाहिए।

जालन्धर : तिथि याद नहीं

मैं अभी तक 28 फरवरी की शाम को हुई घटना के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया। न मुक्त हो पाना शायद अपनी ही कमज़ोरी है। कमज़ोरी है, या sensitiveness -मैं उस विषय में खामख्वाह सोचने लगा हूँ,इस समय भी। हाँ तो...वे दो थीं। वे रिक्शा में मुझसे आगे चलीं, और फिर जानबूझकर उन्होंने रिक्शाओं की होड़ भी शुरू कर दी। होड़ क्यों? वे ही अपनी रिक्शा कभी पीछे रह जाने देतीं, कभी आगे निकलवा लेतीं। हर बार क...किस बदमज़ाकी से हँसती थीं? ''देखिए, हम अब आपको आगे निकलने दे रही हैं।'' ''देखिए,हम आपसे आगे जा रही हैं...आप हमसे हर बार पीछे रह जाते हैं।'' ''हम आपके बराबर चलें तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं?'' ''किसी दिन हमें अपने घर बुलाएँ।'' ''सुना है, आपका नौकर चला गया है...उसे शिकायत थी कि आपके घर मेहमान बहुत आते हैं।'' ''तो हम किस दिन आपके घर आयें?'' ''चाय तो पिलाइएगा न?'' ''आप कंजूस हैं, आपने एक दिन पहले भी और लोगों को चाय पिलाई थी पर मुझे नहीं पूछा था।'' ''किसी रेस्तराँ में चलिए न?'' ''किस रेस्तराँ में चलिएगा-रॉक्सी हमें पसन्द नहीं।''

यह कह रही थी...क...! वह बदसूरत लडक़ी, जिसके पास शायद वासना के अतिरिक्त नारीत्व का और कुछ नहीं है। और उसकी पहले की चेष्टाएँ भी अब अर्थयुक्त बनकर मेरे सामने आ रही थीं-जब उसने दीवाली और नए वर्ष के कार्ड भेजे थे-मुझसे मेरी पुस्तकें माँगने आयी थी और एक दिन कॉलेज में मेरे कमरे में आकर बोली थी, ''एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ। पाठ्य विषय में दिलचस्पी नहीं है। क्या यह बताएँगे कि मनुष्य रोता क्यों है?'' और फिर बाद में व्याख्या करती हुई बोली थी, ''देखिए, मैं यूँ ही जानना चाहती हूँ। मेरी एक सहेली मुझसे पूछती थी। मैं तो जानती नहीं, क्योंकि मैं कभी रोयी नहीं।''

और जब मैंने रिक्शावाले से कहा कि वह रिक्शा बहुत आहिस्ता चलाए और दूसरे रिक्शावाले को आगे निकल जाने दे, तो उनका रिक्शा भी बहुत आहिस्ता चलने लगा और पुन: मेरे बराबर आ गया। और इस बार र... ने कहा, ''आप तो हमसे डरकर पीछे जा रहे हैं कि कहीं सचमुच इन्हें चाय न पिलानी पड़े। चलिए,हम आपको चाय पिलाती हैं।''

और क... बोली, ''देखिए, हमारा घर पास है। हमारे साथ चलिए। हम आपको चाय पिलाएँगी। चलिए,चलते हैं?''

उन्होंने रिक्शावाले को हिदायत दे रखी थी कि मेरा रिक्शा तेज़ चले या आहिस्ता, वह रिक्शा बराबर ही रहे।

कचहरी पहुँचने से पहले, उनके रिक्शावाले ने पीछे से रिक्शा बराबर लाकर पूछा, ''साहब, वे पूछ रही हैं कि आप क्या मॉडल टाउन नहीं चल रहे? उन्होंने रिक्शा मॉडल टाउन का किया है।''

मैंने यह उत्तर देकर कि मुझे कुछ काम है, और मैं यहीं उतर रहा हूँ, रिक्शावाले से रिक्शा रोक लेने के लिए कहा। मेरा रिक्शा रुकने पर उनका रिक्शा भी रुक गया।

''हमने आपकी वज़ह से मॉडल टाउन का रिक्शा किया है, और आप यहाँ उतर रहे हैं?'' क... बोली।

''मुझे यहाँ कुछ काम है,'' मैंने कहा, ''इस समय क्षमा करें...'' और मैं बिना पीछे देखे सीधा चल दिया। मुझे खेद था कि ये लड़कियाँ इतनी बदमज़ाक क्यों हैं? मैं 'प्योरिटनिज़्म' का दावेदार नहीं, परन्तु कोमलताप्रिय मानव, मानव-व्यवहार में... विशेषतया एक नारी के व्यवहार में कोमलता और शिष्टता की आशा तो करता ही है! नारी का एक-चौथाई सौन्दर्य, उसकी त्वचा के वर्ण और विन्यास में रहता है, और सम्भवत: तीन-चौथाई अपने 'वदन' में। और जहाँ, वह एक-चौथाई भी नहीं, और यह तीन-चौथाई भी नहीं-उस वासनायमी मिट्टी...उस दलदल को क्या कहा जाए? फिर भी इस घटना से एक बात अवश्य हुई, मेरे दिमाग़ से थोड़ा जंग उतर गया।

दूसरे दिन क... ने एक कॉपी मुझे दी-यद्यपि मैंने क्लास से कुछ लिखकर लाने के लिए नहीं कह रखा था। कॉपी में ग़लत अँग्रेज़ी में लिखी चिट थी-'Somehow or the other, please do come at my home, only for some time.'' और बाकी का जो पृष्ठ देखने के लिए मोड़ा गया था, उस पर कुछ ऐसे-ऐसे उदाहरण थे :

''Divers mostly in the water die;
A lover when the sex feels shy.''


तथा

''Loving a beautiful woman is the best way of glorifying God.''

पढक़र एक बार तो मैं जी खोलकर हँस लिया। Loving a beautiful woman! तो यह लडक़ी भी अपने को beautiful womanसमझती है! खूब! शायद उसका दोष नहीं।

-और यहाँ आकर मैं क्षण-भर के लिए सोचता हूँ। यहाँ अवश्य ही थोड़ा विश्लेषण करना चाहिए। कुछ दिन पहले-बहुत दिन नहीं-शायद महीना-भर पहले ही एक और लडक़ी की कॉपी में मुझे ऐसे ही काग़ज़ मिले थे। एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार। कुछ ऐसे ही उद्धरण उसने भी संकलित कर रखे थे :

''Man loves little and often,

Woman loves much and rarely.''

''He who loves not wine, woman and song,

Remains a fool his whole life long.''


''परस्पर भूल करते हैं, उन्हें जो प्यार करते हैं!

बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं!

उन्हें अवकाश ही रहता कहाँ है मुझसे मिलने का

किसी से पूछ लेते हैं, यही उपकार करते हैं।''

''चाहता है यह पागल प्यार,

अनोखा एक नया संसार!''

उन काग़जों को पढक़र मुझे उस तरह की वितृष्णा का अनुभव क्यों नहीं हुआ था? इसलिए कि उस लिपि के मध्य जिन हाथों का सम्बन्ध था, उन हाथों की त्वचा कोमल और सुन्दर है? लिखनेवाली की आँखों और ओंठों में आकर्षण है। वह चकित मृगी-सी मेरी ओर देखा करती है? उसकी आँखें मुझे मासूम क्यों लगती हैं?क्या यह चेहरे का ही लिहाज़ है कि मुझे उसका यह सब लिखना बुरा नहीं लगा? वह बच्ची भी तो है। शायद वह समझती भी नहीं कि वह क्या लिख रही है। यौवन के प्रथम उबाल में वह सब लिखने को यूँ ही मन हो आता है-और फिर पात्र वही बन जाता है, जिसे सम्बोधित कर पाना सम्भव हो। यह विश्लेषण उसके साथ अन्याय भी हो सकता है। वह उन दो लड़कियों की तरह, जिनका मैंने पहले उल्लेख किया है, 'फ्लर्ट' तो प्रतीत नहीं होती। उसे चाहनेवालों की कमी नहीं है। साधारणतया लोगों की धारणा है कि वह बहुत मासूम है। मैं नहीं जानता, क्योंकर उसने यह initiative लेने का साहस किया? जो कुछ भी है, वह लडक़ी अच्छी है। यदि वह अपने-आप न सँभल गयी तो मुझे उसे समझा देना होगा।-परन्तु...

जालन्धर : तिथि याद नहीं

उस दिन वह आयी थी-वह जो अब तक अकेली दिखती रही है-उसके साथ क... थी-ये दोनों इकट्ठी क्यों और किस तरह आयीं, यह मैं नहीं जानता। मैं बस स्टॉप के पास खड़ा था-कॉलेज जाने के लिए बस पकडऩे के उद्देश्य से-जब मैंने उन दोनों को पास से गुज़रते देखा-मेरे पास दो लडक़े खड़े बात कर रहे थे। वे गुज़र गयीं, और पेड़ के पास जाकर द्धद्गस्रद्दद्ग की ओट में खड़ी हो गयीं-बस आ गयी, मैं बस में बैठ गया। उसी समय एक रिक्शावाले ने आकर कहा, ''आपको वहाँ कोई बुला रही हैं।''

मैं उतरकर वहाँ चला गया। उसने कहा, ''देखिए, हम तो आपसे मिलने आयी हैं, और आप चले जा रहे हैं।''

''मुझे कॉलेज जाना है-मेरी दो बजे से क्लास है। कहिए?'' मैंने कहा।

वे चुप रहीं।

''कोई विशेष काम हो तो आप बताएँ...''

वे चुप रहीं।

''तो इस समय तो मैं जा रहा हूँ-''

वे चुप रहीं।

मैंने रिक्शा लिया और चल दिया।

वे लौट गयीं।

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