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कथा कहन स्पीकर – 1

सृजन है तो संसार है

सृजन है तो संसार है। तनिक और पीछे जाएँ तो यह भी कि सृजन है तो भूगोल और खगोल भी। यानी होने के नाम पर सिर्फ़ शून्य, शेषरचित। अब प्रश्न यह कि रचयिता कौन? मनुष्यों का रचा तो हम सबको मालूम है और प्रकृति के रचे का यश प्रकृति को मगर जिस पृथ्वीपर मनुष्यों का रचा सब कुछ उसे किसने रचा ? और प्रकृति और मनुष्यों का रचयिता कौन ? पानी और हवा किसकी सृष्टि ? ये सवालआज के नहीं हैं। ये सवाल तब के हैं जब से मानव ने सोचना शुरू किया। मानव इतिहास के अध्येता इसे कॉग्निटिव रिवोल्यूशन का नामदेते हैं और अनुमान लगाते हैं कि इसका आरम्भ कोई सत्तर हज़ार साल पहले हुआ। संज्ञानात्मक क्षमता के विकास ने उन्हें एक तरफ़ अपने परिवेश को समझने, सूचनाएँ सहेजने और किसी अन्य तक पहुँचाने और योजना बनाने की सलाहियत दी तो दूसरी तरफ़सामुदायिकता, पारस्परिकता तथा सामाजिकता की भावना से सम्पन्न किया। बेहतर संज्ञानात्मक क्षमता ने उन्हें जो दृश्य है उससे तोजोड़ा ही अदृश्य के बारे में कल्पना करने और अनुमान लगाने के लायक भी बनाया। यह सब कुछ धीरे,बहुत धीरे हुआ - इतना कि उन्हेंकृषि क्रांति तक पहुँचने में ५८ हज़ार साल और वैज्ञानिक क्रांति तक पहुँचने में साढ़े उन्हत्तर हज़ार साल लगे। यह यात्रा जिस मानसिकक्षमता के दम पर सम्भव हुई उसे आज हम सृजनात्मकता/रचनात्मकता (creativity) के नाम से जानते हैं ।

सृजनात्मकता को परिभाषित और उसका अध्ययन करने की पहल भले आधुनिक हो उसकी उपस्थिति प्रागैतिहासिक है।जिन्होंने जन्मऔर मृत्यु , ईर्ष्या और प्रेम, संयोग और वियोग तथा उत्सव और शोक को जाना और समझा; उम्र और शारीरिक परिवर्तनों के सम्बन्ध, अकेले होने के संकट और सामुदायिकता के वरदान तथा जीवित की रक्षा और मृत के विसर्जन की आवश्यकता को पहचाना औरजिन्होंने वस्त्र, घर और परिवार का आविष्कार किया, वे हमारे समय के महान रचनाकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों से तनिक भी कमरचनात्मक नहीं थे। जिन्होंने पत्थरों के भीतर आग, वृक्ष के तने के भीतर पहिए और ध्वनियों के भीतर भाषा की खोज की उनसे अधिकरचनात्मकता और किसके भीतर? ये तीन आविष्कार न होते तो फिर कोई आविष्कार, कोई सृजन और कोई विकास न होता। सभ्यता केविकास की कथा वस्तुत: सृजनात्मकता के सातत्य, परिष्कार और चतुर्दिक विकास की ही कथा है।

वे लोग जो आखेट-संग्रह-जीवी थे, वे भी कम रचनात्मक नहीं थे।पत्थर में नोक और धार देखना और पत्थर की मदद से धार पैदा करनाउनका ही काम था। वृक्ष के तने को सँकरे और तीव्र जल प्रवाह के आर-पार रखकर पुल बनाना हो या लकड़ी के कुंदे को बहती नदी मेंडालकर नाव का काम लेना रचनात्मक प्रतिभा के बग़ैर सम्भव नहीं था। क्या खाएँ और क्या न खाएँ, क्या संग्रह करें और क्या न करें तथाकिस वन्य जीव का शिकार किस उद्देश्य से करें, रचनात्मक मानस के बग़ैर सम्भव न था। भाषा और लिपि का विकास भले बाद में हुआहो मगर ध्वनियों और संकेतों के माध्यम से सारी जानकरियाँ अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का काम भी क्या कम रचनात्मक रहा होगा।आखेट और संग्रह करने वाले किसान यूँ ही नहीं बने होंगे। ज्ञान और योजनाशीलता का विकास रचनात्मक दृष्टि और बोध के बग़ैर कैसेहोता। यह सब इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि कॉग्निटिव रिवोल्यूशन ने उन्हें अपनी देह के परित: मौजूद स्पेस के अतिरिक्त एक और स्पेसदिया। जो इन्द्रियगम्य ठोस वास्तविकताएँ थीं वो तो इस रिवोल्यूशन के पहले भी थीं मगर मस्तिष्क की इस नयी क्षमता ने कल्पना शक्तिके द्वारा उन वास्तविकताओं का अनुमान लगाने लायक बनाया जो सामने नहीं थीं। उदाहरण के तौर पर हम ईश्वर, धर्म, शासन आदि कोले सकते हैं। ये कल्पनाएँ प्रकट तो किसी एक के मन में ही हुई होंगीं मगर कालांतर में आम सहमति के द्वारा वस्तुनिष्ठ वस्तविकताओं मेंबदल गयी होंगी। काल्पनिक वस्तविकताओं के संचालित व्यवहार ने ही संस्कृति को नींव रखी थी और जब एक बार संस्कृति बन गयी तोबन गयी। उसमें बदलाव तो हो सकते थे उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता था। हमारा इतिहास हमारी इन्हीं बदलावों का लिखित-अलिखित दस्तावेज़ है। आज के विशाल साहित्यिक संसार के बीज भी उन्हीं दिनों पड़े होंगे। घटनाओं को कहानियों में बदलकर सुनानेकी परम्परा तभी पड़ी होगी। जर्मनी की एक गुफा में पाए गए हाथी दाँत के अलंकारिक शिल्प स्टैडल लॉयन मैन की कार्बन डेटिंगउसकी उम्र ३५-४० हज़ार साल बताती है। उनकी सृजनात्मकता की कथा कहता है। भीमबेटका की गुफाओं की दीवारों आज भीउपस्थित प्रागैतिहासिक कलाकर्म की उम्र कम से कम ३० हज़ार साल है। ये सब संज्ञानात्मक रूप से निरंतर विकसित हो रहेकल्पनाशील मानव जाति की रचनात्मकता के अमिट स्मारक हैं। कालांतर में जब हम उन्हें स्टोनहिंज और पिरामिड बनाते देखते हैं तोहमारी उँगलियाँ ख़ुद ब ख़ुद दाँतों के नीचे आ दबती हैं।

जब राल्फ़ वाल्डो इमरसन कहते हैं कि भाषा इतिहास का अभिलेखागार है तो वे घटनाओं और आर्टिफ़ैक्ट्स के भाषा में बस जाने कीओर इशारा करते हैं।इस महान कार्य को भाषा के अनाम और अज्ञेय रचनाकारों ने ही सम्भव किया होगा। इसी कड़ी में उनके इस वाक्यको भी देखा जाना चाहिए कि सारे शब्द कवियों ने गढ़े हैं।अब जबकि भाषाएँ विकसित और सम्पन्न हो गयी हैं, कोई भी कवि क्या करताहै ? वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा के के शब्दों को एक ऐसा सार्थक क्रम देता है कि उसका अभिप्राय एक बयान न रहकर एकऐसे बिम्ब में बदल जाता है जिसमें कई सम्भावित अर्थ गर्भित होते हैं। जब कोई कवि ‘चाँद की नाव’ लिखता है तो वह कटे हुए चाँद काचित्र तो खींचता ही है, आकाश को भी समुद्र में बदल देता है और चाँद पर रियल/वर्चूअल सवारी की सम्भावना की तरफ़ भी संकेतकरता है।किसी भी भाषा में ध्वनियों से शब्द गढ़ने का काम भी एक बिम्ब गढ़ने जैसा ही रहा होगा। मेरा मानना है कि ध्वनियों से शब्दगढ़ने का काम कहीं अधिक मौलिकता, कल्पनाशीलता और क्रीड़ापटुता की माँग करनेवाला रहा होगा। गरज कि मानव सभ्यता के सबसेबड़े कविगण सभ्यता की इमारत की हज़ारों सालों गहरी नींव में अनाम दफ़्न हैं।कुश लानेवाले को कुशल और वीणा बजाने में पारंगत कोप्रवीण कहनेवालों को तो छोड़िए, हम तो बाँस और सुर को मिलाकर बाँसुरी बनाने वाले कवि का नाम भी नहीं जानते। कोई भीइतिहासविद कोई भी नृतत्वशास्त्री आख़िर कितना अनुमान लगा सकता है। हमें भविष्य की सम्भावनागत अनंतता तो समझ में आ जातीहै मगर जब हुए की पड़ताल करने चलते हैं तो वह भी अकूत और अथाह जान पड़ता है और हम अपनी सीमाओं की लग्गी सेप्रागैतिहासिकता के सागर को थाहने की असफल कोशिश करते हुए लौट आते हैं।

आरम्भ में इस अवधारणा की तरफ़ संकेत किया गया था कि होने के नाम पर सिर्फ़ शून्य और शेष रचित। यह अकारण नहीं है कि ब्रह्मांडकी अनंतता को समझने लायक हुए मानव-मस्तिष्क ने एक सर्व शक्तिमान के होने की आवश्यकता को महसूस किया होगा।यह मान लेनेसे कि एक सर्वशक्तिमान है और उसी ने सब कुछ रचा उसके बहुत सारे प्रश्न उत्तरित हो गए होंगे। प्रकृति में विन्यस्त उसकी सत्ता के प्रतिआभार प्रकट करतीं वैदिक ऋचाएं हों या विष्णु की नाभि से निकले कमल से उद्भूत सृष्टि-रचयिता ब्रह्मा की कल्पना या “लेट देयर बीलाइट एंड देयर वाज़ लाइट” जैसे विनम्र स्वीकार - हमारे जिज्ञासा-विहवल पुरखों के मानसिक शांति हेतु किए गए बौद्धिक समझौतों केप्रमाण हैं। ये काव्यात्मक समाधान आज भी जीवित हैं - बिग-बैंग थ्योरी और डारविन के लगभग सर्वमान्य विकासवाद के बावजूद।कोईभी धर्म देश या सभ्यता-विशेष हो कॉग्निटिव रिवोल्यूशन से हाल की सदी तक यही माना जाता रहा कि सृजन परम सत्ता काविशेषाधिकार है। सब कुछ उसी ने रचा है क्योंकि रच वही सकता है। रही मनुष्यों की बात तो दर्शनिकों ने स्थापना दी कि मनुष्य सिर्फ़खोजता, बनाता या नक़ल करता है। रिपब्लिक में प्लेटो पूछते हैं :’ क्या हम यह कहेंगे कि एक चित्रकार कुछ रचता है?’ उत्तर भी स्वयंदेते हैं - ‘ निश्चित रूप से नहीं, वह सिर्फ़ नक़ल करता है।’ ग्रीक शब्द poiein जिससे poet बना उसका भी मूल अर्थ ‘बनाना’ है यानीpoet वह जो कुछ बनाता है, रचता नहीं।यहूदी-ईसाई परम्परा सृजन उसी को मानती है जो ex nihilo यानी कुछ नहीं से पैदा हो।
भारतीय परम्परा भी सृजन के सम्बंध में पूरी तरह आस्तिक है। सृष्टि को ब्रह्मा ने रचा, ललित कलाओं को सरस्वती ने और तकनीकीरचनाशीलता का श्रेय विश्वकर्मा को।परिभू-स्वयंभू ईश्वर ही प्रथम कवि है। हालाँकि यहाँ यह संकेत भी है कि कवि भी ईश्वर की तरहपरिभू और स्वयंभू है।

रचनात्मकता (Creativity) की आधुनिक और वैज्ञानिक अवधारणा १४वीं से १७वीं शताब्दी तक फैले रेनेसाँ के दौरान विकसित हुई।इस यूरोपीय सांस्कृतिक आंदोलन का आधार था - ह्यूमनिज़म। यह लैटिन शब्द ह्यूमनिटस से बना है जिसके कई अर्थ हैं - मानव स्वभाव, सभ्यता और दयालुता। ह्यूमनिज़म कोई दर्शन नहीं बल्कि सीखने का एक तरीक़ा था।इस दौरान ग्रीस और रोम के पुराने ग्रंथों का तार्किकऔर प्रयोगसिद्ध प्रमाणों की रोशनी में पुनर्पाठ किया गया और इसी क्रम में प्रोतागोरस के दर्शन से यह अद्भुत वाक्य मिला : “Man is the measure of all things!” इस स्थापना ने कला और साहित्य ही नहीं, विज्ञान और राजनीति सम्बंधी चिंतन और क्रियान्वयन कोएक नयी दिशा दी। इस सांस्कृतिक आंदोलन ने genius of the man को रेखांकित किया और मानव मस्तिष्क की अद्भुत और विशिष्टक्षमताओं के प्रति सजग किया। इसी दौरान अंग्रेज़ दार्शनिक (आक्स्फ़र्ड) टॉमस हाब्स ने कल्पनाशीलता को मनुष्य की संज्ञानात्मकक्षमता का अहम हिस्सा माना कुछ समय बाद स्कॉट लेखक विलियम डफ़ ने अपना Essay on Original Genius लिखा जिसे मनुष्यकी प्रतिभा और रचनात्मकता के विश्लेषण पर एक लैंड्मार्क लेखन माना जाता है। इन विश्लेषणों और स्थापनाओं ने रचनात्मकता को मानवीय क्षमताओं की परिधि में पहचानने का प्रयत्न किया। १८वीं सदी के जर्मन दार्शनिक इमानुआल कांट की यह परिभाषा ग़ौरतलब है: “कलात्मक प्रतिभा जन्मजात क्षमता होती है और अनुकरणीय मौलिक रचती है। यह कल्पना की मुक्त उड़ान से सम्भव होता है जो नतो नियमबद्ध होता है, न सिखाया-पढ़ाया जा सकता है और यह कैसे सम्भव होता है, यह उस प्रतिभा के लिए भी रहस्यमय है।” कांट कीयह परिभाषा आज भी प्रासंगिक है। जन्मजात प्रतिभा और कल्पना शक्ति के बग़ैर होनेवाली आज की रचनाएँ अगर प्लेटो देखें तोअट्टहास करते हुए कहेंगे - इसे कहते हो सृजन तो नक़ल किसे कहोगे वत्स! और सर्वथा अ-प्रेरित और ययोजनाबद्ध तरीक़े से रचे गए कोफ़्रायड देखें तो सिगार का लम्बा कश लेकर पूछें - इसमें रचनाकार का के अचेतन का जादुई अँधेरा कहाँ है?
कांट १८ वीं सदी के सूत्रकार थे। समय वहीं रुका रहे, यह सम्भव नहीं था। बीसवीं सदी के वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक शोध और युगीनआवश्यकताओं ने रचनात्मकता की परिभाषा को और सरल बनाया। सवाल उठा कि रचनात्मकता के मूल में क्या है? उपयोगितावादीमानस ने उत्तर दिया - समस्याओं और चुनौतियों का हल खोजने की कोशिश। बात भी ठीक है। सृजन व्यक्ति करता है, अपनी बाहरी औरआंतरिक आवश्यकताओं के दबाव में। यह और बात कि सब एक से हैं इसलिए सबके काम आती है। कर्ण के दुःख का गान कर्ण जैसोंके दुःख का गान बन जाता है और अपनी प्रिया से बात करने की ग्राहमबेल की हिकमत सारे मनुष्यों को दूरी के बावजूद आपस में संवादकरने का साधन दे जाती है। इसीलिए बीसवीं सदी ने हमें सिखाया कि रचनात्मकता ‘मौलिक चिंतन और कल्पना की उड़ान द्वारा नयाऔर उपयोगी रचने की क्षमता” है। यह परिभाषा कला,साहित्य और वैज्ञानिक आविष्कारों के क्षेत्र से बाहर निकलकर वाणिज्य औरप्रबंधन की दुनिया को भी बड़े आराम से गले लगा रही है।मैं यह नहीं कहता कि रचनात्मकता की जगह वहाँ नहीं। है और ज़रूर है। मगरसवाल उठता है कि जो नया प्रॉडक्ट रचा गया है वह अधिक उपयोगी किसके लिए है - बेचनेवालों या उपयोग करनेवालों के लिए ? विज्ञापन कम्पनियों के “क्रीएटिव एडिटर” अपने “हाइली क्रीएटिव ऐड” के द्वारा किसी भी प्रॉडक्ट के लिए “डिमांड क्रीएट” करते हैं औरक्रीएटिविटी क्लब में अपने को बेधड़क घुसा देते हैं। क्या है यह ? परिभाषा में कोई खोट नहीं। खोट हमारे लाभ-लोभी समय की नीयत मेंहै। खोट मीडीआक्रिटी की महत्त्वाकांक्षा में है। एक रुपए से तीन अठन्नी बनाने का मुहावरा भले धूर्तता की कथा कहता हो, मगर किसीभी क़ीमत पर एक रुपए से ग्यारह अठन्नियाँ बनाने की क़ाबिलियत क्रीएटिविटी की टोपी पहनकर पाँव पुजाती फिर रही है।

- डॉ विनय कुमार
 

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