प्रियवंद — अभी मैसूर में इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस का चौंसठवां सेशन हुआ। मेरे पास फ्रन्टलाइन जनवरी 30‚ 2004 की रिर्पोट है। मैं पढ़ता हूँ — ‘ वन थाउजेण्ड ट्वेल्व हण्डरेड डेलीगेट्स फ्रॉम स्माल कॉलेजेज़‚ युनिवर्सिटीज़ डिपार्टमेन्ट्स एण्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूशन्स टुक पार्ट। 640 एकेडमिक पेपर्स वर प्रेजेन्टेड।’ इस सेशन में इस कांग्रेस प्रेसीडेन्ट ने कहा— ‘ हिस्ट्री शुड बी रिटन बाई हिस्टोरियन्स’‚ शुड नॉट बी पौलिटिसाइज्ड़।’ आप का भी इन्टरव्यू है। आपने कहा — ‘हिस्ट्री शुड नॉट बी मैन्युफैक्चर्ड।’ प्रश्न यह है कि क्या यह संभव है कि इतिहास मैन्युफैक्चर न किया जाये? इतिहास तो हमेशा ही से ‘ मैन्युफैक्चर्ड ‘ होता है। जो भी सत्ता में होता है वह इतिहास अपने हिसाब से लिखता है। कांग्रेस ने अपने हिसाब से लिखा‚ लेफ्टिस्ट ने अपने हिसाब से लिखा‚ आज आर। एस। एस। अपने हिसाब से लिख रहा है। यह कैसे हो सकता है कि इतिहास मैन्युफैक्चर्ड न हो?
इरफान हबीब — देखिए आपने जो बात कही वह बहुत सरलीकृत है। मैं ने इस चीज़ को दूसरी तरफ से शुरु करना चाहता हूँ। किसी देश को अपने इतिहास की क्यों ज़रूरत होती है? उसको इसलिये ज़रूरत होती है जैसे एक व्यक्ति को अपनी याददाश्त की ज़रूरत होती है। अगर वह व्यक्ति सफल होना चाहता है तो उसकी याददाश्ता को एक्यूरेट होना चाहिये। जहां उसने गलतियां की हैं उसे याद रखना चाहिये। अगर उसको सिर्फ यह संतोष है कि वह डींग मारे तो उसकी याददाश्त एक दूसरे तरह की होगी। उससे न उसे कोई फायदा होता है‚ न सोसायटी को कोई फायदा होता है। अंग्रेजी में उसे शॉवेनिज़्म कहते हैं। इसीलिये हिस्ट्री एक नैचरल सोशल साइन्सेज़ में आती है। राष्ट्र को भी यह ज़रूरत होती है कि हम यह मालूम करें की हमने क्या गलती की । अगत जर्मनी के बच्चों को या जापान के बच्चों को यह न पढ़ाया जाए कि दूसरा विश्वयुद्ध कितनी भयानक चीज़ थी और उसमें जर्मनी और जापान दोनों को कितना नुकसान हुआ‚ तो यह बात उन देशों के लिये अच्छी नहीं है। अब अगर भारत में हम यह पढ़ाना चाहते हैं कि हमारे पास हर चीज़ मौजूद थी‚ हम साइंस में सबसे आगे थे‚ ऋग्वेद के जमाने में सब जानते थे‚ बस यही हुआ कि ऋग्वेद के ऋषियों ने छुपा कर रखा‚ तो उससे हमें कोई फायदा न होगा। हमें अपनी सभ्यता में जो कमज़ोरियां हैं वो मालूम ही नहीं होंगी। वैसे भी यह एक बेवकूफी की बात है। इससे यह मालूम होता है कि हम चार हज़ार साल से भूलते ही रहे‚पांच हज़ार साल से भूलते ही रहे। कोई हमने काम ही नहीं किया सिवाय भूलने के। हम ऐसी बेकार कौम थे। लेकिन इसमें इतिहास का कोई फायदा नहीं है। तो इतिहास कैसे कन्स्ट्रक्ट किया जाये? इसको अकसर तहकीकात में ‘ हिस्टोरिकल फैक्ट्स ‘ कहा जाता है। ऐसे फैक्ट्स होते हैं जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता। वे वैज्ञानिक तरीके से जमा होते हैं। उनके चुनाव में‚ आप सही कहते हैं कि यह हो सकता है। प्राचीन भारत का इतिहास आर। सी। मजूमदार एक तरह से लिखते हैं तो डी। डी। कौसाम्बी दूसरी तरह से। ( आर। सी। मजूमदार ने राष्ट्रवादी दृष्टिकोण रखा है जबकि डी। डी। कौसाम्बी ने उत्पादन ल्प साधनों और उसके क्रमिक विकास के दृष्टिकोण से लिखा है – प्रियंवद) लेकिन मैं दोनों को इतिहासकार समझता हूँ क्योंकि वे ‘ हिस्टोरिकल फैक्ट्स के सलेक्शन में डील कर रहे हैं। आर। सी। मजूमदार ने कहीं नहीं कहा कि आर्य हिन्दुस्तान से ही निकले थे और यहीं से बाहर गये थे। जबकि के। एम। मुंशी ने ऐतराज़ किया तो उन्होंने कहा यह गलत है। तो जब हमारे प्रेसीडेन्ट ने कहा कि ‘ हिस्ट्री शुड बी लेफ्ट‚ टु हिस्टोरियन्स’ तो इसका मतलब यह नहीं था कि किसी ‘ट्रेण्ड ऑफ हिस्टोरियन्स’ । अगर इस वक्त भी हमारी बी जे पी सरकार आर। सी। मजूमदार और राय चौधरी की किताब (” आर। सी। मजूमदार हिन्दू महासभा से नज़दीकी से जुड़े थे और उन्होंने इतिहास पूर्वाग्रह के साथ लिखा है‚ लेकिन वो एक प्रोफेशनल हिस्टोरियन थे। मुझे विश्वास है कि उन्होंने एन। सी। ई। आर। टी। की किताबें डिसमिस कर दी होतीं ” ‚ इरफान हबीब ) वही ‘ एडवान्स हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ‘ ठीक समझती है‚ तो कोई ऐतराज़ नहीं है। वो ऐतिहासिक सत्य है। हालांकि मुसलमानों की ज़्यादतियां कुछ ज़्यादा बयान कर दी हैं पर चलिये वह चल जाता है। लेकिन इस किस्म की चीजें नहीं होंगी जो यह बच्चों को अब पढ़ा रहे हैं। जहां तक आपने सरकारों का ज़िक्र किया तो मैं आपको बता दूँ कि कांग्रेस सरकार ने अपनी कोई दिलचस्पी इतिहास लिखाने में नहीं दिखाई… इसलिये कि…
प्रियवंद — डॉ. ताराचन्द ने जो लिखी…
इरफान हबीब — उन्होंने ‘ हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेन्ट लिखी। वह इसलिये कि आर। सी। मजूमदार ने गांधी जी की आलोचना की थी। और वह तो एक सरकारी किताब उन्होंने लिखी। वैसे अगर आप डॉ। ताराचन्द के अध्याय भी पढ़ें तो आपको ताज्जुब होगा कि कितनी आलोचना है उसमें गांधी जी तक की। इसलिये क्योंकि वह प्रोफेशनल हिस्टोरियन थे। गांधी जी दूसरी राउंड टेबल कॉन्फ्रेन्स में गये उसकी आलोचना है। हिन्दू महासभा की आलोचना है। मुस्लिम लीग की है। कांग्रेस की भी है। अगर आप इस किताब को देखें तो आपको मालूम होगा कि प्रोफेशनल हिस्टोरियन कैसे किताब लिखता है। अब जो किताबें लिखी जा रही हैं वे प्रोफेशनल हिस्टोरियन्स की नहीं लिखी जा रहीं हैं। अब आर। एस। एस। ने अपना जो एक इतिहास बनाया‚ जिसमें कहा कि कौटिल्य तक्षशिला युनिवर्सिटी का प्रोफेसर था और उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को लड़ाई करके‚ तालिबान की तरह उन्होंने… वी। डी। सावरकर ने ये सब बातें लिखी हैं‚ तो उसे अब बच्चों को पढ़ा रहे हैं। ( ” अगर एक स्कूल के बच्चे का विकास यह सोचते हुए होता है कि पुरुष स्त्रियों से श्रेष्ठ हैं‚ कि उसका धर्म दूसरे सब धर्मों से बेहतर है‚ कि उसकी जाति दूसरों से ऊंची है… तो क्या ऐसा बच्चा उस वैज्ञानिक शिक्षा का कोई फायदा उठा सकेगा जो उसे मिल रही है? ऐसे विचारों के साथ हम कैसा देश बनायेंगे? — इरफान हबीब) यह बात तो आर। सी। मजूमदार कभी कबूल न करते। राय चौधरी की ‘ पॉलिटीकल हिस्ट्री ऑफ एन्शियन्ट इण्डिया’ में जाहिर है इसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। ये तो सब मनगढ़न्त बातें हैं। तो हमारे प्रेसीडेन्ट साहब ने जो बातें कहीं वो इसी बात की तरफ इशारा करती हैं कि मनगढ़न्त बातें नहीं होनी चाहियें। आप हिस्टोरिकल फैक्ट्स का सलेक्शन कीजिये। हिस्ट्री या इकॉनोमिक्स कोई ऐसी सोशल साइन्स नहीं है जो यह कहे कि मेरे पास पूरा सत्य मौजूद था। तो ऐसे ही हिस्ट्री में आम हिस्टोरिकल फैक्ट्स से डील करते हैं इन्वेन्टेड फैक्ट्स से नहीं
प्रियवंद — क्या कोई – डिवाइस‚ कोई – प्राविधि ऐसी हो सकती है कि इतिहास की इस तरह की ‘ मैन्युफैक्चरिंग ‘ को रोका जा सके या पकड़ा जा सके या दस‚ बीस‚ पच्चीस साल बाद यह आसानी से समझ लिया जाये कि एक विचारधारा‚ एक आइडियोलॉजी के कारण इतिहास की इन चीजों को गढा गया है?
इरफान हबीब — डिवाइस तो छह सौ साल से विकसित हो चुकी है। पन्द्रहवीं शताब्दी में इब्नेखल्दून था‚ उसने कहा कि साहब जो तारीख यह कहे कि पचास हजार लश्कर को लेकर कोई – बादशाह मिस्र पहुंचा फिलिस्तीन से‚ तो वह गलत है‚ क्योंकि पचास हजार को पानी ही नहीं मिलेगा रास्ते में। अब आप कौटिल्य को ले लीजिये। हमें नहीं मालूम कि तक्षशिला कोई – यूनिवर्सिटी थी‚ लोग पढ़ने आते थे‚ गुरु थे। किसी संस्कृत टैक्स्ट में यह नहीं है कि कौटिल्य तक्षशिला का था। उसे अकसर चाणक्य कहा गया है। अथ–शास्त्र जिसने लिखा उसे विष्णुगुप्त कहा गया है। उसमें चाणक्य लफ्ज, इस्तेमाल ही नहीं हुआ है। अथ–शास्त्र में जो आफीसर मिलते हैं‚ उनके जो नाम हैं वे अशोक के एडिक्ट्स (शिलालेखों) में हैं ही नहीं। अशोक के इन्सक्रिप्शन (अभिलेखों) में उनका जिक्र ही नहीं मिलता।
अर्थशास्त्र में कुछ ऐसे शब्द हैं जो बहुत मुश्किल हैं चौथी शताब्दी या तीसरी शताब्दी बी.सी. में होना। संस्कृत भी इसकी थोडी बाद की है। तो यह तो कौटिल्य की हालत है। आप उसको तक्षशिला का प्रोफेसर बना देते हैं जब यही नहीं मालूम कि तक्षशिला यूनिवर्सिटी होती भी थी या नहीं। यह संघाराम तो बौद्धों ने शुरु किया है। ब्राह्मणों में नहीं होता था। नालन्दा बहुत बडा संघाराम था जिसे हम युनिवरसिटी कहते हैं। तो इसे हम इस तरह टेस्ट करते हैं कि किसी सोर्स में कुछ मिलता भी है या आपने अपने दिमाग में तय कर लिया कि ऐसा हुआ है।
प्रियवंद — पर इतिहासकारों की भी चीजों को देखने की अलग – अलग दृष्टि होती है जैसे कलाकारों की होती है।
इरफान हबीब — एक बात मैं ज़रूर कहूंगा कि बी। जे. पी. को बडे इतिहासकार नहीं मिल रहे अपने साथ।
प्रियवंद — लेखक भी नहीं मिल रहे।
इरफान हबीब — न मिलने की एक वजह इतिहासकारों में यह भी है कि उनमें‚ हम सबने हिस्टौरिकल फैक्ट्स पढ़े। उसी पर पेपर‚ पुस्तकें लिखीं। अब आप कहें कि नहीं‚ यह सब गलत है इनको आप छोडिये। जो इन्सक्रिप्शन में है जो रॉक एडिक्ट्स में है‚ सब बेकार है। आपको मैं एक मिसाल देता हूँ जो इतिहासकारों की समस्या है। ऋग्वेद के शब्दों का जो मतलब हमारे पण्डितों ने बतलाया उससे‚ उसी भाषा से मिलती जुलती किताब है ईरान की ‘ अवेस्ता’ । ‘अवेस्ता ‘ के शब्दों के पारसी पुरोहितों के‚ और ऋग्वेद के शब्दों के यहां के पण्डितों के‚ इन्टरप्रिटेशन्स में बेहद समानताएं हैं। शब्द और इन्टरप्रिटेशन्स दोनों मिलते हैं। इसके माने हैं कि दोनों जगह समानताएं थीं। उसीको माडर्न स्कॉलरशिप ने माना‚ हिस्टौरिकल स्कॉलरशिप ने माना। अब उनस यह कहा जाये कि इतने बड़े – बड़े संस्कृत जानने वाले भारत के सब बेकार हैं और एक सुभाष काक अमेरिका में हैं‚ उन्होंने कह दिया कि इसके अन्दर फलां फार्मूला है और इसके अन्दर यह भाषा है ऋग्वेद में‚ और आप मान लीजिये। तो इसके लिये बड़ा कलेजा चाहिये। बहुत बड़ा कलेजा चाहिये। एक तो इनकी यह समस्या है। दूसरी समस्या‚ यानि समस्या अन्तहीन है। हमारेजी सी पाण्डेय साहब हैं‚ जो अब उनके साथ हैं‚ बहुत बड़े स्कॉलर हैं। जब मैं चेयरमैन था आइ– सी एच आर ( इण्डियन काउन्सिल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च) का तो‚ कांग्रेस गवर्नमेन्ट थी। उन्होंने शंकराचार्य जी पर लिखवाने के लिये कहा। मैं ने प्रो जी सीपाण्डेय को खत लिखा कि आप कुछ लिख दें। गवर्नमेन्ट का खत आया कि जी. सी. पाण्डेय ऐसा न करें कि कहीं शंकराचार्य की तारीख आठवीं शताब्दी ईस्वी कर दें। हम तो उनको हजार ई. पू.– समझते हैं। तो मैं ने उन्हें एक खत लिखा कि साहब मेरी तो यह समझ में नहीं आता कि जब ये खुद ही कहते हैं कि गौतम के अनुयायियों को इन्होंने बहस में हराया और गौतम बुद्ध की तारीख 486 ई. पू.है‚ तो वह हजार एक ई. पू.कैसे हो सकते हैं? बहरहाल‚ दूसरी बात यह है कि मैं जी सीपाण्डेय साहब को ऐसा खत नहीं लिख सकता क्योंकि मैं ने थोड़ी बहुत हिस्ट्री पढ़ी है। तीसरी बात यह कि आपको इससे क्या ताल्लुक? आप गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया हैं‚ हम आई सी एच आर हैं। हम एक किताब लिखवा रहे हैं अपने खर्च पर। उस खत का कभी जवाब नहीं आया।जी सी पाण्डेय ने बिलकुल वही कहा कि आठवीं शताब्दी में थे शंकराचार्य। कुछ और बातें भी लिखीं कि शंकराचार्य ने महायान बुद्धिज्,म से बहुत सी चीजें लीं और कभी इसको स्वीकार नहीं किया। अब जी सी पाण्डेय से आप कहें कि नहीं शंकराचार्य हजार ई पू– में थे तो कैसे मान लेंगे इसको? तो यह उन लोगों की समस्या है जो वास्तव में इडियोलॉजिकली (विचारधारात्मक रूप से) वैसे उन लोगों के साथ हैं। उनको (जी सी पाण्डेय) इन्होंने चैयरमेन बनाया है ‘ इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवान्स स्टडीज़ शिमला’ का। लेकिन वह अपनी पिछली राइटिंग्स को कैसे जला दें? और कैसे एक नयी चीज़ कहना शुरु कर दें जिसका कोई आधार नहीं है?
प्रियवंद — 1857 तक हमें हिन्दू – मुस्लिम संघर्षों का लगभग कोई उल्लेख नहीं मिलता। 1857 के विद्रोह में भी कहा गया ‘ मुल्क बादशाह का’ या कानपुर में या नाना साहब के जीतने पर हरा झण्डा फहराया गया। विदेशी यात्रियों की डायरी‚ संस्मरणों में भी ऐसे ज़िक्र नहीं मिलते। 1857 के बाद कैसे और क्या बदलाव आये कि हिन्दू – मुस्लिम संघर्षो की शक्ल इतनी बदली कि आज चीजें यहाँ तक पहुंच गयीं?
इरफान हबीब — देखिए‚ मैं इसमें यह कहूंगा कि धर्म की मुठभेड़ तो हर वक्त‚ हर जगह थी। अशोक ने भी लिखा है कि दूसरे सम्प्रदाय को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिये। उसकी भी इज्जत करनी चाहिये। तो जाहिर है कि आपस में मुठभेड़ तो थी वरना कहने की क्या ज़रूरत थी? बुद्धिस्ट साहित्य में ब्राह् मणों से शिकायतें हैं और बौद्ध ग्रन्थों में ब्राह् मणों को बुरा भला कहा गया है। अकबर के लिये 1581 में एक जेसुइट बनाम मोजरेट ने यह कहा कि दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं कि जिसमें दूसरे धर्म को टॉलरेट करना जायज़ हो। देयर इज़ नो रीलीजन विच परमिट्स द टालरेन्स ऑफ अदर रीलीजन। उसने अकबर पर यह सब न समझने का इलज़ाम लगाया था। यह तो धर्म की बात है ही कि अगर मैं सच्चा हूँ तो फिर आप दूसरे धर्म में क्यों जायेंगे? हमारे प्राचीन इतिहास में भी है कि जब सासनियों ने कब्जा किया अफगानिस्तान पर और कुषाणों को जीता‚ तो जितने बौद्ध विहार थे उनको उन्होंने फायर टैम्पल बना दिया। यह बात अलबरूनी ने ग्यारहवीं शताब्दी में कही और अब पुरातत्व ने इसे साबित कर दिया। यह भी है कि मुसलमानों ने भी फायर टैम्पल्स को नष्ट कर दिया। तो धार्मिक मतभेद इस तरह का तो था ही… लेकिन इसी के साथ भारत में सहयोग भी रहा‚ दूसरे धर्मों की मान्यता भी रही‚ कि भई हमें इनसे तो सहयोग करना ही है। तो हमें दोनों तरह के ट्रेण्ड्स मिलते हैं। बल्कि मुगल साम्राज्य में तो यह बात सुलह कुल के राजनैतिक सिद्धान्त की तरह आयी जिसका मतलब था कि सबको शान्ति के साथ मिल जुल कर रहना चाहिये। औरंगजेब ने भले ही इसको डिफॉल्ट किया हो लेकिन उसने भी एक दफा राणा राजसिंह के लिये जारी अपने एक हुक्मनामे में कहा कि जैसे खुदा‚ हिन्दू – मुसलमान सब पर सूरज की रोशनी भी डालता है बारिश भी… वर्षा भी करता है‚ तो बादशाह भी उसका प्रतिनिधि है इसलिये बादशाह को किसी में तफ़रीक़( भेदभाव) नहीं करना चाहिये। उसने इस बात पर अमल नहीं किया यह दूसरी बात है‚ पर यह एक राजनैतिक सिद्धान्त तो था ही। मराठों ने भी हिन्दू पद पादशाही का नारा कुछ दिन रखा फिर यही कहा कि मुगल बादशाह है और हम उसके वज़ीर हैं‚ या सिंधिया उसका बख्शी उल मुबालिक है। इस तरह जब नाना साहिब का ज़िक्र आया तो उन्होंने भी यही कहा कि हम बादशाह के वज़ीर हैं। तो इस तरह धर्मों में एकता रही क्योंकि मुगल बादशाह सबको स्वीकार करता था और 1857 तक यही सीन रहा‚ वर्ना अंग्रेजी साम्राज्य का मुकाबला कैसे होता?
इसमें मैं आपको अब एक दूसरी बात कहूंगा। जो लोग अंग्रेजी साम्राज्य के वाकई विरोधी थे‚ उन्होंने हमेशा एकता की बात की… और जो लोग नहीं थे उन्होंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। यह एक कसौटी है। जहां तक गांधी जी की बात है‚ कांग्रेस लीडरशिप की बात है‚ तिलक की बात है‚ तो यह बात तो बिलकुल सामने आ गई है। जब वे बर्मा की कैद से वापस आए तो उन्हें यह तय करना पड़ा कि आगे देश में कैसी राजनीति चलायी जाये तो उन्होंने कहा कि सबसे पहले कांग्रेस और मुस्लिम लीग में एकता होनी चाहिये।इसलिये मुसलमानों को अगर कुछ कन्सेशन चाहिये तो दे देना चाहिये। जिसका नतीजा 1916 का लखनऊ पैक्ट हुआ… तो इस तरह जो हिन्दू नेशनलिज़्म के बड़े फिगर समझे जाते थे एट्टी नाइन्टीज़ में‚ जब पोज़िशन साफ हुई कि अंगे्रजी साम्राज्य का मुकाबला पूरे हिन्दुस्तान में करना है सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं करना है‚ तो वह पोजीशन उन्होंने ले ली। गांधी‚ सुभाष बोस‚ सबकी पोजीशन क्लियर है। मुसलमानों में आमतौर से यह मालूम नहीं है लोगों को जो पैन इस्लामिज़्म कहा जाता है‚ उसके फाइटर जलालुद्दीन अफगानी थे‚ कलकत्ता में उन्होंने तकरीर की 1883 में … उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान में पैनइस्लामिज़्म लागू नहीं हो सकता और यहां के मुसलमानों को भारत को ही अपना मुल्क समझना चाहिये। ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला करने के लिये हिन्दू – मुसलमानों की एकजुटता को उन्होंने ज़रूरी माना था। जो वास्तव में साम्राज्यवाद के खिलाफ नहीं होते वे आहिस्ता – आहिस्ता साम्प्रदायिक होते चले जाते हैं‚ यह ध्यान रखने की बात है। चुनांचे आप देख लीजिये कि हिन्दू महासभा के जो लीडर कांग्रेस में शुरु में थे‚ धीरे – धीरे वे शिफ्ट करके उसी पोज़िशन में चले गये जिसमें आर। एस। एस। का कहना था कि हमारा विरोधी मुसलमान है अंग्रेज नहीं। और मुस्लिम लीग की भी यही पोजीशन हुई कि कांग्रेस के एजीटेसन पर आज़ादी तो आ ही जायेगी… उसमें हमारा भी हिस्सा होना चाहिये। हम ही क्यों जूझें अंग्रेजों के मुकाबले के लिये। तो यह पोजीशन मुस्लिम लीग के नेताओं की थी। तो दोनों ही अंग्रेजी साम्राज्य के संघर्ष से निकल आये। अब इन्होंने इस आधार पर लड़ाई करना शुरु किया। अपनी साम्प्रदायिक पोजीशन को मजबूत करना शुरु किया। कोई शक नहीं कि इससे हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन भी कमज़ोर हुआ और अगर कांग्रेस लीडरशिप सेक्युलर न रहती‚ तो बहुत ही कमज़ोर हो जाता। लेकिन यह उसकी तारीफ की बात है कि इतने प्रोवोकेशन( भड़काने) के बाद भी‚ आर। एस। एस। की इतनी गालियां देने पर भी‚ हिन्दू महासभा के गालियां देने पर भी‚ पाकिस्तान बनने के बावज़ूद उसने सेक्युलर पोजीशन ली। इसमें गांधी जी और पं। नेहरू का बहुत योगदान है।
प्रियवंद — तिलक की मृत्यु 1920 में हुई। उसके बाद गांधी ने उग्र हिन्दुत्व को रोका। या यूं कहें कि बाल ठाकरे या आर। एस। एस। के हिन्दुत्व को भारत में आने में इतना समय इसलिये लगा क्योंकि बीच में गांधी जी का उदार हिन्दुत्व था। अगर मुस्ल्मि राजनीति में कोई उदार मुस्लिम होता तो‚ संभव था कि पार्टीशन ही नहीं होता या चीजें आज इतनी खराब शक्ल न लेतीं?
इरफान हबीब — पहली बात तो यह कि खान अब्दुल गफ्फार खांँ मुस्लिम राजनीति में थे ही नहीं कभी। वे तो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़े गये आज़ादी के आन्दोलन के लीडरों में से थे। मुस्लिम राजनीति तो‚जाहिर है कि साम्प्रदायिक राजनीति होगी। जहां तक जिन्ना का ताल्लुक है तो यह कहना गलत है कि उन्होंने एक ही वक्त एक सौ अस्सी का टर्न लिया। 1919 से 1940 तक की यह एक लम्बी कहानी है। 1919 में उन्होंने रौलट एक्ट के खिलाफ लेजिस्लेटिव काउन्सिल से इस्तीफा दिया। लेकिन फिर बाद में मालवीय जी के साथ उन लीडर्स में थे जो नॉन को – ऑपरेशन में शामिल नहीं हुए। और इस तरह मालवीय जी और जिन्ना साहब दोनों का शिफट साम्प्रदायिक राजनीति में बढ़ता गया क्योंकि दोनों राष्ट्रीय आन्दोलन से कट गये। मालवीय जी हिन्दू महासभा को ज़िन्दा करने में लग गये और जिन्ना साहब मुस्लिम लीग की तरफ चले गये। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिये कि उन्होंने सायमन कमीशन के बायकॉट में हिस्सा लिया। असल में उनकी साम्प्रदायिकता की राजनीति इस बायकॉट से ही शुरु होती है जब उनको यह ख्याल हुआ कि वे ब्रिटिश सरकार से समझौता करके मुसलमानों को ज़्यादा अधिकार दिला सकते हैं। यह भी याद रहे कि अगर सिविलनाफरमानी के ज़माने में वे पहली राउण्ड टेबल कान्फ्रेन्स गये तो हिन्दू महासभा के लीडर भी उनके साथ मौजूद थे। और फिर यह रास्ता साफ हो गया टू नेशन थ्यौरी का दोनों तरफ से‚ जिसे हिन्दू महासभा के सामने सावरकर ने 1938 में रखा और मुस्लिम लीग ने लाहौर रैजूलेशन के जरिये 1940 में मंजूर किया।
प्रियवंद — अम्बेदकर साहब की क्या भूमिका थी राष्ट्रीय आन्दोलन में? मुसलमानों के प्रति उनका दृष्टिकोण कभी – कभी आर। एस। एस। के नज़दीक दिखता है।
इरफान हबीब — अम्बेदकर साहब के बारे में एक चीज़ हम सब जानते हैं कि वे दलितों के कॉज़ में हमेशा मजबूती से कायम रहे। लेकिन अंगे्रजी साम्राज्य ल्प विरोध में उन्होंने ऐसी कोई मजबूती नहीं दिखाई। वे सायमन कमीशन के भी सामने पेश हुए‚ किसी राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्होंने कोई हिस्सा नहीं लिया‚ ‘ क्विट इण्डिया’ के वक्त वायसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के मेम्बर बने रहे। और फिर उसी आसानी के साथ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की तरह ‘ क्विट इण्डिया’ के जमाने में बंगाल के मिनिस्टर बने रहे और आजाद भारत की पहली कैबिनेट में शामिल हुए। उन्होंने अलग – अलग मौकों पर हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों की अलग – अलग तरह आलोचना की। कहा जा सकता है कि अम्बेदकर साहब को समझने के लिये ज़रूरी है कि यह देखा जाये कि उस जमाने में उनकी राजनीति क्या थी?
प्रियवंद — आजादी के बाद कांग्रेस के पास सत्ता आई। उसके बाद का जो पच्चीस – तीस साल का समय था‚ नेक्सलाइट मूवमेन्ट से थोड़ा आगे तक का‚ सब कुछ वामपंथी प्रभाव में था। नेहरू जी लेफ्टिस्ट नहीं थे‚ तो भी कम से कम कम्यूनल तो नहीं थे। उनका झुकाव समाजवाद की ओर था। साहित्य‚ इतिहास‚ कला‚ राजनीति सब पर वामपंथी प्रभाव था। अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य भी इसके पक्ष में था। हमारे सामने चीन‚ रूस का उदाहरण था। तो इस पूरे समय के दौरान कहाँ पर क्या टूटा या छूटा कि आज चीजें यहां तक पहुंच गयी हैं कि दिल्ली की गद्दी लगभग आर। एस। एस। की मुट्ठी में आ गयी है।
इरफान हबीब —आप उन्हें लेफ्टिस्ट कहते हैं‚ मैं तो मानता ही नहीं कि ये लोग लेफ्टिस्ट थे। आज बी। जे। पी। के विरोध में तो हर एक ‘ लेफ्टिस्ट ‘ हो गया है। लेकिन आप उस जमाने में देखें कि पं। नेहरू की जो दूसरी पंचवर्षीय योजना थी‚ जी। डी। बिरला ने उसका समर्थन किया और कहा कि पब्लिक सेक्टर से ऐसा कच्चा माल और बिजली मिल जाएगी जो हम पूंजीपति नहीं बना सकते। अगर मोटरकार बनाना है तो सस्ता लोहा कैसे मिलेगा? उतनी पूंजी ही पूंजीपतियों के पास नहीं थी। आजकल जो संरक्षण के युग की बुराई करते हैं‚ उन्हीं के प्रिकर्सर्स सबसे ज़्यादा संरक्षण की मांग कर रहे थे। मामूली आदमी… जैसे मैं था‚ तो ब्लेड ही ठीक से नहीं मिलता था कि दाढ़ी बना सकें। तो मामूली आदमी संरक्षण के पक्ष में उतना नहीं था जितना उद्योगपति था। तो पब्लिक सेक्टर और प्रोटेक्शन ( सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी संरक्षण) दोनों हिन्दुस्तान के पूंजीपतियों की मांग थी। जहां तक पण्डित नेहरू की विदेश नीति थी‚ तो नान एकााइनमेन्ट ( निर्गुट) बहुत शुरु हुआ‚ लेकिन शुरु में तो उन्होंने काफी साथ दिया साम्राज्य का। और बाद में बहुत एहतिहात से काम लिया। लेकिन पब्लिक सेक्टर बनाया उन्होंने। आज पब्लिक सेक्टर को लेफ्टिस्ट कहा जाये पर उस समय सिवाय कुछ को छोड़ कर सब लोग‚ व्यवसायिक घराने‚ संरक्षण और पब्लिक सेक्टर के पक्ष में थे। उन लोगों ने भी यह देखा कि लाइफ इन्श्योरेन्स के राष्ट्रीयकरण के बाद उनकी पूंजी बहुत बढ़ गयी । लोगों को यकीन हो गया कि हमारा पैसा सुरक्षित है और जोखिम से बचा है। जब बैंक का राष्ट्रीयकरण हुआ इन्दिरा गांधी के ज़माने में‚ तो उसमें यह वायदा किया गया कि इसमें जो भी बैंक राष्ट्रीयकृत होगा‚ तो उसमें जो भी कर्ज दिये गये हैं और जो भी इनके प्रतिनिधि होंगे बैंक प्रबन्धन में‚ हम तब्दीली नहीं करेंगे। तो वास्तव में हिन्दुस्तानी व्यापारिक घरानों को बड़ा फायदा हुआ बैंक राष्ट्रीयकरण से‚ क्योंकि राष्ट्रीयकृत बैंक में भी आम आदमी को यकीन हो गया कि इसमें अगर हम अपना रुपया रखें तो सुरक्षित है। जो सामान्य राष्ट्रीयकरण है वह कभी नहीं हुआ। अभी केयरनन की किताब मैं पढ़ रहा था तो उन्होंने 1960 में लिखा है कि मुझे हिन्दुस्तान में यह बड़ा ताज्जुब हुआ कि प्राइवेट इन्टरप्राइज़ पब्लिक सेक्टर की बुराई भी बहुत करते हैं और उसी पर ज़िन्दा भी हैं। आज जो पूंजीपति प्रायवेटाइजेशन का नारा दे रहे हैं‚ उनसे पूछा जाना चाहिये कि आप अपनी पूंजी से अपनी फैक्ट्री क्यों नहीं चलाते? आप पब्लिक सेक्टर की फैक्ट्री पर कब्जा क्यों करना चाहते हैं? वो सिर्फ इसलिये कि सस्ता माल मिले? तो यह तो देश की पूंजी की लूट के बराबर है। अब तो आप यह कर रहे हैं कि अल्युमिनियम में बाल्को पर पहले पांच हज़ार करोड़ खर्च करें‚ फिर पांच सौ करोड़ में उसे बेच दें। और पांच सौ करोड़ की पूंजी पर वही नफा प्राइवेट को हो तो जाहिर है बहुत बड़ी परसेन्टेज है‚ तो उस पर आप खुश हैं कि साहब प्राइवेट सेक्टर बहुत अच्छा चल रहा है। तो आपने जब इतना रुपया पब्लिक सेक्टर पर खर्च किया तो आपकी देश की इण्डस्ट्री बनी अल्युमिनियम की‚ और अब आप उसे लुटा रहे हैं। तो इकनॉमिक हिस्ट्री अगर आप देखें आजादी के बाद की‚ तो उसमें कोई वामपंथ नहीं था। उसमें तो एक गंभीर योजना थी औद्योगीकरण की जिसके बगैर औद्योगीकरण नहीं होता। तकरीबन हर अर्थशास्त्री इस पर सहमत था कि अगर हिन्दुस्तान का औद्योगीकरण होना है तो योजना होनी चाहिये‚ पब्लिक सेक्टर बनना चाहिये। और जब आपका इतना बड़ा पब्लिक सेक्टर बना गया… इतना बड़ा खर्च हो गया‚ तो आप अब उसे निजीकरण करके जनता की इतनी बड़ी रकम आप उनके ( औद्योगिक घरानों) हाथों सुपुर्द कर रहे हैं। तो अब जो स्थिति है वह कोई औद्योगिक उदारवाद नहीं है‚ वह तो लूट है। टैक्स देने वालों से पैसा लेकर आपने इतनी बड़ी सम्पत्ति बनाई है‚ उसे ठीक से प्रबन्धन न करके प्राइवेट में दे रहे हैं। आप कहते हैं कि अगर नीलाम किया जाये तो ठीक है‚ पर जब बोली लगाने वाले के पास पैसे नहीं हैं‚ पांच हज़ार करोड़ नहीं हैं‚ तो पांच हज़ार करोड़ की पांच सौ करोड़ में बिक जायेगी। लूट तो लूट रहेगी।
प्रियवंद — आर्थिक नीति के अलावा साहित्य‚ इतिहास‚ फिल्म में भी वामपंथ था।
इरफान हबीब — मेरी समझ में नहीं आता कि आप हिस्ट्री को कैसे कह सकते हैं कि लेफ्टिस्ट के पास रही?
प्रियवंद — जो किताबें पहले पढ़ीं उनमें परिवर्तन तो बी। जे। पी। ने किया है। लेकिन उनके लिये बी। जे। पी। वाले यही दोष देते हैं कि यह सब लेफ्टिस्ट ने अपने हिसाब से इतिहास लिखा है।
इरफान हबीब — बी। जे। पी। वाले तो हर उस एक को लेफ्टिस्ट कहते हैं जो उनसे सहमत न हो।
प्रियवंद — साहित्य ?
इरफान हबीब — अब साहित्य के बारे में मैं नहीं जानता ज़्यादा।
प्रियवंद — फिल्म?
इरफान हबीब — फिल्म पर तो कभी मोनोपली सरकार की नहीं रही। जो चाहे फिल्म बनाओ।
प्रियवंद — जैसे नक्सलवादी आन्दोलन था। उसे हम वामपंथी विचारधारा का चरम मानते हैं और यह भी मानते हैं कि देश की युवा पीढ़ी की क्रीम उससे जुड़ी थी। …
इरफान हबीब — आप पहले सवाल साफ कीजिये। एक तो आप यह कह रहे हैं कि सरकार लेफ्टिस्ट के हाथ में थी या उनकी पॉलिसी लेफ्टिस्ट के हाथ में थी। पर फिल्म और लिटरेचर में तो सरकार का कोई रोल ही नहीं था। अब आप आयें हिस्ट्री की टैक्स्ट बुक पर … तो हिस्ट्री की टैक्स्ट बुक में आप सरकार का रोल उसी हद तक बता सकते हैं जहां तक एन सी ई आर टी ( नेशनल काउंसिल फॉर एजूकेशनल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग) की टैक्स्ट बुक । आर । सी मजूमदार और राय चौधरी की ‘ एडवांस हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’‚ जो इतनी पढ़ी जाने वाली टैक्स्ट बुक थी‚ उसमें तो सरकार का कोई रोल नहीं था। ईश्वरी प्रसाद की किताब थी जो हम लोगों ने पढ़ी। ताराचन्द की ‘ हिस्ट्री ऑफ इण्डियन पीपुल’ थी‚ वह तो अंग्रेजों के जमाने में लिखी गयी। उसमें कांग्रेस का क्या रोल हो सकता है? या उनकी सरकार का? उनके ज़माने में भी बहुत से प्रान्तों में किताबें लिखी गयीं जो बहुत साम्प्रदायिक थीं… उनके बोर्ड में प्रिसक्राइब्ड थीं। पश्चिम बंगाल में वाम सरकार थी‚ लेकिन वहां किताबें वही चलती रहीं जो पुरानी थीं। इतिहास के अध्यापकों ने कहा आप यह जो नई किताब ले आये विपिनचन्द की‚ हमने तो पढ़ा ही नहीं है। मजूमदार की हमने याद कर ली है — उसी के नोट्स लिये हैं – वही पढ़ाएंगे। तो इसलिये एन सी ई आर टी के अलावा ऐसा कोई ट्रेण्ड नहीं है जहां यह कहा जाये — और उसमें भी आप लेफ्टिज़्म देखें‚ तो मेरे ख्याल से आर। एस। शर्मा ल्ै किताब ‘ एन्शियन्ट इंडिया ‘ में मिलेगा। बाकि में तो‚ विपिनचन्द साहब में तो ज़्यादातर मुख्यधारा की लीडरशिप की तारीफ है। तो उसमें भी मैं यह पूछना चाहता हूँ कि राष्ट्रीय आन्दोलन में गांधी‚ नेहरू और सुभाष बोस के अलावा और खान अब्दुल गफ्फार खां वगैरह का ज़िक्र खासतौर पर होगा। भारत की जनता भी इन्हीं चार पांच लोगों को ज़्यादा जानती थी।
प्रियवंद — नहीं सर‚ सवाल साफ नहीं हो रहा है शायद। जैसे कि उस समय जो युवा था वह अपनी एक जेब में चेग्वारा की डायरी रखता था‚ दूसरे में माओ की लाल किताब। माक्र्स को मसीहा मानता था। उसे यकीन था कि यह दुनिया एक दिन बदल जायेगी। आम आदमी के पास भी एक विचारधारा थी। एक माहौल था। देश को लाल रंग में होना चाहिये था‚ वह भगवा रंग में कैसे हो गया?
इरफान हबीब — अब आप आम आदमी पर आ गये।
प्रियवंद — जी। मैं इसी की बात करना चाहता हूँ… वह आम आदमी क्योें बदला?
इरफान हबीब — यह तो मैं समझ सकता हूँ। आपने जो दो मिसालें दीं उसी से साबित हो गया। देखिये… जब तक समाजवाद दुनिया की ज़मीन पर इतना सफल था‚… क्रान्ति के लिये भी कोशिश हो रही थी… चेग्वारा का भी उदाहरण था… माओत्से तुंग ने ‘ कल्चरल रिवोल्यूशन’ में यह दिखाना चाहा कि हम कौम के पूरे जीवन को बदल सकते हैं… विदाउट करौसपॉन्डिंग इकनॉमिक डेवलपमेन्ट‚ तो उसकी बहुत अपील थी। लेकिन जब चीन ने ही अपनी धारा बदल दी‚ सोवियत यूनियन का पतन हो गया‚ लैटिन अमेरिका में वे मूवमेन्ट जो चेग्वारा ने शुरु किये थे सफल नहीं हुए‚ पूरा सोशलिस्ट मूवमेन्ट जब दुनिया में पीछे हो गया‚ तो वे लोग‚ जो इन चीजों पर यकीन रखते थे‚ उनको बहुत आघात पहुंचा‚ और इस खालीपन में जाहिर है कि ग्लोबलाइजेशन बढ़ा‚ धार्मिक झुकाव बढ़ा। वह भारत में ही नहीं‚ पूरी अरब दुनिया में देख लीजिये। 1970 – 75 तक नासिर का राष्ट्रवाद‚ बाथ समाजवाद और कम्युनिस्ट आन्दोलन तीनों अरब दुनिया में विकसित हो रहे थे। लेकिन उसके बाद तीनों कमज़ोर हो गये और धार्मिक आन्दोलन बढ़ने लगा। अराफात की फिलिस्तीन में डिक्लाइन हुई। और जो मुस्लिम रिलीजस मूवमेन्ट हैं … मैं उन्हें फन्डामेन्टलिस्ट नहीं कहूंगा क्योंकि आजकल तो हर एक को फन्डामेन्टलिस्ट कहा जा रहा है‚ लेकिन जो मुस्लिम रिलीजस मूवमेन्ट हैं…धार्मिक …उनका उत्थान हुआ। हर जगह। लैटिन अमेरिका में ‘ रेडिकल क्रिश्चियन्स ‘ का आन्दोलन हुआ जो अकसर लेफ्ट आन्दोलन से सहयोग करते रहे हैं। इसी तरह ‘हमस’ है। वे न सिर्फ अराफात के ‘ अलफतह’ से सहयोग करते हैं बल्कि कम्युनिस्टों के ‘ नेशनल फ्रन्ट फॉर द लिबरेशन ऑफ पेलेस्टाइन’ से भी उनके सम्बन्ध हैं। जाहिर है कि वैक्यूम है। बी। जे। पी। को यह आसानी है कि ये बग़.ैर साम्राज्यविरोधी हुए‚ और देश के लिये कोई सेवा किये बगै.र‚ इस (खालीपन) वैक्यूम का फायदा उठा रहे हैं।तो यह तो जो दुनिया में हो रहा है उसका भारत पर असर तो पड़ेगा ही।
प्रियवंद — क्या यह रिजीम खतरनाक है या देश खुद ही उनकी गोद में जा बैठने को तैयार है? बुद्धिजीवियों‚ पढ़े लिखे लोगों तक को देखिये। अभी राजस्थान‚ एम।पी। विधानसभा के चुनाव हुए जनता ने उन्हें दोनों दे दिये। गुजरात को गोधरा के ठीक बाद दे दिया। इसकी व्याख्या कैसे करें? क्या है यह? या इस सवाल को इस तरह करें कि जिस आम आदमी ने‚ आप लोगों के साथ जो सपना उस समय देखा था‚ समाज का‚ राजनीति का देश का‚ वह आम आदमी किस तरह इन लोगों की तरफ इतना बड़ा शिफ्ट कर गया? पढ़ा लिखा भी?
इरफान हबीब — पढ़े लिखे ने ज़्यादा शिफ्ट किया?
प्रियवंद — कैसे हुआ यह सब?
इरफान हबीब — यह शिफ्टिंग… इसमें बहुत आसानी है‚ धर्म की और धर्म के इस्तेमाल की। अब इस वक्त वह बात भारत की जनता के सामने नहीं है जो 1945 – 46 में थी कि ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला करना है‚ तो गांधी के ही पास जाओगे‚ सावरकर के पास तो नहीं जाओगे। उसके बाद भी जब गांधी जी की शहादत हुई‚ उस वक्त तो कुछ लोग गांधी जी पर पत्थर फेंक रहे थे‚ लेकिन जब गांधी जी के जीवन का सवाल आया और उनकी शहादत हो गयी‚ तो लोगों ने कहा कि नहीं… कि गोया काया पलट गयी भारत की। ऐसा मालूम होता था कि गांधी जी की जनवरी की भूख हड़ताल और उनकी शहादत ने जनता का रुख़ ही बदल दिया। तब हर कोई साम्प्रदायिकता के खिलाफ उठ खड़ा हुआ। तो जाहिर है किसी देश के इतिहास में ऐसे मौके कम ही आते हैं जब किसी मुल्क की विचारधारा एकदम से बदल जाती है। अब जब उस वक्त इस तरह बहक सकते थे‚ तो इस वक्त के बजाहिर सामने किसी साम्राज्य का मुकाबला नहीं है‚ और धर्म की बातें उनसे कही जा रही हैं और इसी के साथ नेशनलिज़्म का लिबास भी ओढ़ा जा रहा है‚ तो यह कोई ताज्जुब वाली बात नहीं है कि जनता का एक हिस्स बी। जे। पी। से प्रभावित हुआ। कभी – कभी प्रजातन्त्र में जनता को तब अहसास होता जब ज़रा देर हो जाती है। जब गरीबी और बढ़ती है‚ परेशानियां और बढ़ती हैं। अभी इनफ्लेशन 6 प्रतिशत के करीब है। हो सकता है चुनावों के बाद ( लोकसभा चुनाव 2004) 8 प्रतिशत भी हो जाए। पर अब तो पांच साल बाद ही कुछ होगा। तो देखना यह है कि यह थोड़ी देर का है या…
प्रियवंद — अभी आपने धर्म के इस्तेमाल की बात की कि आर। एस। एस। ने धर्म को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। माक्र्सिस्ट या वामपंथियों ने धर्म को मनुष्य जीवन में कोई जगह नहीं दी। कहीं यह गलती तो नहीं थी? अगर वे अपने पूरे सिद्धान्त में‚ ऐतिहासिक विकास की व्याख्याओं में‚ धर्म को भी जीवन में शामिल कर लेते तो शायद ये लोग धर्म को इतनी आसानी से इस्तेमाल नहीं कर पाते। वामपंथ में‚ जीवन की इतनी बड़ी ड्रायविंग फोर्स को इस तरह बिलकुल अकेला छोड़ देना क्या ठीक हुआ?
इरफान हबीब — देखिए अगर आप उनकी ( लेफ्टिस्ट) किताबें पढें तो यह बात सही नहीं है कि धर्म को एक तरफ कर दिया गया। बौद्ध धर्म को भारत के इतिहास में कौन अलग कर सकता है? बहुत से समय तो ऐसे हैं जहाँ हमें सिर्फ धर्म के बारे में मालूम है… दूसरी चीजों के बारे में बहुत कम मालूम है। यह ज़रूर है कि थोड़ी सी ब्राह्मेनिकल आर्थोडॉक्सी ( ब्राह्मणों की दकियानूसी) की आलोचना है। खासतौर से उसके जातिवाद की‚ दलितों के दमन की। अब यह भी एक सवाल है कि उसमें क्या किया जाये? अगर कोई इस्लाम का इतिहास लिखता है और गुलामों पर जुल्म हुए या औरतों के साथ जो भेदभाव हुआ‚ उसमें उसका ज़िक्र नहीं करता तो क्या वह इतिहास है? हिन्दुस्तान में तो ज़िक्र भी है… पाकिस्तान के इतिहास में तो ज़िक्र ही नहीं होता। यह बात तो अपनी जगह पर है ही कि धर्म आलोचना से ऊपर नहीं हो सकता। कहीं नहीं है। धर्म की इज्ज़त जरूर करनी चाहिये लेकिन अपनी ऐतिहासिक स्थितियों को भी देखना चाहिये। मेरा एक फेवरिट फार्मूला है जो किसी को पसन्द नहीं आता सिवाय मेरे। वह यह कि यदि धर्म ने इतिहास को बदला तो इतिहास ने भी धर्म को बदला है। गांधी जी का हिन्दूधर्म कितना अलग है मनुस्मृति के धर्म से। इस्लाम को आज देखिए। कितना अलग है सातवीं शताब्दी के इस्लाम से। अब आप बिलकुल आंख बन्द कर लें और कहें कि कोई फर्क नहीं हुआ है तो और बात है। हमारी यूनिवर्सिटी के जो फाउण्डर थे ( सर सैयद अहमद खां) उन्होंने यह कहा कि जैसे – जैसे साइंस तरक्की करती है‚ हमारे धार्मिक अकीदे भी बदलते जाते हैंक्त
प्रियवंद — कहीं न कहीं कम्युनिस्ट लीडरशिप में भी गलती तो हुई। उनमें भी आपस में जो बेद बढ़े‚ जो टकराहट हुई।
इरफान हबीब — जहां तक आर्गनाइजेशन या मुख्यधारा के कम्युनिस्ट आन्दोलन की बात है तो उसमें दो पार्टी हैं। सी। पी। आई। और सी। पी। एम।। तो बहरहाल यह तो अब जाहिर है कि कम्युनिस्ट तहरीक‚ जहां तक राष्ट्रीय आन्दोलन की बात है‚ बहुत छोटी थी। यह ज़रूर था कि पार्टी मेम्बर कम थे और उनको हर आन्दोलन में झौंक दिया जाता था‚ इसलिये जेल जाने वालों में उनकी तादाद बड़ी थी। जैसे 1940 में बीस हज़ार जेल में गये तो उसमें से तीन हजार कम्युनिस्ट थे। लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन में वह पन्द्रह परसेन्ट नहीं थे… अगर आप परसेन्टेज में देखें । और जो धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक नजरिया था राष्ट्रीय आन्दोलन का‚ वह पण्डित नेहरू के साथ था। गांधी जी ने भी उन्हें अपना उत्तराधिकारी माना‚ चाहे कितने मतभेद हों उनके‚ उन्होंने यह बिलकुल स्प्ष्ट कर दिया कि सरदार पटेल उनके उत्तराधिकारी नहीं हैं। इस सबका हिन्दुस्तान की जनता पर बहुत असर हुआ। खासतौर से वो राष्ट्रीय कार्यक्रम जिसे 1931 के करांची रेज्योल्यूशन में कांग्रेस ने रखा‚ वो भारत की जनता के लिये अपनी आजादी का नक्शा बन गया। तो कम्युनिस्ट तहरीक – आन्दोलन‚ 1947 के बाद भी कमज़ोर रहा। कुछ गलतियां हमसे भी हुईं। जैसे 1947 से पहले हमने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को हमपल्ला रखा। 1948 से हमने कांग्रेस सरकार के विरोध में एक आन्दोलन शुरु कर दिया जिसमें जनता हमारे साथ नहीं थी। इसके बाद देश में जो हुआ‚ उसमें यह कहना कि सिर्फ हमारी मेहनत से था या अगर हमारे पास इतना बड़ा कोई लीडर होता – जैसे गांधै या चीन के लिये माओत्से तुंग तो हम पूरा सब बदल देते… तो यह तो बरहाल कोई उम्मीद नहीं कर सकता। आज की दुनियां में खासतौर से जहां डेमोक्रेसी है‚ वहां गालिबन वह स्थिति नहीं है कि कोई इतना बड़ा लीडर पैदा हो जाये कि सिर्फ वही देश बदल दे। तो आपस में मतभेद हुए और उस वक्त वो बहुत महत्वपूर्ण मालूम होते थे। अगर हमको मालूम होता कि ख्या होने वाला है तो शायद सी। पी। आई। और सी। पी। एम।में बंटवारा नहीं होता। सी। पी। एम। क्योंकि बड़ी पार्टी है‚ तो मैं यह समझूंगा कि इन्होंने जिस तरह नब्बे – इक्यानवे की क्राइसिस पूरी की ( सोवियत संघ का पतन) और फिर भारत में चुनाव में अपनी इतनी बड़ी पोजीशन रखी‚ तो यह क्रेडिट की बात है। जो क्रेडिट मिली‚ मिलनी चाहिय। दुनिया भर में हम पीछे हो गये पर भारत में नहीं हुए। अब जो कमज़ोरियां हैं इधर वो आपके सामने हैं। हिन्दी बेल्ट‚ खासतौर से यू पी में किसानों में हमने अपनी पोजीशन उस वक्त खोना शुरु कर दिया जब हम सिर्फ जमींदारी एबोेलीशन एक्ट की ही आलोचना करते रहे‚ लेकिन जो अधिकार उस एक्ट ने किसानों को दिये उनको हासिल कराने में हमने कोई अगुवाई नहीं की। तो उससे जो हमारा डिक्लाइन शुरु हुआ… वह अब तक चल रहा है। उसको हम पूरा नहीं कर पाए।
प्रियवंद — इसमें सोशलिस्टों ने जो अपनी जगह बदली कि पार्टी खत्म हो गयी‚ विश्वसनीयता खत्म हो गयी‚ कोई कहीं भाग रहा है… कोई कहीं…
इरफान हबीब — सोशलिस्टों का यह सिलसिला तो बहुत पहले शुरु हुआ है। जयप्रकाश नारायण को ही देख लीजिये। भूदान आन्दोलन में शामिल हुए तो राजनीति से बिलकुल अलग हो गये। लोहिया जी का यह कहना कि जो ज़्यादा शोर मचाए हम उसके साथ हो सकते हैं। इससे जाहिर है कि विचारधारा की शक्ति सोशलिस्ट पार्टी के भिन्न – भिन्न घटकों में कम होती जा रही थी। लेकिन राजनीतिक स्पेस हिन्दी बेल्ट में समाजवाद की ही है। इससे जाहिर होता है कि समाजवादी पार्टी को अब इतनी बड़ी संख्या में वोट मिल रहे हैं और वो पोजीशन देश में इस नाम की किसी और पार्टी की नहीं है। जहां तक आर। एस। एस। का सवाल है‚ वह किसी तरह नेशनलिस्ट नहीं कही जा सकती क्योंकि 1947 से पहले उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ कभी उंगली तक नहीं उठाई। अब जब उनको शक्ति की तरफ बढ़ने का अवसर मिला तो अपने आपको नेशनलिस्ट के वेश में पेश करके वे पंद्रह साल से भारत की जनता को धोखा देते रहे हैं। यहां मुझे इतना कहना है कि बाजदफा हमको जो चीजें अब नेशनल लगती हैं वो देश का फायदा नहीं करतीं। मसलन लोहिया जी का अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन। ऐसी ही कुछ गलतिया बंगाल में हम लोगों ने भी की हैं। बंगाली में एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोला‚ तो उन लड़कों को कहीं नौकरी ही नहीं मिली। तो लड़कों ने खुद ही कहा कि साहब आप अंग्रेजी कर दीजिए। फिर भी… हम लोगों ने‚ यानि सी। पी। एम। ने‚ कुछ नियंत्रण में रखा इन चीजों को। अब हम अंग्रेजी को फिर नीचे की कक्षाओं में शामिल कर रहे हैं‚ क्योंकि आज दुनिया भर में अंग्रेजी जानने का फायदा है। चाहे सोशलिस्ट हो हिन्दुस्तान‚ चाहे कैपटिलिस्ट हो‚ अंग्रेजी तो पढ़ना ही पड़ेगी।
प्रियवंद — कुछ विषय बदलते हैं। एडवर्ड सईद ने ‘ ओरिएन्टलिज़्म’ (पूर्ववाद) की एक नयी विचारधारा दी जिसने ‘ कॉलोनियल हिस्ट्री’ ( औपनिवेशिक इतिहास) को एक नयी व्याख्या ही दे दी। दुनिया के विश्वविद्यालयों में इसके नये विभाग खुल गये। तो इतिहास में जब अचानकइस तरह का एक नया इन्टरप्रिटेशन‚ नयी अवधारणा या व्याख्या आती है जो पूरे इतिहास का दूसरी धारा में मोड़ देती है‚ तो फिर चीजों को कैसे समझा जाये?
इरफान हबीब — मैं एडवर्ड सईद के पूरे कान्सेप्ट को गलत समझता हूँ। एडवर्ड सईद बहुत ही एकतरफा हैं। खुद उन्होंने कह दिया है कि मैं जर्मन स्कॉलर्स में डील नहीं कर रहा हूँ। जर्मनी की कोई खास कॉलोनीज़ नहीं थी और हंगरी की तो कोई भी नहीं थी। तो ‘ ओरिएन्टलिज़्म’ को अगर आप लें तो उसके दो पहलू हैं और वह सिर्फ एक ही पक्ष को लेते हैं । जो कॉलोनियल ताकतें थीं ‚ उनकी दिलचस्पी इस बात में थी कि वे यह मालूम करें कि उनको कब्जे में जो मुल्क हैं‚ उनकी क्या सभ्यता है‚ और फिर यह कोशिश करें कि उनकी उस सभ्यता के ऐसे अर्थ निकालें जिससे वो उनसे कमजोर‚ उनसे पिछड़ी साबित हों — एक तो यह है‚ दूसरा जो है‚ उसे वह बिलकुल अनदेखा कर देते हैं और जिसकी वजह से ओरिएन्टलिज़्म इतना मजबूत रहा‚ कि माडर्न मैथड्स ऑफ इनक्वायरी उन्होंने शुरु की।
जब मैं यहां माडर्न मैथड्स की बात कर रहा हूँ तो मेरा मतलब उस साइंटिफिक एप्रोच से है जो एक शख्स इस्तेमाल करता है। चाहे वह अपने देश की स्टडी कर रहा हो या किसी और देश की। और जब ओरिएन्टलिस्ट्स ने ऐसे मैथड्स ज्यादा और ज्यादा इस्तेमाल करने शुरु किए‚ तो जिन नजरियों को वो शुरु में लेकर चले थे‚ वे आहिस्ता आहिस्ता खत्म होते चले गये। कीथ की तरह अन्य भी बहुत से हैं जिनकी बहुत सी राइटिंग्स में यह मालूम ही नहीं होता कि यहां एक अंग्रेज लिख रहा है या हिन्दुस्तान्ी स्कॉलर। ये भी याद रखना चाहिये कि ओरिएन्टलिस्ट्स ने पुरानी लिपियों को पढ़कर‚ पुरानी पुस्ताकों को एडिट कर‚ पब्लिश करा कर न सिर्फ भारत के इतिहास‚ बल्कि ईरान और अरब दुनिया के इतिहास को रिकन्स्ट्रक्ट किया और हमारी कल्चर्स की उन उपलब्धियों का पाता लगाया जिनकी हमें खबर ही नहीं थी। मैं आपको एक बहुत बड़ा उदाहरण देता हूँ जिसका उन्होंने ( एडवर्ड सईद)‚ जिक्र नहीं किया। ए। बी। कीथ बहुत बड़े संस्कृत हिस्टोरियन थे‚ स्कॉलर थे। उन्होंने हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर लिखा है। कम लोगों को मालूम है यह कि वह हिन्दुस्तान के कांस्टीट्यूशनल हिस्टोरियन( संविधान का इतिहासकार) भी थे। ब्रिटिश कॉलोनियल गवर्नमेन्ट की तरफ से उन्होंने संवैधानिक इतिहास लिखा। जब आप उनका ‘ वैदिक इन्डैक्स’ पढ़ें या ‘ रिलीजियस बिलीफ्स एंड फिलॉसफी ऑफ वेदाज़’ तो आपको मालूम ही नहीं होता कि यह शख्स उपनिवेशवादी है। वैज्ञानिक तरीके से हर चीज़ को देखते हैं। हर चीज़ की इज्ज़त करते हैं। यूरोप को पिछड़ा कहते हैं। ‘ हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर’ देख लीजिये किस इज्ज़त से उन्होंने नाम लिया है। तो मैं समझता हूँ कि कीथ एक प्रतिनिधि हैं दोनों पक्षों के‚ पहलुओं के। मेरी समझ में नहीं आता कि कोई आदमी कैसे दोनों तरफ की किताबें इस तरह लिख सकता है? पर उन्होंने जिस तरह ‘ बुद्धिस्ट फिलॉसफी इन इण्डिया एण्ड सीलोन’ लिखी…। तो अब ऐसे लोगों को एडवर्ड सईद भूल जाते हैं और उनका सिर्फ एक ही पहलू देखते हैं। आप इस्लामिक हिस्ट्री देखें तो उस पर सबसे बड़ा असर गोल्ड जायहर का पड़ा जो हंगेरियन था।हंगरी में रहता था। जर्मन में भी लिखता था… ज्यू था। ऐन्टी जायनिस्ट था‚ इसलिये ज्यूस भी बहुत खिलाफ थे। अरबी उसने वहां पढ़ी‚ फिर मिस्त्र में आया अल अजहर में। मामूली तालिबे इल्म की तरह 1860 में या 1870 में। उसने बाद में लिखा कि अल अजहर में मेरे जो उस्ताद थे‚ मैं उनके हाथ वैसे ही चूमता था जैसे मुसलमान तालिबे इल्म‚ और वह भी उससे वैसा ही सुलूक करते थे। उसने लिखा कि अब मैं इस्लाम को उसी इज्ज़त और आलोचना से देखता हूँ जैसे क्रिश्चैनिटी और जूडाइज़्म को। मैं इसे कोई अलग नहीं समझता। अगर जूडाइज़्म के बारे में मैं कोई बात नहीं कह सकता तो इस्लाम के बारे में भी नहीं कहूंगा। उसने पूरी इस्लामिक हिस्ट्री का अध्ययन किया वैज्ञानिक तरीके से। गोल्ड जाइहर एक था। इब्नेखल्दून के बारे में मुसलमानों को बहुत कम पता था कि उनके बीच इतना बड़ा आदमी था‚ जब तक ओरिएन्टलिस्ट ने नहीं बताया कि तुम्हारे पास तो यह मौजूद है। तो एक तो एडवर्ड सईद की इस तरह की बहुत ज्यादती है। माक्र्स के लिये कहता है कि वह तो ब्रिटिश इम्पीरियलिज़्म के साथ था‚ जबकि माक्र्स ने 1857 के गदर का पूरा स्वागत किया था। पढ़ा ही नहीं उसने वह हिस्सा। तो कॉलोनियल डिस्कोर्स कहना और उस साइन्टफिक थॉट को कॉलोनियल डिस्कोर्स समझना निहायत ही ज़्यादती है। अब सईद की ओरियन्टलिज़्म की थ्योरी बी। जे। पी। के हाथ का खिलौना बन गई है। तो खुद एडवर्ड सईद को आफ्टरवर्ड लिखना पड़ा क्योंकि उसे मालूम हुआ कि ऐसे सब लोग एडवर्ड सईद की बड़ी तारीफ कर रहे हैं‚ चाहे सो कॉल्ड मुस्लिम फण्डामेन्टलिस्ट हों या बी। जे। पी। वाले हों। असली चीज़ तो यह है जो मानना चाहिये कि ओरियन्टलिज़्म के दो फीचर थे‚ अगर आप इसे इतिहास के नजरिये से देखें। जाहिर है कि उपनिवेशवाद से यह प्रभावित हुआ ही था‚ लेकिन वैज्ञानिक ढंग भी इसका महत्वपूर्ण भाग है।
प्रियवंद — हमारा आधा इतिहास उनका दिया हुआ है। अजन्ता‚ एलोरा गुफाएं‚ कलाकृतियां‚ नगर‚ पुस्तकें‚ नक्शे… और ऐसा संभव नहीं है कि इतना सारा काम‚ इतनी मेहनत के साथ सिर्फ इसलिये किया गया हो कि कॉलोनियलिज़्म को फायदा पहुंचे… हिन्दुस्तान को जानने के लिये नहीं किया गया हो।
इरफान हबीब — वह जानना तो चाहते थे कि हिन्दुस्तान क्या चीज़ है… वास्तविकता जानना चाहते थे। हर जगह इसकी कमजोरी को‚ हीनता को सिद्ध करना चाहते थे‚ इसकी सच्चाई जानना चाहते थे। उन्होंने उसी विधि से हिन्दुस्तान का‚ अरबों का‚ ईरानियों का अध्ययन किया जो वो यूरोप के लिये इस्तेमाल करते थे। तो इसमें क्या खराबी है?
प्रियवंद — जिसे हम मुगलकाल कहते हैं और उसे काफी मजबूत और विकसित राज्यकाल माना जाता है‚ एक स्थिर समाज था‚ व्यवस्था थी‚ मजबूत सैन्य व्यवस्था थी‚ विदेशी आक्रमण नहीं हुए‚ भूमि सुधार या आर्थिक नीतियां या राज्यव्यवस्था बनी। यह सब अचानक औरंगज़ेब के बाद ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। अगर वह एक पतनशील‚ एक डिकेडेन्ट सोसायटी‚ सिस्टम और युग नहीं था‚ तो कैसे सम्भव हुआ कि सिर्फ पचास साल में अंग्रेजों ने मुल्क ले लिया। वह पूरा शीराज़ा बिखर गया।
इरफान हबीब — इस पूरी बात में एक तो यह नहीं भूलना चाहिये कि उस समय यूरोप बहुत तरक्की कर रहा था। इसमें उनकी वेपनरी( युद्ध सामग््राी – हथियारों) का बहुत बड़ा रोल है। मुगल सेना जो बन्दूक इस्तेमाल करती थी… वह बहुत धीमी फायरिंग की थी। लोहे की जो गन्स वे बनाते थे‚ वह भी बहुत धीमी‚ स्लो फायरिंग की थीं‚ क्योंकि आयरन कास्ट नहीं कर पाते थे। भारी बहुत थीं… मूवमेन्ट बहुत धीमा था। सवारों पर निर्भर रहते थे। तकनीकी तौर पर बहुत पीछे थे। एक तो यह बात याद रखनी चाहिये। दूसरी बात यह कि मुगल साम्राज्य बहुत सी चीजों में ऐसा था कि तारीफ की जाये‚ पर किसानों पर बहुत जुल्म था। वह बात ठीक थी कि मुसलमानों पर भी उतना ही जुल्म था जितना हिन्दुओं पर था। वृन्दावन के डॉक्यूमेन्ट हैं जिनमें गोसाई लोग जमीन खरीदते हैं‚ तो उसमें जो पंच उसे बेचता है वो अकसर गौरवा राजपूत है‚ जिनमें हिन्दू – मुसलमान दोनों पाए जाते थे। ज़्यादातर वृन्दावन के…तो उसमें एकदम से मुसलमान नाम भी आते हैं… बाप का नाम हिन्दू है। तो जाहिर है कि मुसलमान और हिन्दू दोनों थे। जाटों ने जब मथुरा पर हमला किया तो गोसाईंयों की भी लूटपाट की। वे भाग गये वहां से। तो हिन्दू – मुस्लिम – ईशू उसमें नहीं था लेकिन किसानों पर जुल्म था‚ दमन था। कोई ईडियोलॉजिकल कम्पल्शन नहीं है। धर्म का कम इस्तेमाल हुआ पीजेन्ट रिवोल्ट्स में। तो यह एक फीचर था कि औरंगज़ेब के ही ज़माने में काफी अशांति थी। बढ़ते – बढ़ते और हो गया था। और फिर जैसे जैसे अशांति बढ़ती जाती है उसे दबाने के लिये आप और टैक्स लेते हैं‚ उससे और बढ़ती है। तीसरी बात यह थी कि भारत के अन्दर भी क्षेत्रीय राज्य पैदा हो रहे थे। उनके पीछे क्या कारण थे उन्हें भी देखना होगा। जैसे मराठा मूवमेन्ट। इनके क्या सांस्कृतिक कारण थे यह भी बहस की बात है। एक विकास होता है तो क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था( रीजनल इकॉनोमी ) बढ़ने लगती है।क्षेत्रीय संस्कृति‚ सभ्यता बढ़ने लगती है। तो यह भी मुगल साम्राज्य के लिये मुश्किल हो गया था। उनमें एकता रखना। तो औरंगज़ेब के ही समय ये सारे फीचर्स हो गये थे‚ लेकिन उसकी मजबूत इच्छा शक्ति थी। उसके बाद बहादुरशाह के जमाने में भी 1712 तक यह अन्दाज़ा नहीं था कि इस तरह सब विभाजित हो जायेगा। मुगल शहज़ादों की जो आपसी लड़ाई थी‚ जो सिविल वार थी‚ बहुत तेज थी। तो बहुत से कारण दिये जाते हैं। लेकिन अंग्रेजों की जीत सिर्फ इसलिये नहीं हुई कि यहां एकता नहीं थी। यह तो ठीक है कि राजनैतिक बिखराव से‚ झगड़ों से उन्हें और फायदा हुआ लेकिन उनकी सैन्य श्रेष्ठता हमसे बहुत ज़्यादा थी।
प्रियवंद — इसी से जुड़ा हुआ एक सवाल मन में है जिसका उत्तर नहीं मिलता। मुगल बादशाहों की जो हिन्दू रानियां होती थीं‚ क्या वे शादी के बाद कभी फिर अपने मायके जाती थीं? जातीं थीं तो उन घनघोर हिन्दू घरानों में उन्हें क्या ट्रीटमेन्ट मिलता था? जैसे कि क्या जोधाबाई कभी मायके गयी?
इरफान हबीब —असल में जोधाबाई के नाम से अकबर की कोई रानी नहीं थी। अकबर की पहली शादी राजपूतों में 1561 ई। में हुई जब उसने राजा बिहारीमल की सबसे बड़ी बेटी से शादी की। उसको जोधाबाई नाम तो उन्नीसवीं सदी में बगैर किसी सनद के दे दिया गया। उसका असली नाम तो नहीं मालूम पर लक़ब शाह बेगम था। वह खुसरो की मां थी। जब खुसरो ने जहांगीर की जगह खुद बादशाह बनना चाहा तो उसने आत्महत्या कर ली थी। यह तो नहीं मालूम कि वह कभी मायके गयी थी या नहीं‚ इतनी तफसील नहीं है‚ लेकिन यह ज़रूर है कि जहांगीर ने हमेशा आमेर के राजा को अपने खानदान का समझा और इसलिये उनको मिर्ज़ा राजा का लक़ब दिया।्र
प्रियवंद — मायके में हिन्दू क्या ट्रीटमेन्ट देते होंगे?
इरफान हबीब — मेरा ख्याल है उनका ट्रीटमेन्ट वैसा ही होता होगा जैसे किसी बहुत बड़ी रानी का होता है। मैं ने जिनका ज़िक्र किया शाह बेगम का‚ उनकी शादी बहुत शानो शौकत से हुई। शाहजहां की जो मां थी‚ वह मारवाड़ की थी इसलिये शाहजहां ने राठौरों को हमेशा अपना समझा और बड़ी इज्ज़त दी। जसवन्तसिंह के बाप को वह मामू कहता था।
प्रियवंद — एक इतिहासकार की नज़र से आप हिन्दुस्तान में आने वाले समय को किस तरह देख रहे हैं?
इरफान हबीब —इतिहासकार भविष्यवक्ता नहीं होता।
प्रियवंद — पर विश्लेषण कर सकता है।
इरफान हबीब — वह गलत हो तो क्या फायदा?
प्रियवंद — होने दीजिये… हम कहते तो हैं हीॐ चीजों को इस भय से छोड़ तो नहीं देते। अभी बहुत अनिश्चितता है।
इरफान हबीब —वैसे तो बहुत कम लोग होंगे जो समझते होंगे कि 1990 – 91 में सोवियत यूनियन का पतन हो जायेगा। सोवियत यूनियन में मुझे लोगों ने बताया कि हममें से कोई नहीं समझ सकता था कि इतना सब हो जायेगा। तुर्किस्तान में भी लोगों से बात हुई। उन्होंने भी कहा कि कोई नहीं जानता था। जाहिर है भविष्य के लिये कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह कहें कि भारत की जनता के सामने जो चीजें हैं और यह सब ऐसे ही चलता रहा तो भारत की जनता का बहुत नुकसान होगा।
प्रियवंद — किस तरह?
इरफान हबीब — दो तरीके से। एक बात तो विचारधारा की है। अगर हमें एक माडर्न वेलफेयर स्टेट बनाना है तो उसके लिये हमें एक मॉडर्न आउटलुक ( आधुनिक दृष्टिकोण) चाहिये। मैं यह नहीं कहता कि समाजवादी नजरिया हो‚ लेकिन जैसा कि और आधुनिक राज्यों में है‚ हमें एक कल्याणकारी राज्य चाहिये। उसमें भेदभाव नहीं हो… जातिवाद नहीं हो। जहां तक आर। एस। एस। की विचारधारा है‚ और जिसे वह पूरा करना चाहते हैं‚ और जो उनकी टैक्स्ट बुक में है‚ बिलकुल इसकी विरोधी है। आप इनकी टैक्स्ट बुक देखें एन्शियन्ट इण्डिया की‚ तो उसमें जातिवाद की आलोचना नहीं है। दलितों का जो दमन – शोषण हुआ‚ उसका कोई ज़िक्र नहीं है। मुसलमानों का तो आप समझ ही सकते हैं क्या होगा। ईसाइयों का भी मजाक उड़ाया गया है। तो ये तो हमारे देश को बिलकुल ऐसी तरफ ले जाना चाहते हैं जो वाकई बहुत खतरनाक है। दूसरा ये जो प्रायवेटाइजेशन कर रहे हैं। इस निजीकरण में जनता की जो इतनी पूंजी लगी है‚ सब टूटी जा रही है। इसमें तो ऐसा ही भारत बनेगा जिसमें अमीर और अमीर होगा। इसमें जो बाहर की पूंजी आएगी वह और खतरनाक है। आपको शायद याद होगा कि इंडोनेशिया के लिये दुनिया भर में कहा जाता था कि साहब इंडोनेशिया बहुत खुशहाल है… सम्पन्न है। उसमें अन्दर की पूंजी और बाहर की पूंजी खूब मिक्स हो गयी थी। जब बाहर की पूंजी निकाल ली गई‚ तो उसकी हालत देखिए। छह साल से क्या गरीबी है। थाइलैंड बच गया इसमें। मलेशिया ने तो अपने यहां प्रोटेक्शन वगैरह सब कर लिया तो वो इत्मीनान से बच गए। उन्होंने तो बिलकुल वह नीति अपना ली जो पंडित नेहरू की थी। पर अब यहां कोई नहीं कहता कि साहब मलेशिया का उदाहरण भी तो है जहां प्रोटेक्शन में इतनी खुशहाली है। तो मैं ये दो बातें बहुत खतरनाक समझता हूँ। आर। एस। एस। की विचारधारा और प्राइवेटाइजेशनॐ
प्रियवंद — अगर यह सरकार फिर सत्ता में आती है तो क्या अयोध्या में राम मंदिर बनेगा?
इरफान हबीब —अब यह तो इस पर है कि रूल ऑफ लॉ कितना चलेगा?
प्रियवंद — आखिरी सवाल एक तरफ तो मनुष्य मंगल ग्रह पर पहुंच रहा है। चिकित्सा में‚ संचार में‚ विज्ञान में‚ टेक्नीक में बहुत तरक्की हुई है। इन्सान की खुशहाली का सब सामान है। विश्वव्यवस्थाएं बन रही हैं। एक सीन यह है। दूसरी तरफ अभी मुम्बई में जो वल्र्ड सोशल फोरम का सम्मेलन हुआ‚ जिसमें दुनिया भर के संगठनों के लाखों लोग‚ मल्टीनेशनल‚ ग्लोबलाइजेशन‚ इम्पीरियलिज़्म के विरोध में जमा हुए… मनुष्य के अधिकारों के लिये उसकी गरिमा के लिये संघर्ष करने को तैयार…। दूसरा सीन यह हैॐ तीसरा सीन यह है कि रोज दुनिया में करोड़ों लोग सुबह भूखे नंगे उठते हैं और सिर्फ उस दिन ज़िन्दा रह जाने की लड़ाई लड़ते हैं। यह दुनिया तीन हिस्सों में तीन तरह के लोगों के बीच बंटी दिखाई देती है। मेरा सवाल यह है कि यह दुनिया किसकी होने वाली है?
इरफान हबीब —आपने बिलकुल ठीक बात पूछी है। मैं ने इस पर एक मजमून भी लिखा है पर वह बिलकुल माक्र्सवादी है। समस्या यह है कि अब इधर भी ( तीसरी दुनिया) पूंजीवाद है। पहले जब कोलॉनियलिज़्म का क्लासिक ज़माना था तो पूंजीवाद सिर्फ साम्राज्यी मुल्कों में था। कोलॉनियल मुल्कों में पुराने किस्म की व्यवस्था थी। एक अर्थशास्त्री था इमेनुअल‚ उसने यह बात 1969 में नोट की थी कि साम्राज्य ऐसा चल रहा कि इसमें जो उद्योग उपभोक्ता सामानों के हैं और जहां लेबर बहुलता है पर उत्पाद कम होता है — जैसे टैक्सटाइल वगैरह‚ तो ऐशिया में या लैटिन अमेरिका में यह सब स्थानान्तरित हो जायेंगे। अब यह जो आउटसोर्सिंग है वह क्या है? आउटसोर्सिंग का यही मतलब है कि जहां लेबर बहुत है वहां चले जाओ। तो उनके मुल्क का कोई उत्पाद होता है तो उसकी कीमत ज़्यादा होती है‚ हमारे मुल्क की कम होती है। यह करेन्सी एक्सचेन्ज में भी दिखता है। रूपए की वेल्यू परचेजिंग में एक डॉलर के मुकाबले 20 के बराबर है – एक्सचेन्ज मार्केट में 45 रू के बराबर है। तो जाहिर है कि हमारी चीजें बहुत सस्ती बिकती हैं। तो साम्राज्यी शोषण ने अब एक नया रूप ले लिया है। उसमें कोलॉनियल देशों के जो पूंजीपति हैं वे भी इसमें शामिल होते जाते हैं। चूंकि उनको तो फायदा दिख रहा है‚ पर मामूली लोगों को‚ जैसा आपने कहा बहुत नुकसान हो रहा है। सोशल फोरम की समस्या यह है कि वो ग्लोबलाइजेशन का तो विरोध करते हैं‚ पर उसे और बढ़ा कर उन्हें पूंजीवाद का भी विरोध करना चाहिये। मैं समझता हूँ कि उनका महत्व यही है कि टैक्टिकल मूवमेन्ट्स में किस तरह साम्राज्यी देशों की जनता के हितों और तीसरी दुनिया के देशों की जनता के हितों को जोड़ सकें। ये जो टैक्टिकल प्वॉइन्ट्स हैं यही सोशल फोरम में सोचे जाते हैं‚ तय किये जाते हैं। पर जब तक समाजवाद के लिये संघर्ष नहीं होगा… सिर्फ ग्लोबलाइजेशन के विरोध तक ही हम न रुकें‚ ताब तक तो लड़ाई जीती नहीं जा सकती। जाहिर है इस वक्त समाजवाद की बात उठाना ही चाहिये।
अकार से साभार
प्रस्तुति : प्रियंवद