जवाब नहीं

(कृष्ण बलदेव वैद का यह आत्म साक्षात्कार उनकी पुस्तक ”जवाब नहीं ” से साभार लिया गया है)

मैं: आज मैं तुमसे कुछ ऐसे प्रश्न पूछना चाहता हूँ जो तुम्हारे अपने मन में उठते तो रहते हैं, लेकिन तुम उन्हें ज़बान पर नहीं लाते,, जिनके जवाब तुमने शायद ही कभी अपने मन में भी पूरी ईमानदारी से दिये हों। और आज मैं तुम पर कुछ ऐसे आरोप भी लगाना चाहता हूं जो तुम्हारे बारे में दूसरों के मनों में उठते रहते हैं, लेकिन जिन्हें दूसरों ने कभी जम कर तुम पर नहीं लगाया। कहो तैयार हो ?
वह: ……
मैं: घबराओ नहीं,, मेरे प्रश्नों और आरोपों का संबंध तुम्हारे काम से ही होगा, तुम्हारी जात से नहीं। कहो तैयार हो?
वह:……
मैं: ख़ामोशी को हमारे यहां नीमरज़ा मान लिया जाता है, सो मैं ने मान लिया है कि तुम नीमराज़ी हो गये हो। तो मैं शुरु कर रहा हूँ। पिछले पचास साल से तुम लिख रहे हो बकौल अपने, भाड़ झौंक रहे हो,, लेकिन कभी तुमने कहीं किसी बयान में यह बताने की कोशिश नहीं की कि तुम लिखते क्यों हो? अब तुम अंत के कगार पर खड़े लड़खड़ा रहे हो, इस लिये मेरा अनुरोध मानो और अपने इने गिने पाठकों को बता दो कि तुम किस उद्देश्य से, किस मजबूरी के तहत,, कौनसा ऋण चुकाने के लिये लिखते हो?
वह:……
मैं: शायद यह प्रश्न तुम्हें अपनी शान के शायां नहीं जान पड़ा? शायद तुम समझते हो कि तुम जैसे वरिष्ठ लेखक से ऐसा मामूली सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये?शायद तुम यह भूल रहे हो कि तुमसे बेहतर लेखकों ने इस प्रश्न के जवाब में बड़ी बडी बढ़िया बातें कही हैं, एक ने तो पूरी की पूरी किताबें ही लिख डाली है।
वह: ……
मैं: तुम्हारी खामोशी से कई अनुमान लगाये जा सकते हैं : तुम जानते ही नहीं कि तुम क्यों लिखते हो; तुम जानना नहीं चाहते तुम जानते हो तो बताना नहीं चाहते, क्योंकि तुम्हें डर है तुम्हारा जवाब मामूली होगा; तुम जानते हो लेकिन बता नहीं सकते, क्योंकि तुम्हें लिखना तो आता है सोचना नहीं आता; तुम समझतो हो कि खाम़ोशी शब्द से ऊपर की स्थिति है। अनुमान और भी बहुत से लगाये जा सकते हैं, हैं ना? क्या तुम्हें अनुमान लगवाने में आनन्द आ रहा है? वैसा ही जैसा अनुमान लगाने में? और नहीं तो सर ही हिला दो, अख्फश की बकरी की तरह, हां में या ना में .

वह:……
मैं: अच्छा इतना ही बता दो कि तुम सिर्फ अपने लिये लिखते हो कि किसी और के लिये भी? तुम्हें यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रश्न के पेट में यह आरोप छिपा बैठा है कि तुम आत्मरति के शिकार हो,, कि तुम बीमार हो,, कि तुम्हारे काम में सामाजिकता का अभाव है, कि तुम अपनी ग्रन्थियों में ही गिरफ्तार रहते हो,, कि तुम्हें देश और काल में कोई दिलचस्पी ही नहीं। मेरा मतलब है कि इस प्रश्न का संतोषजनक जवाब दे दोगे तो शायद एक बड़े और बहुमुखी आरोप का भी प्रतिवाद कर सकोगे।
वह:……
मैं: तुम्हारे मौन का सम्मान कोई नहीं करेगा। यह मत भूलो कि मौन को महान मानते हुए भी हमारी परंपरा में जो स्थान वचन और प्रवचन को दिया गया है वह मौन को नहीं।जब तक तुम लिखने के अलावा बोलोगे नहीं, , वाचिक परंपरा को आगे नहीं बढ़ाओगे, तब तक तुम्हें कोई गंभीरता से नहीं लेगा। वैसे मुझे खतरा है कि तुम बोलोगे तो भी गल़त अम्दाज़ से, स्र्क स्र्क कर, अपने सारे संशयों की नुमाइश सी करते हुए, अपने विषय पर ही नहीं अपने ऊपर भी व्यंग्य सा करते हुए, अनात्मविश्वास के साथ, अनिश्चित होकर, कमोबेश नंगे होकर – ऐसे बोलने को हमारे यहां बोलना नहीं कहा जाता। इसलिये तुम्हारा बचाव शायद न बोलने में ही है, क्योंकि तुम बोलोगे तो शायद उसी अंदाज़ और आवाज़ में जिसमें तुम लिखते हो, और वह अंदाज़ और आवाज़ कुछ चिंतकों और आलोचकों के अनुसार हमारी परंपरा के अनुकूल नहीं,, उनमें सीधी साफ आस्था के स्वर के बजाय टेढ़ी मेढ़ी विडम्बना का स्वर सुनाई देता है। अच्छा और नहीं तो अपनी इस चहेती विडम्बना – आयरनी – के बारे में ही कुछ कहो, इसी की परिभाषा कर दो, यही बता दो कि यह क्यों और कहां कहां से आकर तुम्हारे काम के केन्द्र में बैठ गयी है, ऐसी ठस्स होकर कि अब तुम चाहो तो भी इसे उठा उखाड़ नहीं सकते।
वह:……
मैं: देखो दोस्त, तुम अच्छी तरह से जानते हो कि तुम्हारी इन्हीं अहंकारी अदाओं और जिद्दों की सज़ा के तौर पर तुम्हें सब सूचियों से खारिज कर दिया गया है,, तुम्हारे एक हितैषी के शब्दों में कहूं तो तुम्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है,, इसलिये अब भी संभल जाओ,, अब भी अकेला चलने की बजाय शामिल होना सीखो, न के बजाय हां करना सीखो,, अपनी शर्तों पर अड़े रहने के बजाय दूसरों की शर्तों को मंजूर करना सीखो,, संशय का दामन छोड़ कर सीधी सरल आस्था की चोली पकड़ो,, विडम्बना की बारीकियों के गोरखधंधे से बाहर निकलो, तब शायद कहीं कोई हाथ उस हाशिये की तरफ बढ़े जिस पर तुम किसी जलते हुए जलावतन की तरह पड़े हुए हो। लेकिन बूढ़े तोते नया कुछ कहां सीख सकते हैं, हैं ना?
वह:……
मैं: हो सकता है मैं ने तुम्हारे ज़ख्म़ों पर कुछ ज़्यादा ही नमक छिड़क दिया हो। लेकिन नहीं ऐसा नहीं हो सकता,, जितना नमक अपने ज़ख्म़ों पर खुद छिड़कते हो उतना कोई छिड़क ही नहीं सकता,, क्यों ठीक कह रहा हूं?
वह:……
मैं: अच्छा, अब चूंकि हाशिये वाली बात शुरू हो गयी है तो इतना तो बता दो कि हाशिया तुमने खुद चुना है या दूसरों ने तुम्हें वहां धकेल दिया है? मैं तुम्हारी दुविधा समझता हूँ – अगर तुम यह कहते हो कि तुमने खुद हाशियानशीं होना चुना है तो लोग कहेंगे, तुम कह रहे हो अगूंर खट्टे हैं; अगर तुम यह कहते हो कि दूसरों ने तुम्हें वहां धकेल दिया है तो लोग कहेंगे तुममें इतना दम क्यों नहीं था कि तुम धकेले न जाते! फिर भी अपने अतंरंग को तो सच्ची बात बता ही दो, ,लोगों को मारो गोली आखिर वे इस इंतहां पर तुम्हारा और क्या बिगाड़ लेंगे ।
वह:……
मैं: मैं जानता था तुम कुछ नहीं बताओगे। शायद तुम खुद भी नहीं जानते कि सच्चाई क्या है,, कि तुम्हारे साथ हुआ क्या है,, हो क्या रहा है। शायद तुम्हें हाशिये में कोई ऐसी कमी नज़र नहीं आती जो केन्द्र में न हो। शायद तुम यह समझते हो कि हाशिये और केन्द्र के भेद को मिटा देना ही तुम्हारी नियति है। शायद तुम यह मानते हो कि हाशिये और केन्द्र का भेद पश्चिम से आया है, , सीमित समझ की उपज है,, कि जिस अबाध में तुम आजकल विचर रहे हो उसमें केन्द्र है न हाशिया। अगर ऐसी कोई बात या ये सब बातें तुम्हारे मन में हैं तो कह क्यों नहीं देते? कह दो ना। हो सकता है कि तुम्हारी बात सुन कर तुम्हारे हरीफ तुम्हें गले लगा लें।
वह:……
मैं: यह तो तुम जानते ही हो कि लोग कहते हैं तुम्हारे पास भाषा और शैली के सिवा कुछ भी नहीं। यह सुन कर तुम खुश होते हो या नाखुश़? कहने वालों पर तुम्हें दया आती है या क्रोध? क्या तुम यह नहीं समझते कि अगर तुम्हारे पास भाषा और शैली है तो बहत कुछ है, सब कुछ भले ही न हो? मेरा मतलब है कि तुम क्यों इस आरोप का विखंडन नहीं करते? तुम खामोश क्यों हो? जानते हो तुम्हारी खामोशी से लोग या तो ख़फा हैं या यह समझने लगे हैं कि तुम खुश्क हो गये हो और या यह कि तुम्हारे पास कहने को कुछ है ही नहीं,, कि आम धारणा हमारे यहां यही है कि जिसके पास कहने को कुछ होता है वह मंच से मुंह नहीं मोड़ता, मंच न मिले तो किसी मोड़ या चौराहे पर खड़ा हो चिल्लाना शुस्र् कर देता है। बोलो क्या ख़याल है?
वह:……
मैं: कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी खामोशी में तुम्हारी ख़फ्गी ही बोल रही है? अगर ऐसा है तो मुझे बहत निराशा होगी। मुझे निराश होने से बचा लो।
वह:……
मैं: तुम इतने बरस देश से बाहर रहे कि कुछ लोगों की राय में तुम लौट आने के बाद भी देश से बाहर ही हो, इसलिये उन लोगों ने तुम्हें बिरादरी से भी बाहर कर दिया है। इस बारे में कोई सफाई देना चाहते हो?
वह:……
मैं: शायद तुम समझते हो कि तुम्हें कोई सफाई देने की ज़रूरत नहीं, कि तुम सारी सफाइयां अपने काम में दे चुके हो या देते रहोगे या देने की कोशिश करते रहोगे, कि तुम्हें अगर कोई सहारा है तो सिर्फ अपने काम का ही,, भले ही वह सहारा भी स्थिर न हो, मज़बूत न हो। क्यो? मैं ठीक सोच रहा हूँ?
वह:……
मैं: कहना पड़ेगा कि अपने सबसे बड़े दुश्मन तुम खुद हो,. हो ना?
वह:……
मैं: मानना पड़ेगा कि कोई तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता, ठीक?
वह:……
मैं: कहना पड़ेगा कि तुम्हें अपने हाथों की सजायी हुई कंटकशैय्या पर लोटपोट होते रहने की लत पड़ गयी है।
वह:……
मैं: तुम्हारी अपनी समझ बूझ और प्रज्ञा की न सही, तुम्हारी ज़िद की दाद देनी पड़ेगी। अच्छा इतना ही बता दो कि यह सुन कर तुम्हें खुशी हुई या ख़लिश।
वह:……
मैं: तुम्हें अपने हाल या हाशिये पर छोड़ जाने से पहले मैं तुम पर एक अंतिम आरोप लगाना चाहता हूँ। असल में यह आरोप मेरा नहीं तुम्हारे उन प्रशंसकों का है जिन्हें उसका बचपन और उसके ईद – गिर्द का तुम्हारा काम कुछ पसंद है। हां,, तो आरोप यह है कि तुमने शुरुआत यथार्थवाद से की, यथार्थ पर अपनी अच्छी पकड़ से की, लेकिन फिर बाहर जाकर तुम पराये रास्तों पर चल दिये और यथार्थ तुम्हारी पकड़ से छूटता चला गया और उसकी जगह ले ली भाषा शैली, संरचना वगैरह ने। यह मानोगे कि यह आरोप संगीन है? अगर यह भी न मानो तो भी अपने भले के लिये ही सही तुम्हें इसका जवाब देना चाहिये, इसका खंडन विखंडन करना चाहिये। करोगे?
वह:……
मैं: और नहीं तो इतना ही कह दो कि यथार्थ तुम्हें प्रिय है, , मंज़ूर है,, यथार्थवाद नहीं, यथार्थवादी रूढ़ियां नहीं। इतना भी नहीं कहना चाहते तो यही कह दो कि तुम किसी रास्ते को पराया नहीं समझते हो,, या सब रास्तों को पराया समझते हो, कि बाहर जाने से पहले भी तुम भटक ही रहे थे, कि भटकना कोई बुरी बात नहीं, कि तुम उन लेखकों में से नहीं जिन्हें हमेशा सब कुछ सीधा, सरल और साफ दिखाई देता है, कि जिसे तुम्हारे निंदक भटकना कहते हैं, वह तुम्हारी खोज है, पथ की भी और अर्थ की भी और यथार्थ की भी। मेरी मानो और यह सब जैसे तैसे कह दो।
वह: ……
मैं: कुछ नहीं कहोगे ?
वह: ……
मैं: कुछ भी नहीं ?
वह: ……

कृष्ण बलदेव वैद का यह आत्म साक्षात्कार उनकी पुस्तक ”जवाब नहीं ” से साभार लिया गया है ।

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जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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