ख़्वाब है दीवाने का : कृष्ण बलदेव वैद की डायरी के अंश
वैद साहब ने कई संस्मरण और कुछ मुकम्मल डायरियाँ लिखी हैं, ‘ख़्वाब है दीवाने का’, ‘डुबोया मुझको होने ने’, ‘शमां हर रंग में’, ‘जब आंख खुल गयी’ ।
नए साल को शुरू हुए दो दिन हो गए। पिछले साल का ‘लेखा – जोखा’ भद्दा शब्द ! तीन कहानियां _ ‘उस चीज की तलाश’ , ‘तीन भूत’ और ‘मेरा क्या होगा’। बिमल का आखिरी ड्रा ड्राफ्ट, कुछ कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद और बस! इस साल एक उपन्यास, दो नाटक, कुछ कहानियां हर हालत में ….कहना आसान है।
आज काम नहीं हुआ। ‘मेरा क्या होगा’ को ‘कल्पना’ के लिए रवाना कर दिया। राजपाल एंड संस के महेंद्र कुलश्रेष्ठ का पत्र — वे ‘स्टेप्स इन डार्कनेस’ को पेपर बैक में प्रकाशित कर रहे हैं। सारिका में कई कहानियां पढ़ी से.रा यात्री की ‘धरातल’ इस्मत चुगताई की ‘यार’ और अजित पुष्कल की ‘नरक कुंड की मछली’ मुझे पसंद आई। यह लिखते हुए ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कोई पाठक किसी संपादक को कोई पिलपिला – सा प्रशंसा पत्र लिख रहा हो।
दिन लार की तरह बह गया।
लाइब्रेरी में बैठा वर्क उलट आ रहा और अब खाने का इंतजार है। सुबह कहानियां पढ़ते-पढ़ते वहां के बारे में और फिर वही वहशत तारी हो गई। यहां के भरपूर और बेपनाह अकेलेपन की अकुलाहट से फिर परेशान हो उठा हूं और अपने आप से फिर वही बुनियादी बेगानगी। फिर वही शाश्वत सवाल — मेरा क्या होगा! दो दिन कोरे कागज से दूर रहा और हालत फिर खराब हो गई अब फिर जमकर और अपने आप में ही रह कर कुछ काम करना होगा ताकि….
‘रात’ के पीछे पड़ जाना चाहिए । कहानियों में तो उम्र बीत सकती है और ठोस तसल्ली नहीं होगी। कहानियों पर मेहनत कम नहीं करनी पड़ती। न ही मैं उन्हें कम दर्जा देता हूं , लेकिन …..! तो कल रात से कुछ पर काम। सिर्फ सोचने से कुछ नहीं होगा। कागजों का एक थब्बा सामने रखकर उसे घूरना शुरू करना होगा। ढिचकूं- ढिचकूं ढिलमिल यकीनी ठीक नहीं।
‘रात’ को खत्म करने की कोशिश शुरू करनी चाहिए। या कोई और सीधा सा उपन्यास शुरू कर देना चाहिए। लेकिन सीधा सा ही क्यों? ‘देवी’ पर भी तो काम किया जा सकता है उसे ‘उसका बचपन’ की अपेक्षा कुछ और टेढ़ा बनाया जा सकता है देखूंगा।
‘रात’ को छोड़े देर ज्यादा हो गई वरना उस पर जितना काम कर चुका हूं अगर उसी को खंगालूं तो एक छोटा – सा नॉवेल उसमें से निकाला ही जा सकता है । लेकिन उसके बारे में जो बड़े इरादे बांध रखे थे उन्हें भी मैं अभी छोड़ना नहीं चाहता। दूसरे किसी कॉपी में उसकी जो रूखी-सी रूपरेखा बनी है उसे फिर देखना चाहिए। दु:स्वप्नों के माध्यम से मैं अपने किरदार के व्यतीत के जिन पहलुओं को पुचकारना – उभारनख चाहता हूं उन पर सोचना चाहिए — जमकर, इस तरह भागते दौड़ते नहीं।
जितना वक्त मैंने पढ़ने – पढ़ाने में बर्बाद किया है उसका अशरेअशीर भी अगर मैंने लिखने में लगाया होता तो इस वक्त अपने किए पर इतनी हताशा ना होती। लेकिन मेरी उम्र लंबी होगी, इसलिए अब भी अगर वगैरह वगैरह! कितनी बार इस किस्म के सुझाव अपने आप को दे चुका हूं, इस किस्म के दबाव अपने ऊपर डाल चुका हूं ….तो क्या हुआ? रोने से तो यह बेहतर ही है। कुछ से कुछ भी नहीं बेहतर!
कुछ दिनों से नए नाटक पढ़ रहा हूं। कई पढ़ चुका हूं। आज सुबह बोरिस वियाँ का नाट्क ‘दि एंपायर बिल्डर्स’ पढ़कर प्रेरणा मिली। मूड बन रहा है। अंदर ही अंदर कुछ पक रहा है। आज अखबार में पढ़ा कि जॉन बेरीमेन ने एक पुल से कूदकर आत्महत्या कर ली। उनकी किताब ‘द ड्रीम सांग्स’ पढ़ रहा हूं। यह किताब एक तरह से उनकी डायरी ही है। इन कविताओं का महत्व शायद वैसा नहीं जैसा कि किसी कवि की उन कविताओं का हो सकता है जो उसके व्यक्तिगत अनुभव से ऊपर उठकर आकर और उठकर इतनी बदल जाए कि पढ़ने वाले को पढ़ते वक्त कवि के व्यक्तित्व का ख्याल ही नहीं आया बहुत कम आए।
अगर हर शाम एक नई माशूका या एक नया मशग़ला या एक नई शराब या एक नई बीमारी मिलती रहे तो भी हर शाम की वहशत और वह दहशत में कोई खास कमी नहीं होगी। शाम को किसी ना किसी तरह किसी न किसी की याद में गुजार देना चाहिए। अकेले ही। अकेलेपन में खतरा तो है कि वहशत अगर हद से गुजर जाएगी तो दीवानगी में बदल जाएगी या फिर किसी ऐसे कदम में जो लौटाया जाए नहीं जा सकेगा। बने रहने के लिए बातचीत जरूरी है, चाहे वह अपने आप से या अपनी दीवारों से ही क्यों न हो। सो दीवारों से ही सर टकरा रहा हूं। दरअसल जितनी कोफ्त किसी के किसी के यहां जाकर होती है उतनी अकेले में नहीं होती। बात सिर्फ कोफ़्त की मिकदार की ही नहीं उसकी किस्म की भी है।
पहले दो कहानियां ‘मेरा यह पौधा’ और ‘बीमार का आखिरी बयान’ — उनके बाद कुछ और। शायद नाटक और ‘रात’ के लिए नया मवाद। अगर रात को छोड़ दिया तो उसका हाल भी वही होगा जो ‘देवी’ का हुआ।
अभी-अभी न्यूयॉर्क टाइम्स में पाउंड ( Pound ) पर एक लंबा लेख पढ़ा। लेखक एलन लेवी ( alen Levy) जिससे पाँच साल पहले प्राग में मिला था और फिर न्यूयॉर्क में। पाउंड 86 बरस के हैं। बूढ़े कलाकारों को जीवन में इतनी दिलचस्पी क्यों? इस लेख में ली भी लिखते हैं कि पाउंड बहुत कम बोलते हैं। उनकी इस खामोशी में मुझे उनकी जिद सुनाई देती है– एक महान और सनकी कवि की ज़िद। ऐसे जलावतन लेखकों के बारे में जब मैं कुछ पड़ता हूं तो उम्मीद बंधती है और डर भी बढ़ जाता है। ज़ॉयस ( Joyce), नॉबकोव (Nabakov), मिलर ( Miller), बैकेट (Backett), एलियट (Eliot), पाउंड (Pound) , पिकासो (Picasso)… वगैरह
आज अपने जमूद को तोड़ा यानि सुबह कुछ काम किया। कुछ नहीं, काफी। कल फिर कर सकूंगा? उम्मीद है, विश्वास नहीं। कोशिश जरूर करूंगा इसीलिए इस वक्त अपनी अकुलाहट को रोके हुए हूं। दाहिने हाथ के अंगूठे में दर्द हो रहा है, होता रहे। आज और कुछ नहीं हुआ। रोज ही की तरह आज लिखता रहा इसलिए पढ़ नहीं पाया। वह लोग न जाने कैसे होते हैं जो ढेरों लिख डालते हैं और ढेरों पढ़ भी लेते हैं। अपने आप से यह तकरार संतुलन के लिए जरूरी है। लफ़्फ़ाज़ी से मुझे परहेज और नफरत तो है लेकिन मैं खुद इस इल्जाम से पूरी तरह बरी नहीं हूं।
पिछले तीन दिनों से ‘ बिमल उर्फ़ जाएं तो जाएं कहां’ का अंग्रेजी अनुवाद भी कर रहा हूं, बुरा नहीं चल रहा बल्कि खूब तेजी और रवानगी से हो रहा है। उम्मीद नहीं थी बल्कि अंदेशा था कि अंग्रेजी में नहीं कर पाऊंगा। अब यह सोच कर खुश हो रहा हूं कि यह ज्यादा देर नहीं लेगा। इस रफ्तार से तो दो महीनों में पहला ड्राफ्ट हो ही जाएगा। दूसरे में देर लग सकती है। लेकिन रफ्तार अगले हफ्ते से कम हो जाएगी क्योंकि छुट्टियां खत्म हो रही हैं। कहानियां फिर रुक गई है और नाटक की तैयारियां भी। एक हमल के दौरान दूसरा नामुमकिन….
कुछ दिनों से ‘वहां’ के बारे में सोच सोई पड़ी है। वहशत भी कुछ कम है। लगता है अब मज़ार यहीं बनेगा। अगर अचानक ही मौत हो जाए तो लाश को तो यहीं कहीं ठिकाने लगाए जाएगा। ठीक है मुझे चिंता क्यों कि मौत के बारे में बाद मेरी इस कमबख्त काया का क्या होता है। कल पित्ती जी का एक और खत मिला ‘बिमल उर्फ’ के बारे में। खुशी हुई बेशक खत में हिंदुस्तानी किस्म का अधूरापन था। लेकिन लगता है ‘बिमल उर्फ़’ को शायद दो-तीन महीनों में प्रकाशित कर देंगे। जब काम हो रहा होता है तो इधर – उधर अनुकूल हरकत होने लगती है। अपने आप। इसलिए बेकार नहीं बैठना चाहिए
‘बिमल’ का अनुवाद खत्म कर दिया । पिछले दो महीने दिन रात इस अनुवाद को ही दिए। करीब-करीब वैसा ही पागलपन महसूस किया और जिया जैसा मेरे हमसफ़र लेखक हर जगह महसूस करते हैं और जीते होंगे। इस अनुवाद पर खुश हूं ‘साइलेंस’ छप चुकी है। ‘स्टेप्स इन डार्कनेस’ शायद इंग्लैंड में भी छप जाए।
अब ‘रात’ के लिए ख्वाब लेने चाहिए उसका कोई साफ खाक़ा जहन में नहीं है। सोचूंगा तो उभर आएगा। जो नोट्स वगैरा पहले कभी लिए थे उन्हें देखना होगा।
मानसिक संतुलन ठीक ही है, खामोश और अकेला रहूं तो ठीक ही रहता है। कमोबेश उधर से कोई खबर नहीं मिली। न ही मिले तो बेहतर। कई दिनों से कुछ पढ़ा नहीं — यानी करीब दो महीनों से अनुवाद में ही जुटा रहा।
कुछ देर पहले टोनी बायल एक बड़ा खूबसूरत-सा घड़ा( सिरेमिक) उठाए आया और बोला यह जिम सटर ने भेजा है। मुझे लगा जैसे मुझे ‘बिमल’ के अनुवाद का इनाम दिया जा रहा हो।
इस वक्त खूब थका हुआ हूं। घनी थकान। वैसे जैसे किसी प्रिय मिलन के बाद होती है। यह इत्मीनान है कि दिन बोझिल न्हीं बीता। शाम भी बख़ैर गुजर जाए तो खुदा का शुक्र बजा लाकर सो जाऊं ताकि कल फिर उठकर काम कर सकूं।
तनहाई में ही तवानाई है। आह!
बीयर लिए बैठा हूं। दिन भर बैकिट का उपन्यास ‘ मेलोन डाइज़’ ( Melone Dies) पढ़ता रहा — मजा ले ले कर।
दिन गहरी खामोशी में बीता। कई बार किसी को मिलते ही मितली सी होने लगती है। क्यों?
सफलता की ख़्वाहिश जब तक जड़ से उखड़ती नहीं तब तक चैन नहीं मिलेगा। नाटक रुका पड़ा है
इतवार। सुबह का सूना समां। सूरज आंखों को चुंधिया रहा है। अगर धूप इसी तरह रही तो दिनभर बेकरार रहूंगा। धूप रास आती है ना बारिश। दोनों के साथ वहां की यादें और यंत्रणाएं जुड़ी हुई हैं। दोनों से दहशत दस गुनी हो जाती है।
बैकिट को पढ़ता हूं तो दूसरों के और अपने काम से दिलबरदाश्ता हो जाता हूं। हर लिहाज़ से। जिस गहराई से उसने शून्य और मौन को आंका है, उसके बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता। उसे पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई इलहामी किताब पढ़ रहा होऊं– जैसे गीत या बाइबल। फर्क यह है कि गीता या बाइबल पढ़ते हुए वैसा आनंद मुझे नहीं मिलता जैसा कि बैकिट को पढ़ते हुए।
अगर यह हालत है तो कलम कैसे उठाउंगा, कलाम कैसे होगा। उसके लिए तो ख़ुदफरामोशी भी जरूरी है. ख़ुदफरेबी भी।
बाहरी और घटिया मामूली घटनाओं को बार-बार एक ही बात पर बल देते रहना चाहिए — मेरा क्या होगा! मेरे जैसे इंसानों का क्या होगा। पैदाइश और मौत के बीच का शून्य।
इस खामोशी और तन्हाई का मुकाबला अगर कर सका, यानि बच निकला, यानि दूसरों की गोद में न जा गिरा, यानि अकेला और संतुलित रह सका, यानि अगर आत्महत्या या पागलपन का सहारा न ले लिया, यानि अगर आत्मदया ने आत्ममुग्धता का जामा न पहन लिया, यानि अगर दूसरी आलाइशों के उलझाव से दूर रह सका, यानि अगर यहां से भाग कर वहाँ वापस न चला गया, यानि अगर दुनियावी फिक्रोग़म में गोते लगाने की ख्वाहिश को अपने ऊपर हावी ना होने दिया शायद, तो शायद कुछ हो। तो भी क्या कुछ नहीं ।
मुद्दआ क्या है? अमन या कामयाबी? या दोनों? शोहरत या शांति? या दोनों? मुद्दआ क्या है? वक्तकटी ? जैसे तैसे या किसी खास तरीके से? मंझधार के बीच पहुंचकर ऐसा जानलेवा सवाल!
पी. लाल धूम मचा कर चला गया उसका व्याख्यान कविता पाठ से बेहतर रहा वह बिमल को छापना चाहता है।
1974
देवेंद्र इस्सर दो दिन हमारे यहां रहे। उन्हें मैं कार्नेल से ‘उठा’ लाया था। पुराने दिनों और दोस्तों के बारे में धीमी धीमी बातें होती रही धीमे धीमे दर्द उठते रहे।
आज कमलेश ने खबर दी कि ‘लापता’ छप गई । ‘दूसरी बार’ का अनुवाद करते – करते किताब से उकताहट शुरू हो गई है। ‘ वे दिन’ के अनुवाद के दौरान भी यही हुआ था। अनुवाद किताब की ताकत का इम्तिहान– जिस किताब से अनुवाद के दौरान अनुवादक उकताए नहीं वह किताब ताकतवर।
अंदरूनी मौसम कई दिनों से बेकैफ़ है। यकसां और बेरंग। कोई ऊंच-नीच नहीं, कोई मस्ती या मितलाहट नहीं, इंतजार में तड़प नहीं, किसी की सोहबत की ख्वाहिश नहीं। बैरागी बंदा। मैं चुप बैठा टुकुर-टुकुर शून्य को देखता हूं। यह ड्रामा भी अब बकबका होता जा रहा है। वैसे एक और नाटक लिखने का ख्याल — बेकौनोमकान नाटक । भूख और मौत के बारे में या सिर्फ भूख के बारे में।
कुछ घंटे हेनरी जेम्स की आत्कथा, ‘ए स्मॉल बॉय एंड अदर्ज़’ के कुछ भारी और बेनज़ीर पन्नों से उलझ कर काट दिये। सर चकराता रहा, आंखें अकड़ जाती रहीं लेकिन हर फिक़रे में बला का जादू दिखाई देता रहा। बाहर धूप में शायद कुछ हरारत आ गयी हो। लोग चर्च से लौट रहे हैं।।
काफ़्का की डायरी फिर पढ़ रहा हूं । और एक तंत्र पर किताब। काफ़्का डायरी में कभी-कभी अपने सपनों को दर्ज करता है। मैं अपने किसी भी स्वप्न को हू-ब-हू दर्ज़ नहीं कर पाता।
कल रात का एक स्वप्न। मैं कार चला रहा हूं एक मोड़ पर एक दोस्त खड़ा दिखाई देता है। मुझे याद आता है कि एक बार पहले भी वह मुझे इसी तरह कहीं खड़ा नजर आया था। और तब भी मैं कार चला रहा था और वह मुझे देखकर हैरान हुआ था। मैं हॉर्न बजाता हुआ उसके पास से गुजर रहा होता हूं कि वह मेरी तरफ देखता है और मैं एक हाथ हवा में लहराते हुए हैरान हो जाता हूं कि मेरे उस हाथ में बीयर की बोतल है। मुझे ख्याल आता है कि वह इस बार भी मुझे देख कर हैरान हुआ होगा। स्वप्न में मुझे मालूम है कि मैं विदेश में हूं और वह मेरा दोस्त हिंदुस्तान में है।
हर कलाकार फितरतन चोर होता है।
आज सुबह से सुरूर में हूं ‘नसरीन’ पर झुका हुआ हूं। मजा आ रहा है। शायद इस माह के अंत तक खत्म हो जाए। तब ‘दूसरा न कोई’ को आगे बढ़ा सकूंगा। कल वागर्थ (अंग्रेज़ी) का नया अंक मिला उसमें ‘विमल इन बॉग’के कुछ पन्ने हैं और मुझसे मीनाक्षी मुखर्जी की बातचीत भी। बी. राजन का ख़त — वह भाषण देने नहीं आ सकेंगे, गिरकर घायल हो जाने के कारण । वह भी मेरी तरह अकेले और उदास नजर आते हैं।
रमेश बक्षी के खत में खबर थी कि ‘हाय हाय क्यों’ मार्च में खेला जाएगा। नसरीन को छोड़ ‘दर्द’ उनवान से एक नई कहानी लिखने बैठ गया हूं। देखो किधर जाती है अगर उड़ निकली तो इसे ही इस साल की उपज मानूंगा।
उजला दिन, धूप जैसे कोई जवान औरत। अवस्त्रा। उठे हुए उरोज़। निखरा हुआ रंग । रेशमी बाल। खामोश लेकिन बलबे उबाल। प्रतीक्षारत। बासेहत। बाकमाल। या फिर किसी जवान जोगिन की तरह शांत। विरक्त। बजा जिस्म, दुनियावी आकर्षणों से पूरी तरह ऊपर अभी न उठी हो।
आज पता चला पिता अस्पताल में है कुछ दिन पहले उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। अब प्रोस्टेट से परेशान हैं। लगता है उनका वक्त समाप्त होने वाला है। अगर भी पहले चले गए तो मां की हालत और खराब हो जाएगी।
आज डाक से विमल उसकी दो प्रतियां मिलीं। हुसैन का कवर बहुत बढ़िया और बाग़ियाना है। कागज और छपाई घटिया है किताब मैली – मैली सी नजर आती है। लेकिन निकल आई यही गनीमत है।
आज इनेक्ट(Enect) का नया अंक मिला उसमें ‘हाय हाय क्यों’ का अंग्रेजी अनुवाद moan no more नाम से है। आज भी ‘ पर काम किया लेकिन आमद के बगैर। एक लेख के लिए तैयार हो रहा हूं प्रवासी कि प्रसव वेदना पर।
सं.नोट — वैद साहब की डायरियां मुझे बेहद पसंद है। इनमें आप असली लेखक और उसकी असल जद्दोजहद से रू ब रू होते हो।वे लगातार अपने
पठन-पाठन की भी बात करते हैं। वे साथी साहित्यकारों, कलाकारों पर बात करते हैं। जब वे एज़रा पाउंड, हेनरी मिलर – अनाइस नीन पर बात करते हैं तो मैं बहुत उत्साह से भर जाती हूं।