मैं ब्याह नहीं करुंगी।’ सोलह वर्षीया लड़की की इस घोषणा ने घर में प्रलय मचा दी। मां बाप के आगे सिर तक न उठाने वाली लड़कियों में एक सांवली और मामूली सूरत की लड़की से ऐसे दुĮसाहस की उम्मीद कौन कर सकता हैĘ जबकि वह जानती है कि लड़कियों को घरवाले मरने का भी शाप दें तो उन्हें हंसकर रह जाना चाहिये। गाली दें तो चुपचाप सहना उनकी शीलता है।

पीलिया के रोगी बड़े भाई की मूंछे तन गईं। छोटे भाई ने कहा — मेरी ससुराल के लोग क्या कहेंगेĘ और मां बोली — बिरादरी…Ę छोटे भाई ने अपनप परिवार की महिमा के चांद में बहन को कलंक ठहराया — ब्राह्मण परिवार के उपाध्याय गोत्र की सनाढ्य परंपरा में यह कुलकलंकिनी…

मां की आंखों में उठती प्रचंड आग का कस्तूरी पर कुछ असर नहीं पड़ा तो भाई किस खेत की मूली हैĘ लड़की की आंखों में ढीठपन था। घर के हर कोने से शोरगुल जाल की शक्ल में उसे घेरने लगा। ऊपर से मां ने अग्निबाण छोड़ा — सिर काट कर रख देंगे भइया और मैं तुझे बचा नहीं पाऊंगी… मगर उसकी ज़िद‚ टस से मस न हुई।

रात के समय मां उसके पास पहुंची और खाट के सिरहाने बैठकर उसके बाल सहलाने लगी। वह पागल की भांति हड़बड़ा कर उठ बैठी और कठोर स्वर में बोली — तू मुझे फुसलाने आई है या जले पर नमक छिड़कने Ę
— नहीं बेटी‚ यह पूछने कि सारी उमर तुझे कुंआरे रहने से डर नहीं लगताĘ
— डर ही तो लगता है चाचीह्य मांहृ ब्याह से डर लगता है। मुझमें सती होने की हिम्मत नहीं। मैं मतना नहीं चाहती।
— तू सती क्यों होगी रीĘ क्यों मरेगीĘ
— पति के मरने के बाद जल जाने वाली औरत को लोग पूजते हैं। सराहते हैं और ज़िन्दा रहने वाले को जीते जी मार डालते हैं। मैं ने सती रेशम कुंवर की किताब पढ़ी है।
— पर तेरा पति मरेगा क्योंĘ
— क्योंकि वह बूढ़ा और बीमार है‚ मुझे पता चल गया।

अब अनर्थ का सूत्र मां के हाथ आ गया। इस बार उसका स्वर धीमा तीखा और नोंकदार था — हाय कुभागी‚ तो तू पोथी पत्रा पढ़कर बरबाद हुई हैĘ मोती की मां ठीक ही कहती थी — कस्तूरी की चाची‚ अपनी लड़किनी को रोका करो‚ मैं तो खुद भोगे बैठी हूŠ। तीसरे दिन रामश्री ह्य बेटीहृ की चिट्ठी आ जाती है। डाकिया देखते ही मुझे जूड़ी चढ़ने लगती है कि आ गया रामश्री का दुख दर्द।
मां ने धांय धांय कूटा कस्तूरी को। वह गला फाड़कर गालियां भी देना चाहती थी पर लोग सुनते‚ फिर पूछते।ब्याह की मनाही लड़की कर रही है‚ कैसे बताया जाताĘ अतĮ उत्तर – प्रत्युत्तर की ताकत भी जाती रही‚ अंत में रोने लगी मां। भीतर की अव्यक्त टीस आंसुओं की राह बहाती हुई सोचती रही — परिवार का क्या होगा अबĘ पति तो गोरों के गुलाम जमींदार की मार के मारे भाग गये। छोटा बेटा भी डर गया तोĘ बड़ा पीलिया का मरीज़‚ ब्याह हो जाता तो जीने का सहारा पा जाता…पर यह अड़ियल लड़कीŃ बड़ी बेटी रज्जो इसकी जगह होती तो गाय की तरह कहीं भी हंक जाती। आदमी की उम्र को रो रही है। इसका बाप तो जवानी में ही मेरा संग छोड़कर भाग गया।

कस्तूरी को पढ़ना अच्छा लगता है। उसके पास कलम न खड़िया और न तख्ती। धूप या उजियारी की रोशनी में रेत पर ओलम सीखी है। एक एक अक्षर जोड़ कर शब्द बनाये और मात्रा जोड़ कर किताब पढ़ने लगी। वैसे भी उसे कलम खड़िया कौन लाकर देताĘ इस गृहस्थी के खर्चों का अंत नहीं।न कपड़ा लत्ता पूरे हों न अन्न मसाले। ऊपर से बहू के नेगचार। सबसे बड़ा खर्चा सरकारी लगान‚ जितनी ज़मीन उताना ही सुरसामुख लगान। मां के प्राण हाहाकार करने लगे। इस बात को किससे कहेĘ गला रुंधकर इस बात को भूल भी तो नहीं सकती क्योंकि रात की तरह घिरती आ रही बेटी की जवानी बेटों की राह का अंधेरा बन जायेगी। कलेजा टूक – टूक होने लगा तो उसने कस्तूरी को दुश्मन की निगाह से देखा। खूब धिक्कारा मन ही मन। अंत में बेटों को राय दी कि इसका ब्याह ऐसे तय करो कि भनक तक न लगे। ब्याह हुए पीछे कौन सी चूं चपड़ करती है‚ फिर तो चुटिया पकड़ने वाला पांच हाथ का आदमी सामने होता है।

लेकिन कस्तूरी क्या ऐसी मिट्टी की बनी थी कि कोई भी रूंध ले। मां ने बेटी के हाथ जोड़े‚ हा हा खाई‚ गोड़ गहे। पर वह जैसे वज्र हो गयी। ऐसी बेटी की मां गले में कौर उतार सकती है कि चैन से सो सकती हैĘ लड़के बिगड़े बछड़ों से मां से हाथ छिटकने को तैयार। नकटी लड़की के बदले की सजा मां को आसानी से दी जा सकती है। मां फिर गुहार उठी — कस्तूरी‚ जिसकी बेटी कुंआरी रहे उसकी सात पीढ़ियां गल गई समझ ले।
वह बहरी हो गयी तो कलह और बढ़ी। मुकद्दर की मार कि तभी कुर्की का ऐलान हुआ। मां ने गालियों की आंधी बेटी की ओर छोड़ दी। उसके जन्म को जी भरकर कोसा कि सबसे बड़ा बेटा मरा था‚ तब यह सतमाासी हुई थी क्योंकि मां ने अपने पेट में पंसेरी मार ली थी। भंगिन खपरे में भर कर फेंके दे रही थी कि अभागी रो पड़ी। सख्तजान औरत क्या मारे मरती हैĘ बेटों को रोग – धोग व्यापे‚ इसे कभी छींक तक न आई। गाय मेरे अभागे की‚ बेटी मरे सुभागे की।

मां की आशा टूट गयी कि कस्तूरी को देकर बदले में बड़े की बहू आ जायेगी। मगर बदले का ब्याह न होगा तो यह लड़की भंवरेगी कैसेĘ कर्ज भी कोई नहीं देगा कि इसके ब्याह का खर्च उठे। बद्री बनिया के सिवा इस गांव में गांठ का पूरा कोई नहीं। आदमी की हैसियत केवल साहूकार या जमींदार की है। बाकी सब तो लगान और सूद की एवज मुफ्त हैं।
लड़की की देह का भराव देखकर मां का मन सूखे डंठल सा कांपता। पीलिया वाले बेटे का चेहरा छुआरे सा दिखता। इस कमबख्त को भइया का दुख भी नहीं सालता। बहनें भइयों के लिये कहां से कहां नहीं गुज़र जातीं।

अंग्रेजों का हुक्म — कुर्कियों का जलजला आ गया। ढोर डंगर‚ कपड़ा – जे.वर और घर के बर्तन भांडों से भरपाई न हो तो जमींदार अपनी तसल्ली के लिये किसानों को पिटवाने पर जुट लेता। अपने लोगों पर जुल्म ढाने वाले जमींदारों को तरक्की और इनाम खिताब का भी ऐलान था। जो जालिम नहीं बन पाता‚ जमींदारी छीन ली जाती। भय और असुरक्षा निरंतन खूंखार बनने में मदद देने लगे। किसानों के कपड़े उतरवा लेने के बाद चमड़ी उधेड़ने का हुक्म हुआ। चमड़ी उतरवाने वाले समूह में बड़े भाई का नाम शामिल था। नंदनलाल वल्द ज्वाला प्रसाद उपाध्याय। मां का कलेजा धड़कने लगा। कस्तूरी ने अपनी मां के कई रूप देखे हैं — रोता – घबराता‚ चीखता – चिल्लाता और मुरझाया मौन चेहरा… मगर आज उसका चेहरा आग की तरह गनगना रहा था। अंगार जैसे चेहरे को लेकर कभी इधर भागती‚ कभी उधर जाती। कस्तूरी को वह अपने बेटे का दुश्मन समझती। उसका घर बसने से पहले ही उजाड़ देने वाली परकालाŃ… लेकिन कस्तूरी का दिल पत्थर का बना थोड़े ही थाĘ वह रक्तमांस की बनी हुई नहीं थी जो मन में उथल – पुथल न होतीĘ

विपत्ति में मां बेटी एक हो जाती हैं‚ सहेली जैसी एक भाव। मां कराहकर बोली — आठ आने ही होते तो जमींदार का नजराना ले जाते। वसूली की मियाद बढ़ जाती। मां का चेहरा देख कर कस्तूरी के चेहरे का रंग उड़ गया। घबरा कर इधर – उधर देखा। पतीली की जगह मिट्टी की हंडिया ने ले ली। लेकिन पढ़ैली पर पीतल के दो कलशे भरे रखे थे। भगवान विपत्ति का इंतजाम रखते हैं। कस्तूरी ने सोचा। मां नागिन सी फुंफकारती हुई गोरों की सात पुश्त का नाश नवाज़ रही थी और जमींदारों का धुंआ कर रही थी।
” चाची‚ हम कलशे बेच दें तो अठन्नी मिल जायेगीĘ”
” कलशेŃ कहां हैं कलशेĘ”
“पढ़ैली पर। “
” ये लोटे से कलशेĘ इनका क्या मिलेगाĘ”

कस्तूरी उन कलशों को लेकर बनिया के दरवाजे पहुंची। तब बद्री बनिया खाट पर बैठा हुक्का पी रहा था और साथ बैठे एक आदमी से बातें करता जाता था। कलशे उसकी खाट के पास रख दिये। इस बात का क्या मतलब है‚ भला साहूकार से ज्यादा कौन जानेगाĘ लोगों की गृहस्थियां गिरवी रखने का अभ्यासी… आशय समझ गया और भीतर चला गया। कस्तूरी अब दूसरे व्यक्ति को गौर से देख रही थी। जबकि उसका न मुंह इधर था न नजर। वह ऊंचे कद का रूपवान‚ उजले रंग का तराशी हुई मूंछो वाला आदमी था‚ जिसने गाढ़े की बढ़िया कमीज़ और मारकीन की नयी शानदार धोती पहन रखी थी। बालों में तेल डालकर तिरछी मांग निकाले हुए था।
आठ आनेŃ उसकी निगाहें चमक उठीं।
न नीलामी हुई। न कुर्की मची। बड़ा और छोटा दोनों भाई सलामत।

हठी कस्तूरी क्या कुंआरी रह पाईĘ
जिस सामाजिक विधान से डरकर भाग रही थी‚ वह इतना दयालु या कमज़ोर नहीं था कि उसे बख्श देता। मां रोती या गाली देती‚ उसे गंभीरता से लेना बेटी ने सीखा नहीं था। कभी कभी तो मां की गलियां दुलार का हिस्सा होतीं। कस्तूरी ने समझ लिया था कि बच्चों की समस्याओं से जूझते जूझते मां की बोली ही खरखरी हो गयी है। अब की बार भाबी थी। दो साल से रूठी हुई भाभी हाथों में चांदी के कड़े और पांवों में झांझन पहन कर आई थी। छोटे भइया से खूब लगाव दिखाती हुई घर के वे काम निबटा रही थी‚ जिन्हें करने से पहले गुरेज़ था। मां न मालूम क्यों चिड़चिड़ाकर रह जाती।

भाभी ने कस्तूरी को समझाने की खातिर कहा था — किताबों में यही लिखा है कि जिंदगी भर भइया की छाती पर सिल की तरह धरी रहोĘ यह नहीं लिखा कि बेटी धान का पौधा होती है‚ समय रहते दूसरी जगह रोप देनी चाहिये।
— मैं कोई धान का पौधा हूŠĘ वह कहकर हंसी थी
— तुम लड़की हो तो यह नहीं समझती कि जवानी में उसको रोटी कपड़ा वही देता है जो उसके संग सोये बैठे। बच्चा पैदा करे। यहां क्या अपने भइया के संग…
कस्तूरी ने अपने कान बंद कर लिये कि भाभी आगे क्या कह देĘ गालीŃ इतनी बड़ी गालीŃ मां सारी उम््रा गालियों में उसे यह बात नहीं समझा पाई। अभिमानी लड़की को पिछियाता हुआ भाभी का दुर्वाक्य घर के हर कोने से खदेड़ रहा था और छाती से कपाल तक उस घर से उखड़ने के अपमान में जल रही थी‚ जिसमें भाइयों की तरह एक दिन उसने जन्म लिया था।

नई ब्याही दुल्हन चमकीले रथ में बैठ कर दूसरे गांव आ गयी। चादर की झूल ओढ़े हुए यह भी नहीं देख पाई कि वर कैसा हैĘ संसार के अंधकार में उसकी छटपटाती आत्मा किस हवा धूप के लिये भटकती हैĘ कस्तूरी को बंधकर रहना है और उस आदमी के पांवों में सिर टेकना है‚ जो अब रोटी कपड़ा देने वाला है।
उसके मन में रह रह कर वह आंधी क्यों उठती है‚ जो उसको ही उखाड़ देगी। बेध्यानी में क्या क्या तो सोचती रहीĘ भूल गयी कि लड़कियां घूंघट खींच रही हैं और वह जिद की मारी हीलोहुज्जत कर रही है। कायदे से बुत की तरह नहीं बैठ रही।
” चल देवता पूज।” किसी बूढ़ी ने कहा। उसकी तन्द्रा टूटी।
उसे याद आया। रामश्री ने एक किताब में से पढ़ा था — देवता कहां हैĘ कंकड पत्थरों पर दूध – पानी‚ धान – रोरी देने से क्या वे देवता हो जाते हैं। उसका घूंघट मना में हिला।
असगुनŃ ” ओ आठ सौ की घोड़ी‚ मुफ्त में नहीं आई तू। भइया ने चांदी के कलदार वसूले हैं।” तड़तड़ाती जनानी आवाज़ ने कानों के परदे उधेड़ दिये।

उसने झटके से घूंघट उतार दिया। दूल्हा सकपका गया। औरतें सन्न रह गईंं। सारे भ्रम टूटे। पर्दे फट गये। भाभी के झांझन और कड़ेŃ
दो कलशों का मोल आठ आने साथ ही उसका हुआ सौदा — आठ सौ मेंŃ
दूल्हा वही था जो बद्री बनिया की खाट पर साथ बैठा उससे बतिया रहा था। Ėोध‚ दुख‚ अपमान और धिक्कार… यहां से वह कहां निकल भागेĘ मां की गर्दन दबोच ले जाकर‚ उसी पर हक है। किस बात का हक। उसने क्या बेटी की इच्छा की होगीĘ फिर भी क्यों हो जाती हैं बेटियांĘ बेटों का शुभ चाहने वाली मां उसके जन्म को सार्थक तो ेमान रही होगी। खेती ने दगा दी‚ वह काम आ गयी।
रिवाज भी क्या गजब ढाते हैं। बेची हुई बहन को भाई खुरमे और लड्डुओं की टोकरी लेकर विदा कराने आ गया। यहां भी भट्टी चढ़ी। दोनों लोग नफा कमाये व्यापारी की तरह जश्न मना रहे हैं। स्तब्ध बैठी रही कस्तूरी। आंखों से टपकता गर्म पानी आंचल में सोख लिया।

लौटकर मायके आयी तो मां ने उसे छाती से लगा लिया और बिलख बिलख कर रोने लगी। मौहल्ले की औरतों ने देखा — नहीं रोई तो कस्तूरीŃ और मां की सिसकी बंद नहीं।
भाभी परात में पानी लेकर आई और बोली — पांव धुला लो।
मां का कंधा‚ परात‚ पानी‚ पांव …उसने कुछ नहीं देखा। कुछ नहीं सुना। मौहल्ले की औरतों के जाते ही बोली — कल जाऊंगी। वहां अपाहिज ससुर हैं।
कलŃ मां – भाबी देखती रह गयीं। रात में मां उसके पास सोयी थी। खाट से खाट भिड़ाकर। हर मां की तरह बेटी की ससुराल के बारे में जानने की इच्छा थी‚ जो कुछ ब्याह से पहले मालूम था‚ उसको कस्तूरी कहे‚ तब सच है।
कस्तूरी अब क्यों कुछ कहेĘ क्या बदलने वाला हैĘ आठ सौ चांदी के कलदार उसकी कीमत भरने वाले के यहां कोई अलग दुनिया हैĘ उस गांव में क्या अंग्रेज के नुमाइंदे जमींदार का राज नहींĘ वहां की धरती खेती क्या मुक्त हैĘ कुर्की और मार बेगार कहां नहींĘ यह बात अलग है कि इसका खरीदार गांव से भाग कर बंबई चला गया। लौट कर आया तो लकदक कपड़े पहनकर आया। उजली पोशाक से साहूकार को भरमा लिया‚ उधार मिल गयी रकम। अट्ठाईस की उम्र में ब्याह के आसार खत्म हो गये तो एक औरत खरीद ली। मां जार जार क्यों रो रही हैĘ

वह गर्भवती हुई। मायके में पता चला। मां ने गांव की धोबिन को एक संदेश दिया था‚ जो अपनी ननद के यहां बरात में हसनगढ़ जा रही थी। कस्तूरी की रास्ते में पड़ती ससुराल‚ वह मकान पर आ गयी।
देखते ही हौम्स उठी वह। मन का मलाल चाहे जितना बढ़ जाये‚ मायके से आया कुत्ता भी अपना लगता है। वह तो फिर धोबिन भाभी थी। घंटा भर गांव के पुरा मौहल्ला की बातें करने के बाद भी धोबिन भाभी के चेहरे पर उलझन का जाल सा बिछा था। क्या कोई कड़वी बात गले में अटकी हैĘ चना गुड़ देकर पानी पिलाया था गांव की धोबिन को। उसकी मुट्ठी में तांबे का छेददार पैसा दबा था। पसीजती हथेली को खोलती हुई बोली‚ ” बीबी यह लो। तुम्हारे यहां का अन्न जलŃ और एक बात भूल गयी — तुम्हारी मां ने कहा है — लड़का सा हो तो छोछक की भेली मत भेज देना मायके।” कहते कहते धोबिन की हथेली ठंडी पड़ गयी।

कस्तूरी को हंसी आ गयी। खुशी भी हुई चलो मां इस भरम में है कि बेटी को राजपाट सौम्प दिया और बेटों की खेती का लगान पट गया। वह मानती है कि जो बात भरे घर में खुशी की लगती है। वह खाली हाथ वालों के लिये बोझ होती है। मां चाहती है‚ भाइयों की‚ उस परिवार की आबरू बनी रहे। कहती भी थी कि बेटियां बाप की नाक मूंछ की मर्यादा रखती हैं। पीहर छोड़ते समय हर बेटी को समझाया जाता है — डोली यहां से उठी है‚ अर्थी उस घर से निकले। जो लड़की इस सलाह को‚ इस हुकुम को नहीं मानती उसकी ज़िन्दगी भारी पड़ती है। कस्तूरी ने सोचा — मैं मायके और सासरे दोनों जगह की पत निभाऊंगी। क्योंकि यहां भी गुड़ की बेली खरीदने की कूबत किसमें हैĘ तेरा दामाद जमींदार और साहूकार के डर से दिल्ली भाग गया चाची‚ आठ सौ चांदी के कलदारों का
कर्ज जिसने मुझे सुहागिन बनाया था‚ भूखों मारने पर आमादा है। रोज सबेरे चूल्हे में आग जऌाा कर लोगों को बरम में रखती हूŠ कि खुदकोĘ भूखे रहना ही नहीं‚ भूखे दिखना भी तो आदमी की तौहीन है Ń कभी शर्म आती है‚ कभी दुख होता है और कभी गुस्से से बेज़ार…

बेटा हुआ‚ मर गया। उसने चैन की सांस ली।

सती रेशम कुंवर की किताब पढ़ने वाली बहू आई है। पढ़ी लिखी और खेत में मजूरिनीॐ दस दिन की जच्चा ने जमींदार के खेत ह्य जो जमीन लगान के एवज में छीनी गई हृसे आलू खुदवाए हैं। अपाहिज ससुर की सेवा ? बूढे. के लिये चोकर छान कर रोटी बना दी और खुद …रास्ता चलते कांटे बीनती है। अब तक ऐसी बहू आई है गांव में?
मुंहलगे नौकर कामगारों के जरिये ये बातें जमींदार की हवेली तक पहंची। जमींदार के बोध का संसार हवेली जैसा ही घिरा हुआ है औरतों को लेकर। उन्हें सती रेशम कुंवर की कथा पढ़ने वाली बात जंच गयी। बीधो नाइन को हुकुम दिया — अपनी मालकिन के पास बुला लाना‚ कथा सुनायेगी हीरा की बहू। हीरा की बहू माने कस्तूरी‚ जिसका हवेली में प्रवेश सती रेशम कुंवर की कथा के साथ हुआ। और जमींदार अपने दूजिहा वर होने की दुश्चिंता में से पत्नी के रामस्वरूप कुम्हार से घुल मिल जाने की आशंका वाले मनोभाव को खारिज करने की कोशिश करने लगे।

हवेली के काम के लिये सिर्फ नौकरों का प्रवेश वर्जित नहीं था। बाकी इस दायरे के बाहर कोई और भी दुनिया है। यह जानते हुए भी वे कोई द्वार अपनी स्त्री के लिये खोलना नहीं चाहते थे। स्त्रियों के जरिये मामूली आदमी भी अपनी जगह बना लेता है। अब वे क्या जाने कि कस्तूरी नाम की यह औरत सती कथा का कौनसा मर्म समझती है?

देखते – देखते दोनों अभिन्न सखियां हो गयीं। एक दूसरी को खुली हवा का स्पर्श कराती तो दूसरी अपने सौतेले बेटे से पहली को पढ़वाती। कस्तूरी अपनी सखि की मुक्ति की आकांक्षा के द्वार खोजती तो हवेली वाली उसकी भूख प्यास का ख्याल करती। यह कैसा जोग मिलाॐ पिछले रास्ते से खत्ती खासों में भरा अनाज भूखे किसानों के घर सरकने लगा। मामूली किसान की बेटी हवेली वाली जो कुछ कर नहीं पाती थी‚ वही चाहती रही। चाहने के कारण जमींदार खानदान ने तरह तरह की सजायें दिलवाईं। चचिया सासों और इस घराने की बहुओं ने कुटनियों के षड्यंत्र रचे – लांछन दिये‚ कलंकित हुई। सीता की तरह वनवास की तैयारी थी कि सखी आ गई।
गंगा पर्व का मेला दोनों संग संग गईं।

पति आ गये। कस्तूरी को घर न पाकर बौखलाये। स्वामी से बिना पूछे जाना… असलियत मालूम हुई तो संशय ने कस लिये‚ जिस जमींदार के आगे उन्होंने कभी सिर नहीं झुकाया‚ जिसकी सजाओं ने उनको गिरफ्तार नहीं कर पाया।उसकी बगल में उनकी पत्नीॐ किसी भी पति को यह सवाल पछाड़ सकता है। आमना – सामना हुआ‚ वे बिफर उठे — रेशम कुंवर की सती कथा का ढोंगॐ
” ऐसे क्या देख रही है? सीधी सी बात है‚ गंगा जी का कोण बना कर खड़ी हो जा और कसम खा कि इस बनिया ह्य जमींदारहृ से तेरा कोई संबंध नहीं।”
” है सम्बन्ध।”
” रखैल काॐ” उनकी लम्बी काया हांफने लगी।
” रियाया का।” उसने साफ आवाज़ में कहा।
” ओहोॐ कल्से बेचने वाली को बड़ी बातें आने लगीं।”

कस्तूरी ने दुश्चरित्र स्त्रियों की दुर्दशा सुनी थी। उनका सिर मुंडा दिया जाता है‚ अपने ही खानदान की राधा भाभी‚ सास की मार के डर से एक दिन धोबी के घर छिपी बैठी रही थी‚ लौट कर आने पर उसकी जीभ पर गर्म चिमटा दागा गया। राधा भाभी महीनों तड़पती रही थी‚ गला नहीं जला फिर भी आवाज बन्द हो गयी। ऐसे काण्ड देखने के बाद भी वह आगे बढ़ रही है? मां और भाइयों से नहीं जीत पाई‚ पति से जूझ रही है। जूझने का रोग बुरा होता है। सोच रही थी दिनचर्या में फेर बदल करेगी‚ लेकिन नहीं हो पाया कुछ भी। पति को कैसे समझाये कि अपने स्वभाव से लाचार है‚ मन में बेईमानी नहीं।

पति को शक रहा होगा शायद‚ लेकिन उन्होंने फिर कभी जताया नहीं। जमींदार उन पर अब सदय था। बेदखली की धमकी भी नहीं थी और न लगान का जानलेवा तकाज़ा। ससुर ने कहा‚ ” बहू ही बेटा निकली।” वह क्या समझे? निरुपायता थी या सूझ – बूझ? मुजरिम से देवी हो गयी। कस्तूरी सती नहीं होना चाहती थी। उसे मौत का बड़ा डर था। मां ने कहा था — सास नहीं‚ ननद नहीं‚ रस्मोरिवाज़ के लिये कोई कहने वाला नहीं। वर भी हट्टा – कट्टा सुगढ़ और सलीकेदार है। गरीबी – अमीरी तो आने – जाने का खेल है।

एक बच्ची गोद में डाल कर पति मोतीझला की भेंट चढ़ गये। संसार में एक बार फिर प्रलय आ गयी। हीरालाल नाम का आदमी भले कोसों दूर रहता रहा‚ बहुत समझाने पर भी अंग्रेजों के पिट्ठू जमींदार को धता की जुर्रत करता हुआ भागता रहा‚ भूख और बीमारी में पिता और पत्नी की खबर नहीं ली‚ ऐसी बहुत सी गलतियों की शिकायत थी उसके पास‚ पर अब सदा के लिये छोड़ जाने वाले को याद करते ही मन टूक टूक होने लगता।

कोई प्रलय नहीं‚ सूनी आंखों में रेत बिछ गया। उस रेत पर आदमी और यम की जंग छिड़ी रहती। आदमी पछड़ते हुए उसकी ओर देखने लगा। आखिरी बूंद ज़िन्दा आंसू गिरा‚ अंत की मुनादी करती हुई रुंधी आवाज़ ने नन्ही बेटी को पुकारा — मै…त्रे…यीॐ यही नाम लेते थे पिता‚ जबकि मां पुष्पा कहती थी। बड़े खफा होते थे — डेढ़ साल पहले जब लड़की का जन्म हुआ तबकी याद दिला कर कहते — खुर्जा वाले पण्डित जी ने क्या कहा था? देवताओं में से जन्मी है हमारी बेटी। ऋद्धि – सिद्धि की स्वामिनी। देखती नहीं हमारे घर में ही अन्न – दूध नहीं‚ गांव भी अमन – चैन में है।

जमींदार के दायरों में आते जाते‚ उनके बेटे चन्द्रपाल से बातचीत करते हुए और गांव के पढ़े लिखे लड़कों की जानकारी पर कस्तूरी जानती थी कि अमन चैन क्यों होता जा रहा है? ग्रह क्यों पलट रहे हैं? गांधी जी का आंदोलन जोरों पर था‚ अफवाह यह भी थी कि जमींदारी प्रथा खतम हो जायेगी। हवेली वाली अपने पति से कह रही थी — मेरा काम ज्यों का त्यों रहेगा‚ तुम्हारी गद्दी जायेगी‚ राजपाट जायेगा‚ ऐश आराम और रौब – रुतबा…

विधवा होने के बाद कस्तूरी ने सती रेशम कुंवर की किताब को छूनी की हिम्मत नहीं की। वह जिस किबड़िया में रखी थी‚ लगता था कि उसमें से लपटें उठ रही हैं। लोग मंत्र पढ़ रहे हैं‚ ढोल बज रहा है। ईंगुर – आल्ता‚ मांग – टीका सजाया जा रहा है। उसने अपनी पोशाक बदल डाली‚ इसलिये नहीं कि विधवा को रंगीन कपड़े नहीं पहनने चाहिये‚ श्र्ृांगार नहीं करना चाहिये। इसलिये कि उसे रंगीन रेशमी कपड़े पहने हुए ‚ गहनों से सजी ईंगुर – आल्ता लगाये पति का सिर गोद में रख कर चिता पर जिंदा बैठी हुई रेशम कुंवर दिखाई देती। साक्षात सामने‚ तो कभी सपने में।

गांव में अचरज फैल गया‚ पति की मौत पर वह रोई नहींॐ मां आई थी‚ वह रोने की रस्म अदा करती सबेरे सबेरे‚ कोई मिलने भेंटने आये तब। कस्तूरी ने सूखे कण्ठ से मां को बताया था — यह सब मेरे बस का नहीं। अब मैं अपनी ज़िन्दगी और बेटी को लेकर ही सोच पाती हूँ। माना कि लोग मुझे धिक्कारेंगे । धिक्कार किसको अच्छी लगती है? पर कैसे समझाऊं कि मेरे सामने आने वाले दिन बाघ की तरह मुंह बाये खड़े हैं। मैं इनसे छुटकारा पाकर बचूंगी नहीं‚ सामना करना होगा।

उसके बाद अनादिकाल से चलता आया शोक – नाटक घर – देहरी पर चलता रहा। वह कितनी बातें सहेजती रही और कितनी बातें विसर्जित कर डालीं। कई विधुर पुरुष याद आय्ो — कैसी बंधनहीन जिंदगी मिलती है उन्हें— ब्याह करें‚ न करें। घर रहें‚ चले जायें। संतान पैदा करना काम है पालने की बाध्यता नहींॐ
बड़ी छटपटाहट थी — कैसी हूँ मैं? अपने आप को दूसरी औरतों से छिटका कर अब घबरा रही हूँ मैं। क्यों नहीं रो रोकर निढाल हुई? क्यों नहीं तड़पते हुए चिंघाड़कर लोगों की दया – करुणा इकट्ठी की? दुनिया का चलन ठुकरा कर क्या पाने की इच्छा है? इसी धार में बहते हुए मां से कहा था — चाची तू लौट जा। इस घर का खाती नहीं। इस गांव का पानी नहीं पीती‚ कब तक रहेगी? मां बेआवाज रोती रही थी‚ रोने के सिवा बेटी से कुछ कहने के लिये था भी क्या? उसने मां को समझाया‚ ” क्यों रोती है? गीता में लिखा है‚ कोई किसी का नहीं। जो हमारा नहीं उसके लिये रोना क्या?

मां विपत्ति के दुख शोक से ठूंठ हुई बेटी को बताये कि नहीं बताये कि भाई क्या सोच रहे हैं? कुछ नहीं बताया मां ने‚ चलते – चलते इतना ही बोली — अपनी बेटी का ख्याल रखना। खेती अब जमींदार के चंगुल से छूट रही है। इस छोटी सी जान के लिये खतरा न बन जाये। मां की आंखों में डर बोल रहा था।

कस्तूरी ने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था कि बेटे के सामने बहू को शीश पर रखने वाले ससुर इतने बेगानेपन से पेश आयेंगे। असल दुख‚ जानलेवा शोक तो उन्हीं के लिये था‚ जिनका जवान बेटा गया था‚ बहू का दुख भी उन्हीं से रिला – मिला है। इहकाल – परकाल सब एक हो रहे हैं एक पुरुष के बिछोह में। ससुर के मन में क्या तोड़ फोड़ हुई? वे सीधे कचहरी पहुंचे — हजूर मैं मरहूम हीरालाल का अभागा बाप…उसके बाद खेती के रकबे पर मेरा नाम आना चाहिये।

चोकर में से यथाशक्ति आटा निकाल कर बूढ़े का पेट भरा था और खुद पेट में घुटने देकर सोती रही। तीन दिन बाद आलू नसीब हुए तो‚ हुए दो दिन के अंर पर कभी शकरकंदी का टुकड़ा मिला तो मिला। महीनों – सालों अधपेट खाकर गुजार दिये। इस पितातुल्य वृद्ध के कारण मां से नाता तोड़ लिया। बाबा गांव लौटे तो उनकी बड़ी जगहंसाई हुई। ऐलकार ने साफ मना कर दिया और कहा — हीरालाल के नाम पर खेत चढ़ा था अपनी मां के नाम के बाद। इसपर आपका कोई हक नहीं‚ पत्नी ही वारिस मानी जायेगी।
मूर्ख है। पागल है। सठिया गये डोकरॐ ससुर बहू को लेकर लोग हंसे। वह मर्माहत हुई।

कस्तूरी की समझ में ससुर के इस पागलपन का कारण आ गया था‚ क्योंकि उसी दिन दोपहर को मायके से भाई आया‚ हल उठा ले गया। वह देखती रह गयी। बैल हांक ले गया। गांव के लोग पीछे भागे। ऊसर में जाकर हल डलवा लिया। पड़ौस के लक्ष्मीनारायण बैलों का रस्सा छीन लाये — लूट ले जाओ। वह मर गया तो क्या तुम्हारी बहन भी मर गयी है?
कहते हैं वहां अच्छी धींगा – मुश्ती हुई। कस्तूरी अवसन्न सी बैठी रह गयी। मर्दों को सिर्फ अपने बारे में ही सोचना क्यों आता है? अपने आगे सारे सम्बन्ध फीके हैं। भाई एक बार फिर नई घृणा से जुड़ा। मां के बारे में उसने सोचना नहीं चाहा। उस दिन उसने बूढ़े ससुर के आगे ‘ बहू का पर्दा’ त्याग दिया था। पर्दे में बहुत सी ज़रूरी बातें ढकी रह जाती हैं। गलतफहमी के मामले बनते हैं।

अपमान हुआ या खारिज कर दिये गये? ससुर हिलक – हिलक कर रोने लगे थे— बेटी मुझे डर लगता है‚ कहूंगा तो तुझे बुरा लगेगा — तुझे तेरे मायके वाले न फुसला लें और हमारी लड़की बेसहारा रह जायेॐ वे बहू की ओर यकायक नहीं देख सके‚ अभी तक आड़ की आदत थी। पर्दा खोलकर ससुर को ढांढ़स बंधाया‚ विश्वास दिलाया‚ साथ ही अपने पांव खोल दिये। यह प्रतिज्ञा भी — मैं अपनी बेटी को पढ़ा – लिखा कर बड़ी करुंगी।

जमींदार की संगत‚ जहां गांधी जी की बातें होतीं। जवाहरलाल के भाषण दोहराये जाते। कस्तूरी के लिये जो मुख्य सूत्र निकलता था‚ वह स्त्री शिक्षा थी। नेता लोग कितना जोर देते हैं इस बात पर‚ जिसको माता पिता झंझट और असुरक्षा समझते हैं। उसके भीतर पढ़ाई की आकांक्षा फिर जोर पकड़ने लगी। आगे बढ़ने की लगन दब गयी थी‚ खत्म नहीं हुई। मन ही मन आशंका भी कि गांव के लोग क्या कहेंगे? स्कूल यहां तो है नहीं‚ दो ढाई कोस पैदल चलकर जाना होगा। कैसा लगेगा‚ झोला हाथ में लेकर निकलूंगी? बहुओं का एक कायदा होता है‚ हंसिया रस्सा भी लेकर चले तो आंखें नीची झुका कर जाना होता है। गांव बाहर जाना हो तो किसी मर्द के साथ ही‚ भले ही वह दस साल का लड़का हो।

घर के आगे ओसारा। ओसारे में गांव के लोग। ससुर अपाहिज आदमी। मगर सबकी आपबीती सुनने वाला। धीरजवान श्रोता‚ सबके दुख दर्द पीने वाला‚ लोग दिन भर उसे अकेला न छोड़ते‚ कस्तूरी कौन से रास्ते स्कूल जाये? संकल्प किसको बताये? माना कि ससुर मना नहीं करेंगे लेकिन रजामंदी दिखायेंगे? वह रात दिन अपने आप से संघर्ष किया करती। पूछने की कल्पना करते ही अपना गला कांप जाता।

एक रात अपने से जूझ पड़ी — मैं ने ब्याह नहीं करना चाहा‚ किसी ने सुनी मेरी बात? मुझे बेच दिया गया‚ पूछा था किसी ने मुझसे? विधवा हो गयी‚ कौन है साथ? किसी को साथ लेने की शर्त है‚ फिर से एक पति की गुलामी में जाना। सोचते सोचते तल्ख हो उठी। मुझे लोग लज्जाशील नहीं मानेंगे। बस आंखों में भावाकुलता थी‚ मगर मन पर काबू करने की चेष्टा किये जा रही थी। यह कौन सी आग है‚ जिसे बुझाते सालों बीत गये‚ हवा पाते ही भड़क उठती हैॐ कि इतनी बातें मेरे कपाल में कहां से आ जुटती हैं? आशायें धकेलती रहीं‚ सपने द्वार खोलकर खड़े थे। कस्तूरी को यही लगा कि अब दुविधाओं में क्या सार? कोई पुकार रहा है — आगे आओ। बढ़ो आगे। अपने फैसले के साथ।

जिस दिन स्कूल में जाकर दाखिला लिया‚ वह तमाशा बन गयी। लोग ऐसे देखते ज्यों कोई पगली चली जा रही हो। लोग कहा करते — भई अजीब औरत है। मां ने भी खबर भिजवाई‚ तुझे दूसरा ब्याह रचाना है रचाले‚ चार दिन निंदा करके लोग चुप हो जायेंगे। यह रोज रोज का आना जाना… झोला लेकर मीराबाई क्यों बनी फिरती है? पेट पौंछनी औलाद कभी शुभ हुई है?

कितनी सावधानियां बरतीं‚ जेठ ससुरों की नजरें बचाईं। लेकिन पग पग पर सुनना पड़ता — दुधमुंही बेटी छोड़ीॐ अपाहिज ससुर छोड़ा। कॉपी किताबों की झोली लटका लीॐ खेत घर बरबाद होंगे। वह कैसे बताये कि तुम्हारी बातों से भी कड़वे लगते हैं ब्याह‚ जन्म‚ त्यौहारों के गीत। तुम्हारी दुनिया मेरे लिये नहीं… इस बात को किस पर प्रकट करे?

” अरेरे रेॐ बीमार बच्ची का भी ख्याल नहींॐ क्यों फूफा ह्य कस्तूरी के ससुरहृ गये बहू?”
एक चुप्पी थी‚ जिसमें गुरेज‚ असहायता और दुख का मिला जुला भाव सन्नाटे में तैर जाता। करुणा तरस और सहानुभूति लुटाने वालों ने उसके जीवन का यह अजूबा देखकर सारी सद्भावनाएं वापस ले लीं। वह थी कि अपनी अलौकिक दुनिया में रमती जाती। चौकन्नापन भी जाता रहा। सुख का अनिर्वचनीय स्वाद‚ जीवन का यह हिस्सा वह सुनहरे अक्षरों में लिख रही हो। घर लौटते ही चूल्हे की याद आती। जब सारा गांव खाकर सो जाता तब वह ससुर के लिये रोती बनाती।

खुद खाने बैठती तो पता चलता‚ दाल कच्ची रह गई। रोटी लख – जल गयी। दादा जी ह्य ससुरहृ ने कुछ नहीं कहा? गाय बछड़ों का जिम्मा खुद ले लिया। गठिया का रोगी टेढ़ी उंगलियों वाला झुका हुआ बूढ़ा दिल में क्या सोचता था‚ मालूम नहीं? दिन भर चारा – पानी‚ खेतों की देखभाल में रैंगती चाल से चलता जाता‚ लौट आता। लोग कराहते‚ दादा जी देखते न थे। सोच लेते थे कराहने के दिन नहीं निबाहने के दिन हैं। बहू कहीं चली गयी तो? खेती भी संग चली जायेगी। क्योंकि वह इतनी होशियार है कि बाकायदा दूसरा ब्याह भी नहीं करेगी। ससुर ने बहू के साथ मिल कर खेती के बारे में गंभीरता से सोचा। मिट्टी देखकर फसल बुवाई। अब न भूख थी न निर्धनता। गुजर बसर का अच्छा इंतजाम कर लिया था।

देश आज़ाद हुए साल गुज़र गये। अंग्रेजी राज गया‚ जमींदारी खत्म हुई। कस्तूरी ने उसी खेत की पैदावार में से दस गुना लगान जमा किया जिसका दसवां हिस्सा पति पुजा नहीं पाते थे और देस परदेस लुके छिपे फिरते थे। छिपने से मुश्किलें आसान होती हैं? घर की सामथ्र्य बढ़ रही थी‚ बेटी बड़ी हो रही थी। कस्तूरी ने उसके सामने उसके पिता का नाम कभी नहीं लिया‚ लेकिन वह पिता के बारे में पूछती। क्या बताये मां? इतना छोटा बच्चा उस लोक को जानेगा भी कैसे‚ जिसके बारे में कोई नहीं जान पाया।

वह पिता का ही गीत गाती— सरला के पिताजी हैं‚ मेरे तो हैं ही नहीं।… जबकि कस्तूरी ने सोचा था कि वह उस पर बाप की दुनिया की छाया तक न पड़ने देगी। क्योंकि उनके संसार में हमेशा अंधेरा ही रहा। अंधेरे में ही गुम हो गये। रहते तो क्या उसे पढ़ने देते? बेटी को पढ़ाने की बात सोचते? औरत खरीदने वाला बेटी बेचने में हिचकिचाता भला?

अचानक एक दिन बड़ा धक्का लगा। सावन का महीना था। न कोई मंगला चारण‚ न देवी वंदना। न सूरज चन्द्रमा की स्तुति न धरती मइया को प्रणाम। मटमैली पुतलियों पर कुछ बूंद आंसू। ज़माने की मार खाई चमड़ी पर आड़ी तिरछी लकीरें भीग उठीं। आस पास बैठी स्त्रियों के झुण्ड के बीच एक बूढ़ी गाती है — तीजन चरचा चंदना की चल रही जी‚ ए जी कोई मच्यो सहर में सोर‚ सिर बदनामी चंदना बेटी ले रही जीऽऽ

गांव की पुरोहितानी – खेरापतिन‚ जिसके कंठ में सैंकड़ों गीत बसे हैं। लोक कथा और गीत कथाओं के खजाने की मालकिन कस्तूरी की बेटी मैत्रेयी के लिये विलक्षण स्त्री है। वह स्कूल छोड़ कर दिन भर बुढ़िया के आगे पीछे घूमती है। खेरापतिन भी इन दिनों अपनी गायिकी का नया वारिस खोज रही है। उसकी तलाश मैत्रेयी पर आकर रुक जाती है। क्योंकि बिना भाई की बहन अपने पिता की खेती पर ताउम्र रहेगी। ब्याहे जाने पर उसका पति खेती का वारिस बनेगा। अतÁ कथा भागवत‚ वृष्टि – अनावृष्टि के दिनों में मनुष्य के बचाव के गीत गाती‚ देवता मनाती हुई दादी जहां जहां से गुज़रती छोटी सी मैत्रेयी सुई के धागे सी साथ साथ होती। जहां दादी बैठती‚ वह अपना फ्रॉक घुटनों में फंसा कर बगल में बैठ जाती। बूढ़ी के कण्ठ के साथ अपना कंठ जोड़ती हुई तन्मय हो जाती। दादी की सांस टूटती‚ वह लय संभाल लेती।

स्कूल मास्टर ने शिकायत की‚ कस्तूरी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया।उसकी बेटी को बूढ़ी खेरापतिन अश्लील गीत गा गाकर दीक्षित किये दे रही हैॐ तीजों के दिन थे। बादल रिमझिम बरस रहे थे। गांव में नई ब्याही लड़कियों से लेकर बूढ़ी बेटियां तक ससुरालों से आ चुकी थीं। मैत्रेयी स्कूल से मुकम्मल तौर पर गैरहाजिर चल रही थी। मां के इगलास जाते ही वह पोखर वाले मैदान में खड़ी होकर गड़रियों के बालकों के साथ भेड़ें चराती है। शाम को गांव आने वाली बुआ – बीबियों की लाई हुई साबौनी और घेबर की आस में चामड़ मइया की परिक्रमा करती है। आंख मूंद कर हाथ जोड़कर।

वह हरियाली का उत्सव मना रही थी। मां का मन रेगिस्तान हो चला। मास्टर ने निराश होकर कहा — चाची‚ वह अपने पिता पर गयी है। पढ़ने वाली नहीं। फिर तुम पढ़ लो या उसे ही पढ़ा लो। बेचारे बाबा कहां कहां तक पीछा करें? भागते बच्चे को बूढ़ा पकड़ पायेगा?

पिता की बात पर कस्तूरी को पति की बात याद आयी — सुनी है मैत्रेयी की कथा? जानती है तू मैत्रेयी कौन थी? याज्ञवल्क की पत्नी‚ जिसने पति से धन धान्य नहीं ज्ञान मांगा था। खुर्जा वाले पंडित जी कहते थे न‚ यह ज्ञान की ज्योति जगायेगी। आज होते तो देखते कि वह तो खेरापतिन के साथ चंदना गा रही है। उसे संग संग बांधे फिरुं तो मेरा क्या हो? दसवीं पास करने में अभी एक साल और रहता है। तुम तो चल दिये उसे मेरे गले मढ़ करॐ गुस्से की धमक ने माथा जला डाला। कस्तूरी गीत गाती औरतों का साथ कब का छोड़ चुकी। निठुराई इतनी बढ़ी कि वह औरतों का झुंड चीरती हुई गीत की लहरों को तोड़ने लगी। भोले से गले वाली मैत्रेयी को खींच – घसीट कर समूह के बाहर ला पटका। बांह कसते हुए बाल झिंझोड़ डालेॐ पर हाय री ढीठ लड़की‚ स्वर नहीं तोड़ रहीॐ

मां ने कंधा धर लिया। उसकी लय चिंघाड़ में बदल गयी।
“तू चंदना गायेगी‚ ऐं? चंदना सीखेगी एं? कुंआरी लड़कियां चंदना सुनती भी नहीं। चल घर चल।” धमूके पर धमूका पीठ तोड़ रहा था।
मैत्रेयी को काठ मार गया। कहां गा रही थी। अब मुंह से चूं तक नहीं निकल रहा। मां ने कोठे में बन्द कर सांकल चढ़ा दी। वह हांफ रही थी। पीटकर पिटने से ज़्यादा तकलीफ होती है।

मां कहां जानती थी कि यह छोटी सी लड़की को पढ़ने से उतनी ही नफरत है‚ जितनी उसे चाहत है। जब भी किताबों की बात चलाती‚ स्कूल जाने का तकाजा होता‚ मैत्रेयी मां को कड़ुवी नजरों से देखती। उसके भीतर एक फांक बन गयी थी। समय समय पर मां जिसमें नमक भर देती। तब जब वह दूसरी मांओं से अपनी माताजी की तुलना करती — मेरी माताजी क्यों हैं? अम्मा या मां क्यों नहीं है? वे घर में खाना बनाती हैं‚ दही बिलोती हैं‚ आंगन लीपती हैं‚ बहू बनकर रहती हैं। मां वे ही होती हैं। जिनसे उनके बच्चे लड़ते हैं। चिल्ला चिल्ला कर रोटी मांगते हैं। वे खेलने की कहती हैं‚ पढ़ने की भी कहती हैं‚ पर माताजी की तरह नहीं।… मैं गाऊंगी‚ खेलूंगी‚ खाऊंगी। तब न पढ़ूंगी‚ नहीं तो नहीं पढ़ूंगी‚ नहीं पढ़ूंगी।

लेकिन मैत्रेयी गा न सकी। खेल भी नहीं सकी। बस पढ़ी और पढ़ी। क्योंकि मां की नज़रों ने उसे इस कदर घेरा कि लगता दायें – बायें ‚ पीछे – आगे उनकी गहरी आंखें चिपकी हैं। उन आंखों का डरान में स्थायी रूप से जम गया‚ जैसे किसी मालिक का जम जाता है।

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