जंगल में चुनाव
अनकपुर जंगल में बदली-बदली सी बयार बह रही थी। चुनाव की घोषणा होते ही जंगल में कुछ अलग सा माहौल बनता नजर आ रहा था। ना तो कोई शिकारी पशु चारा खाने वाले निरीह पशुओं को बेवजह तंग कर रहा था और ना ही किसी जानवर की लाश सुबेरे कहीं पड़ी मिलती। सभी नेता और पार्टियां इसी उधेड़बुन में थे कि इस बार घासी तबका किधर वोट देगा। ‘घासी’ यानी घास खाने वाले पशुओं का तबका। इनमें हिरण, बारहसिंघा, जंगली भैंस, गाय, बकरी, भेड़ इत्यादि शामिल थे। इनका बाहुल्य होने के बावजूद इनमें एकता बहुत कम ही दिखती थी। पिछली बार जब भेड़ियों के एक समूह ने कुछ शावकों की नृशंस हत्या कर दी तो यह सभी एक साथ आते हुए दिखाई दिए थे। अनकपुर में बड़ा आंदोलन हुआ, पोस्टर बैनर दिखाए गए और एक मंत्री भेड़िये से तो धक्का-मुक्की भी की गई।
इसका परिणाम यह हुआ कि एक अवकाश प्राप्त बंदर जज की अध्यक्षता में जांच कमेटी बैठा दी गई। इस कमेटी को जांच के लिए जंगल का एक बेहतरीन होटल दिया गया। रोज सुबह केले, आम, अमरूद से भरी टोकरी उनके कमरे के सामने रख दी जाती थी। जांच में जितना समय लग सकता था उतना समय बंदर ने लगाया। उसके बाद बंदर ने अपनी सीलबंद रिपोर्ट प्रधानमंत्री शेरू को दे दी। जंगल की आंतरिक सुरक्षा की दुहाई देते हुए इस रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। शावकों की माताएं इस रिपोर्ट के लिए रोज धरना प्रदर्शन करती थीं। पर आजतक ‘क़ानून अपना काम करेगा’, ‘दूध का दूध और पानी का पानी किया जाएगा’, और ‘दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा’ के खोखले आश्वासनों के अलावा उनके हाथ कुछ और नहीं लगा।
अब चुनाव की आहट से ये आंदोलन भी जोर पकड़ रहा था। आते जाते विपक्षी नेता इन धरना प्रदर्शनों में शामिल होने लगे थे। जंगल के आंदोलनजीवियों को चुनाव की चिंता हो गई थी। सब अपनी-अपनी राजनीतिक गुणा गणित में व्यस्त हो गए थे। सत्तारूढ़ पैंथर पार्टी ने नई घोषणाओं की बौछार लगा दी। आचार संहिता लगने में अब ज्यादा दिन शेष नहीं थे। चुनाव आयोग गजराज के पास था जिनका सभी सम्मान करते थे। गजराज की सख्ती से चुनाव में मनमानी कम होती थी। एक बार बूथ लूटने की कोशिश करने वाले लकड़बग्घों के एक गिरोह के सरदार को सूँड़ से उठा कर दूर फेंका तो जंगल में संदेश चला गया की चुनाव में गुंडागर्दी नहीं चलने वाली। इस घटना के बाद डरे हुए छूटभैये गुंडे बूथ लूटने का ठेका लेने से साफ़ मना कर देते थे। जानवर हो या आदमी, जान सबको प्यारी होती है।
प्रधानमंत्री शेरू ने जंगल की हर प्रजाति के लिए उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में जा जाकर नई घोषणाओं की सौगात दी। जैसे भेड़ों के चंदन बाड़ी में दादी भेड़ों के लिए विश्रामालय, मेमनों के लिए मिड-डे मील, दिव्यांगों के लिए पेंशन में तीन समय की उन्नत घास, जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य और सुरक्षा गारंटी जैसी योजनायों की झड़ी लगा दी गई। ऐसी मनभावन योजनाओं की घोषणा सुनकर युवा भेड़ों की आंखों में चमक दिखी तो सभा के बाद एक शायराना दादी भेड़ ने अपनी तोतली जबान में दार्शनिक अंदाज में कहा:
“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है”
जंगल तंत्र के एक प्रमुख स्तंभ, ‘जंगल टाइम्स’ ने चुनावी विज्ञापनों को प्रमुखता से छापना शुरू कर दिया था। कहीं किसी परियोजना का उद्घाटन, कहीं शिलान्यास और कहीं शुद्ध जानवर ‘प्रजातिवाद’ से प्रेरित विज्ञापनों की बाढ़ सी आ गई थी। संपादक सियार ‘होशियार’ ने मौके को समझ कर विज्ञापनों के दाम 2 से 5 गुने तक बढ़ा दिए थे। इस बार के चुनाव में वह ‘जंगल तक’ की सयानी लोमड़ी से कमाई और टीआरपी, दोनों में आगे रहना चाहता था। आज के मुख्य पृष्ठ पर शेरू की फोटो एक क्यूट से शावक के साथ सेल्फी लेते हुए लगाई थी। इस फोटो में विधवा मां हिरणी भी थी जिसके पति की हत्या का आरोपित तेंदुआ अब पैंथर पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहा था।
चुनाव में शिकारी जानवरों ने मुँह में लगा खून तालाब के गंदे पानी से धोकर एक छद्म मुस्कान चेहरे पर ओढ ली थी। चुनाव प्रचार के दौरान ताजा मांस देख कर अगर किसी भेड़िए के मुँह से लार टपकने लगती तो पार्टी के कार्यकर्ता उसे सचेत कर देते थे। पार्टी अधिवेशन में हिरण, भेड़, गाय, भेड़ आदि के खाने पीने का विशेष इंतजाम किया गया। सब को भरपूर ताजी घास, पत्ते, फल खिलाया और मजे की बात ये कि खाना परोसने वाले भेड़िए, चीते, तेंदुए उनके सामने दुम हिला रहे थे। ऐसा इसलिए क्योंकि घासी जानवरों का वोट बहुत कीमती था। इस बार लड़ाई कांटे की थी और किसी भी घासियों का एकमुश्त वोट पासा किसी भी तरफ़ पलट सकता था।
शिकार की गोधूलि बेला में कुछ और ना करने को होने के लिए दो भेड़िए चिलम लेकर बैठे और पुराने जमाने की यादें ताजा करने लगे। एक ने कहा, ‘यार वह भी कोई जमाना था जब चुनाव में सभी जानवर मुद्दों पर वोट किया करते थे। आज तो सब वर्गों में, प्रजातियों में बंटे हुए हैं और प्रलोभनों पर वोट करते हैं।’ दूसरे ने लंबी चुस्की लेकर कहां, ‘अरे यार हम फिर भी उन दो टांग वालों से अच्छे हैं। वहां तो कागज के नोटों और शराब पर वोट पड़ जाते हैं।’
चुनाव आते ही सेलिब्रिटी जानवरों की पूछ भी बहुत बढ़ गई थी। इनमें बल्लू, बघीरा और शेर खान जिन्होंने मोगली फिल्म और टीवी सीरियल में काम किया था, उन्हें अपने-अपने पाले में करने के लिए पार्टियां बहुत प्रयास कर रही थी। इस बार शेर खान ने ऐन चुनाव से पहले पाला बदल लिया था और ‘अनकपुर पुनर्निर्माण पार्टी’ को ज्वाइन कर लिया था। यह पार्टी राइट विंग जानवरों की पार्टी थी जो इस बात में विश्वास करते थे कि अगल-बगल के जंगलों पर हमला करके वहां के संसाधनों का उपभोग भी अनकपुर के हिस्से में आना चाहिए जैसा अनकपुर के प्राचीन स्वर्णिम काल में होता था। इनमें एक वर्ग ऐसा भी था जो दो टांग वालों से कट्टर नफरत करता था और अपनी सारी समस्याओं की जड़ उन्हें ही मानता था। उनके विचार से सभी जानवरों को इकट्ठा होकर शहर की तरफ कूच करना चाहिए और अपने खोए हुए साम्राज्य को वापस जीतना चाहिए। वो साम्राज्य जहां मीलों तक चरने और घूमने की आज़ादी होती थी। इसके लिए चाहे गली-गली में दो टाँग वालों से गोरिल्ला युद्ध ही क्यों ना करना पड़े।
पैंथर पार्टी के अनुभवी शेरू ने इस दल के प्रभाव को कुंद करने के लिए ही अभी पिछले हफ्ते ‘चार टांग पशु एकता’ का एक सम्मेलन बुलाया था। और इस सम्मेलन का उद्घाटन एक विधवा भेड़ से करवाया था। इसमें शावकों के साथ सेल्फी खिंचवाने की होड़ सी लगी थी। कुल मिलाकर सारी जद्दोजहद घासी जानवरों के वोटों की ही थी और उन्हें किसी भी तरह से अपने पाले में करने के लिए सभी पार्टियां आचार संहिता लगने से पहले प्रलोभनों की बौछार सी लगा रही थी। घासी जानवर कभी इस पार्टी को तो कभी उस पार्टी को वोट करके हमेशा अपने जीवन को बेहतर होते देखना की इच्छा रखते थे पर चुनाव होने के बाद सारा जंगल वापस उसी ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाले ढर्रे पर देर सबेर वापस आ जाता था। 4 साल तक उनकी कोई सुध नहीं लेता था और फिर चुनाव की घोषणा होते ही उन्हें लुभाने का यह सारा उपक्रम पुनः पूरे जोशो-खरोश से पुनः शुरू हो जाता था। चुनाव जीतने के बाद भाईचारा गायब हो जाता और अधिसंख्य जानवर केवल ‘चारा’ बन कर रह जाते।
अनकपुर दिल्ली का ही एक प्राचीन नाम है। और राजनीति चाहे वह ‘दो टांग’ वालों के शहर में हो या ‘चार टांग’ वालों के जंगल में, उसकी प्रवृति हमेशा लोभ, संवेदनहीनता और मौकापरस्ती की ही रहती है।
“भेड़ियों ने मेमने को पीठ पर खूब घुमाया, शेरों ने गायों को भर पेट चारा खिलाया, चुनाव का सर्कस जब से आया है शहर में, तेंदुए ने रक्तदान का फोटो फेसबुक में लगाया।
बिल्ली ने कबूतरों को पंजों से दाना चुगाया,
चीते ने शावकों के लिए घास का भोज कराया
और क्षेत्र के जलचरों में छवि सुधारने के लिए
घड़ियाल ने बापू समाधि पर खूब आंसू बहाया
राजनीति के टेढ़े दांव वोटर भोला समझ ना पाया, नफरत की खेती बोई और ख़ंजर वाली फसल उगाया,
बत्ती का वो लाल रंग तो, दंगों के ही खून से आया,
रोशन दिल्ली राह तो देखी, जलते घर कोई देख न पाया।”