|
यात्रा
वृत्तान्त
यात्रा कटार की धार पर
वह जब से पेंशनधारी हुए, उनकी इच्छा हुई कि अब देश घूम लिया जाए। अब तक
वह विदेश तो बहुत घूम चुके थे, लेकिन देश नहीं देखा। वह इजरायल-फिलीस्तीन
सीमा पर गाजा स्ट्रिप में शांति-सैनिक रूप में अपने अनुभव सुनाते। यह कुछ
छुटपन के सड़क पर गाड़ियों गिनने के शौक जैसा था, जब वह इजरायल और
फिलिस्तीन की आपसी रॉकेटबाजी गिन रहे होते। नॉर्वे जैसे शांतिप्रिय देश
का उपयोग दुनिया के शक्तिशाली देश ऐसी अंपायरिंग के लिए ही तो करते हैं।
उनका फ्लोरिडा में भी एक फ्लैट है, जहाँ वह छुट्टियाँ मनाते रहे हैं।
ग्रीस के क्रेटा द्वीप पर तो उनको स्थायी बसेरा है ही, जहाँ वह नंगे लेट
कर धूप सेंकते रहे हैं। वर्षों पुलिस की नौकरी कर वह चरस तस्करों से भी
रू-ब-रू रहे हैं। वह शान से उस इतालवी माफ़िया का नाम लेते हैं, जिसके
आलीशान बंगले पर वह वाइन पी चुके हैं। नॉर्वे के यह रईस अब मेरे बॉस हुआ
करते हैं, जो इंटरनेट पर मछलियाँ पकड़ते-पकड़ते मुझे पकड़ लाए।
दरअसल, उन्होंने ताम-झाम के साथ एक स्वास्थ्य-केंद्र बना ली थी, सरकार से
करारनामा करवा लिया था, और अब मेरे जैसे चिकित्सक चाहिए थे। मैं भी
भारतीय निजी अस्पतालों की कॉरपोरेट तिकड़मबाजी से उकताने लगा था। मेरा
कार्य शल्य-चिकित्सकों के लिए थाल पर मरीज सजा कर देना था। यह कार्य
जितना अकादमिक रूप से समृद्ध था, उतना ही नैतिक रूप से पतनशील होता जा
रहा था। उत्तर कर्नाटक से गरीब मरीजों को न जाने किस तरह के दलाल पकड़ कर
लाते, उन्हें वाजपेयी आरोग्य स्कीम के अंतर्गत पंजीकृत करते, और उनके
मर्जों की कुंडली निकालने का काम हम जैसे चिकित्सकों का होता। ऊपर बैठा
कॉरपोरेट सामंत सरकार से वसूली कर चिकित्सक नौकरों में उनका हिस्सा बँटवा
देता। इस महान् समाज-सेवा से न जाने कितने गरीब मरीजों को नवजीवन मिल
जाता। यह पुण्य ही तो है। किंतु हम कभी-कभी पुण्य करते-करते भी थक जाते
हैं, और इस पाप-पुण्य के तराजू से अलग, बस काम करना चाहते हैं। जैसे बढ़ई
प्रेम से कुर्सियाँ के पाये तराशते हैं, जैसे एक रिक्शेवाला रोज रिक्शा
खींचता है, या जैसे एक शिक्षक रोज अपने शिष्यों को पाठ्यक्रम के अनुसार
पढ़ाते हैं। कुछ ऐसा ही।
चिकित्सकों को भगवान बनाने के फेर में इंसान ही कहाँ रहने दिया गया?
कलकत्ता के दुर्गा-पूजा में किसी मूर्तिकार ने महिषासुर के स्थान पर निजी
अस्पताल के चिकित्सकों की मूर्ति लगा दी थी। हम सबने काला पट्टा लगा कर
विरोध किया था। लेकिन, प्रश्न तो यह है कि ऐसी मूर्ति बनाने की नौबत आयी
क्यों? खैर, मैं तो अब इस प्रश्न से मुक्त होकर और अपने देश को दगा देकर
दूर एक ध्रुवीय देश में आ गया। यहाँ की सरकार ने भगवान तो दूर, नाम से
डॉक्टर की पदवी भी छीन ली। वे कहते हैं कि पी.एच.डी. के बिना आप डॉक्टर
की पदवी न लगाएँ। अब मेरे चैम्बर के बाहर उसी नाम की पट्टी लगी है, जिस
नाम को कभी बचपन में पाठ्यक्रम की किताबों पर भूरा गत्ता लगा कर, सफेद
चिप्पी लगा कर अंकित करता था। उस नाम के आगे लगा ‘डा.’ अब नहीं रहा। वह
कन्याकुमारी के उस गोंडवाना जंक्शन पर कहीं बह गया, जहाँ मैं नॉर्वे आने
के ठीक पहले गया था।
मेरे पेंशनधारी बॉस ने लगभग बीस पृष्ठों की एक रंग-बिरंगी पुस्तिका
पकड़ायी, जिसके आवरण पर एक मनोरम दृश्य था। पूछा, “यहाँ चलोगे?”
मैंने पुस्तिका हाथ में लेकर, यूँ ही पन्ने पलटते हुए कहा, “चल सकते
हैं।”
यहाँ दो बातें स्पष्ट कर दूँ। एक तो यह कि पेंशनधारी भी बॉस हो सकते हैं,
और दूसरा यह कि मैंने कुछ भी स्पष्ट कहना कब का त्याग दिया। मेरे उत्तर
अब एक शंका के साथ ही होते हैं। ‘जाऊँगा’ या ‘नहीं जाऊँगा’ न कह कर, ‘चल
सकते हैं’ कहना। कोई चाय के लिए भी पूछे तो ‘पी सकता हूँ’। किसी ने कुछ
लिखने कहा तो ‘लिख सकता हूँ’। मरीज बचेगा या नहीं? बच सकता है!
उन्होंने कहा, “किसी कार्यदिवस को चलेंगे। छुट्टियों के दिन भीड़ बहुत
होती है। तुम अपने मरीजों के अपॉइंटमेंट देख कर बता दो।”
मैंने अपने मोबाइल पर कैलेंडर देख कर कुछ गंभीर मुद्रा में कहा, “दो
हफ्ते तक तो कोई संभावना नहीं। हाँ! उसके बाद का सोमवार मुमकिन है।”
“ठीक है। रविवार की दोपहर निकलेंगे। रात नीचे बिता कर, सुबह पहाड़ चढ़ना
शुरू करेंगे। कुछ दस किलोमीटर की चढ़ाई है, शाम तक वापस लौट आएँगे।”
“दस किलोमीटर की चढ़ाई? यानी बीस किलोमीटर का सफर? यह तो कठिन है।”
“जब मैं बासठ वर्ष की उम्र में जाने को तैयार हूँ। तुम तो अभी जवान हो।”
“आप तो पहाड़ी आदमी हो। पूरा जीवन पहाड़ों में बीता। मैं ठहरा भारत के
मैदानी इलाकों का पढ़ाकू। क्रिकेट जैसा खेल हो, तो खेल लूँ। यह पहाड़
चढ़ना बड़ा ही दुष्कर कार्य है। खैर, अब तारीख दे दी है तो अपॉइंटमेंट
कैंसिल नहीं करूँगा।”
घर आकर उस पुस्तिका को पढ़ने लगा तो देखा कि यह दुनिया के लोकप्रिय
पहाड़ी-यात्राओं में है। यह ‘रिज़’ कहलाता है, जिसकी व्याख्या साहित्यकार
हेनरिक इब्सन ने कुछ यूँ की है, “यह चार मील लंबी पहाड़ की धार किसी कटार
की धार जैसी नजर आती है। ग्लेसियरों, भूस्खलनों, और खाईयों के मध्य एक
धूसर पथरीली धार, जिसके दोनों ओर चार हज़ार फीट की गहराई में दिखती हैं
धीमी-धीमी बहती जल-धाराएँ।”
नियत दिन आने से पहले मुझे वह फोन कर पूछते रहे कि जूते, बरसाती कपड़े
आदि तैयार रखना। बारिश की संभावना है, तो पहाड़ों पर फिसलन होगी। जरा भी
पैर फिसला, और सीधे खाई में। मुझे समझ नहीं आया कि पूछ रहे हैं या डरा
रहे हैं। इस मध्य एक मराठी वीरांगना से मुलाकात हुई, जो यह यात्रा कर
चुकी थी। मैंने जो थोड़ी-बहुत पर्वतारोहरण के रैप्लिंग आदि सीखे हैं, वह
दक्कन के पुरंदर पहाड़ियों में ही सीखे हैं। मराठों में यह आनुवंशिक गुण
ही है। कभी छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब की सेना को इन्हीं पहाड़ों में खूब
छकाया था।
उस युवती ने कहा, “कठिन तो है, मगर तुम कर लोगे। कुछ हिस्सों में बंदर की
तरह चारों भुजाओं का प्रयोग कर ऊपर चढ़ना है। कुछ-कुछ टॉम क्रूज की तरह।”
उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि ‘तुम कर लोगे’ में ‘तुम’ का अर्थ बंदर
था या टॉम क्रूज। जो भी हो, इन दोनों के डराने के बाद लगा कि ये लोग मेरी
परीक्षा ले रहे हैं। मैंने भी अपने असले तैयार कर लिए, और उस ज़ंग के लिए
कमर कस ली।
रविवार को सुबह क्रिकेट खेल कर मैं सीधे मैदान से ही इस यात्रा के लिए चल
पड़ा। खिलाड़ी भेष देख कर बॉस ने भी मुस्किया कर कहा, “तुम तो भई खिलाड़ी
निकले। ये पहाड़-वहाड़ तो चुटकियों में निपटा दोगे।”
मैं भी तन गया कि यह सब तो मामूली यात्राएँ हैं, मैंने तो बिहार की बाढ़
में कंधे तक पानी में दलदली मिट्टी पर चल कर रास्ते पार किए हैं। हाँ!
एडवेंचर के नाम पर लक्ष्यगत यात्राएँ कुछ कम की होगी। फिर भी, अपने
पूँजीपति बॉस से कुछ अधिक ही की होगी, जिनको नॉर्वे में साठ वर्ष बिताने
के बाद यह पहाड़ याद आया।
यात्रा की शुरुआत में ही एक बारहवीं सदी के बंद गिरजाघर को देखने हम
रुके। यह उस काल का गिरजाघर था, जब वाइकिंग युग समाप्त हो रहा था, और
ईसाई युग प्रारंभ हो रहा था। पुराने नॉर्स देवताओं जैसे थोर और ओडिन की
प्रतिमाएँ नेस्तनाबूद हो रही होंगी, और ये गिरजाघर बन रहे होंगे। उस
गिरजाघर में खून के धब्बे तो नहीं नजर आये। पहाड़ों के मध्य यह लकड़ी की
बनी संरचना भला उन दुर्दांत वाइकिंगों को क्या भयभीत कर पाती होगी? सत्य
तो यह है कि रक्तपात से अधिक ईसाई तांत्रिक पद्धतियों का प्रभाव था कि
धर्मांतरण हो गया।
“क्या यह कैथॉलिक चर्च है?”, मैंने कौतूहल में पूछा।
“नहीं। प्रोटेस्टेंट ही है।”
“लेकिन, उस वक्त तो लूथेरन विभाजन हुआ ही नहीं था।”
“यह तो मालूम नहीं, लेकिन इस देश में कैथॉलिक गिरजाघर कम ही हैं।”
मेरी रुचि इतिहास में अपने बॉस से अधिक है ही। लेकिन, उनका कहना भी ग़लत
न होगा। ये पहले कैथॉलिक गिरजाघर होंगे, जो बाद में लूथेरान गिरजाघर बन
गये होंगे। क्या पता, इन सब से पहले वे वाइकिंग मंदिर रहे हों? धर्मयुग
बदलते रहते हैं, इनके अनुयायी बदलते रहते हैं, लेकिन इनकी साक्षी यह
प्रकृति, ये पहाड़, ये नदियाँ, ये ग्लेसियर कितने बदल गए होंगे?
गिरजाघर से थोड़ी ही दूरी पर एक पत्थर से बनी आदमकद मूर्ति थी, जो किसी
बीसवीं सदी के रंगमंच अभिनेता की थी। वहाँ मुझे इसलिए लाया गया था
क्योंकि यह मेरे बॉस के लंगोटिया यार ने बनाया था। उन्होंने नीचे लगी
लौह-पट्टिका को हाथ से साफ करते हुए उनका नाम दिखाया। मैंने पूछा, “अब यह
मूर्तिकार कहाँ रहते हैं?”
उन्होंने कहा, “वह यहीं गाँव में रहता है, लेकिन नॉर्वे के सबसे मशहूर
मूर्तिकारों में है। मैं उसके घर तो वर्षों से नहीं गया लेकिन हम स्कूल
में साथ थे। तुम्हें अब अपने पुश्तैनी घर ले चलता हूँ, जो इसी गाँव में
है।”
“आपका पुश्तैनी घर? कभी बताया नहीं आपने?”
“इस घर में अब कोई नहीं रहता। मैं हर महीने दो बार आकर रंग-रोगन आदि कर
देता हूँ, घास काट देता हूँ, बर्फ साफ कर देता हूँ। वहाँ इंटरनेट नहीं।
बिजली-पानी है बस।”
हमने कुछ खाना खरीद लिया, और उस पुश्तैनी घर पहुँच गए। यह लगभग बीच जंगल
में था, जैसे आदम-युग का कोई कबीला यहाँ रहता हो। आस-पास दूर-दूर तक बस
जंगल, कहीं कोई घर नहीं। मुझे ताज्जुब हुआ कि यहाँ कोई क्यों रहना
चाहेगा? वहाँ एक लकड़ी का घर बना था, और दो काठ के ही गोदाम जैसे बने थे।
उन्होंने कहा, “मेरे दादा लकड़ियाँ काटते थे, पशु पालते थे और जंगली
जानवरों के माँस काट कर बेचते थे। मेरे पिता ने भी कुछ वर्षों तक यह
किया, लेकिन फिर वह शहर चले आए। हम यहाँ कभी रहे नहीं।”
“आपके दादा किसान होंगे।”, मैंने कुछ सोच कर कहा।
“हाँ। मगर यहाँ खेती तो होती नहीं। लकड़हारा कह लो।”
“आपने यह घर संभाल क्यों रखा है? जब दो पीढ़ियों से कोई रहता नहीं।”
“तुम्हारा कोई पुश्तैनी घर है?”
“है तो सही। गाँव में। मेरे पिता रहते हैं।”
“अब तुम नॉर्वे आ गये। उस घर का क्या करोगे?”
मैं उनका आशय समझ गया। कोई रहे न रहे, मुझे उन जड़ों तक लौट कर उन्हें
सींचते रहना होगा। चाहे वह किसी वीरान जंगल में ही क्यों न हो।
वहाँ से निकल कर हम ‘रिज़’ के तल में पहुँचे, जहाँ एक रैन-बसेरा में हमें
रात बितानी थी। उस रात वहाँ हमारे अलावा मुश्किल से दस लोग होंगे। सभी
पेंशनधारी। कार्यदिवस के दिन भला और कौन पहाड़ चढ़ने आता है? अमूमन होटल
वाले आज-कल तमाम कोरोना ज्ञान देने लगे हैं, कई सुरक्षा-व्यवस्थाएँ होती
हैं। लेकिन, जब लोग ही न हों, तो क्या कोरोना? जब पता लगा कि मैं
चिकित्सक हूँ, फिर तो इस संबंध में कोई बात ही नहीं की।
हम दोनों को अलग-अलग कमरे मिल गए। कमरा क्या था, किसी ट्रेन का
फर्स्ट-क्लास बॉगी सरीखा एक डब्बा था जिसमें एक के ऊपर एक जोड़ कर चार
बिस्तर लगे थे। बाकी तीन बिस्तर खाली थे। खिड़की से बाहर वह नदी दिख रही
थी, जिसके किनारे वह चार मील का धारीदार पहाड़ किसी दीवार की तरह उत्तुंग
खड़ा था। हमें इसी की तो चढ़ाई करनी थी।
कमरे में सामान रख कर हम नीचे भोजनालय में आ गये। वहाँ बैठे अन्य
पर्यटकों ने हमारा अभिवादन किया। हम सबने एक-दूसरे से परिचय किया और वे
इस बात पर प्रसन्न थे कि आज उनके मध्य कोई हिमालय के देश से भी आया है।
“क्या आप भी इस पहाड़ पर चढ़ने आए हैं”, मैंने एक बुजुर्ग-दंपति से पूछा।
उनकी उम्र सत्तर से तो अधिक होगी।
“अब ऊपर तक तो नहीं जा पाते। लेकिन, कुछ छोटे पहाड़ चढ़ने जाते हैं। हम
तो शिकार करने आए हैं।”
“शिकार? जानवरों का?”
“नहीं। पक्षियों का।”
“बुरा न मानिएगा। यह तो ग़लत है।”
“अगस्त-सितंबर के महीने में ही वैध है। हम आ जाया करते हैं। बंदूक का
थोड़ा रियाज हो जाता है।”
उन्हें मेरे ग़लत कहने का अर्थ समझ न आया, या वह इसे ग़लत समझ ही नहीं
रहे थे। यह देश ही शिकारियों का है, जहाँ आज भी मछलियाँ और पशु ताजा मार
कर ही खाना पसंद करते हैं। स्कूली बच्चों को पाषाण-युगीय हथियारों से
शिकार की बाक़ायदा शिक्षा दी जाती है। मेरी बेटी एक दिन खुशी से उछलती
आयी कि हमने आज एक ‘एल्ग’ (बारहसिंगा जैसा पशु) को मार कर पकाया। ऐसी
वीभत्स शिक्षा का क्या अर्थ है? लेकिन, अपने बॉस की वह बात मुझे याद आयी।
यहाँ कहाँ खेती मुमकिन है? यहाँ तो लकड़हाड़े और शिकारी ही
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बसते आ रहे हैं। अब धान-गेहूँ आयात हो जाता है, लेकिन यह
यहाँ की मिट्टी से अंकुरित तो नहीं। यक्षप्रश्न तो यह है कि आखिर सदियों
के इस शिकारी मानसिकता के बावजूद यहाँ पशु-पक्षियों की बहुलता कैसे? इसका
प्रतिप्रश्न शायद यह है कि बिना नसबंदी या बंध्याकरण के इस देश की
जनसंख्या कम कैसे?
जब हम बातें कर रहे थे, तो एक और बुजुर्ग साथ आकर खड़े हो गये। वह
डील-डौल से सेवा-निवृत्त फौजी लग रहे थे।
उन्होंने बुलंद आवाज़ में पूछा, “तुमलोग ‘रिज़’ की चढ़ाई करने आए हो?”
“हाँ! आप यह चढ़ाई कर चुके?”
“मैं तो इस हफ्ते में दो बार चढ़ चुका। कल भीड़ कम होगी। पाँच-छह घंटे
में निपट जाएगा।”
“पाँच-छह घंटे में बीस किलोमीटर? आप तो फिट लगते हैं, हमने ऐसी यात्राएँ
कम की है।”
“फिट? मेरे दोनों घुटने और एक कूल्हा कृत्रिम है। धातु का बना है।
तुम्हारा भी कुछ नकली है?”
“आप इन नकली घुटनों और कूल्हे से यह पहाड़ चढ़ गए? फिर तो हमें हिम्मत
मिल रही है।”
मैं एक पल के लिए सन्न रह गया था। ये साठ-सत्तर के जीर्ण-शीर्ण जोड़ों
वाले बुजुर्ग आखिर हफ्ता भर इन पहाड़ों का आरोहण कर क्यों रहे हैं? ऐसा
भी नहीं कि ऊपर कोई बदरीनाथ या केदारनाथ है, जिससे पुण्य मिलेगा। इस उम्र
में तो मैं आराम से गाँव में बैठ गप्पें हाँकना पसंद करूँगा या कोई
तीर्थयात्रा कर लूँगा।
अगली सुबह हम अपने कंधे पर बस्ता डाल कर निकलने लगे। मेरी आदत है कि वहाँ
किसी पर्यटक डायरी पर दो टूक लिख दूँ। डायरी के केंद्र में एक कलम खोंस
रखी थी, जहाँ अंतिम पर्यटक ने अपनी टिप्पणी लिखी होगी। मैं जैसे ही उस
पन्ने पर पहुँचा तो चौंक गया। वह टिप्पणी देवनागरी में लिखी थी,
“क्रिस्टिना! सफल र सुभाष! एक दिन को हिडाई र रोमांचक यात्रा। अविस्मरणीय
र अद्भुत रहयो। सबैलाई धन्यवाद। नमस्ते।”
इस टिप्पणी को पढ़ते ही चेहरे पर चवन्निया मुस्की आ गयी। एक भारतीय के
शिखर पर पहुँचने से पहले, इतिहास में एक बार फिर कोई नेपाली चढ़ चुका था।
वह भी नॉर्वे के इस सुदूर पहाड़ पर, ठीक मुझसे एक दिन पहले। यह लिपि मुझे
चिढ़ा रही थी, और मेरी टिप्पणी इसी लिपि में ठीक नीचे दर्ज हो रही थी।
अब हमें एक नाव से हमें उस पहाड़ी के दूसरे छोर तक पहुँचना था। वहाँ से
चढ़ाई अपेक्षाकृत आसान मानी जाती है। लेकिन, समस्या यह है कि वह नाव वापस
उस स्थान पर अगली सुबह ही आती है। यानी, बीच रास्ते से लौट कर आप नाव
नहीं पकड़ सकते। उस स्थिति में रात वहीं बीहड़ में बितानी होगी। अमूमन
लोग इस पूरे पहाड़ को लाँघ कर वहीं आ जाते हैं, जहाँ से नाव चली थी।
हमारी भी यही योजना थी।
पहले पाँच किलोमीटर की चढ़ाई में ही दम निकल गया। एक तो यह काफी तेज गति
से की थी, क्योंकि दोपहर में बारिश की संभावना थी। दूजा यह कि यह हिस्सा
सीधा जमीन से हज़ारों फीट ऊपर ले जाता था, और उस धारीदार ‘रिज़’ के
मुहाने पर ला खड़ा करता था। यहाँ तक पर्यटकों के आवा-जाही की वजह से
रास्ते बन गये थे। कुछ पत्थर की सीढ़ियाँ लगायी भी गयी थी, जो किसी दूसरे
क्षेत्र से उठा कर लायी गयी थी। इस पूरे सौ किलोमीटर के दायरे में पत्थर
खनन पर पाबंदी थी, इसलिए सीढ़ियों के पत्थर बाहर से लाए गये थे। लेकिन,
अब आगे ऊँट की पीठ सरीखा पहाड़ था, जिसके दोनों ओर खाई थी, और उसके शिखर
तक पहुँचने के लिए कोई रास्ता बना नहीं था। अब हमें पहाड़ में बने
प्राकृतिक खांचों में संभाल-संभाल कर पैर रख कर ऊपर चढ़ना था। मुझे बचपन
में आम के पेड़ों पर चढ़ना याद आ गया, जब हम जड़ से छीप तक पहुँच कर एक
पका आम तोड़ लेता। लेकिन, बचपन में तो वजन तीस-चालीस किलो हुआ करता, अब
तो वजन का काँटा पचासी किलो पर डगमगा रहा है। अब यूँ बंदरों की तरह लटक
कर ऊपर चढ़ना दुरूह लग रहा था।
फिर भी, हिम्मत कर चढ़ना शुरू किया। एक बिंदु पर पहुँच कर मैं भयभीत हो
गया। ऐसा पहले कभी नहीं अनुभव हुआ था कि मुझे ऊँचाई का भय हो। लेकिन, उस
वक्त न जाने क्यों सर से पसीना बहने लगा, और धड़कन तेज हो गयी। वह ऐसा
बिंदु था, जहाँ से फिसले और खाई में गिरे। मैं एक पल के लिए अपने परिवार
का सोचने लगा, जिन्हें मैंने अपनी जमीन से निकाल कर इस ध्रुवीय देश में
पटक दिया है। कोरोना काल है और वायु-परिवहन बंद है। अगर मुझे कुछ हो गया,
वे कहाँ लौट कर जाएँगे? मैं तो यह कह कर आया हूँ कि देर रात तक लौट
आऊँगा। मेरे बॉस तेजी से किसी स्फूर्त बालक की तरह ऊपर चढ़ते जा रहे थे।
मैंने आवाज दी, “रुकिए! मैं अब आगे नहीं जा सकता। मुझे लौटना होगा।”
वह एक पत्थर से लटके हुए चिल्लाए, “अब यह संभव नहीं। वापस नाव नहीं
मिलेगी। अगर सहायता भी मंगवायी तो यहाँ हेलीकॉप्टर के उतरने की जगह
नहीं।”
एक तो मैं भयभीत था, और वह मुझे आश्वासित करने के बजाय भय में वृद्धि ही
कर रहे थे। मुझे एक भौतिकी के प्रोफेसर की बात याद आयी, जिनसे मैं
अमेरिका प्रवास के दौरान मिला था। वह मेरे सहवासी मित्र के गुरु थे, और
उन्हें उसी वर्ष नोबेल पुरस्कार मिला था। उन्हें भी ऊँचाई का भय था, और
पसीने छूट जाते थे। उन्होंने एक दिन इसका हल निकाल लिया। वह नियमित पहाड़
चढ़ने लगे। उनके पसीने छूटते, धड़कनें बढ़ती, लेकिन वह पहाड़ चढ़ते रहे।
एक दिन इन तीनों क्रियायों में संतुलन बैठ गया। पसीने छूटते रहे, धड़कनें
बढ़ती रही, वह पहाड़ चढ़ते रहे। मैं भी बस खांचे ढूँढ-ढूँढ कर चढ़ता गया,
और सीधे शिखर पर पहुँच कर दम लिया। इस भय ने मेरी गति इतनी बढ़ा दी थी कि
बॉस भी चौंक गए।
उन्होंने पूछा, “तुम तो वापस लौटने की बात कर रहे थे, और किसी कुशल
पर्वतारोही की तरह धड़ा-धड़ चढ़ गए।”
मैंने कहा, “आपने तो सभी लौटने के रास्ते बंद कर दिए थे। अब आगे जाना ही
अंतिम उपाय था।”
उन्होंने हँस कर कहा, “पता है जूलियस सीजर ने क्या कहा था?”
“क्या?”
“उसने कहा, अब मैं शिखर पर पहुँच गया हूँ, और अब मेरे पास एक ही रास्ता
है— नीचे जाना।”
“यह उसने कब कहा?”
“उसने भले नहीं कहा हो, मैंने तो कहा। लौटने का रास्ता शिखर से होकर ही
गुजरता है।”
वाकई शिखर से अब न सिर्फ हमारा गंतव्य, बल्कि एक तरफ ग्लेसियर और उनके
पिघलने से बनी हरे रंग की जलधारा, और दूसरी तरफ नीले रंग की जलधारा, सब
स्पष्ट दिख रहा था। वैसा ही, जैसा हेनरिक इब्सन ने लिखा था। वही छवि जो
वाइकिंगों को नजर आती होगी। मैं अगर फ़ोटोग्राफ़र होता तो कैमरे में
ज़रूर कैद करता, किंतु फ़ोटोग्राफ़ी करना और कविता रचना मेरे बस की बात
नहीं। यूँ भी तस्वीरों में इन्हें कैद करना इस पूरे अनुभव को सीमित कर
देना है।
मैं तो जूलियस सीजर की भाँति बस इतना कहना चाहता था, “हमने देखा, हम आए,
और हमने फ़तह कर लिया!”
-प्रवीण कुमार झा
Top
|
|
Hindinest is a website for creative minds, who
prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.
|
|