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यात्रा
वृत्तान्त
काली घाटी के पार
उम्र तो मेरी उस वक्त ज्यादा नहीं थी, कुल जमा सत्रह वर्ष छ: महीने और दस
दिन। लेकिन आज पचास की उम्र में भी उस चार धाम यात्रा की स्मृतियाँ जीवंत
हो मेरे बगल में ऐसे खड़ी हो जाती हैं जैसे बीच का समय देश-काल से परे हो
चुपके से खिसक गया हो और मैं अभी भी वही हाफ जीन्स और टॉप पहने, पहाड़ों के
बीच खड़ी हूँ। रोमांच , उमंग , प्रेम , मस्ती , आनन्द से ओत- प्रोत और डर ,
आशंका , भय से लरजती।
शिवानी दी की कहानियाँ और उपन्यास पढ़ते पढ़ते जाने कब मैं उत्तराखंड- गढ़वाल
से प्रेम कर बैठी और अब जब उस धरा से साक्षात्कार का अवसर मिल रहा था , तो
मन अति उत्साहित उमंगित हो उठा था। स्मृतियों पर कितनी गहरी छाप छोड़ती हैं
जीवंत किताबें , ये मुझे वहाँ जा कर महसूस हुआ। हर कदम पर लगता , अरे! ये
तो मेरा देखा हुआ है। कदम कदम पर किताबों के बन्द पन्ने मेरे सामने खुल रहे
थे। आज इतने वर्षो बाद उन खुले पन्नों की स्मृतियों को शब्दों में ढालने
बैठी हूँ तो समूचा गढ़वाल मेरे चारों ओर सरसरा रहा है और उस काली घाटी के
काले पानी का कालापन जैसे मेरी आँखों में उतर आया है और कह रहा है-
कृष्ण-भामिनी से भी डरा जाता है क्या भला! और मैं उलाहना दे रही हूँ-
अच्छा! इतने वर्षों बाद अब बोल रही हो! उस वक्त तो अपने आगोश में समा लेने
को आतुर थीं!
जानती तो हो न तुम्हारे आगोश में आने का मतलब!
हाँ, मेरे आगोश में! कालिंदी कूल कदम्ब की डारन, सीधा कृष्ण से ही तो
मिलाती तुम्हे!
भला ऐसे मिला जाता है क्या कृष्ण से!
और कालिंदी का एक छोर थामे मेरे समक्ष आ खड़े होते हैं मेरे नाना। मेरे
कृष्ण भक्त नाना। मुंबई के मावा व्यवसायी। सम्पन्नता, सुघड़ता और सात्विकता
उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में झलकती। बगैर एक भी सिलवट का झक सफेद धोती
कुर्ता, काली टोपी और चैरी ब्लॉसम का विज्ञापन करते काले जूते। हाथ में
दोनों किनारों पर सुनहरी परत चढ़ी काली छड़ी। मौसम के साथ साथ बदलते उनके
इत्र की महक हम बच्चों को दीवाना कर देती। ये महज़ इत्तेफाक ही था कि उनकी
चारों बेटियाँ जयपुर ब्याहीँ और इसी कारण जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्होंने
भी जयपुर रहना पसन्द किया। रामगंज बाज़ार लाड़लीजी का खुर्रा में उनकी तीन
मंजिली हवेली " श्री कृष्ण भवन " के अनगिनत दरवाजे खिड़कियों वाले कमरे और
फर्श के नीचे बनी विशाल तिजोरियां हम बच्चों को किसी तिलिस्मी किले का आभास
कराते। कमरे में बिछे मोटे गद्दे और गाव-तकिये हरदम सफेद रंग में डूबे
रहते, जिन्हें हमने भूतिया सफेद की संज्ञा दे रखी थी। जब भी हम जाते नाना
हथेली के पीछे की नस पर इत्र भीगी डंडी छुआ देते और फिर लाड़ से गाते-
आ ए म्हारी सोना की झारी
आ ए म्हारी चांदी की थाली
आ ए म्हारी मोत्यां की लड़
आ ए म्हारी हीरा की कण
और फिर धीरे से कान के पास मुँह ला कर हँसी दबाते से बोलते -
आ ए म्हारी पाखाना की डोलची
हम मुँह फुला कर कुप्पा हो जाते और नाना हँसते हँसते दोहरे होते हमे गले
लगा लेते। उन्हें दो चीजें पसन्द नहीं थीं , एक तो गन्दगी और एक उनकी
निद्रा में खलल। उनकी सफेदी पर यदि कोई दाग लग जाता तो वे एकदम कठोर हो
जाते तब नानी हमारी ढाल बनती। नाना मुझे बिल्कुल सीताफल से लगते, जितने
मुलायम उतने कठोर। उनकी दिली ख्वाहिश थी की वे अपने बच्चों के साथ चार धाम
की यात्रा करें और जल्द ही उनकी ख्वाहिश ने मूर्त रूप ले लिया था।
वो 4 सितम्बर 1987 का दिन था। कितना अजब संयोग है कि तैतीस वर्ष बाद ठीक
इसी तारीख चार सितम्बर (2020) को मैने उन स्मृतियों को शब्द देने के लिए
कलम थामी है। श्री कृष्ण भवन के चौक में खड़ी दो बसों में से एक में हम बीस
परिवार के सदस्य थे और दूसरी में नाना के आठ दस सेवादारों की टीम और खाना
बनाने का सामान भरा था। बीस दिन तक लगातार बाहर का खाना नाना को कतई मंजूर
नहीं था। उस समय ये यात्राएँ आज जितनी सुगम नहीं थीं।खतरनाक पहाड़ी रास्तों
पर दुर्घटनाओं का होना आम बात थी सो कम ही लोग इन यात्राओं पर जाते थे।जाने
वालों को रिश्तेदार ऐसे विदा करते थे जैसे अंतिम विदाई हो। मालाओं और आँसुओ
के साथ। हमें भी वैसे ही विदा किया जा रहा था। खास बात यह थी कि इस यात्रा
पर जाने वालों में डेढ़ वर्ष की भाभी की बेटी से लेकर पचहत्तर वर्षीय नाना
तक तकरीबन सभी वय के सदस्य शामिल थे। खैर किसी तरह हमारी विदाई हुई और हम
अनगिनत जयकारों के साथ रवाना हुए। इस यात्रा में बहुत सी घटनाएँ जिनमे दु
और सु दोनों गुथी हुई हैं हुई लेकिन उन सबका जिक्र करूँगी तो किताब बन
जाएगी। अभी तो बस उस एक घटना तक बढ़ती हूँ जिसने मुझे और भाभी को जीवन का
ऐसा सबक दिया जिसे भूल पाना असम्भव तो है ही, बल्कि यूँ कहिए कि हम भूलना
ही नहीं चाहते।
हरिद्वार, ऋषिकेश आदि पड़ावों को पार करते हुए हम उत्तरकाशी पहुँचे और उसी
शाम नानी ने सभी विवाहित जोड़ों को यात्रा के खत्म न होने तक वानप्रस्थ अपना
लेने का फरमान सुना दिया और युवा जोड़ों के चेहरे ऐसे उतर गए जैसे किसी रानी
मक्खी ने पहाड़ों की आबोहवा में खिले, क्रीड़ा को आतुर कमल पुष्पों का सारा
पराग सोख कर उन्हें रसविहीन कर दिया हो। हम अविवाहितों को उन्हें छेड़ने का
बड़ा मुद्दा मिल गया था। यमुनोत्री पहुँचने के लिए हनुमान चट्टी सड़क मार्ग
का आखिरी पड़ाव था, जहाँ से आगे चौदह किलोमीटर की पैदल चढाई चढ़ कर हमे
यमुनोत्री पहुँचना था। अब तो सुनने में आता है कि जानकी चट्टी तक वाहनों से
जाया जा सकता है, जहाँ से यमुनोत्री मात्र पाँच किलोमीटर है। सुविधा की
चाहतों से लदे विकास के दौड़ते पहिये एक दिन इस दूरी को भी खत्म कर देंगे और
तब हम वंचित रह जाएंगे मार्ग के आनन्द से जो लक्ष्य से भी ज्यादा आनन्दित
करता है। और लक्ष्य भी क्या वो आनन्द दे पाएगा! बगैर कठोर परिश्रम के? पैदल
मार्ग के अगल बगल में गगनचुंबी मनोहारी नंगधडंग बर्फीली चोटियाँ और घने
जंगल बाहें पसार कर हमारे स्वागत में खड़े थे। यहाँ मैं बता दूँ कि मैं उस
वक्त तृतीय वर्ष की संगीत और हिंदी की छात्रा थी। कलकल बहती कालिंदी की
धारा ने जैसे अब तक बन्द कमरों में साधे सातों सुरों को एक साथ छेड़ दिया था
और मैं सितार के तारों सी झंकृत खड़ी सोच रही थी कि क्या प्रकृति में उपजे
इन प्राकृत सुरों को इंसान कभी साध पायेगा! उस वक्त वो पहाड़ मुझे जंगलों से
अभिसार को आतुर,अपने ताज हिम को उनके कदमों में अर्पण करते प्रेमी से लगे
थे और आज जब उनको याद कर रही हूँ तो धवल जटाजूट वाले योगी से लगते हैं
जिनके तप की सतधारा में नहाए जंगल उनके सामने नत मस्तक हैं। वक्त और उम्र
नजरिए में कितना बदलाव ला देते है न! नाना नानी और कुछेक बड़े लोगों के लिए
पालकी कर ली गई थी और छोटे बच्चों और सामान के लिए कंडी या पिट्ठू (पिट्ठू
बच्चों को गोद में लेकर चलते थे) हाथों में छड़ी थामे हमने चढाई शुरू कर दी
थी। हम बच्चों में होड़ लगी रहती कि कौन पहले दूर नजर आने वाले पड़ाव तक
पहुँचेगा और इसी होड़ की वजह से हम शॉर्टकट ढूंढा करते जो हमे कंडी वालो का
पीछा करने से मिल जाते थे। उन स्थानीय लोगों को ऐसे छोटे रास्ते पता होते
थे जो मुख्य मार्ग से अलग होकर जाते थे, हालांकि वे खड़ी चढाई वाले और कुछ
दुर्गम होते थे लेकिन हमारे जोश के सामने सुगम हो जाते थे। मार्ग के अनगिनत
छोटे बड़े झरनों से बहती सौन्दर्यधारा ने जैसे शरीर पर इंद्र के से हजार
नेत्र उगा दिए थे। पालकी में बैठे नानाजी बराबर परिवार के हर सदस्य की
जानकारी लेते रहते। आखिरकार हम नारद चट्टी, फूल चट्टी, जानकी चट्टी सभी को
पार करते यमुनोत्री पहुँच गए। लेकिन जिस हिमनद को छू लेने की कल्पनाओं में
डूबे चढाई की थी वो तो अभी भी सिर उढ़ाये दूर खड़ा था। मेरे मन में उठे सवाल
का जवाब पुजारीजी द्वारा कराई जा रही सप्तर्षि कुंड की सांकेतिक पूजा ने दे
दिया था। गौरी कुंड में स्न्नान के पश्चात सूर्य कुंड(तप्त कुंड) में कपड़े
में लटका कर चावल पकाए गए। नैसर्गिक गर्म पानी के स्रोत के कारण, कड़कड़ाती
ढंड के बावजूद गर्म हुई चट्टाने हमारे लिए अनूठा अनुभव था। पूजा कराते हुए
पुजारीजी बता रहे थे-
वहाँ ऊपर सात कुंड थे जो अब दृश्यमान नहीं हैं, केवल एक ही है सप्तर्षि
कुंड। मेरे पूछने पर कि क्या वहाँ नहीं जाया जा सकता? उन्होंने कहा था-
नहीं बिटिया! वहाँ तो सिर्फ सप्तर्षियों का ही वासा है, हम आम इंसानों का
नहीं। उसी ब्रह्मकमलों से सुवासित कुंड से तो निकल कर आ रही है हमारी माँ
यमुना।
और इस तरह मेरी हिमनद को छू लेने की कामना ध्वस्त हो गई थी।ऐसा महसूस हो
रहा था जैसे लक्ष्य तक पहुँच कर भी नहीं पहुँच पाई हूँ।आज जब पुजारीजी की
बात याद आती है तो सोचती हूँ कि उस वक्त वे कल्पना भी नहीं कर पाए होंगे कि
जल्द ही ऐसे महामानव का युग आ रहा है जिसकी पहुँच से धरती अम्बर समुद्र कुछ
भी अछूते नहीं रह पाएंगे। अब हमारी यमुनोत्री से वापसी शुरू होने वाली थी।
हे सूर्यदेव!आपकी रश्मियों से नहाए कलिंद के हिमनद का आकर्षण जब मुझे अपनी
ओर खींच रहा था, क्या जानती थी कि ठीक उसी वक्त आपकी ही बेटी सूर्य-तनया
कालिंदी अपने भाई यम का हाथ थामे मुझे अपनी ओर खींच रही है और मैं आकर्षण
विकर्षण की डोरों में उलझ चुकी हूँ।
उतरना शुरू होने से पहले नानाजी ने हम बच्चों को साथ साथ धीरे धीरे नीचे
उतरने की शिक्षा दी फिर मुझसे बोले- बबलू(मेरा घर का नाम)माँ यमुना से
प्रार्थना की या नहीं कि यहाँ से जयपुर पहुँचते ही सोहना सा दूल्हा मिल
जाए? और मैं "ओह नानाजी आप भी न! " कहते हुए शरमा कर आगे बढ़ गई।अपनी शादी
ब्याह की बात से शरमा कर भाग जाना आज कितनी अचरज भरी बात है न! अब तो खुद
को भी हँसी आती है वो सब याद करके। खैर हम नीचे उतरने लगे। सबसे पहले अगले
पड़ाव तक उतरने की होड़ हममे लगी रहती। मैं और भाभी साथ साथ आगे बढ़ रहे थे।
जानकी चट्टी से कुछ आगे पहुँचते पहुँचते सभी बच्चे जब हमसे काफी आगे निकल
गए तो हमने शॉर्टकट खोजना शुरू कर दिया। हमारा ही सामान लादे एक कंडी वाले
के पीछे हो लिए हम दोनों। ऊपर चढ़ते वक्त कई शॉर्टकट देखे थे सो मन में कोई
संशय नहीं था। अभी तकरीबन दो सौ ढाई सौ मीटर ही आगे बढ़े थे की कंडी वाले ने
पीछे मुड़ कर हमे देखा और बोला - आप दोनों नहीं जा पाओगे इस रास्ते से, वापस
लौट जाओ।
जोश में भरे मैने जवाब दिया था-
क्यूँ तुम भी तो जा रहे हो! वैसे ही हम भी निकल जाएंगे।
वो कुछ पल रुका फिर बोला- अभी ज्यादा दूर नहीं निकले है, आप लौट जाओ, ये
मुश्किल रास्ता है।
लेकिन हमे फिर से ढाई सौ मीटर पीछे जाना बिल्कुल नहीं जँचा और फिर सबसे
पहले नीचे पहुँच कर सबको चोंका देने का लालच भी तो था सो हमने मना कर दिया।
उसने कंधे उचकाए और बोला- ठीक है जैसी आपकी मर्जी!मुझे मत कहना मैने चेताया
नहीं था।
वो आगे बढ़ गया और हम उसके पीछे पीछे।
कुछ आगे बढे तो देखा हर कदम पर मार्ग सकरा होता जा रहा है। हमने महसूस किया
कि हम मुख्य मार्ग से बिल्कुल विपरीत त्रिकोण बनाते उतर रहे हैं और
मुख्यमार्ग धीरे धीरे दूर छूटता जा रहा है। कुछ देर तो हम प्रकृति के
नैसर्गिक सौंदर्य में डूबे बढ़ते रहे लेकिन शीघ्र ही हमे अपनी गलती का एहसास
होना शुरू हो गया। ढलान गहरी पर गहरी होती जा रही थी जैसे सीधे घाटी में ही
उतर रही हो। घाटी चीड़ और देवदार के वृक्षों और अनेकों छोटी बड़ी वानस्पतिक
गुल्म लताओं से इस कदर आच्छादित थी कि उसके तल में बहती यमुना की कलकल तो
सुनाई दे रही थी लेकिन नजर कहि नही आती थी।ठलान इतनी ज्यादा होती जा रही थी
कि कहीं कहीं तो हमे एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर कूदना पड़ रहा था। जीन्स
टॉप की वजह से मैं कूद पा रही थी लेकिन भाभी तो साड़ी में थीं। उनकी साड़ी
अंत तक हमारे लिए समस्या बनी रही। कुछ आगे बढ़े तो रास्ता इतना सकरा था कि
उसे रास्ता कहना भी गलत होगा। हम दोनों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया तो
कंडी वाला बोला- मैंने तो पहले ही कहा था लौट जाओ। ये रास्ता तो अब सीधा
हनुमान चट्टी से कुछ पहले ही निकलेगा। अभी तो हम आधी दूरी पर भी नहीं
पहुँचे हैं।
हम दोनों को जैसे साँप सूंघ गया था। अब कोई चारा भी नही था आगे बढ़ने के
सिवा। एक तरफ पर्वताकार चट्टाने और दूसरी ओर सघन हरियाली से आच्छादित गहरी
घाटी में बहती यमुना की कलकल और बीच में बस दो कदम टिक सकने लायक मार्ग।
कुछ देर पहले तक जिस नैसर्गिक सौंदर्य ने हजारों आँखे उगा दी थी उसी ने
जैसे अचानक भयानक राक्षस का सा रूप धर लिया था जो चारों ओर से अपनी भुजाएं
फैलाए हमे जकड़ लेने को आतुर था। जलधारा का सुरीला संगीत बेसुरा और भयानक
लगने लगा था। हमारी छड़ी, गले में लटका कैमरा और हैट सब हमने कंडी वाले के
हवाले कर दिया था और दोनों हाथों से चट्टानों को थामे, उनसे चिपक चिपक कर
चल रहे थे।चट्टानों पर उगी वनस्पतियों से हाथ छिल चुके थे। कंडी वाले के
मना करने के बावजूद मैं घाटी में झाँकने से खुद को रोक नही पा रही थी और
तभी कालिंदी ने विकर्षण की डोर खींच ली। चक्कर आया या सन्तुलन बिगड़ा पता
नही, पर मैं घाटी की तरफ फिसल गई। मेरी आवाज तो गले में ही घुट कर रह गई
लेकिन भाभी की चीख़ से घाटी की नीरवता की गोद में दुबके पंछियों में चहल पहल
मच गई। वो तो भला हो पेड़ के उस तने का जिसने मेरे पैर को थाम लिया और उस
चट्टान का जिसे मेरे हाथों ने थामा या फिर चट्टान ने हाथों को थामा पता
नही। दूसरे ही क्षण कंडी वाले ने मुझे पकड़ कर ऊपर खींच लिया। कुछ देर तक हम
उस सकरी पगडंडी पर चट्टान के सहारे टिके अपनी बेकाबू सांसो को सम्भालते रहे
और कंडी वाला हमे दिलासा देता रहा। मेरा दिमाग तो जैसे डर के मारे सुन्न हो
गया था लेकिन भाभी का क्रोध कंडी वाले पर फूट पड़ा- गलत रास्ते पर ले जा रहे
हो न! ये भी कोई रास्ता है ! औरते हैं ,लेकिन कमजोर मत समझना। कुछ गलत करने
की कोशिश भी की तो इसी घाटी में दफन कर दूँगी। कहते कहते रो पड़ी भाभी फिर
रोते रोते भय से कांपते मेरे हाथों को थाम कर बोली- अगर तुझे कुछ हो जाता
तो क्या जवाब देती सबको। मैं भी यहीं कूद जाती इसी यमुना में।
मैं खुद भय से कांप रही थी लेकिन किसी तरह भाभी को शांत किया। बेचारा कंडी
वाला सहम गया था, बोला- बुरा इंसान नहीं हूँ दीदी! आप बिल्कुल चिंता मत
करो, हम सही सलामत निकल जाएंगे। हमारा तो रोज का काम है। पर अब मेरी
जिम्मेदारी है आप दोनों को निकालना।
पहाड़ो पर अब भी सूर्य की हल्की रश्मियां चमक रहीं थी लेकिन घाटी में तो समय
से पूर्व ही रात उतर आई थी।अचानक हरियाली से आच्छादित घाटी मुझे काली घाटी
सी नजर आने लगी जिसकी गोद में सरसराती काली नागिन सी कालिंदी की काली
जिव्हा हर पल हमे निगल जाने को आतुर थी। भाभी अपनी आँखे बन्द कर हाथ जोड़
प्रार्थना कर रहीं थी। हे कृष्ण! इस घाटी से सही सलामत बाहर निकाल दो। हे
माधव! हे मुरारी! रक्षा करो। मैने भी हाथ जोड़ कर आँखे मूंद ली थीं।
जिनकी भामिनी हमे, अपने भाई के द्वार पहुँचाने को तैयार खड़ी थी,उन्ही से हम
रक्षा की गुहार कर रहे थे।
किसी तरह स्वयं को संयत कर हम उठ खड़े हुए। कंडी वाले का रुख अब एकदम नरम हो
गया था। घाटी में अँधेरा गहराने लगा था। जैसे जैसे नीचे जा रहे थे जीव
जंतुओं का भय भी बढ़ने लगा था। शिवानी दी की कहानी 'उप्रेती' रह रह कर याद आ
रही थी। यंही आस पास की ही किसी घाटी में गिरी होगी न उनकी बस। अगर मैं गिर
जाती तो....उस नवयौवना सी किस्मत कहाँ से लाती! जो अपने मृत पति के हमशक्ल
बड़े भाई को अपना पति समझ बैठी थी, और जेठ ने उस भयाक्रांत नवब्याहता को
सरक्षण देने की खातिर ,पहाड़ के ही किसी गाँव में बैठी अपनी ब्याहता को पति
के होते हुए भी विधवा का जीवन व्यतीत करने के लिए छोड़ दिया था। मैं तो शायद
घाटी में पड़ी पड़ी ही खत्म हो जाती या समा जाती किसी गोह या नाग के उदर में
या शायद बह जाती इस काले पानी में। विचारों के जंजाल में उलझी मैं खामोशी
से एक एक कदम फूंक फूंक कर रख बढ़ रही थी। अचानक सामने विशाल चट्टानो ने
मार्ग अवरूद्ध कर दिया। कंडी वाले ने दिलासा देते हुए कहा- आप चिंता मत
करो,मैं चढा लूंगा।
बिजली सी गति से लपक कर वह चट्टान पर चढ़ गया,समान लादे लादे भी। उसने मेरा
हाथ पकड़ कर मुझे ऊपर खींच लिया था लेकिन भाभी! साड़ी पहने भाभी के लिए ऊपर
चढ़ना बहुत मुश्किल हो रहा था और ऊपर चढ़ने की कोशिश में उनका पेटीकोट चट्टान
के किनारे में अटक गया और वे आधी ऊपर आधी नीचे लटकी रह गई।घबराहट के मारे
उनका बुरा हाल था। कंडी वाले ने बोला- आप कपड़ों की चिंता मत करो बस ऊपर आने
की कोशिश करो। ऊपर चढ़ तो आई भाभी लेकिन पेटीकोट पूरा चिर चुका था। चट्टान
पर ही बैठे रहे हम कुछ देर। जगह जगह से हाथ पैर छिल चुके थे और काली घाटी
की उस नम काली मिट्टी ने कपड़ो पर जैसे कालिख मल दी थी। हम बस जल्दी से
जल्दी किसी तरह मुख्यमार्ग तक पहुँचना चाहते थे सो उठ खड़े हुए और फिर चल
दिए। अब भाभी को एक और भय सताने लगा था। इतनी देर तक हम दोनों के दिखाई न
देने से सब चिंतित हो रहे होंगे, उन्हें क्या कहेंगे! डाँट पड़ेगी सो अलग।
कुछ दूरी पर एक झरना दिखाई दे रहा था। वहाँ से मार्ग भी अपेक्षाकृत चौड़ा हो
गया था। जिस कालिंदी को कुछ देर पहले मैं कोस रही थी उसी के जल से अब अपनी
कालिख धो रही थी। मन में विचार आया था, जाने कितनी कालिख धो धो कर काली हुई
होगी ये कालिंदी।
"अब और कितनी दूर है?" पस्त सी आवाज में भाभी ने पूछा।
" बस पहुँच गए समझो।"
तभी मुख्य मार्ग पर जाते पोनी(छोटे घोड़े) के गले में बंधी घण्टियों की आवाज
हमारे कानों में पड़ी और हमारी जान में जान आई। हम दोनो ने तय किया कि
चुपचाप निकल कर मुख्य मार्ग में मिल जाएंगे, किसी को पता भी नहीं चलेगा।
लेकिन हमारा सोचना गलत था। जहाँ शॉर्टकट खत्म होकर मुख्यमार्ग में मिल रहा
था ठीक उसी के सामने नाना अपनी पालकी में, रास्ते पर आँखे गड़ाए बैठे थे।
चूंकि हम काफी आगे निकले थे तो बाकी लोग तो अभी पीछे ही थे लेकिन नाना की
पालकी वहाँ तक पहुँच चुकी थी। उनके चेहरे पर चिंता और कठोरता के मिले जुले
भाव थे। हमारे चेहरों पर नजरें गड़ाए उन्होंने जैसे हमारे डर और मार्ग की
सारी परेशानियों को भाँप लिया था। हमारी नजरें उनसे मिली और खुद बख़ुद झुक
गईं। वे बोले- असी नादानी की उम्मीद तो कोनी छी थासै! कांई मूंडो ले अर
जातो बेटियां कनै! आज थे देख भी लियो अर समझ भी लियो, अब अगाड़ी कै ताईं
गांठ बाँध ल्यो कि जिंदगी मैं अगाड़ी बढ़बा की खातिर छोटो रास्तो कदे ही नै
अपनानो चाहे। छोटा रास्ता जद पटके है न तो फेर खड़ा होबा की हिम्मत कोनी
बचे।
फिर डरे सहमे खड़े हम दोनों की ओर पालकी से निकाल कर दो सेब बढ़ा दिए, और
मुस्कुरा कर बोले - ल्यो, कान्हा को आभार मानो अर सेब खाओ मस्त रहो, जो
हुयो उसै सबक सीखो अर मुस्करा अर अगाड़ी बढ़ो।
हमारी आँखों से झरझर आँसू टपक रहे थे नाना ने अपना सफेद झक रुमाल हमारी तरफ
बढ़ा दिया और स्नेहिल आँखों से हमे किसी से न कहने का दिलासा भी दे दिया।
नाना की पालकी आगे बढ़ गई और हम कुछ देर असमंजस में वहीँ बैठे रहे कि इन्हें
बताया किसने! बाद में पता चला की किसी कंडी वाले ने ही हमे उस रास्ते पर
जाते देख लिया था और उन्हें बता दिया था।
अचानक भाभी ने मेरे हाथ पकड़े और बोली- आज के बाद जिंदगी में नो शार्टकट्स!
नो शार्टकट्स! मैने उनके सुर में सुर मिलाया था।
आज सोचती हूँ तो लगता है कि उस कृष्ण भामिनी कालिंदी से सिवा कृष्ण के हमें
बचा भी कौन सकता था! हे कृष्ण! तुम ही वो वृक्ष बन गए थे न और वो चट्टान
भी, जिसने मुझे सम्भाला था! और तुम्हारे नटखटपन को भी समझ गई हूँ अब, अपनी
भामिनी संग मिल कर तुम्ही सिखा रहे थे न सबक जीवन का!
कलिंद के उस हिमनद से निकलती कालिंदी आज भी अपने उसी वेग से चट्टानों से
टकराती आतुरता से बह रही है, कदम्ब की डार पर बैठे अपने प्रियतम से मिलन के
लिए। लेकिन मेरी स्मृतियों में तो वो कैद है अपना कालापन लिए। लेकिन आज एक
सवाल सर उठा रहा है-
जिस घाटी को मेरे डर ने काली घाटी नाम दे दिया था, असल में तो उसका जल
परिशुद्ध निष्कलुष था लेकिन क्या आज हम जहाँ रह रहे हैं वो काली घाटी नहीं
है!
प्रेम,सौहाद्र ,सरलता ,सहजता, इंसानियत की हरियाली से आच्छादित रिश्तों को
डस लेने के अवसरों की तलाश में ,जहाँ चारों ओर कलुषित मानसिकता के नाग
सरसरा रहे हैं।
हे कृष्ण! इस काली घाटी से कैसे पार उतारोगे!
-उजाला लोहिया
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