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ग्रामीण पर्यटन पर विचार के बहाने
अगर दिमाग पर जरा भी जोर न डालें तो बदलते हुए समय में ग्रामीण पर्यटन का नारा अपने आप में काफी लुभावना लगता है - यानी गांवों की ओर चमचमाती गाड़ियों में आते रंग-बिरंगे सैलानी, उनकी आव-भगत में आंखें बिछाये, अपनी मेहमान-नवाजी के लिए मशहूर भारत के ग्रामवासी, बधावे गाती नव-वधुएं और अपनी पारंपरिक पोशाकों में द्वारपालों की तरह अदब से खड़े ग्रामीण-जन! लेकिन ज्यों ही असलियत पर से पर्दा हटने लगता है याकि चारों ओर बिखरी वास्तविकता को हम उलट-पलट कर देखना आरंभ करते हैं, तो सारी तस्वीर धुंधली, धूसर और टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई देने लगती है - कई बार तो अपनी विद्रूप अवस्था में भय उत्पन्न करती-सी भी।
पर्यटक का पहला उद्देश्य होता है अपने आमोद-प्रमोद और तफरीह के लिए नये-नये इलाकों की खोज - उनमें घूमना-फिरना और अपनी एकरस और सुस्त हो रही ज़िन्दगी में नया थ्रिल पैदा करना। ऐसे लोग चाहे देश के किसी अन्य हलके या प्रान्त से आते हों या बाहरी मुल्क से, वे आमतौर पर ऐतिहासिक इमारतों, धार्मिक स्थलों, प्राकृतिक दृष्टि से रमणीक समझे जाने वाले ठिकानों, अपने से भिन्न संस्कृति और लोक-जीवन की बानगी वाले आकर्षक स्थलों, वनों, अभयारण्यों और निर्जन स्थानों की खोज में ही अपनी इस घूमंतू वृत्ति की सार्थकता देखते हैं और ऐसे स्थानों पर आने के बाद उनके मकसद और इरादे भी अक्सर बदल जाते हैं। पर्यटन के आंकड़े बताते हैं कि इस तरह आने वाले देशी और विदेशी सैलानियों की संख्या इन बीते पच्चीस-तीस सालों में लगातार बढ़ती रही है।
जाहिर है, देश के हरेक भाग में आज पर्यटन को एक लाभदायक उद्यम माना जाने लगा है और हर राज्य में पर्यटन विकास की नई संभावनाओं पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है - आज हर राज्य में पर्यटन का अपना स्वतंत्र मंत्रालय है, उसके बहुत से विभाग हैं, निगम हैं, बोर्ड हैं और बाहर निजी क्षेत्र में भी अनगिनत संस्थान और इस उद्यम से जुड़े लाखों लोग हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन बड़े शहरों और ऐतिहासिक-धार्मिक-प्राकृतिक महत्व के स्थलों से जुड़ा यह उद्यम अब लगातार उनके आस-पास के ग्रामीण इलाकों और वहां के ग्रामीण जीवन को अपनी लालसा में लपेटता जा रहा है। उन ग्रामीणों का खान-पान, पहनावा, उनके तीज-त्यौहार और लोकानुरंजन के उत्सव अपने मूल स्वरूप से हटकर उनके आमोद-प्रमोद का हिस्सा होकर एक तरह के पर्यटक बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं। शायद यह उसी का परिणाम है कि आज हर बड़े शहर में ऐसे अनोखे गांव और चौखी-अनोखी ढाणियां विकसित हो गई हैं, जो उन्हें शहर में ही गंवई खुलेपन और अपनापे का आभास देने लगी हैं और ये सैलानियों के आकर्षण का बहुत बड़ा केन्द्र भी बनती जा रही हैं। सुदूर ग्रामीण इलाकों में बने किले, हवेलियां और रावले, जो देखरेख के अभाव में खंडहर होते जा रहे थे, वे अच्छी-खासी हेरिटेज होटल्स और रेस्तराओं में तब्दील होकर कमाई का नायाब जरिया बन गये हैं।
पर्यटन एक ऐसा व्यवसाय है जो अपना आधारभूत ढांचा भी स्वयं अपने दबाव से विकसित करवा लेता है। वह इस बात का इंतजार नहीं करता कि कोई - सरकार या बाहरी संस्था - पहले आगे बढ़कर उसके लिए बुनियादी सुविधाएं जुटा दे तो वहां पर्यटन की गतिविधियां शुरू की जाएं। अनुभव बताता है कि ऐसे बहुत से स्थल हैं, जहां पर्यटक पहले पहुंचे और सुविधाएं बाद में धीरे-धीरे जुटती चली गईं - ऐसी सुविधाएं जुटाना खुद जुटाने वालों के लिए भी अन्तत: फायदे का सौदा ही साबित होती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों की ओर बढ़ते इस पर्यटन या पर्यटन की लपेट में आते ग्रामीण जीवन के बीच का रिश्ता उतना सरल और सीधा नहीं होता, जितना ऊपर से दिखाई देता है। पहली बात तो यही कि आजादी के बाद पिछले पच्चीस-तीस सालों में ग्रामीण जीवन में ऊपरी तौर पर बेशक कुछ बदलाव आया हो - जैसे सभी बड़े गांव आवागमन के साधनों (रेल-सड़क यातायात) से जोड़ दिये गये हैं, ग्रामीण विद्युतीकरण की नयी योजनाओं ने, बावजूद अपने अन्दरूनी संकट के, उन गांवों को जमीनी बिजली से जोड़ दिया है, जहां बिजली सिर्फ बादलों के बीच ही झलक दिखाया करती थी, घर में खंभे से कनेक्शन जोड़ लेने के बाद भी वह रौशनी दे पाए या न दे पाए, वह एक अलग मसला है, पानी की पाइप-लाइनें भी बिछ गई हैं, गांवों के बीच चौखंभी मीनारों पर पानी की बड़ी टंकियां भी खड़ी कर दी गई हैं, उनमें पानी की आपूर्ति हो पाए या न हो पाए, इसकी कोई जवाबदेही अभी निश्चित नहीं है! उपग्रह प्रणाली की बड़ी सफलता के बाद हर गांव में दूर-संचार की सेवाएं पहुंचा दी गई हैं - हालत यह कि हर गली-मोहल्ले में एस.टी.डी. बूथ बुला-बुलाकर बातें करने की मनुहार कर रहे हैं, और यों भी निजी क्षेत्र में हुए फफूंदी-विस्तार के बाद तो अब दूर-संचार सेवाएं किसी सरकारी तंत्र की मोहताज भी नहीं रह गई हैं। परिवहन और ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में आई नई क्रान्ति के कारण दुपहिया और चौपहिया वाहन अब गांवों में आवागमन के आम साधनों की तरह हो गये हैं और रही-सही कसर जन-संचार के नये माध्यमों और कंप्यूटर के विस्तार तथा 'सूचना क्रान्ति` ने पूरी कर दी है।
लेकिन इस ऊपरी तरक्की और विस्तार के बावजूद गांव की वास्तविक दशा में कोई खास बदलाव नहीं आया है, उल्टे अन्दरूनी तौर पर उसकी अपनी आत्मनिर्भर व्यवस्था, कृषि, पुश्तैनी काम-धंधे, ग्रामीणों के बीच का पारस्परिक सद्भाव और अन्याय-अत्याचार के प्रति संवेदनशीलता और कमजोर हो गई है। जातीय विद्वेष, ऊंच-नीच की भावना और सामाजिक न्याय के मसले इस बदले हुए राजनीतिक माहौल में और खराब अवस्था में पहुंच गये हैं। स्त्रियों की दशा पहले भी खराब थी, वह समुचित शिक्षा-सुरक्षा के अभाव और बढ़ती व्यावसायिकता के दौर में और भी बदतर अवस्था में पहुंच गई है - गांवों में बलात्कार, अपहरण, दहेज के कारण होने वाली हत्याओं और स्त्रियों के प्रति घरेलू हिंसा की घटनाओं में इन सालों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है। बेशक स्त्री संगठनों में इस बात को लेकर कुछ जागरूकता आई हो, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र और असर शहरों और बड़े कस्बों तक ही सीमित है, छोटे गांवों और ढाणियों की स्त्री आज भी उतनी ही अकेली और असुरक्षित है। इस पर्यटन व्यवसाय की गांवों में विकसित हो रही उन भौतिक सुविधाओं और अपने आमोद-प्रमोद में तो पूरी दिलचस्पी है, लेकिन ग्रामीणों की इस अन्दरूनी हालत और स्त्री की बिगड़ती दशा पर विचार करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
ऐसा नहीं है कि गांव में विकसित हो रहे नये साधनों और सेवाओं का उपयोग गांव के लोग नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन ये सारे साधन और सुविधाएं उन्हीं मुट्ठी भर लोगों के काम आ रही हैं, जो इन्हें हस्तगत कर पाने में सक्षम हैं। जिनके लिए सुबह- शाम का आहार ही प्राथमिक समस्या है, और ऐसे लोगों की तादाद इन पिछले पच्चीस- तीस सालों में आबादी के अनुपात में और बड़ी हो गई है, उनके लिए इन साधनों और सुविधाओं का होना, न-होना लगभग एक समान है। खुद भारत सरकार के योजना आयोग द्वारा सन् १९९३-९४ में कॉपनहेगन में सामाजिक विकास पर आयोजित विश्व सम्मेलन में उसी के विशेषज्ञ समूह द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार यह बताया गया था कि भारत में ३९.९ प्रतिशत लोग गरीबी की सीमारेखा के नीचे जीवनऱ्यापन कर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ी संख्या उन ग्रामीण गरीबों की ही थी, जिन्हें दो-वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता। इनमें बड़ी परियोनाओं के कारण विस्थापित होने वाले २.६ करोड़ लोगों और १.३ करोड़ तपेदिक से पीड़ित लोगों की संख्या शामिल नहीं थी। भारत की एक प्रमुख विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने विगत १२ अप्रेल २००५ को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 'फ्रीडम फॉर हंगर` व्याख्यानमाला के अन्तर्गत खेती के संकट और ग्रामीण भारत की मुसीबत पर अपना व्याख्यान देते हुए कहा था, ''भारत १९९१ से 'डिलेशन` की नीतियों पर ही चल रहा है, जिनका कृषि क्षेत्र पर बहुत बुरा असर पड़ा है और ग्रामीण लोगों की - खासतौर से ग्रामीण गरीब लोगों की - बड़ी मुसीबत हो रही है। ....ग्रामीण लोगों के पास आज न तो करने के लिए पर्याप्त काम है, न पेट भरने के लिए पर्याप्त अनाज और न ही पीने के लिए पर्याप्त पानी। मगर न तो केन्द्र और राज्य की सरकारें ग्रामीण भारत की मुसीबत पर ध्यान दे रही हैं, न कोई और ही इस दिशा में कुछ कर रहा है। यहां तक कि इसके बारे में लिखने-बोलने वाले लोग भी बहुत कम हैं और जो लिखते-बोलते हैं, वे भी अक्सर इसके वास्तविक कारणों पर ध्यान नहीं देते।`` ऐसे दौर में यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ती पर्यटन की गतिविधियों से एक आम ग्रामीण की जिन्दगी में दरअसल क्या परिवर्तन आया है, क्या उसकी जीवन-चर्या में इसका कोई सकारात्मक असर दिखाई देता है? तथ्य और आंकड़े तो यही बताते हैं कि इससे उसकी जिन्दगी और जीवन-निर्वाह और कठिन हो गया है, उसका अस्तित्व और अस्मिता दोनों लगभग खतरे के निशान को पार करने लगे हैं।
जो गांव किसी बड़े शहर के करीब थे, उनका अलग अस्तित्व अब समाप्त हो गया है, वे जमीनें जिन पर कभी किसानों की फसलें लहलहाती थीं, अब उन पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो गये हैं और वे छोटे या मंझोले किसान, जो उसी जमीन पर अपने परिवार के लिए दो-जून रोटी कमा लिया करते थे, अब बेगारी और बेरोजगारी के गहरे अंधेरे में धकेल दिये गये हैं। यही हाल राष्ट्रीय राजमार्गों और नये विशेष आर्थिक क्षेत्रों की प्रक्रिया का है। जमीनों की खरीद-फरोख्त से होने वाला मुनाफा उन्हीं कंक्रीट-जंगल के दावेदारों के हिस्से में चला गया है, जो इस कारोबारी कला के सबसे कुशल कारीगर हैं। सन् १९९० के बाद के नये आर्थिक सुधारों ने जो परिस्थितियां पैदा की हैं, उनमें गांव के किसानों और छोटे कारीगरों का तो जो बुरा हाल हुआ है, उससे उबर पाने का कोई रास्ता खुद उन नीति-निर्माताओं के लिए भी एक अजूबी पहेली की तरह हो गया है। हालांकि वे दावा यही करते हैं कि सब-कुछ उन्हीं की सोच-बूझ के अनुरूप हो रहा है और लगातार देश की आर्थिक प्रगति को विश्व-मंच पर इसी तरह पेश किया जा रहा है - विश्व बैंक और विकसित देश भी भारत की इस प्रगति से काफी संतुष्ट दिखाई देते हैं, दुविधा अगर कोई है तो उसी ग्रामीण और निम्न वित्त वर्ग का शहरी को लेकर है, जिसे अपनी आर्थिक कठिनाइयों से उबर पाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। सूखा-बाढ़ और आंधी-तूफान के आगे तो असहाय वह सदियों से रहा ही, अब आजाद लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी अपनी आर्थिक कठिनाइयों, बेरोजगारी, विस्थापन, भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्याओं से लड़ता हुआ वह अपने आपको अकेला और असहाय ही पाता है। पी. साईनाथ जैसे खरी-खरी लिखनेवाले संवेदनशील मीडियाकर्मियों ने अपनी बरसों की मेहनत से ऐसे पीड़ित लोगों के बीच काम करते हुए इनकी वास्तविक समस्याओं को सामने लाने का जो प्रयत्न किया है, वह वाकई काबिले गौर है। खासतौर से उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश और विदर्भ के किसानों की गरीबी का हाल बयान करते हुए उन्होंने विगत २५ जून २००५ के 'दि हिन्दू में छपी एक रिपोर्ट में उन्होंने कहा भी है - ''विदर्भ में कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा है। और यह तब जबकि उनको गिनने का तरीका भी गलत होता है। एक वरिष्ठ अधिकारी कहता है - 'हम जो तरीका अपनाते हैं, वह इसकी जांच करने के लिए होता है कि आत्महत्या से हुई मौत का मुआवजा दिया जाना चाहिये या नहीं। बस! हमें इससे कोई मतलब नहीं कि आत्महत्या क्यों हुई।`....बहुत-सी आत्महत्याएं कर्ज के कारण की गई आत्महत्याएं नहीं मानी जातीं। फिर भी, गल़त गिनती के बावजूद, जो आंकड़े सामने आते हैं, चौंकाने वाले होते हैं। पिछले साल अकेले यवतमाल जिले में इतनी ज्यादा आत्महत्याएं हुई कि २००१ में १७ के मुकाबले २००४ में उनकी संख्या १३२ हो गयीं! यानी चार साल में लगभग आठ गुनी।``
विचारणीय बात यह है कि ऐसे में ग्रामीण पर्यटन को किस नजरिये से देखा जाय! हालत यह है कि अपनी गरीबी और दीन-दशा के कारण वह वैसे भी सैलानियों के लिए एक अवांछित आदमी की तरह है। जिस गांव में वह रहता है, वहां अब उसके लिए कोई काम नहीं रह गया है, पैसा खर्च करके प्राप्त की जा सकने वाली बिजली-पानी की सुविधाएं वैसे ही उसकी पहुंच से बाहर हैं। जन-संचार और दूर-संचार के साधनों का उसके लिए कोई खास अर्थ-मतलब नहीं है, वे अब भी उसके लिए विलासिता की चीजें हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग भी वह और उसका परिवार कम ही कर पाता है। अपनी बढ़ती हुई संख्या और दीन-हीन दशा के कारण वह भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और जन-संचार के व्यावसायिक माध्यमों के लिए स्वयं किसी मनोरंजन से कम नहीं रह गया है। उनके क्राइम-वारदात के सनसनीखेज सीरियल उसी के तो बूते पर चलते हैं, जो विज्ञापन जगत में अच्छा बिजनस बटोरते हैं। राजनीतिक दलों के लिए भी मतदाता तो वह है ही, इसलिए उसे अनदेखा भी नहीं किया जा सकता - ऐसे में एक ही तरीका बच रहता है कि उसके सामने देश की गरीबी और बढ़ती हुई आबादी का रोना रोया जाय, और वह भी कुछ इस अंदाज में कि इसके लिए भी वही अपने आपको कोसे! उसे बताया जाता है कि देश लगातार तरक्की कर रहा है, लेकिन वे अभागे लोग अपने पिछड़ेपन, अशिक्षा और अपनी सामाजिक बुराइयों के कारण उस प्रक्रिया में भाग नहीं ले पा रहे हैं, उन्हें जल्द-से-जल्द अपनी इन कमजोरियों पर काबू पाना चाहिए और विकास की मुख्य-धारा में शामिल हो जाना चाहिए। वह जब तक अपनी दुरावस्था पर इस तरह के विवेचन और व्याख्यान सुनता रहेगा, उससे बाहर निकलने के उपाय पर खुद कोई विचार या पहल नहीं करेगा और उन लोगों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य नहीं कर देगा, जो उसी बूते पर अपनी राजनीति और सार्वजनिक जीवन में जिन्दा हैं, तब तक इस विकट परिस्थिति का क्या हल संभव है, कहना आसान नहीं है!

 - नंद भारद्वाज  

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