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दान की प्रेरणा
यह घटना 1894 और 1896 के समय के बीच की है। उन दिनों स्वामी विवेकानन्द शिकागो की विश्व परिषद में नाम कमाकर दर्शनशास्त्र के महान पंडित और योगी के रूप में सारे अमरीका में प्रसिध्दि पा चुके थे। श्री रॉकफेलर के मित्रों ने उनसे आग्रह किया कि वे स्वामी जी से मिलें। लेकिन रॉकफेलर में अहंकार और पैसे की अकड थी। सो उन्होने कई बार इस सुझाव को ठुकरा दिया। लेकिन अंत में मित्रों के आग्रह का मान रखते हुए वे शिकागो में स्वामीजी से मिलने पहुंच गये।वहाँ द्वारपाल को बाजू में सरकाते हुए उन्होने कहा, ''मुझे स्वामीसे मिलना है'' और दस्तक दिये बिना ही वे स्वामीजी के कमरे में घुस गये। स्वामीजी कुर्सी पर बैठे कुछ लिख रहे थे। रॉकफेलर को बडा आश्चर्य हुआ कि स्वामी ने न तो कुछ पूछा न ही ऊपर की ओर देखा कि कौन आया है। इससे वे कुछ सहम से गये। शायद उन्हे अपमानित सा लगा और गुस्सा भी आया। कुछ देर पश्चात स्वामीजी ने श्री रॉकफेलर के पिछले जीवन के संबंध में अनेक तथ्य उद्धृत किये जो सिवाय रॉकफेलर या उनके कुछ एक करीबी मित्रो को छोड क़िसी अन्य को पता होना असम्भव सा था। स्वामी ने यह भी सीख दी कि पैसा आपके पास विश्वस्त के रूप में आया है। वह तो ना आपका है ना ही आप उसके मालिक या हकदार हो। आपका तो बस इतना ही कार्तव्य बनता है कि वह धन लोक कल्याण मे लगाये। खुद केवल एक माध्यम बने और समाज कल्याण और उन्नति ही ध्येय रखें। धन दे कर ईश्वर ने उनपर उपकार सा किया है। इसलिये समाज सेवा के माध्यम से वे उसका ॠण उतारने का प्रयास करें। धन का योग्यता के अनुरूप दान करना ही मनुष्य का धर्म है और महानताकी निशानी है। श्रीमंत जॉन डी रॉकफेलर ने ऐसा व्यवहार ना तो कभी देखा था ना कभी सोचा था। वे तो समझ्ते थे कि उनकी उपस्थिति में सामने का व्यक्ति उन्हे सलाम करता है और अपने आप को धन्य समझता है। पर यहां तो उलटा ही दृष्य देखाने को मिला। स्वामीजीने कोई हडबडी नहीं जताई। कोई मान सम्मान का इजहार नहीं किया। मानो एक सामान्य व्यक्ति उनसे मिलने आया हो। रॉकफेलर कुछ चिढ से गये। स्वामी को अलविदा भी नहीं कहा और वे गुस्से में वहां से चल दिये। एक सप्ताह के बाद श्रीमंत जॉन डी रॉकफेलर फिर उसी भांति बिना इजाजत मांगे स्वामीजी के कमरे में पहुंच गये। इस एक सप्ताह में श्रीमंत जॉन डी रॉकफेलर ने अपनी असीम संपत्ति में से कुछ एक अंश दान के लिये अलग निकाल रखा था। समाज सेवा और विकास के कार्यो में धन लगाने की योजना बनाई थी। उस योजना को दर्शाने वाले कागजात स्वामी जी को दिखाने वें साथ लाये थे। दस्तावेज स्वामीजी के टेबल पर फेंकते हुए उन्होने कहा ''लो स्वामीजी देखो अब तो तुम खुश हो कि मै बहुता सा धन दान और सहायता के रूप में बांटने जा रहा हूं''। स्वामी विवेकानन्द ने सहाजता से उन कागजात को देखा और अपने चिरपरिचित शांत और धीर गंभीर स्वर में कहा ''मैं आपको क्यों धन्यवाद दूं? बल्कि इस नेक कार्य के लिये प्रवृत्त करने के लिये तो आपको ही मुझे धन्यवाद करना चाहिये।'' ईश्वर का धन ईश्वर की सन्तान के उध्दार और सेवा में लगाना स्वामीजी के लिये सहज और योग्य व्यवहार था। उनके लिये इसमें अपने आप को महान दानी मनना अहंकार का प्रतीक था। इसलिये स्वामीजी ने श्री रॉकफेलर से कहा कि अपने आप को महान मानने का कोई कारण नहीं। शुक्रिया उस ईश्वर का अदा कारो उस ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव मनमें लाओ जिसने तुम्हें धन मान और सम्मान दिया है। साथमें इस धन को अच्छे कार्य में लगाने की सद्बुध्दि और समझ भी दी है। यह थी स्वामी विवेकानन्द और श्रीमंत जॉन डी रॉकफेलर की पहली भेंट और यहीं से शुरू होती है कल्याणकारी रॉकफेलर फौडेशन की दास्तान। जून 1, 2000 |
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