मुखपृष्ठ कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |   संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन डायरी | स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

मां काली के दर्शन  

भारत में कलकत्ता से 60 मील की दूरी पर बसा है एक गाँव कामारपुकुर यहॉ सन 1836 में 18 फरवरी को श्री रामकृष्णदेव का जन्म हुआ था पिता थे क्षुदीराम और माता चन्द्रामणीदेवी बचपन में बालक गदाधर- श्री रामकृष्ण का बचपन का नाम - स्वस्थ, सुदृढ और उत्साह से परिपूर्ण थे अपने साथियों के साथ खेत खलिहान में खेलना क़ृष्ण तथा शंकर भगवान की लीला पर आधारित छोटे छोटे नाटक रचना ज़गन्नाथपुरी की यात्रा पर निकले साधुओ के साथ रहना और उनकी सेवा करना यह गदाधर के बचपन की विशेषतायें थी इन्ही दिनों उन्हे एक बार धान के खेत में सुन्दर नैसर्गिक सौंदर्य निहारते हुए और एक बार नाटक में शिव की भूमिका निभाते हए अचानक समाधि की अवस्था प्राप्त हुई थी परिवार जन इस मूर्छा को मिरगी की बीमारी समझकर उन्हे हकीम वैद्य के पास ले गये लेकिन बालक रामकृष्ण ने कहा ''मुझे कुछ नहीं हुआ मै स्वस्थ हूं।''

श्री रामकृष्ण की स्मरण शक्ति बहुत तेज थी वे एक बार जो गीत क़था या वर्णन सुन लेते तो उन्हे वह हमेशा के लिये याद हो जाता उसी प्रकार उनकी वाणी अतिशय मधुर थी और गीत गाने का अन्दाज बहुत न्यारा आसपास के सभी लोग उनकी आवाज के जादू से मोहित हो जाते रामकृष्ण एक अच्छे अदाकार भी थे पौराणिक प्रसंगो को वे बखूबी स्त्री एवम् पुरूष दोनो की अदा में प्रस्तुत कर सकते थे उनकी अदाकारी के बखान गाँव के सभी छोटे बडे करते

बचपन में उन्हे गाँव की प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया वहॉ वे बंगला पढना लिखना सीख गये किन्तु गणित उन्हे कभी रास नहीं आया व्यवहार की भाषा और सौदेबाजी से उन्हे बचपन से ही नफरत थी अंकगणित में उन्हे लेन देन का ओछापन नजर आता इन्ही दिनो उनके पिता चल बसे बडे भाई रामकुमार को रामकृष्ण की फिकर थी  रामकुमार संस्कृत में विशेष पारंगत थे और उन्होने कलकत्ता में एक संस्कृत पाठशाला शुरू करने की योजना बनाई थी इस सिलसिले में रामकुमार सन 1852 में रामकृष्ण को अपने साथ लेकर कलकत्ता पहुंचे

दक्षिणेश्वर स्थित काली मंदिर पाठशाला की आमदनी से उनका गृहस्थ जीवन सुचारू रूप से नहीं चलता था धन की कमी से उन्होने काली मंदिर में पुजारी की नौकरी कर ली थी1855 में 9 लाख रूपये की लागत से रानी रासमणी ने दक्षिणेश्वर स्थित लाजवाब काली मंदिर बंधवाया था शास्त्र के अनुसार एक ब्राम्हण पुजारी ही मा काली और राधाश्याम की विधिवत पूजा अर्चना कर सकता था सो रामकुमार को यह जिम्मेदारी सौंपी गई किन्तु रामकुमार के अचानक मृत्यु के कारण रानी के जवाई मथुरनाथ ने श्री रामकृष्ण को मा काली की पूजा अर्चना का भार सौंपा

वैसे तो हर मंदिर में एक पुजारी होता है जो उस में प्रतिष्ठित देवता या देवी की आराधना पूजा और अर्चना में अपने आप को लगाये रहता है लेकिन इस कार्य में पुजारी केवल एक नौकर भर रहता है और कुछ मासिक आमदनी के लिये वह कार्य करता है लेकिन श्री रामकृष्ण देव की बात असाधारण थी वे घंटो मा काली की पाषाण मूरत को निहारते और पत्थर में चिन्मयी मां को तलाशते इस कठोर व्रत में वे अपना देहभान भूल जाते शरीर और देह की भूख का उन्हे खयाल भी न आता और रह जाती बाकी केवल हृदय की तडप''क्या मा पाषाण की केवल एक मूर्ति हैं या वह सचमुच जगतजननी हैं क्या वह भक्त की आराध्या नहीं क्या वह साधक का साध्य नहीं'' ऐसे कई विचार और प्रश्न रामकृष्ण देव के मन को भ्रमित करते

वे अतिउत्कंठा से मा से कहते ''मा क्या इस बालक को अपना असली स्वरूप नहीं बताओगी मै नादान अज्ञानी हूं। मुझे ज्ञान से परिपूर्ण कर दो मुझे दर्शन दो मां हे मां मुझे दर्शन दो यह कहते कहते भूख और कमजोरी से प्रभावित मनसे अशांत रामकृष्ण मा काली की मूर्ती के समक्ष दिल खोलकर जोरजोर से रोते जैसे बालक अपनी सचमुच की मां से बिछड ग़या हो मंदिर में उपस्थित अन्य लोग रामकृष्ण के उस अनोखो व्यवहार को समझ नहीं पाते और उन्हें पागल तक कहते

दिन बीतते गये और साथ में श्री रामकृष्ण देव की व्याकुलता भी अब मा से दूरी उनके लिये असह्य होने लगी और एक दिन भावावेष में उनकी नजर मां काली के मंदिर में स्थित खड्ग पर पडी''मा दर्शन दे अन्यथा जीवन जीने में क्या लाभ यह देख अब मुझे जीने की कोई चाह नहीं रही इस खड्ग से मै मेरे जीवन का अन्त कर रहा हूं।'' सो कहकर अब श्री रामकृष्ण देव अपनी गर्दन पर वार करने ही वाले थे कि स्वयं मा काली उनके सन्मुख प्रकट होकर बोली ''बेटा रामकृष्ण यह क्या कर रहे हो यह देख तेरी मां तेरे सामने खडी है फेंक दे वह तलवार''

श्री रामकृष्ण देव एक असाधारण मनस्थिति में पहुंच चुके थे वह दैवी भाव था जहॉ संसार के परे आध्यात्मिक जीवन शुरू होता है उन्होने देखा कि मंदिर छज्जे दिवारें सारा कुछ एक अपूर्व और अलौकिक प्रकाश में विलीन होता जा रहा है चिन्मय प्रकाश के सागर में उन्हे सारा संसार अनेक लहरों में व्याप्त दिखाई देने लगा चारो ओर से आनन्द की लहरे उमड रही थी और उनकी ओर बढ रही थी मां मां कहते कहते श्री रामकृष्ण देव आनंद समाधि में लीन हो गये

कुछ समय पश्चात श्री रामकृष्ण देव को होश आया अब उन्हे सर्वत्र मा काली का हंसता खेलता रूप नजर आता मा की अभयदायी मूर्ति उन्हे सब ओर नजर आती और मां काली ही तत्पश्चात उनकी मित्र गुरू और सखा बन गयी

डॉ सी एस शाह
सितम्बर 2, 2000

Top
 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com