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दिव्य प्रेम

          हमारे जीवन ने इसे परिभाषित किया है फिर भी हमारा जिज्ञासु मन इसको जानना चाहता है, उसपर मनन करता है, उसका मानसिक चित्रण करने का प्रयत्न करता है और एक दार्शनिक की भांति उसपर तर्क करता है संसार की भौतिकताओं में लिप्त हो हम भूल जाते है कि ईश्वर का वास हमारे अंदर ही है ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बहुत कठिन प्रतीत होता है, जिसमें समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग करना पडता है लेकिन अगर हम ईश्वर द्वारा प्राप्त दिव्यदृष्टि का उपयोग कर आत्मचिंतन करें और समस्त दैवीय शक्तियों को संचित कर उन प्रश्नों का उत्तर ढूंढे तो उत्तर हमें स्वयं ही प्राप्त हो जायेगे और जीवन का पथ सुगम हो जायेगा

बन्धुत्वहम
सभी को स्वतंत्र रहना प्रिय है, वो किसी भी रूप में क्यों न हो स्वतंत्र रहना मनुष्य का एक स्वाभाविक भाव है ये जानते हुए भी हमारे लिए प्रकृति के नियमों को स्वीकार करना कठिन क्यों है? यदि हम प्रकृति में विद्यमान पुष्पों, वृक्षों, जीव-जन्तुओं, झरनों को स्वीकार कर सकते है और उनकी उपस्थिति के विरूध्द कभी भी प्रकृति पर दोषारोपण नहीं करते तो स्वतंत्रता पर ही संदेह क्यों? यदि हम प्रकृति का आनंद उठा सकते है तो स्वतंत्र रहने का क्यों नहीं? प्रकृति की नैसर्गिक सुन्दरता का हम, अपने सभी प्रियजनों के साथ मिलकर आनंद उठाते है लेकिन स्वतंत्र रहने का अधिकार हम अपने तक ही सीमित क्यों रखते है

हमारे पुराणों के अनुसार पुरूष को शिव का तथा स्त्री को शक्ति का रूप माना गया है शिव व शक्ति का अटूट प्रेम विश्वविख्यात है उनका एक दूसरे के प्रति असीम प्रेम और आकर्षण ही, प्राकृतिक भाव से उनके मूर्त रूप अर्थात् मनुष्य में साकार हो दूसरों के प्रति प्रेम तथा आकर्षण का भाव उजागर करते है शिव व शक्ति का प्रेम भाव प्रकट करने के असंख्य तरीके है और उसी के परिणामस्वरूप मनुष्यरूपी कृति की रचना ईश्वर ने की हैं मनुष्य का जीवन दैविय क्रीडाओं का एक क्रीडा स्थल मात्र हैं

विवाह ही एक सूत्र है जिसमें बंधकर दो अनजान प्राणी आपसी अपरिचितता को त्याग कर एक हो जाते है लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि इस समाज ने विवाह को समझौते के रूप में परिभाषित किया है, उसके कथन के अनुसार विवाह वह संबंध है जो हमारे जीवन की एक आवश्यकता है, जो हमें किसी पर आश्रित होना सिखाती है इसका सार है कि समाज द्वारा लिखे नियमों का पालन करों न कि इन संबंधों को आपसी प्रेम से सिंचित करों ये हमारे समाज की कैसी विडम्बना है

सच्चा प्रेम किसी भी प्रकार की निर्भरताओं तथा आशाओं से परे होता हैसिर्फ आप और यह बह्मांड, इसी में हमारी दुनिया लिप्त रहती है

विचार या भावनाएं?
जब मै आठवीं कक्षा में थी, तब हमारे विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था, जिसका विषय था - जीवित रहने के लिए क्या आवश्यक है  दिल या दिमाग ? काफी रूचिकर प्रश्न है। समय के प्रवाह के साथ यह विषय भी मेरे मस्तिष्क से धूमिल हो गया परन्तु आज ये सत्यता के रूप में फिर से उजागर हो गया है। मैंने यहां दिल को भावनाओं ' तथा दिमाग को  विचारों से अनुवादित किया है। फिर से इस गहन प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना दुष्कर प्रतीत हो रहा है कि क्या आवश्यक है - विचार या भावनाएं? विचार हमें जीवन के रसातल तक ले जाते हैं। विचार ही हमें जीवन का पर्याय ढूंढने, विश्लेषण करने, आशय समझने, निष्कर्ष निकालने में सफलता प्राप्त करवा सकते हैं। हम किसी भी परिस्थिति का विश्लेषण, संदेह उत्पन्न होने पर ही करते है। परन्तु ईश्वर की उपस्थिति में कोई संदेह या प्रश्न नहीं है। इसका प्रमाण सत्यता पर आधारित है। भावनाएं भी विचारों से ही उत्पन्न होती है। सिर्फ भावनाओं को हम जीवन में अनुभव कर सकते है लेकिन विचार हमारी कल्पना-मात्र हैं। भावनाएं एक सत्यापित प्रमाण है और विचार को संदेहात्मक रूप से सत्य की तरह स्वीकार किया गया है।

सुख
हमें जीवन में अनेक वस्तुएं प्रभावित कर सुख या दु:ख का अनुभव करवाती है कुछ सुख व दु:ख बाह्य कारणों तथा कुछ का अनुभव हमारे अंदर निहित भावनाओं पर केन्द्रित होता है बाह्य कारण स्थायी नहीं होते परन्तु इसका तात्पर्य यह कि सभी निहित कारण स्थाई होते है जब हम अपने अंतर्मन का विशलेषण करते है तो अपनी मन:स्थिति का झुकाव उस दिशा में करते है जिसमें हम अधिकाधिक सुखों का भोग कर सकें लेकिन अगर हमारा केन्द्र बिंदु बाह्य कारणों का विशलेषण मात्र है तो हम अपने भाग्य को अपने सुखों का निर्णायक मानकर सभी परिस्थितियों को स्वीकार कर लेते है यह भी तय है कि मनुष्य सर्वसम्मति से सुखों का ही भोग करना चाहता है लेकिन हमें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारा जीवन चक्र सुख-दुख का ही दूसरा पर्याय है और इस चक्र को बिना हेर-फेर के यदि स्वीकार किया जाए तो जीवन सुगमता से व्यतीत हो सकता है परन्तु हम समस्त जीवन इसी हेर-फेर में ही लगा, जीवन की दौड में शामिल हो जाते है और रास्तों को दुर्गम बना देते हैं

लेकिन क्यों? हम सोचते है कि धन ही हमें समस्त सुख प्रदान कर सकता है हम सोचते है कि रतिक्रीडा हमें सुख प्रदान कर सकती है हम विचार करते है यहीं एक जटिल समस्या है विचार ही संदेह की उत्पत्ति का मूल कारण हैं

मैं आपको एक सरल उदाहरण देना चाहती हूं
मैं एक मां हूं मैने यह सुन्दर साइकिल अपने पुत्र को उसके जन्मदिन पर भेंट की थी उसने कई बार अपनी इच्छा से अवगत कराया था और मैं भी भलीभांति इस बात से परिचित थी कि उसको साइकिल की आवश्यकता है वह मेरे पास आकर तर्क करता था जो कि परिहास का विषय बन जाते थे मैं चाहती थी कि वह अपने जन्मदिन तक संयम रखे तथा उसको यह एहसास कराना चाहती थी कि उसे अपनी मां के कहे शब्दों पर विश्वास करना चाहिए कि कोई भी वस्तु हमें समय आने पर ही प्राप्त होती है मुझे विश्वास है कि आपको इसका अभिप्रार्य समझ में आ गया होगा ईश्वर पर विश्वास रखियें वो जो भी दिशा हमारे जीवन को देंगा वो सम्पूर्णता व खुशहाली से परिपूर्ण होगा उसपर हमें अपना विश्वास दृढ रखना होगा, किसी भी संदेह व विचारों से मुक्त

देवालय रूपी शरीर
हमारा शरीर एक मंदिर के समान हैं और उसमें निहित आत्मा देवप्रतिमा का स्वरूप हैं दोनो एक दूसरे के पूरक हैं यह बहुत आवश्यक है कि हमें इस मंदिर का सम्मान करना चाहिए क्योंकि यहीं वह स्थान है जहां ईश्वर का वास हैं जिस प्रकार हम भगवान की नतमस्तक हो उपासना करते है, इस शरीर का भी हमें सम्मान करना चाहिए ईश्वर हमारी आत्मा के विचारों की गति इस शरीर के द्वारा ही निर्धारित करता है शरीर ही हमें इस ब्रह्याण के पंचतत्वों में विलीन हो उस परम परमेश्वर के दर्शनों का सुख प्रदान करता है ओह! कितना विलक्षण अनुभव है उस मनमोहक परमपिता के साक्षात् अवलोकन में

कौन सी शक्ति ईश्वर में लीन होने में बाधित है? जिस प्रकार हम पूजा-वेदी को विभूषित कर ईश्वर की अराधना करते हैं उसी प्रकार कौन इस शरीर के अंतर्मन को, शुध्दीकरण रूपी श्रृंगार से आभूषित नहीं करना चाहेंगा प्रकृति की सृजनात्मक सुन्दरता इस बात का द्योतक है कि स्वयं ईश्वर भी सौन्दर्य के उपासक हैं एक-एक कृति उनके लिए नन्हें बालक के समान है, जिनसे जननी की भांति उन्हे असीम स्नेह है इसलिए अपने अंतर्मन का पवित्र विचारों से सुन्दरीकरण कर इस शरीर को एक नवीन समाज के जनक-जननी की भांति उपयोग करों इस शरीर को ईश्वर का वरदान प्राप्त है कि किसी के मन में प्रेम भाव को उत्पन्न कर सकता है, किसी में नवीन प्राण फूंक सकता है तथा एक नई कृति को इस संसार में जन्म दे सकता है इस प्रकार अपने कर्मों को तल्लीनता पूर्ण सम्पन्न करके इस शरीर को ईश्वर भक्ति में लीन कर अपना जीवन समर्पित कर दो हम ईश्वर का आवाहन ध्यान, रेकी, योग, ताईची, पूजा, तंत्र द्वाराजो विधि सें आप अपने को ईश्वर के अधिक समीप महसूस करते है, कर सकते है ईश्वर को पाने के लिए वनों, पर्वतों में भटकना आवश्यक नहीं, उसका वास तो हमारे अंदर ही हैवरन् वह तो कण-कण में विद्यमान हैं

स्वास्थ्य
हमारा शरीर हमारे विचारों का दर्पण है अगर हमारे विचार सकारात्मक तथा स्वस्थ होगे तभी हम स्वस्थ शरीर की अपेक्षा कर सकते है हमें अपनी भावनाओं को प्रकट करने का समान अधिकार होना चाहिए - चाहे वो सकारात्मक हो या नकारात्मक इसके लिए एक स्वस्थ वातावरण की आवश्यकता है जिसमें हम स्वतंत्र हो अपने विचारों को प्रकट कर सकें और हमारें विचारों और भावनाओं को तुलनात्मक रूप से न मूल्यांकित न किया जाए क्योंकि भावनाएं हमारे मन के वह उद्गार हैं जिनको सही या गलत के तराजू पर तौलना न्यायोचित् नहीं होगा

हमारे सभी प्रकार के गुण-दोषों को जानते हुए भी जो हमसें प्रेमभाव रखता है वह ईश्वर द्वारा प्राप्त सबसे अनमोल भेंट है और वह कोई नहीं अपितु स्वयं ईश्वर है सृष्टि का यह नियम है कि यदि हम किसी से कुछ भी अपेक्षा रखते है तो हमें देने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। किसी से भी प्रेम बिना किसी आशा या अपेक्षा के करना चाहिए और यदि कोई आपके प्रति प्रेमभाव रखता है तो बिना किसी शंका व संदेह के उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन यह हमारी त्रासदी है कि इस प्रकार के वातावरण का अभाव हमारे में दमनकारी तथा अवरोधक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता हैं। और शीघ्र ही हम इस दमघोंटू आवरण से निकल मुक्त हो श्वास लेना चाहते हैं। हमारा शरीर तथा मस्तिष्क एक दूसरे के पूरक हैं। अत: यदि हमारे मस्तिष्क पर दमनकारी प्रवृत्तियां अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती है तो शरीर उसका विद्रोह करता है। हमारा शरीर हमारे अंदर उत्पन्न हो रही भावनाओं को प्रकट करने में सक्षम है। तो इसका समाधान क्या है, अगर हम उन कारणों को ढूंढ पाने में असमर्थ है जिसमें हम किसी भी प्रकार के प्रेमभाव को बिना किसी प्रतिबन्ध के स्वीकार कर सकें? यह समस्या इतनी जटिल नहीं परन्तु उससे पहले हमें अप्रतिबन्धित रूप से स्वयं के प्रति प्रेमभाव उत्पन्न करना सीखना होगा। उस प्रक्रिया में उत्पन्न हो रही नकारात्मक भावनाओं का भी विशलेषण करना होगा जो रोगों की भांति हमारे शरीर में बीज बोकर उसे रोगग्रस्त कर देती है। अगर हम इन बीजों को नष्ट नहीं करेंगे तो यह विकसित हो एक विशालकाय वृक्ष का रूप ले लेगा जिसका विनाश असंभव हैं।

समझो, जानो,स्वीकार करों
अपने मस्तिष्क से साक्षात्कार करों

प्रशंसक बनों, खुश हो इसका आलिंगन करों

मूलकथा एंव ग्राफिक - वैश
अनुवाद: नीरजा सक्सेना


 

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