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सुख कैसे सुखी रहें? मानव सभ्यता के आरंभ से ही यह प्रश्न मनुष्य को परेशान करता आया है। दार्शनिक, कवि, लेखक, विचारक, वैज्ञानिक और नेता इन सभी लोगों ने अपने अपने तरीकों से इस प्रश्न के उत्तर की खोज और व्याख्या करनी चाही है। किन्तु आज भी, मनुष्य के पहली बार स्वयं से यह प्रश्न पूछने से लेकर आज हजारों वर्ष बाद भी यह प्रश्न अनुत्तरित है। वर्तमान समय में आज जब हमारे पास नये युग के आधुनिक चिन्तक हैं, नई पीढी क़े दार्शनिक हैं और मैनेजमेन्ट मसीहा हैं और हमारी समस्याओं के तुरन्त निदान करने वाले विशेषज्ञ हैं, आध्यात्मिक स्वर्ग का सुख देने वाले गुरु और इसी संसार त्वरित मोक्ष का अनुभव दिलाने वाले स्वामी आदि हैं। किन्तु सुखी कैसे रहें यह प्रश्न ज्यों का त्यों है।
अभी हाल ही
में मैं इस प्रश्न के बहुत रोचक और सुख और दुख पर प्रकाश डालने वाले
उत्तर से रू ब रू हुआ जिसे मैं आपसे बांटना चाहूंगा।
श्री श्री रवि शंकर जी, द आर्ट ऑफ लिविंग संस्था के संस्थापक
कहते हैं कि - यहां दो मुख्य कारण हैं दु:ख के, अतीत का पछतावा और
भविष्य की चिन्ता।
कितना बडा सत्य! कितनी ही बार क्या हमने नहीं सोचा होगा कि , काश
मेरा विवाह किसी और से हुआ होता या हाय! मैं ने वह दूसरी वाली नौकरी
स्वीकार क्यों नहीं की?, मैं ने अपने इम्तहानों में जरा गंभीरता से
पढाई की होती
।
या फिर ओह! क्या होगा अगर मेरा इन्टरव्यू में चयन नहीं हुआ
तो!, क्या होगा अगर मुझे बैंक लोन नहीं मिला तो!, क्या होगा,
अगर मेरी प्रेमिका के माता पिता ने मुझे स्वीकार नहीं किया तो! आदि
आदि।
हमारा मस्तिष्क हमेशा अतीत और भविष्य के बीच उलझा रहता है।
या तो हम फैल चुके दूध के लिये दु:खी हो रहे होते हैं या हम उस पुल
को पार करने के प्रयास में होते हैं जिस तक अभी हम पहुंचे तक नहीं
हैं।
अनावश्यक रूप से हम हो चुकी घटनाओं पर अपनी माथापच्ची करते हैं या जो
होने वाला है उसकी चिन्ता में वर्तामान को व्यर्थ करते हैं।
बीत चुके कल के पश्चाताप और आने वाले कल की उत्सुकता में हम आज के
पलों को खो देते हैं। हम सभी इस प्रकृति प्रदत्त बिना स्वचेतन हुए बच्चे की तरह वर्तमान के क्षण में जीने के इस गुण को खो चुके हैं। जबकि यह सबसे बेहतर तरीका है जीवन में खुशी ढूंढने का बजाय इसके कि हम पैकेज्ड मोक्ष और ब्रान्डेड निर्वाण के लिये भागें। अन्तत: मैं खैयाम के इन अमर शब्दों के साथ निष्कर्ष पर पहुंचना चाहूंगा :
'कल
हम न थे,
कल
हम न होंगे
मूलकथा - रमेन्द्र कुमार
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