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गुजरात
में कौन जीता ?
क्या साम्प्रदायिक
शक्तियां जीतीं ? वस्तुतः जीत तो उदारवादी शक्तियों की ही हुई है, उन
उदारवादी शक्तियों की जीत हई है, जिन्हें साम्प्रदायिक शक्तियों के
आक्र्रमण से अपनी रक्षा हेतु संगठित होना पडा।
इन
उदारवादियों का संगठन एवं अभियान प्रतिक्रियात्मक है, ज्योंही
सांप्रदायिक शक्तियों से खतरा कम हो जाएगा ये पुनः वैसी ही पारम्परिक
उदार हो जाएंगी - इतिहास इसका गवाह है।
किन्तु वक्र दृष्टि से देखें तो आयातित आतंकवादी शक्तियां, चाहे आंशिक ही
सही, जीतीं; वे उदार हिन्दुओं को भडक़ाकर हिंसा फैलाना चाहती हैं।
और
उन्होंने हिंसा फैलाई।
यही उनकी सफलता है।
यह तो भारतीय उदारवादी जनमानस है कि वह हिंसा केवल गुजरात के एक छोटे भाग
में फैल पाई और अन्य स्थानों में नहीं फैली; यह आयातित आतंकवादियों की
असफलता है।
यह भी प्रमाणित तथ्य है कि भारत में अधिकांश हिंदू-मुस्लिम दंगे मुस्लिम
ही शुरू करते हैं, तथा इन दंगों में जान-माल का अधिक नुकसान हिन्दुओं का
ही होता है।
तथाकथित सैक्युलर सरकारें तथा राजनैतिक दल मुसलमानों के तुष्टीकरण के
लिये तत्पर रहते हैं क्योंकि उनकी एक मान्यता जो कि विपर्यस्त तर्क पर
आधारित है -कि 'जनतंत्र में बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यकों की रक्षा करना
आवश्यक है।'
पहली बात तो यह कि सच्चे जनतंत्र में ऐसी सुरक्षा - मानवाधिकारों के तहत
उसके संविधान में होना चाहिये और यह भारतीय जनतंत्र में है, अतएव संविधान
के बाहर जाकर ऐसी रक्षा का दावा करना ्र अनैतिक राजनैतिक लाभ लेने का
नाटक है।
भारत में ऐसा उदार संविधान है तथा उसकी स्वतंत्र न्याय प्रणाली
मानवाधिकारों की रक्षा में सतत सक्रिय है।
दूसरी बात, इस तरह की विपर्यस्त मान्यता वास्तव में जनतंत्र का
सैध्दान्तिक रूप से तथा व्यावहारिक रूप से अपमान है।
यदि किसी को यह भय है कि ये सारे बहुसंख्यक मिलकर अल्पसंख्यकों को उनके
स्वयं के विचारों, मान्यताओं तथा मूल्यों के आधार पर जीने न देंगे तब वह
व्यक्ति या दल भारत के पूरे इतिहास को नकार रहा है।विश्व
गवाह है कि भारत ने सहस्राब्दियों से कितने अन्य धर्मों - यहूदी, पारसी,
मोप्लाई (इस्लाम) और ईसाई - के लोगों को सुरक्षा पूर्वक प्रश्रय दिया है।
यदि भारत के बहुसंख्यक हिन्दू उदार न होते तब सन 47 के बाद से ही
मुसलमानों की आबादी में अधिक वृध्दि न होकर, नगण्य होती, जैसी कि
पाकिस्तान तथा बांग्ला देश में हिन्दुओं की हुई।
जैसा कि स्पष्ट है कि यदि किसी भी राष्ट्र में बहुसंख्यक समाज यदि उदार
नहीं है तब संविधान तथा न्यायप्रणाली चाहते हुए भी अल्पसंख्यकों को नहीं
बचा सकते।
पाकिस्तान और बांग्ला देश, और उन्नीसवीं शती में
तुर्र्की इस के ज्वलंत उदाहरण हैं।
और यदि बहुसंख्यक उदार हैं, तब उस देश का उदार संविधान तथा न्याय-प्रणाली
अल्पसंख्यकों की समुचित रक्षा कर सकेगी, एक शर्त के साथ कि अल्पसंख्यक
बहुसंख्यकों की उदारता का अधिक अनुचित लाभ न उठाएं।
भारतवर्ष इसका जाज्वल्यमान उदाहरण है।
यदि ऐसे देश भारत में विदेशी कट्टरपंथी आतंकवादी बनकर आएं तथा यहां के
कुछ अल्पसंख्यकों को गुमराह कर यहां दंगे और आगजनी फैलाएं तब शासन तथा
न्यायतंत्र भी नि:सहाय-सा हो जाता है क्योंकि आतंकवादी अपना उल्लू सीधा
कर, अक्सर भाग जाते हैं या स्थानीय अल्पसंख्यकों में छिप जाते हैं।जिस
तरह आतंकवदियों की विनाशकारी हिन्सा को रोकने में कश्मीरी तथा भारत शासन
अपने को असमर्थ पाते हैं, उसी तरह गोधरा की हिंसा को रोकने में गुजरात
तथा भारत शासन ने भी अपने को असहाय पाया।ऐसी
स्थिति में एक सीमा आ सकती है कि जब बहुसंख्यक भी क्रोध में आकर, बदले की
भावना से, हिंसा पर उतर जाएं।
ऐसी विषम स्थिति में भी भारत का न्याय-तंत्र यथासंभव न्याय कर पाये जैसा
1984 के दंगों का हो रहा है।।
किन्तु यदि अल्पसंख्यक ऐसी घटनाओं से सीख लेकर आतंकवादियों को प्रश्रय न
दें तथा हिंसा की पहल न लें, तब तो शांतिपूर्ण विकासशील समाज की संभावना
नजर आती है, अन्यथा नहीं।
क्योंकि भारतीयों, विशेषकर हिंदुओं, की उदारता तो एक सिध्द तथ्य है।
यदि भारतीय हिन्दू उदारवादी न होते तब तो 1947 के बाद पाकिस्तान तथा
बांग्ला देश की तरह, भारत में अल्पसंख्यकों की आबादी बढने के बजाय नगण्य
हो जाती।
ब्रितानियों ने कम्युनल (सांप्रदायिक) शब्द का उपयोग मतदाताओं को तथा
सेना में भरती के लिये संप्रदाय के आधार पर
बांटने
के लिये किया था।
इसमें उनका मुख्य ध्येय भारतीयों के संप्रदायों में अलगाव को बढाना था।
ब्रितानी सरकार और मुस्लिम लीग ने तो शुरू से ही इस विभाजन का समर्थन
किया था।
कांग्रेस ने भी 1916 में लखनऊ - समझौते के तहत मुस्लिम लीग को
सांप्रदायिक - निर्वाचन क्षेत्र की मान्यता दी थी।
इस सांप्रदायिकता का मुख्य विरोध, केवल प्रारंभ में कांग्रेस की तरफ से
था, किन्तु कडा तथा सतत विरोध हिन्दू महासभा ने किया था।
एक तरह से हिन्दुत्व आन्दोलन साम्प्रदायिकता के विरोध से प्रारंभ होता है।
और कांग्रेस चतुराई से हिन्दू महासभा को मुस्लिमलीग से जबरदस्ती जोडक़र
दोनों के सांप्रदायिक होने का प्रचार करती रही और यह गलत ठप्पा हिन्दू
महासभा को जड दिया।
और शाहबानो प्रकरण में कांग्रेस जब स्वयं सांप्रदायिक बनी तब भी प्रचार
द्वारा उसने भाजपा तथा हिन्दू महासभा को सांप्रदायिक ही कहा जब कि इन
दोनों संस्थाओं ने शाहबानो प्रकरण में सांप्रदायिक कानून बनाने का विरोध
किया था अर्थात सैक्युलर नियमों का समर्थन किया था।
कांग्रेस मानती है कि मुस्लिम संप्रदाय को समान-नागरिक - संहिता अर्थात
सैक्युलर नियमों के तहत नहीं लाना चाहिये।
किन्तु प्रचार होता रहता है कि कांग्रेस सैक्युलर है और भाजपा
सांप्रदायिक है, नॉन सैक्युलर है।
क्या यह भाजपा की उपलब्धि अद्भुत नहीं है कि भाजपा राज्यों मे, एक ताजा
गुजरात को अपवाद मानते हुए, हिन्दु-मुस्लिम दंगे नहीं हुए।
गुजरात अपवाद बना और इसका कारण आतंकवाद, गोधरा कांड जैसी तीव्र तथा
अमानवीय हिंसात्मक घटना थी जो इस तरह की आतंकवादी घटनाओं की श्रृंखला को
दृढतर कर रही थी।
इस अमानवीय और राक्षसी काण्ड ने उदार गुजरातियों के धीरज के
बांध
को तोड दिया।
आखिर आतंकवाद और दंगे किस सीमा तक बर्दाश्त किये जाएं !
भाजपा ने तो मुसलमानों के हज के लिये सुविधाएं तथा अनुदान की राशि
कांग्रेसियों से भी अधिक बढा दी है।
भाजपा के ऐसे कृत्य सांप्रदायिक कहे जा सकते हैं किन्तु तथाकथित
हिन्दुत्ववादी भाजपा के लिये यह उलट सांप्रदायिकता कहलाएगी; जिसे
'मुस्लिम-तुष्टीकरण' भी कहा जा सकता है।
और भी, शायद कुछ तथाकथित सैक्यलरिस्टों को विश्वास न हो कि पश्चिम बंगाल
के पंचायत चुनावों में कोई 1600 मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा की तरफ से खडे
हुए थे (सुल्तान शाहीन ः 'फॉर ए ग्रैन्ड रिदन्सीलिएश' - हिन्दुस्तान
टाइम्स, 23 अगस्त, 95)।
वैसे भी 1998 का भाजपा का घोषणा पत्र उनकी सच्चे अर्थों में सैक्यलर-नीति
को दर्शाता है, देखिये उसमें एक उध्दरण - ''भाजपा भारत की क्षेत्रीय,
जातिगत, विश्वासगत, भाषाई तथा नृकुल संबन्धी (एश्निक) आदि की विविधता का
न केवल सम्मान करता है, वरन उससे आनन्दित होता है, तथा जिसकी सच्ची
अस्मिता तथा अभिव्यक्ति राष्ट्र की एकता में ही पल्लवित होती है।
भारत की समृध्द परम्परा में वेद, उपनिषद, जैन आगम, त्रिपिटक, पुराण, गुरु
ग्रन्थ साहब, कबीर की रचनावली, भिन्न सुधार आन्दोलन, संत तथा ॠषि, योध्दा
तथा लेखक, शिल्पी तथा चित्रकार के साथ साथ मुस्लिम, ईसाई तथा पारसियों की
भारतीय परम्पराएं भी सम्मिलित हैं।''
और अनेक अवसरों पर भाजपा ने विश्व हिन्दू परिषद, रा स्व सं , बजरंग दल,
हिन्दू महासभा आदि का विरोध किया है जब भी उनके विचार अनुदार हुए हैं।
क्या उदारता की सीमा भी होना चाहिये? क्या उदारता इतनी होना चाहिये कि
अनुदार व्यक्ति उदारता को प्रभावहीन कर दें और स्वयं छा जाएं? नहीं न।
क्या बढती हुए आतंकवादी घटनाएं कश्मीर में उदारतावाद को प्रभावहीन नहीं
कर रही है? क्या वही आतंकवादी आग भारत में जहां तहां नहीं भडक़ जाती है?
इनके प्रति उदार रह कर तो उदारवादी अपना विनाश ही कर सकता है।
गोदरा काण्ड के अपराधियों को हमारा न्यायतंत्र दण्डित नहीं कर सकता।
गोदरा काण्ड भविष्य में न हो, इसलिये गुजराती अनुदार हुए।
अब यदि ऐसे दंगे भविष्य में नहीं होंगे तब गुजराती अपनी पारंपरिक भारतीय
उदारता चरितार्थ करते रहेंगे।
यद्यपि यह मानना भी नितान्त आवश्यक है कि यह बहुत दुखद था, बेकसूर लोगों
की जानें गईं।
दंगों में बेकसूर लोगों की जाने जाते हुए मैं 60-70 वर्षों से देख रहा
हूं।
क्या इसे उदार भावना से रोका जा सकता है? पिछले सौ वर्षों का अनुभव तो
ऐसा नहीं कहता।बांग्ला
देश के निर्माण की पीडा, सारे विश्व का अनुभव, विशेषकर 11 सितंबर का
अनुभव, तो यही कहता है कि आवश्यकता पडने पर अनुदार लोगों को आतंकवादी
दंगे फसाद करने से रोकने के लिये थोडी बहुत अनुदारता का उपयोग किया जाना
चाहिये।घृणा
को या हिंसक को प्रेम से जीता जा सकता है, सभी भारतीय शास्त्र तथा
महापुरुष ऐसा ही कहते हैं।
गांधी ने
ऐसा कहा और बहुत हद तक करके दिखलाया भी, किंतु उनका शुध्द प्रेम भी
जिन्ना की कट्टरता के सामने हार गया।
बुध्द ने तो अंगुलिमाल जैसे क्रूर डाकू को प्रेम से ही जीता था।
किन्तु आठवीं शती के प्रारंभ में अफग़ानिस्तान (गांधार) के सारे बौध्दों
को इस्लामी आक्रामकों ने तलवार के बल कुछ ही दिनों में मुसलमान बना लिया
था।
ईसा मसीह ने कहा कि जो तुम्हें एक गाल पर
चांटा
मारे, तुम उसे दूसरा गाल दिखा दो।
विलियम द कान्करर से लेकर चर्चिल तक और आज जार्ज बुश तक मुझे एक भी ईसाई
राजा या नेता ऐसा व्यवहार करने वाला नहीं मिला।
और आज के अनुभव से हम कह सकते हैं कि तालिबान के खिलाफ बुश ने जो एक
चांटे का
जवाब
घूंसों
और लातों से दिया है, वही उचित है।बुदेलखंड
में एक कहावत है, लातों के देवता बातों से नहीं मानते।
ये तो यक्ष प्रश्न है कि क्या हिंसा को प्रेम से ज्ीता जा सकता है ? ये
प्रश्न तो मुझे दुविधा में डाल देते हैं क्योंकि आतंक को किस सीमा तक
भुगतने पर हमें उदारता छोडक़र अनुदारता अपनाना चहिये, यह एक कठिन
प्रक्रिया है
।
इसे तो अनुभव से ही सीखना चाहिये।मैं
तो जो देख रहा हूं, वही लिख रहा हूं।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि, सैध्दान्तिक दृष्टि से भी और व्यवहारिक
दृष्टि से भी, गुजरात में उदारवादी शक्तियां जीतीं।
उदारवादी शक्तियों को उन्हीं आयातित आतंकवादी शक्तियों ने अनुदार बनने के
लिये मजबूर किया था।
और अब ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि अब समझदार अनुदार शक्तियां
अनावश्यक हिंसा करने से कतराएंगी।
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एयर वाइस मार्शल विश्वमोहन तिवारी
दिसम्बर
20, 2002
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