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स्त्री केन्द्रित किंतु स्त्री विरोधी फिल्म: लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का
भारतीय संदर्भों में जब भी समाज में स्त्री के स्थान और सम्मान के प्रश्न
पर बात होती है तो इस एक श्लोक को उद्धृत कर दिया जाता है - ”यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः“ अर्थात् जहाँ स्त्रियों की पूजा की जाती है,
वहाँ देवता निवास करते हैं| लेकिन वर्तमान समाज में स़्त्री की स्थिति
बिल्कुल भी ऐसी नहीं है।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रारम्भिक दौर में स्त्री की सुदृढ़ और
सम्मानजनक स्थिति के चिन्ह मिलते हैं। लेकिन परवर्ती काल में लगातार स्त्री
की दशा शोचनीय ही होती चली गई है। पहले उसे जैविक रुप से कमतर सिद्ध किया
गया और फिर उसे मानसिक रुप से कमजोर बनाया गयाः
”औरत शक्ति सम्पन्न होती हुई भी उर्वरा थी, उसमें प्रजनन की क्षमता थी। यह
क्षमता पुरुषों के पास नहीं थी। औरत की यही विशेषता उसकी दासता का मूल कारण
भी बनी। मासिक धर्म, गर्भाधान एवं प्रसव - ये सारी जैविक घटनाएँ उसके काम
करने की क्षमता का ह्रास करने वाली साबित हुईं।“ (1)
यह जैविक निर्धारणवाद प्राकृतिक न होकर एक वैचारिक प्रशिक्षण की उपज है जो
लगातार पुरुष की शारीरिक क्षमता का यशोगान करता है और स्त्री की मानसिक
क्षमता को लगातार हेय सिद्ध करता है। यह एक दीर्घकाल में घटित होती हुई ऐसी
रुढ़ मानसिकता का रुप ले चुकी है कि पितृसत्ता इसके परे देखना ही नहीं चाहती:
”औरतों की मौजूदा अधीनता, अपरिवर्तनीय जैविक असमानताओं से नहीं पैदा होती
है बल्कि यह ऐसे सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों, विचारधाराओं और संस्थाओं की
देन है जो महिलाओं की वैचारिक तथा भौतिक अधीनता को सुनिश्चित करती है।“ (2)
पर पुरुष यह भी जानता था कि स्त्री की यही जैविक संरचना ही आकर्षण का मूल
है। यही कारण है कि विकसित समाजों में साहित्य, कला ,रंगमंच और अब फिल्म तथा
धारावाहिकों में स्त्री सौन्दर्य का भरपूर दोहन किया जाता है। राजनैतिक
संधियों का आधार बनने से लेकर फिल्म, विज्ञापन आदि में काम करने तक स्त्री
शरीर ही लाभ का माध्यम है। लेकिन यह विडम्बना है कि अपने शरीर और सौन्दर्य
के प्रदर्शन के बावजूद भी स्त्रियों को साहित्य/कला जगत में धन-लाभ और
सम्मान पुरुषों की तुलना में कम ही मिलते हैं। अपनी समस्त योग्यता के
बावजूद वह विश्वसनीय नहीं समझी जाती। पितृसत्ता के द्वारा निर्धारित तर्कों
के पार उतरकर ही वह अपने हिस्से का सम्मान ले पाती है।
”हमारे समाज में स्त्री अविश्वसनीय समझी जाती है। वह विश्वसनीय समझी जाए,
इसके लिए धर्मशास्त्र हैं, सामाजिक संहिताएँ हैं और कई किस्म के सामाजिक
प्रतिबंध हैं। केवल उसे ही विश्वासपात्र बनना है। उसके विश्वास को ठेस लग
जाना चिन्ताजनक समझा जाता है, लेकिन इसे लेकर कोई सामाजिक सिहरन कम ही होती
है।“ (3)
दूसरी ओर स्त्री भी इसी सौन्दर्यशास्त्र को अपनी सफलता मान बैठी है। जहाँ
स्त्रियों को इस अपमानजनक स्थिति के प्रति अपना पुरजोर विरोध दर्ज कराना
चाहिए, वहीं वह इस पूरे अर्थतन्त्र के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है।
साहित्य और फिल्म दोनों ही माध्यमों में जिन स्त्री सरोकारों को प्राथमिकता
मिलनी चाहिए थी, वहाँ सरसरी उत्तेजना पैदा करना ही एकमात्र उद्देश्य बन कर
रह गया है। वैश्वीकरण ने बाज़ारवाद, बाज़ारवाद ने उपभोक्ता संस्कृति और
उपभोक्ता संस्कृति ने अन्ततः स्त्री को भी उपभोग की वस्तु में ही तब्दील कर
दिया है। फिल्म, विज्ञापन, सामाजिक- सांस्कृतिक समारोह, बहुराष्ट्रीय
कंपनियाँ सभी स्थानों पर स्त्रियाँ दिखती हैं, पर एक रोबोट या कठपुतली की
भाँति निश्चित आज्ञा का पालन करने की अपनी नियति को शिरोधार्य करती हुई।
हिन्दी फिल्मों का इतिहास अत्यन्त समृद्ध है। अब फिल्में मनोरंजन का
एकमात्र साधन नहीं हैं अतः निर्माता निर्देशक सभी की प्राथमिकताएँ बदल गई
हैं। केवल सामाजिक सरोकारों के लिए फिल्म निर्माण व्यावसायिक उद्देश्यों पर
खरा नहीं उतरता। अतः दर्शकों के नाम पर मसाला, फार्मूलाबद्धता फिल्मों का
हिस्सा बन गए हैं। रिलीज से पहले धुंआधार प्रमोशन के द्वारा अपनी उपस्थिति
दर्ज कराई जाती है। विवाद को भी प्रमोशन का अंग खुलकर स्वीकार किया जाने लगा
है। जितना अधिक विवाद, उतना अधिक मुनाफा यानि शतप्रतिशत आजमाया हुआ टोटका।
इसी क्रम में 2016 में रिलीज हुई फिल्म लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का को भी रखा
जा सकता है। पहले विवाद, फिर सोशल मीडिया पर सकारात्मक रिव्यू (पूर्व
प्रायोजित होने की शत-प्रतिशत संभावना से युक्त), दर्शकों की स्त्री
पक्षधरता करती टिप्पणियाँ - सारे कारक ऐसा वितान रच रहे थे कि यह एक स्त्री
प्रधान, उसकी इच्छा आकांक्षाओं का चित्रण करने वाली फिल्म है। लेकिन यदि
फिल्म को पर्याप्त संवेदनशीलता के साथ देखें तो स्पष्ट होता है कि फिल्म
में स्त्री के साथ किया गया ट्रीटमेंट बिल्कुल इसके विपरीत है। एक आम मसाला
फिल्म की तरह ही स्त्री शरीर का उपयोग किया गया है और उसे मात्र एक ‘सैक्स
आब्जेक्ट’ से ज्यादा स्थान नहीं दिया गया है।
फिल्म की निर्देशिका अलंकृता श्रीवास्तव स्वयं स्त्री हैं तो स्त्री
पक्षधरता की उम्मीद बंध जाती है और प्रोड्यूसर के रुप में प्रकाश झा का नाम
भी सकारात्मकता की आश्वस्ति दे रहा था, लेकिन ऐसा था नहीं।
फिल्म के केन्द्र में मुख्य रुप से चार, पर वैसे पाँच स्त्रियाँ हैं। जिनमें
से दो मुस्लिम तथा तीन हिन्दू हैं। कथा का विकास क्रम, पारिवारिक स्थितियाँ
और इन स्त्रियों का जीवन --- यह संदेश प्रेषित करता है कि दोनों ही समुदायों
में मानसिकता नहीं बदली है। मुस्लिम स्त्रियों के संदर्भ में बुरका परवशता
की एक कड़ी है। वह बंधन का रुपक रचता है। इसी तरह लिपिस्टिक, जिसका अस्तित्व
किसी न किसी रुप में हमेशा से रहा है -- को स्त्री जीवन की एक सामान्य इच्छा
के रुप में स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं है।
फिल्म का प्रारंभ भोपाल के एक पुराने मोहल्ले की हवेली हवाई मंजिल से होता
है। जहाँ फिल्म के सभी केन्द्रीय पात्रों का आवास है। हर छोटे शहर की तरह
भोपाल भी अपने बाशिंदों के बडे़-बड़े सपनों, इच्छाओं-आकांक्षाओं के बीजवपन
की भूमि है। फिर सपने तो देखने के लिए ही होते हैं। देखें जाएँ तो पूरे करने
की दिशा में प्रयत्न भी होना चाहिए, लेकिन कैसे? यही बड़ा प्रश्न है।
रिहाना (प्लाबिता बोरठाकुर) को एक कालेज जाने वाली लड़की का किरदार दिया गया
है। कालेज एक ऐसा शिक्षा संस्थान, जो पढ़ाई के दौरान “यूनिफार्म” की
अनुपस्थिति और विद्यार्थियों के लिए कैजुअल कपड़ों की उपस्थिति दिखाता है।
रिहाना कालेज के लिए घर से निकलते हुए और कालेज से वापस आते हुए दिखती है।
निर्देशिका ने कालेज परिसर का आभास देती कुछ सीढ़ियाँ और मैदान सा दिखाया
है। कालेज परिसर और कक्षाएँ परिदृश्य से पूरी तरह बेदखल कर दी गई हैं । फिर
शिक्षण और ग्रहण की प्रक्रिया कैसे सम्पन्न हो सकती है? अपने परिवारिक रुढ़,
दमघोंटू वातरवरण से बाहर निकली रिहाना माइली साइरस बनना चाहती है। वह आडिशन
देती है और बुली होती है। लेकिन उसकी महत्त्वकांक्षाओं का दबाव इतना घनीभूत
है कि उसके भीतर का डर एकदम गायब हो जाता है और वह रिस्क लेती है। ऐसा
रिस्क जो उसे चोर बनने को विवश करता है। वह ब्रांडेड स्टोर के सारे सुरक्षा
मानकों को ठेंगा दिखाते हुए लिपिस्टिक, ड्रेस और बूट चुराती है। इस वेशभूषा
के साथ नाइट क्लब का हिस्सा बनती है। शराब - सिगरेट पीती है और मस्ती करती
है। यहाँ तक पहुँचने के लिए वह माँ-बाप को धोखा देती है। जब वह जीन्स के
पक्ष में नारेबाजी के दौरान गिरफ्तार होती है तो एक झूठे तर्क से पिता को
संतुष्ट कर देती है, लेकिन दूसरी बार प्रमाणों के साथ जेल गई रिहाना के पास
अपने बचाव का कोई तर्क नहीं है। रिहाना के पिता बुर्के के कारोबारी यानि
बंधन के पैरोकार और बेटी पश्चिमी सभ्यता की पैरोकार। बुर्के की कालिमा से
नाइट क्लब की चकाचौंध तक क्या केवल अपराध के रास्ते ही पहुँचा जा सकता है?
क्या यही वास्तविक स्त्री आज़ादी है?
लीला (आहना कुमरा) एक ब्यूटीशियन है, जो स्त्रियों की सुन्दरता को निखारने
(?) का काम करती है। वह स्वयं हिन्दू है और उसका तथाकथित फोटोग्राफर
बायफ्रैंड अरशद (विक्रांत मैसी) मुस्लिम है। दोनों मिलकर अव्यावहारिक सपने
देखते हैं। लेकिन उनको पूरा करने की कोशिश में ईमानदारी के स्थान पर फूहड़ता
दिखाई देती है। लीला के व्यवहार में यौन आक्रामकता का संयोजन उसकी अस्मिता
को निम्नतर स्तर की ओर ले जाता है। वह कहीं भी, कभी भी सैक्स के लिए भूखी
है -यह भूख उसे मानसिक विकार युक्त चरित्र बनाती है। सैल्फी का शौकीन होना
यानि हद दर्जे की आत्ममुग्धता - यह स्थिति लीला में विकृति की हद तक दिखाई
गई है कि वह सैक्स करते हुए भी सैल्फी लेती है - इसका अर्थ है कि सैक्स उसके
लिए प्रेम और आनन्द की क्रिया नहीं, खानापूर्ति मात्र है, क्योंकि आनन्द के
क्षणों में ऐसा करना संभव ही नही है।
वह कठिन परिस्थितियों में पलकर बड़ी हुई है, फिर भी वैचारिक क्षमता से शून्य
है। वह अरशद और मनोज के व्यक्तित्वों के बीच के अन्तर को समझने में असमर्थ
है। अरशद उसे प्रेम तो करता है, लेकिन गुस्से में यह भी कह देता है कि
ज्यादा आग लगी है तो बाहर चार-चार लड़के सोए हैं। इस टिप्पणी को लीला द्वारा
आत्मसम्मान पर चोट की तरह स्वीकार करना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं होता ,उसके
सिर से ऐसे संवेदनहीन व्यक्ति के प्रेम का भूत नहीं उतरता | उसकी तुलना में
मनोज एक ठीकठाक आर्थिक स्थिति वाला युवक है, जिसके जीवन में आने वाली पहली
लड़की लीला ही है। वह इतना सौम्य है कि लीला की सैक्स इच्छा को सहजता से
विवाह के बाद के लिए स्थगित कर देता है। ऐसा आदर्शवादी कि स्वयं की यौन
शुचिता को भी उसने सुहागरात के लिए बचा रखा है। इसके अलावा वह लीला की माँ
के लिए एक घर खरीदकर उन के जीवन को स्थायित्व देना चाहता है। यह बात भी लीला
समझ नहीं पाती है। लीला ऐसे हीरे को नकारती ही नहीं है बल्कि स्कूटी बेच कर
मिले पैसों से अरशद के साथ भाग जाना चाहती है।
कहते हैं कि बेटी बड़ी होकर माँ की सहेली बन जाती है, लेकिन लीला के साथ ऐसा
नहीं है। वह अपनी माँ की विवशता का मखौल उड़ाती है, उसे धोखा देती है। बाहर
सगाई हो रही है और वह भीतर सैक्स कर रही है - निर्देशिका क्या सिद्ध करना
चाहती है कि लड़कियों को ऐसा ही बनना चाहिए? क्या देह मुक्ति ही स्त्री
मुक्ति है? यहाँ लीला केवल जीवित त्रासदी प्रतीत होती है।
लीला की माँ (सोनल झा) की उपस्थिति फिल्म में कम स्थान घेरती है शायद
इसीलिए उसे अनाम छोड़ दिया गया है। लेकिन उसका चरित्र असरदार प्रश्न उठाता
है और सोचने को विवश करता है। वह सत्रह वर्षों से न्यूड माडलिंग कर रही है
ताकि वर्तमान को भी चला सके और मृत पति के कर्ज को भी उतार सके। भले ही उसका
अपना जीवन नीरस और असुरक्षित ही बीत जाए। विधवाओं और अकेली माँओं के लिए ऐसे
ही कामों का नियोजन क्या उनकी गरिमा के अनुकूल है या पितृसत्ता के अनुकूल।
यह स्थिति उनके प्रति सहानुभूति नहीं उपजाती, क्योंकि भारतीय मानसिकता में
इसे एक प्रोफेशन की तरह नहीं स्वीकारा जाता, बल्कि चारित्रिक गिरावट समझा
जाता है।
शीरीन (कोंकणा सेन शर्मा) बाहर की दुनिया में बैस्ट सेल्सवुमन मानी जाती
है। यह खिताब वह अजीबोगरीब चीजों को बेचकर पाती है।उसके तौर-तरीके इस पेशे
के प्रति सम्मान नहीं जगाते, बल्कि डराते हैं। क्योंकि ’सेल्समैनशिप’
जबरदस्ती का नही, बल्कि तर्कों से संतुष्ट कर सामान बेचने का तरीका है।
लेकिन घर के भीतर वही शीरीन अकेले तीन बच्चों का लालन-पालन कर रही है
क्योंकि सऊदी से लौटा उसका पति बेरोजगार है और पत्नी को झूठ बोलकर धोखा दे
रहा है। वह रोज ‘मैरिटल रेप’ का शिकार होती है, प्रतिरोध में पीटी भी जाती
है। इस प्रक्रिया का परिणाम तीन बच्चे और तीन अबार्शन- यही उसकी कुल
जमापूंजी है। उसका पति कंडोम का प्रयोग नही करता, इसलिए गर्भनिरोधक गोलियों
पर निर्भर रहना उसकी विवशता है ताकि बच्चों की आमद रुकी रहे। एक विचित्र
तथ्य है कि पुरुष गर्भनिरोधक यानि कंडोम शारीरिक दृष्टि से हानिरहित है ,लेकिन
नैसर्गिक आनन्द में बाधा जैसा प्रतीत होता है। इसलिए सामान्यतः भारतीय
पुरुष इसका प्रयोग करने से कतराते हैं। इसके विपरीत स्त्री गर्भनिरोधक उपायों
का शरीर पर कुप्रभाव पड़ता है, तब भी स्त्रियाँ उसका प्रयोग करने के लिए
विवश हैं। कंडोम की बात पर पति असलम (सुशांत सिंह) कहता है- “बीवी हो बीवी
की तरह रहो, शौहर बनने की कोशिश मत करो।“ सभी स्थितियों यानि बच्चों का
पालन-पोषण, पारिवारिक उत्तरदायित्व और कमाना - में अनुकूलन करती, सामंजस्य
बिठाती इस स्त्री के हिस्से में आता है पति का विवाहेत्तर संबंध- यह एक
अत्यन्त दारुण स्थिति है। इन दोनों के बीच पारिवारिक समझ नहीं दिखती, बल्कि
ऐसा लगता है कि वह पति द्वारा घर का जीवन दिए जाने के एहसान को ढो रही है।
दोनों की बीच प्रेम अनुपस्थित हैः
“आमतौर पर किसी व्यक्ति के साथ सेक्सुअल रिश्ता होने को अंतरंग संबंध का
पर्याय मान लेना अंतरंगता की संकीर्ण समझ है। संबंध से एक दूसरे के बारे
में गहरे परिचय की संभावनाएँ खुलती हैं, लेकिन कोई जरुरी नहीं कि ऐसा हमेशा
हो ही। नियमित यौन संबंध रखने के बावजूद भी व्यक्तियों के बीच बहुत कम
अंतरंगता पाई गयी है। यहाँ तक कि विवाहित जीवन में भी अंतरंगता का आभास होता
है। एक ही कमरे और एक ही बिस्तर पर सोने वाले व्यक्ति अलग-अलग दायरों में
कैद रहते हैं। ‘’(4)
शीरीन की यह पारिवारिक स्थिति कहीं से भी उसके व्यक्तित्व को उदात्तता की
ओर नहीं ले जाती, बल्कि भरेपूरे परिवार के बीच के अकेलेपन को जीने की विवशता
प्रदान करती है। जबकि समग्रता में उसका चरित्र स्त्रियों की समस्याओं को
दिखाने में सफल हुआ है, अतिरिक्त देह प्रदर्शन के बिना । उसका व्यक्तित्व
भारतीय संदर्भों में स्त्री की भूमिका और स्थिति दोनों को स्पष्ट करता है
कि` किस प्रकार एक मध्यवर्गीय परिवार में घर और बाहर को साधना एक चुनौती
होता है और स्त्रियाँ दोनों में किस प्रकार संतुलन साधती हैं।
फिल्म की एक और पात्र बुआजी (रत्ना पाठक शाह) अपनी बड़ी सी हवेली हवाई मंजिल
में वैधव्य का समय अपने भाई-भतीजों के परिवारों और किराएदारों के बीच
अभिभावक बन कर काट रही है। वह एक मजबूत मानसिकता वाली स्त्री दिखाई पड़ती है
जो हवाई मंजिल का सौदा करने आए बिल्डर माफिया को हड़काने का साहस रखती है।
उसी तरह नगरपालिका के अफ़सरों को भी सीधे मुँह पर खरी खोटी सुनाती है। वह इस
पारिवारिक स्थिति में इस तरह रमी हुई है कि उनका अपना वास्तविक नाम ’उषा’
ही उनकी स्मृति से बेदखल हो गया है। लेकिन इच्छाएँ तो कभी समाप्त नहीं होती।
अपनी काम तृप्ति के लिए वह इरोटिक साहित्य पढ़ती हैं। जिससे उत्पन्न फैन्टेसी
और भ्रम बुआ जी की मानसिकता को पूरी तरह आच्छन्न कर लेता है। उनकी मानसिकता
और पुस्तकों का प्रभाव उन्हें स्थिति को समझने की योग्यता नहीं देता। बल्कि
पुरुषों के प्रति उनका आकर्षण उन्हें ऐसे मार्ग पर ले जाता है, जहाँ से उनके
लिए घर से निष्कासित होना ही एकमात्र नियति बन कर सामने आता हैं |अपने से
आयु में काफी छोटे पुरुष के साथ आसक्ति का अश्लील प्रदर्शन एक बहुत ही
प्रासंगिक प्रश्न उठाता है कि शरीर की संतुष्टि के लिए पुरुष पर कोई बंधन
नहीं होता, किसी भी नैतिकता को दबाव उन्हें नहीं बांधता। लेकिन शरीर की उसी
संतुष्टि का प्रयास स्त्रियों के संदर्भ में दुराचरण मान लिया जाता है। सारी
नैतिकता स्त्री के पक्ष में क्यों हथियार उठा कर खड़ी हो जाती है? क्या इस
आसक्ति का कोई एक तर्कसंगत कारण नहीं होना चाहिए जो स्त्री अस्मिता की रक्षा
कर सके।
वह एक ऐसे रुढ़ समाज की प्रतिनिधि हैं जिसमें अपनी इच्छाओं की पूर्ति का
साहस नहीं हैं। वह एक स्वीमिंग सूट तक खरीद पाने में असमर्थ है। क्या पति
का न होना इच्छाओं की समाप्ति होना मान लिया जाना चाहिए। उसे क्यों नहीं
‘नाऊ एंड नेवर वाले सपने’, ‘प्रेम और हवस वाले सपने’ या ‘लिपिस्टिक वाले
सपने’ देखने का अधिकार होना चाहिए?
निर्देशिका ने चारों चरित्रों को परिवार से छुपाकर व्यवहार करते दिखाया है।
जिस काम को छुपाकर करना पडे या जिसे प्रत्यक्ष रुप से स्वीकार करने का साहस
न हो, वह कार्य सही नहीं माना जा सकता तो फिर उन चरित्रों का सम्मानवर्द्धन
कैसे कर सकता है?
इसके अलावा फिल्म में ब्यूटी पार्लर दिखाया गया है जो अपने वृहत्तर आशयों
में स्त्री विरोधी है। पितृ सतात्मक समाज ने स्त्रियों के सौन्दर्य का एक
मात्र उपयोग पुरुषों को रिझाने तक सीमित कर दिया है। इसीलिए अपने वास्तविक
सौन्दर्य को समृद्ध करने के स्थान पर स्त्रियाँ दैहिक सौन्दर्य की वृद्धि
को ही परम धर्म मान बैठी हैं। यही कारण है कि अब सादगी सुन्दता का प्रतीक
नहीं, बल्कि पिछड़ेपन की निशानी की तरह स्वीकार किया जाने लगा है। ब्यूटी
पार्लर के दृश्यों का संयोजन इस कदर भौंडा है कि जुगुप्सा पैदा करता है।
फिल्म में एक वाक्य ‘तुम्हारा क्या है कहीं भी जंगल उगाते फिरों’ समाज की
दोगली, स्त्री विरोधी मान्यताओं को प्रदर्शित करता है। प्रकृति प्रदत्त बालों
को पुरुषों के शरीर पर मर्दानगी का प्रतीक माना जाता है और स्त्री के शरीर
पर बदसूरती का। ऐसी मान्यताओं का ही दूरगामी परिणाम है कि संसार भर में
सौन्दर्य प्रसाधनों का विराट बाजार उपस्थित है और अपने सीमित-असीमित संसार
में घूमती स्त्रियाँ इन उत्पादों के हानिकारक प्रभावों से आँख मूंद कर इनका
भरपूर उपयोग करती हैं।
प्रसिद्ध फिल्म आलोचक लारा मलाबी ने कहा है परम्परागत व्यवहार करती स्त्रियाँ
समाज नहीं बदल सकती बल्कि परम्परा को झटककर फैंक देने पर ही इतिहास रचा जा
सकता है। यह ठीक है कि फिल्म की स्त्रियाँ यथार्थ के विपरीत व्यवहार करती
हैं, लेकिन नकारात्मक ढंग से। इसलिए वह स्त्री सशाक्तिकरण की प्रतीक नहीं
बनतीं, बल्कि उनका व्यवहार आत्मसम्मान से हीन प्रतीत होता है।
फिल्म में चारों महिलाओं का हश्र यह दिखाता है कि हमारा समाज आज भी स्त्री
मुक्ति के सही मायने निर्धारित नहीं कर पाया है। इसलिए जब भी स्त्री मुक्ति
को देह-मुक्ति का पर्याय बनाया जाएगा, स्त्री की परिणति ‘सैक्स आब्जेक्ट’
में ही होगी। ऐसा लगता है कि वह संप्रेषित करना चाहती है कि स्त्रियाँ जब
भी अपने सपनों के अनुसार जीने का स्वतन्त्र मार्ग तलाशने की (सही या गलत)
कोशिश करेंगी, उनको इसी तरह कुचल दिया जाता रहेगा। निर्देशिका स्वयं स्त्री
होते हुए भी रुढ़ पितृ सत्तात्मक व्यवस्था का पोषण करती दिखाई देती है। इसे
मात्र व्यावसायिक विवशता कहकर खारिज किया जाना कठिन होना चाहिए।
फिल्म के माध्यम से निर्देशिका ने जिन सामाजिक सरोकारों पर अंगुली रखने का
प्रयास किया है अपनी प्रस्तुति में वह विपरीत दिशा में जाते दिखाई देते
हैं। प्रश्न दिखते हैं, स्पष्ट दिखते हैं -
• कि शिक्षा की इच्छा, फैशन की इच्छा - इनकी पूर्ति का मार्ग परिवार और
समाज सापेक्ष होने के साथ साथ जीवन मूल्य से परिचालित होना चाहिए।
• कि सपने देखे जाने चाहिएँ और पूरे होने भी चाहिएँ, लेकिन उनकी पूर्ति का
मार्ग क्या हो?
• कि जीवन यापन के लिए समाज में ढ़ेरों संभावनाएँ और विकल्प उपस्थित होने की
स्थिति में केवल न्यूड माडलिंग ही अंतिम विकल्प क्यों होना चाहिए?
• कि पति जो भरण पोषण का दायित्व उठाता है, उसकी अनुपस्थिति में परिवार का
पालन-पोषण करने के लिए ‘सेल्स वुमन’ का काम करने को खुलकर डंके की चोट पर
क्यों नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए?
• कि ऐसे नाकारा पति के विवाहेत्तर संबंध को क्यों स्वीकार कर लेना चाहिए?
• कि किसी भी स्त्री के जीवन में वैधव्य को इच्छाओं की समाप्ति का प्रतीक
क्यों मान लिया जाना चाहिए?
• कि ब्यूटी पार्लर जाकर स्वयं को शारीरिक कष्ट देकर तथाकथित पुरुषों की
मानसिक संतुष्टि के लिए स्वयं को चिकना और कमनीय क्यों बना लेना चाहिए?
पर फिल्म की विडम्बना यह है कि इन प्रश्नों को उठाने की चाह में निर्देशिका
ने स्त्री सशक्तिकरण का विलोम रच दिया है जो रुढ़ पितृ सत्ता का पोषण करता
प्रतीत होता है। इसलिए यह एक स्त्री द्वारा निर्मित स्त्री केन्द्रित फिल्म
होते हुए भी स्त्री विरोधी फिल्म बन कर रह जाती है।
संदर्भ:-
(1) स्त्री उपेक्षिता, सिमोन द वोउवार, प्रस्तुति प्रभा खेतान पृ0 50
(2) नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे, सं0 - साधना आर्य, निवेदिता मेनन,
जिनी लोकनीता पृ0 10
(3) फिल्म का सौन्दर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा: सं0 प्रो0 कमला प्रसाद पृ0
209
(4) फुटपाथ पर कामसूत्र: नारीवाद और सेक्शुअलिटी: कुछ भारतीय
निर्मितियाँ,अभय कुमार दुबे पृ0 11
संदर्भ ग्रंथ सूची:
1.स्त्री: उपेक्षित, सीमोन द बोउवार - हिन्दी रुपान्तरण - प्रभा खेतान,
दूसरा रीप्रिंट अक्टूबर 2008, हिन्द पाकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नई
दिल्ली 110008
2.नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे: संपादक - साधना आर्य, निवेदित मेनन,
जिनी लोकनीता- हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय।
3.भारत में स्त्री असमानता एक विमर्श: डॉ0गोपा जोशी, हिन्दी माध्यम
कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
4.स्त्री विमर्श का लोकपक्ष: अनामिका, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2012 दरियागंज,
दिल्ली
5.भारतीय समाज: श्यामाचरण दुबे, अनुवाद: वंदना मिश्र, पहली आवृति 2002,
नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली
6.बयार आपकी मुट्ठी में: चित्रा मुद्गल, संस्करण 2006, कल्याणी शिक्षा
परिषद, दरियागंज, नई दिल्ली
7.औरत कल, आज और कल: आशा रानी व्होरा, संस्करण 2005, कल्याणी शिक्षा परिषद,
दरियागंज नई दिल्ली
8.हिन्दी सिनेमा दुनिया से अलग दुनिया: संपादन गीताश्री, संस्करण 2014,
शिल्पायन, दिल्ली
9.फिल्म का सौन्दर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा: संपादन प्रो0 कमला प्रसाद,
संस्करण 2010, शिल्पायन, दिल्ली
10.हिन्दी सिनेमा बिम्ब-प्रतिबिम्ब: संपादक महेन्द्र प्रजापति, संस्करण
2015, शिल्पायन, दिल्ली
11.फुटपाथ पर कामसूत्र - नारीवाद और सेक्शुअलिटी: कुछ भारतीय निर्मिमियाँ:
अभय कुमार दुबे, प्रथम संस्करण 2016, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
-डॉ. पुष्पा गुप्ता
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सफ़दरजंग एन्कलेव
नई दिल्ली -110029
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