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गाँधी
राग
मैं गाँधी को प्रक्रिया की तरह पढ़ता हूँ। मोहनदास
“द गाँधी” नहीं था। वह किसी महान आत्मा का अवतार भी नहीं था। माँ के गर्भ
से सीखकर आनेवाला अभिमन्यु भी होता तो उसके यथार्थ में जादू का तड़का लग
जाता। मगर वह तो एक आम बालक था जो हौले-हौले एक आम आदमी बना और जहाज़,
ट्रेन और पैदल यात्रा करते हुए इतना बिखरा कि उसके अनुभव एक बड़े प्रांत
में तब्दील हो गए। इस प्रांत को गाँधीवाद कहते हैं। गाँधी अगर जीवित होते
तो इस प्रांत का विलय किसी और प्रांत में कब का हो चुका होता और नए वाले का
किसी अगले नए में ..........
गाँधी को जानना इस मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक यथार्थ को भी जानना है कि खाने के
बाद थाली गंदी नज़र आती है और उसे धोने को ज़रूरत महसूस होती है।हर बार खाने
के लिए नयी थाली नहीं आ सकती और माँज दो तो थाली से शुद्धता की सुगंध आने
लग जाती है। मुझे गाँधी का जीवन और दर्शन यही सिखाता है कि घर हो या देश या
सभ्यता थालियाँ धोने का दर्शन ही नैसर्गिक है। कितनी बार तोड़ोगे थालियाँ
कितनी बार नयी ख़रीदोगे? और क़ीमत ? सोचकर देखो!
आम आदमी से विलायत-पलट वकील हुए मिस्टर मोहनदास की किताब हिंद स्वराज सरल और
ममूली ढंग से एक नैसर्गिक यात्रा में विश्वास की वकालत करती दिखती है। अब
यह हम पर है कि विश्वास करें या न करें। हमारे विश्वास न करने से भी क्या
फ़र्क़ पड़ता है। सर्दियाँ आएँगी तो कुहासा घिरकर रहेगा और वैशाख-जेठ में
लू से कोई दर्शन नहीं बचा सकता।
गाँधी के होने को प्रक्रिया की तरह देखते हुए यह भी समझ में आता है कि कोई
भी क्रांति अल्टिमेट नहीं।मैं यह नहीं कहता कि वह सम्भव नहीं या उचित नहीं,
मगर अपने देश में जन्मे इस बहुआयामी बूढ़े की रोशनी में यह साफ़ दिखता है
कि माओ और लेनिन एक उम्र के बाद मर जाते हैं और क्रांति की मौलिक शुचिता (
जितनी भी हो) का क्षरण होने लग जाता है। सोवियतत्व सिमट कर रूस हो जाता है
और नागरिकों के भौतिक कल्याण के लिए चीन एक और दो ही नहीं आठ-नौ- दस नंबरी
बाज़ार। इसे सिर्फ़ राजनीतिक मेटाफ़र की तरह नहीं दार्शनिक परिणाम की तरह
भी देखा जाना चाहिए।
गाँधीवाद हमें साध्य और साधन की शुचिता का सिद्धांत देता है। देखा जाए तो
यह सिद्धांत भी प्रक्रिया की ही बात करता है। यात्रा तो चलती रहेगी, किसी
के रोके नहीं रुक सकती। हिरोशिमा और नागासाकी भी वीरान नहीं। प्रक्रिया की
स्थानीय और तात्कालिक प्रकृति जो भी हो, चाहे जिस दर्शन और वाद से संचालित
हो, साध्य की शुचिता और सर्वजनहिताय का भाव तो अनिवार्य ही है न? ठीक यही
सवाल साधन की शुचिता के बारे में भी पूछना चाहूँगा।
मैं यह कहनेवाला कौन कि संसार में कहीं क्रांति हो ही नहीं या गाँधी के
अलावा और कोई मार्ग न हो। गाँधी के बारे में सोचते और बात करते हुए आप न तो
Ethnocentric हो सकते और न ही किसी अन्य दर्शन प्रति कटु। मेरा आग्रह बस
इतना है कि थाली नष्ट न हो। कोई भी सभ्यता अपनी थाली बड़ी मुश्किल से पाती
है। मेरा आग्रह यह भी है कि क्रांति जब हो तो यूँ हो कि जैविक और भौतिक
स्कैवेंजर्स को कम से कम काम करना पड़े। मलबा कम जमा हो और लाशें न गिरें।
न सही क्रांति के समय मगर पहले और बाद में गाँधी का होना बड़े बदलाव को
शुभता और सातत्य प्रदान कर सकता है, ऐसा मुझे लगता है।
गाँधी के गुण और दोष दोनों हमारे सामने हैं, पुण्य और पाप भी। सिद्धांत और
राजनीति में फाँक से कौन बचा है आज तक। शांतिदूत कृष्ण भी युद्ध की
अनिवार्यता घोषित करने गए थे। सारी मर्यादाओं के पालन के बावजूद लंका-युद्ध
के विजेता राम अवसर के अनुकूल राजनीति करते दिखते हैं। अब यह हम पर है कि
हम सीखते क्या हैं, और किस से।
यह दुर्भाग्य है कि जिस देश में सामाजिक-राजनीतिक शास्त्र का गाँधी नामक
बुनियादी विद्यालय है, वहाँ इतने अपढ़-कुपढ़ राजनेता भरे पड़े हैं।
आज गाँधी स्वच्छता मिशन के सरकारी नायक हैं और हमें स्वच्छता की प्रतीक्षा!
डॉ.विनय कुमार
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