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नन्हें गुलाबी आर्किड की तरह हैं हम

विलियम आर स्टिमसन
 

मुझे क्रिस हडसन से एक ई मेल मिला, जो कि बेलींघम, वाशिंगटन में मेरा संवाददाता है।

'' आज जंगल के रास्ते गुज़रते हुए मुझे एक नन्हा गुलाबी आर्किड मिला, दो इंच ऊंचा, किसी से मुझे पता चला कि इस केलिप्सो कहते हैं।''

मैंने उस डिजिटल छायाचित्र को खोला जो उसने प्रशान्त महासागर के उस पार से भेजा था, वाशिंगटन राज्य से भेजा गया एक नन्हा नाज़ुक जंगली फूल यहां ताईवान में मेरे कंप्यूटर स्क्रीन पर उभर आया। मैं उसे जांच - परख ही रहा था कि मेरे कंप्यूटर पर कॉल आई, यह क्रिस था जो स्कायपे पर कॉल कर रहा था। उसे पता था कि मैं आर्किड्स के बारे में रुचि लेता और पढ़ता रहा हूँ, उसे उम्मीद थी कि मैं उस फूल को उसके वर्ग के अनुसार पहचानने में उसके लिए मददगार साबित हो सकता हूँ। हमने बात की, मैं ने गूगल पर देखा और एक नेचर फोटोग्राफर द्वारा ली हुई केलिप्सो बल्बोसा का चित्र खोज निकाला। लेकिन मैं उन दोनों छवियों में कोई सकारात्मक समानता न ढूंढ सका। दोनों अलग थे।

हमारे साईन ऑफ करने के बाद, क्रिस की दूसरी ई - मेल आई। उसने बताया कि उसका आर्किड केलिप्सो बल्बोसा ही है और उसने वह एक साईट का लिंक मुझे दिया जिस पर वह उस आर्किड का मिलान करके पहचान सका था, उसने आर्किड की एक दूसरी और बेहतर फोटो भी भेजी। यह फोटो उस फूल से मिलती - जुलती थी जो मैं ने इंटरनेट पर देखा था। मैं ने उस साईट पर क्लिक किया जिसका लिंक उसने भेजा था। यह बिलकुल वही था, जिससे क्रिस के भेजे नये फोटो से मिलान हो सका। गुत्थी सुलझ चुकी थी। बस अपने आप को पूरा यकीन दिलवाने के लिए मैं और भी कई वनस्पति शास्त्र की साईटें देखीं। अब यह पूरी तरह निश्चित हो चुका था कि उसका फूल केलिप्सो बल्बोसा (एल) अमेस ही था, फेयरी स्लिपर आर्किड। सायप्रिपेडियम, द लेडी स्लिपर आर्किड का नज़दीकी रिश्तेदार। केलिप्सो उसके वर्ग का नाम था जिनमें केवल एक ही प्रजाति मिलती थी। यही नन्हा आर्किड जो क्रिस को वाशिंगटन राज्य के जंगलों में मिला था, उसका प्राकृतिक क्षेत्र दक्षिण से लेकिर पश्चिमी युनाइटेड स्टेट के पहाड़ों में एरिज़ोना तक फैला हुआ है।
मुझे
हैरानी होती है यह जानकर कि इस कदर दूर दूर तक फैले आर्किड की यह प्रजाति पृथ्वी से नष्ट और दुर्लभ होते जाने वाले पौधों की फेहरिस्त में शामिल हो चुकी है।

समस्या तो यह है कि आर्किड - प्रेमी जंगल से यह नन्हा पौधा उखाड़ लाते हैं और अपने घर के बगीचे में लगाते हैं, जहां यह अमूमन मर जाया करता है। सच बात तो यह है, इस प्रजाति के पौधे जंगल की ज़मीन से उखाड़े जाने के बाद कहीं और पर लगाए जाने पर अकसर मर जाया करते हैं मगर फिर भी आर्किड्स का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अवैध व्यापार बढ़ता ही जा रहा है। नन्हा आर्किड अपने जीवित रहने के लिए पुराने बसे जंगल की मिट्टी में मौजूद एक खास किस्म की फंगस याने फफूंद के साथ आपसी संबन्ध पर निर्भर रहते हैं। बिना जंगलों के यह जीवित कैसे रहेंगे? यह एक 'आर्किड' नामक पौधे की तरह अकेले अस्तित्व में नहीं रहता, यह शैवाल और फंगस की तरह ही है, जैसे कि दोनों मिल कर काई की एक परत बनाते हैं, यह एक जैविक मित्रता है एक दूसरे के साथ, एक सहसम्बन्ध।

इसे इसके दूसरे हिस्से से खींच कर अलग करना और जंगल से बाहर ले जाना इसे मार देता है। यहां तक फूल को तोड़ना भी पौधे के लिए घातक है, क्योंकि इसकी बारीक जड़ें तने पर ज़रा से खिंचाव तक से टूट जाती हैं। इस पौधे में और होता ही क्या है एक फूल और केवल एक पत्ती, फूल तोड़ने पर ही यह आसानी से मर जाता है। इस पौधे का कुछ स्थानों पर तेज़ी से नष्ट होने का दूसरा कारण यह भी सोचा जा सकता है कि ज्य़ादा से ज्य़ादा प्रकृति प्रेमी जंगलों में घुस आते हैं। जब वे रास्ते से हट कर इस नन्हे द्यफेयरी स्लिपर आर्किड' को देखने के लिए करीब आ जाते हैं, घुटनों के बल बैठ कर इसका फोटो खींचते हैं, जाहिर सी बात है कि ऐसे में वे आस - पास उगे पौधों को कुचल जाते हैं।

विश्व के उत्तरी अक्षांस के विस्तार में फैला हुआ यह आर्किड पजाति का खज़ाना है, जो कि अपने वातावरण के साथ अच्छी तरह रमा हुआ है। इसकी आवश्यकता बस इतनी है कि इसे कदमों से कुचला न जाए और इसे इसके छिपे हुए, अदृश्य साथियों के संपर्क में रहने के लिए मुक्त छोड़ दिया जाए। बाकि सब कुछ यह अपने लिए करने में सक्षम है। यह अपने हज़ारों नन्हें अदृश्य तारों के साथ जंगली ज़मीन में फैली अपनी मित्र फफूंद(फंगस) के साथ जुडा रहता है।
इस
सम्बन्ध, इस जुड़ाव के माध्यम से इस वह पोषण मिलता रहता है जिसकी इसे जीने के लिए आवश्यकता है।

इस नन्हें आर्किड की तरह ही, हम भी ऐसे सम्बन्ध के माध्यम से अस्तित्व में हैं, जो कि अदृश्य है। आश्चर्यजनक तौर पर ठीक ऐसा ही कुछ हमें भी जीवित रखता है और हमें अपने आस - पास के माहौल से जोड़े रखता है। हमारे भी अपने भूमिगत सम्बन्ध होते हैं, हमारे अदृश्य संगी, और हम इस सम्बन्ध से वह सब पा लेते हैं जिसकी हमें जीवन के लिए ज़रूरत होती है। आर्किड के साथी फंगस की तरह हम इस रिश्ते को आसानी से कोई नाम नहीं दे सकते - हालाकि मनुष्य युगों - युगों से इस किस्म के रिश्तों को नाम देते हुए थके नहीं हैं। आज तक वे इन नामों के पीछे लड़ते आए हैं और मार - काट देते आए हैं।

हम अपनी आत्मा के उस दूसरे हिस्से को नाम देकर केवल नुकसान में ही नहीं रहे, सच कहा जाए तो हमारे पास यह कल्पना करने के लिए कोई रास्ता ही नहीं है कि यह आखिर है क्या? एक फंगस को तो माइक्रोस्कोप में देखा जा सकता है और उसे उसकी प्रजाति के नाम से पहचाना जा सकता है, लेकिन हमारे पास ऐसा कोई उपकरण नहीं है जिससे हमारे उस आंतरिक विश्वास को देखा जा सके जिसे हम तो ईश्वर कहते हैं और दूसरे ' रची हुई त्मविस्मृति' का नाम देते हैं।
एमर्सन ने इसे परमात्मा कहा, बर्के ने लौकिक चेतना।  चाहे इन्हें संस्कार ही कह लें, टाउ, बुद्ध प्रकृति, जेहोवा या अल्लाह - या हम इसे शिव या विष्णु कहें, डायोनिसस या अपोलो - एक चीज़ निश्चित हैः  यहां इसके बारे में उतनी ही अवधारणाएं हैं जितने कि व्यक्ति विशेष के अपने अनुभव।
 

बौद्ध की रिक्तता की अवधारणा खास तौर पर यहां संगत है क्योंकि यह स्पष्ट तौर पर बताती है कि सत्य हर महान परंपरा की जड़ों में निहित होता है- यह कि, हम अपने अंतरतम से जुड़े हैं आपस में इसे किन्हीं दिमागी अवधारणाओं से नहीं समझा जा सकता। यह अपने आप ही बाहर को प्रवाहित होता है - एक पल ही पूरी ज़िन्दगी को बदलने के लिए काफी होता या फिर एक पूरी सभ्यता। इसके बारे में हम नहीं जानते कि कैसे, क्यों या क्या। लेकिन इसके द्वारा ही हम स्वयं को तथा अन्य सब चीजों को बेहतर तरीके से जान पाने लायक हुए हैं। 

हर कोई बता सकता है कि कौनसा एक खूबसूरती से खिलता हुआ और जीवित फेयरी स्लिपर आर्किड का पौधा है और कौनसा एक मुरझाया - मरा हुआ आर्किड का पौधा - जब हम पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ उस एक विश्वास से जुड़े होते हैं तो हर कोई हमारे माध्यम से उसे देख पाता है - हमारे चमकते चेहरे में गहरा मानवीय आनन्द और खुशी और दूसरे की सहायता के लिए तत्परता। जहां हम जाते हैं, खिला खिला लगता है, ज़ख्म भर जाते हैं, जिंदगियां संवर जाती हैं।
एक खिला - खिला और जीवंत मसीहाऐसी विशेषताओं वाला  - कि हम जो अपने जीवन में देख पाते हैं उससे कहीं महानतम ऊंचाइयों तक विकसित और उत्कृष्टतम  - वह जो हमारे हर महान विश्वासों को ऊपर उठाए है। वे सब इस अतिशय सत्य से ही जन्मे हैं।
 

इन महान मसीहाओं के बौद्धिक पाठ और उपदेश जब हज़ारों लोगों से होकर हम तक पहुंचे हैं तो रास्ते में साफ तौर पर कहीं कुछ तो गलत हुआ है। क्योंकि वे उपदेश तो हमारी आत्मा के उस दूसरे हिस्से के साथ सीधे - सीधे संर्पक पर आधारित थे। तब वे पीढ़ी दर पीढ़ी होकर ही गुज़रे और उन खास लोगों ने इसे विचारधारा में तोड़ - मरोड़ डाला। अन्ततः वह सब ऐसे अन्त को प्राप्त हुआ कि पराप्राकृतिक चीजों में वह 'विश्वास - तन्त्र' कभी सिद्ध न हो सका। हर परंपरा एक सम्बन्ध के उत्सव की तरह आरंभ हुई जो कि वास्तविक था , सत्य उसकी आत्मा में था और जिसे परोक्षतः अनुभूत किया जा सकता था। लेकिन एक समय बाद वह सत्य महज विश्वास की देह मात्र रह गया था जिसे महसूस नहीं किया जा सकता था और जिसमें सत्य भी नहीं बचा था। 

वैसे तो सब ठीक ही चल रहा है, मगर इस एक दृष्टिकोण से हम फेयरी स्लिपर आर्किड की तरह की प्रजाति के ही हैं:  हम ऐसी अपनी परिस्थिति से उखड़ कर उस परिस्थिति में नहीं जीवित रह सकते जहां हमारा हमारी आत्मा के उस दूसरे हिस्से से संपर्क न रह सके। थोपे गए विश्वास और धर्म - सिद्धान्त हम पर असर नहीं करते।  आज यह तरह तरह से यह अमेरिका, इस्लाम, चीन में साबित हो चुका है - बल्कि सारे विश्व में ही। बिना आत्मा के संपर्क के, जो कि सत्य है, जो कि हमारी रचनात्मक गहराइयों में रहता है, इसके बिना हम अधूरे हैं, हम अमानव हैं। ऊंची विचारधाराओं के प्रेरक व्यक्तियों के नाम पर हम सबसे अधिक क्रूर अत्याचार करते हैं। 

विलियम आर. स्टिमसन एक अमरीकी लेखक हैं जो कि ताईवान में रहते हैं।
छाया चित्र - क्रिस हडसन
केलीप्सो बल्बोसा ( एल) एमेस, एक भूमि पर उगने वाला आर्किड जो कि बैलिंघम,
वाशिंगटन के जंगलों में उगता है।

 

अनुवाद : मनीषा कुलश्रेष्ठ
जनवरी
15,
2007

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