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भारतीय
फिल्में और समाज
भारतीय फिल्में आरंभ
से ही एक सीमा तक भारतीय समाज का आईना रही हैं जो समाज की गतिविधियों को
रेखांकित करती आई हैं।
चाहे वह स्वतन्त्रता संग्राम हो या विभाजन की त्रासदी या युध्द हों या फिर
चम्बल के डाकुओं का आतंक या अब माफियायुग।
इस कथन की पुष्टि बॉम्बे, सत्या, क्या कहना जैसी फिल्में करती हैं।
पिछली सदी शुरू होने
से पूर्व ही जब देश अपनी स्वतन्त्रता पाने की ओर अग्रसर था और देश में
राजनैतिक और सामाजिक सुधार का व्यापक दौर चल रहा था, उसी समय पारसी
थियेटरों को पीछे छोडते हुए मनोरंजन के नये स्वरूप सिनेमा का सूर्योदय हुआ।
यह चलचित्र के नाम से जाना गया।
इसका प्रथम प्रदर्शन भारत में 1896 में हुआ।
लुमिरै भाईयों ने छह मूक फिल्मों का प्रदर्शन 7 जुलाई को बम्बई के वाटसन
होटल में किया था।
तब से लेकर आज तक भारतीय फिल्में तकनीकी और अन्य कलात्मक सुधारों के साथ इस
मुकाम पर
पहुंच
गई हैं।
पिछले
पांच
दशकों की बात करें तो देखने को मिलेगा कि भारतीय सिनेमा ने शहरी दर्शकों को
ही नहीं
गांव
के दर्शकों को भी प्रभावित किया है।
फिल्मी गानों को गुनगुनाने और संवादों की नकल का क्रम मुगले-आज़म, शोले और
सत्या तक चल कर आज भी जारी है।
दक्षिण भारत की ओर नजर डालें तो देखेंगे कि
वहां
की जनता फिल्मी कलाकारों को भगवान स्वरूप मानकर उनकी पूजा तक करती है।
फिल्मी कलाकार व निर्माता समय-समय पर राज्यों व केन्द्र की राजनीति में भी
सक्रिय होते रहे हैं।
एक लेख में भारतीय सिनेमा और समाज के समानान्तर व परस्पर प्रभावों के बारे
में प्रकाश डालना गागर में सागर भरने जैसा है।
इसके लिये मैं पहले भारतीय सिनेमा के विकास का उल्लेख
करूंगा।
भारतीय सिनेमा का विकार्स ढुंडीराज गोविन्द फाल्के जो दादा साहब फाल्के के
नाम से अधिक जाने जाते हैं उन्हें भारत की प्रथम स्वदेश निर्मित फीचर फिल्म
राजा हरिश्चन्द्र बनाने का श्रेय जाता है।
इसी फिल्म ने भारतीय चलचित्र उद्योग को जन्म दिया।
1920 की शुरूआत में हिन्दी सिनेमा धीरे-धीरे अपना नियमित आकार में पनपने
लगा।
इसी दौरान फिल्म उद्योग कानून के दायरे में भी आ गया।
समय के साथ साथ कई नई फिल्म कम्पनियों एवं फिल्म निर्माताओं मसलन धीरेन
गांगुली, बाबूराव पेन्टर, सचेत सिंह , चन्दुलाल शाह, आर्देशिर ईरानी और वी
शान्ताराम आदि का आगमन हुआ।
भारत की प्रथम बोलती फिल्म आलम आरा इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने
आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में बनाई।
इस बोलती फिल्म ने समूचे फिल्म जगत में क्रान्ति ला दी।
पिछली सदी का तीस का दशक भारतीय सिनेमा में सामाजिक विरोध के रूप में जाना
जाता है।
इस समय तीन बडे-बडे बैनरों प्रभात, बम्बई टॉकीज एवं नया थियेटर ने गंभीर
लेकिन मनोरंजक फिल्म दर्शकों के सभी वर्गों को ध्यान में रख कर बनाईं।
इस समय सामाजिक अन्याय के विरोध में अनेक फिल्में जैसे - वी शान्ताराम की
दुनिया माने ना, आदमी, फ्रान्ज
आस्टेन
की अछूत कन्या , दामले और फतहलाल की संत तुकाराम, महबूब की बातें, एक
ही रास्ता तथा औरत आदि बनीं।
प्रथम बार आर्देशिर ईरानी ने रंगीन फिल्म किसान कन्या बनाने का प्रयास किया।
दशक जिसमें द्वितीय विश्वयुध्द चल रहा था और दशक जिसमें भारत स्वतन्त्र
हुआ, पूरे भारत में सिनेमाग्राफी के लिये भी अविस्मरणीय समय है।
कुछ यादगार फिल्में चालीस के दशक में बनीं जिनमें वी शान्ताराम की डॉ
कोटनीस की अमर कहानी, महबूब की रोटी, चेतन आनंद की नीचा नगर, उदय शंकर की
कल्पना, सोहराब मोदी की सिकन्दर, 'पुकार, जेबी एच वाडिया की कोई डान्सर,
एमएस वासन की चन्द्रलेखा, विजय भट्ट की भरत मिलाप एवं रामराज्य,
राजकपूर की बरसात और आग प्रमुख हैं।
1952 में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह बंबई में आयोजित किया गया
जिसका भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव पडा।
1955 सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली फिल्म से हिन्दी सिनेमा में नया मोड अाया
जिसने भारतीय फिल्म को विश्व सिनेमा जगत से जुडने का नया रास्ता दिया।
भारतीय फिल्म जगत को अंतर्राष्ट्रीय पहचान तब मिली जब इस फिल्म को
अभूतपूर्व देशी-विदेशी पुरस्कारों के साथ-साथ सर्वश्रेष्ठ मानव वृत्त चित्र
के लिये केन्स पुरस्कार दिया गया।
हिन्दी सिनेमा में नववास्तविकतावाद का प्रभाव तब दिखा जब बिमल रॉय की दो
बीघा ज़मीन, देवदास और मधुमती, राजकपूर की बूट पॉलिश, र्श्री420, वी
शान्ताराम की दोआँखें
बारह हाथ तथा झनक झनक पाायल बाजे एवं महबूब की मदर इण्डिया प्रदर्शित की गई।
पचास के दौरान पहली बार भारत-सोवियत के सहयोग से गुरूदत्त की प्यासा तथा
कागज़ क़े फूल, बीआरचोपडा की कानून एवं के एअब्बास की परदेसी बनाई गईं।
फिल्मों का रंगीन होना और उसके बाद मनोरंजन तथा सितारों पर आधारित फिल्मों
से फिल्म उद्योग में पूरा परिवर्तन आगया।
साठ के दशक की शुरूआत केआसिफ की मुगल-ए-आजम से हुई, जिसने बॉक्स-ऑफिस
पर नया रिकॉर्ड बनाया।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसमें रोमाटिक संगीत व अच्छी पटकथा का अच्छा
समायोजन था।
बाद में साठ के दशक में अधिकांशत: सामान्य दर्जे की फिल्में बनीं किन्तु वे
भी तत्कालीन भारतीय समाज के चित्र अवश्य प्रस्तुत करती थीं और समाज से
प्रभावित भी होतीं थीं।
राजकपूर की जिस देश में गंगा बहती है, संगम, दिलीप कुमार की गंगा-जमुना,
गुरूदत्त की साहिब बीबी और गुलाम , देव आनन्द की गाईड बिमल रॉय की
बन्दिनी, एस मुखर्जी की जंगली, सुनील दत्त की मुझे जीने दो बासु
भट्टाचार्य की तीसरी कसम आदि इस दशक की सामाजिक दृष्टि से उल्लेखनीय
फिल्में थीं।
रामानन्द सागर की आरज़ू, प्रमोद चक्रवर्ती की लव इन टोकियो, शक्ति सामन्त की
आराधना, ॠषिकेश मुखर्जी की आशिर्वाद और आनन्द, बीआर चोपडा की वक्त, मनोज
कुमार की उपकार, प्रसाद प्रोडक्शन की मिलन साठवें दशक के उत्तर्राध्द की
बेमिसाल फिल्में थीं।
इनके साथ ही लोकप्रिय सिनेमा का एक नया समय आरंभ हुआ।
इस समय के साथ ही भारतीय समाज से फिल्मों में और फिल्मों से भारतीय समाज की
ओर आधुनिकता और फैशन की लहर चल पडी।
महिलाओं में जागरुकता आई।
संगीत के क्षैत्र में साठ-सत्तर के दशकों को फिल्म संगीत का स्वर्णिम समय
माना गया, उत्कृष्ट शायरों्, गीतकारों के शब्दों को संगीत के विरले
कलाकारों ने सुरों का जामा पहनाया।
तब का संगीत आज भी अपनी लोकप्रियता में नए संगीत के आगे धूमिल नहीं हुआ है।
सत्तर के दशक में मल्टीस्टार फिल्में आईं।
इस दशक की हिट फिल्में थीं कमाल अमरोही की पाकीजा, राजकपूर की बॉबी, रमेश
सिप्पी की शोले।
नमकहराम के साथ ही अमिताभ बच्चन की फिल्मों का दौर आगया जंजीर, दीवार,
खूनपसीना, कभी-कभी, अमर अकबर एन्थॉनी, मुकद्दर का सिकन्दर आदि।
इनके अतिरिक्त यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, धर्मवीर
मेरा
गांव
मेरा देश आदि उल्लेखनीय रहीं।
इनमें से अधिकांश फिल्में एक्शन और बदले की भावना पर आधारित थीं।
डाकुओं के आतंक पर भी इस दशक में कई फिल्म बनीं।
समानान्तर सिनेमा अपनी जगह बनाने के दौर में था।
गोविन्द निहलानी की आक्रोश सईद मिर्जा की अलबर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यों
आता है, अजीब दास्तां, मुजफ्फ़र अली की गमन आदि सत्तर के उत्तर्राध्द में
बनीं।
श्याम बेनेगल की अंकुर इस दशक की उल्लेखनीय सार्थक फिल्म थी, किन्तु
मनोरंजनप्रिय उस दौर में सार्थक सिनेमा के अन्य प्रयास खो कर रह गए।
अगला दशक यानि अस्सी का दशक सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा के आंदोलन के रूप
में अपनी चरमसीमा पर था।
इस दशक में दर्शकों ने सिनेमा के इस अतिवास्तविक यथार्थ स्वरूप को सराहा हो
न हो किन्तु इससे प्रभावित जरूर हुआ, बुध्दिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग
तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकारोक्ति मिली।
श्याम बेनेगल ने मंथन, भूमिका निशान्त, जूनून और त्रिकाल जैसी समाज विविध
ज्वलन्त विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं।
प्रकाश झा की दामुल सहित अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की
नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की मिर्चमसाला, विजया मेहता की
राव साहेब, उत्पलेन्द चक्रवर्ती की देवशिशु, प्रदीप कृश्पा की
मैसी साहब, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, गौतम घोष की दखल,
'पार, बुध्ददेव दासगुप्त की अन्नपूर्णा, अंधी गली और गिरीश करनाड की उत्सव,
तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान
की फिल्में थीं।
डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों
के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा था।
युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलार्मबॉम्बे के लिए 1989
में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता।
अस्सी की समाप्ति और नब्बे की शुरूआत में हिन्दी सिनेमा में कुछ लोकप्रिय
फिल्मों में मि इण्डिया, तेजाब, कयामत से कयामत तक, मैंने प्यार किया,
चांदनी,
लम्हे,
त्रिदेव, हम,
घायल, जो जीता वही सिकन्दर, क्रान्तिवीर, आदि उल्लेखनीय रहीं
।
बाद के नब्बे के दशक में रोमान्टिक प्रेम कहानियों का बोलबाला रहा, हम आपके
हैं कौन, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे बॉक्सआफिस पर बहुत हिट रहीं।
इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से द्रोहकाल, परिन्दा,
दीक्षा, मायामेमसाब रूदाली, लेकिन तमन्ना बेन्डिट क्वीन आदि
उल्लेखनीय नाम हैं।
क्षैत्रीय फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं मम्मो (बंगाली), हजार
चौरासी की
माँ
( बंगाली), तमिल, तेलुगू में अंजलि, रोजा और बॉम्बे का नाम लिया जा सकता है।
इन की लोकप्रियता के कारण इन सभी फिल्मों की डबिंग हिन्दी में भी हुई।
नई शताब्दि में कहो ना प्यार है, रिफ्यूजी, फिजां आदि उल्लेखनीय
फिल्में हैं, अब आगे देखिये फिल्मों को पिक्चर हॉल में देखने की लोकप्रियता
के घटते , टेलीविजन की बढती लोकप्रियता और वीडीयो पायरेसी के चलते फिल्म
उद्योग का भविष्य क्या होता है आगे आने वाले दशकों में।
यह तो हुई भारतीय सिनेमा के विकास की कहानी।अब
देखना यह है कि समय-समय पर इन फिल्मों ने हमारे समाज को कैसे प्रभावित किया
है।
दरअसल हमेशा यह कहना कठिन होता है कि समाज और समय फिल्मों में प्रतिबिम्बित
होता है या फिल्मों से समाज प्रभावित होता है।
दोनों ही बातें अपनी-अपनी सीमाओं में सही हैं।
कहानियां
कितनी भी
काल्पनिक हों कहीं तो वो इसी समाज से जुडी होती हैं।
यही फिल्मों में भी अभिव्यक्त होता है।
लेकिन
हां
बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि फिल्मों का असर हमारे युवाओं और बच्चों पर हुआ
है सकारात्मक और नकारात्मक भी।
किन्तु ऐसा ही असर साहित्य से भी होता है।
क्रान्तिकारी साहित्य ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक युवाओं को प्रेरित
किया था।
मार्क्स के
साहित्य ने भी कई कॉमरेड, नक्सलाईट खडे क़र दिये।
अत: हर माध्यम के अपने प्रभाव होते हैं समाज पर।
फिल्मों के भी हुए।
नकारात्मक प्रभाव इस
प्रकार सामने आए कि फिल्म एक दूजे के लिए का क्लाईमेक्स दृश्य देख कई
प्रेमी युगलों ने आत्महत्या कर ली थी।
यहां तक कि
इस फिल्मी रोमान्स ने युवक युवतियों के मन में प्रेम और विवाह के प्रति कई
असमंजस डाल दिये हैं कि वे वास्तविक वैवाहिक जीवन में सामन्जस्य नहीं कर
पाते।
कुछ अश्लील
किस्म के गीतों ने ईव-टीजींग आम कर दी है।
ओए-ओए, ' सैक्सी-सैक्सी मुझे लोग बोलें, मेरी पैन्ट भी सैक्सी, आती
क्या खण्डाला आदि।
इस सैक्सी शब्द को फिल्मों ने इतना आम कर दिया कि इसका उदाहरण मुझे पडौस
ही में मिल गया।
मेरे पडाैस की इस म्हिला से उसके छ: वर्षीय पुत्र ने पूछ ही लिया कि मम्मी
ये सैक्सी क्या होता है।
तो
माँ
ने जवाब दिया कि आकर्षक और सुन्दर लगना, और कह भी क्या सकती थी? यह बात
बच्चे के मन में बैठ गई और किसी समारोह के दौरान उसने अपनी सजी-संवरी
माँ को
सैक्सी कह दिया।
आधुनिकता का यह नग्न स्वरूप भारतीय संस्कृति के खिलाफ है।
अभी हाल में प्रदर्शित मोहब्बतें फिल्म ने यह साबित कर दिया कि भारत के
कॉलेज-सकूलों में माईक्रो मिनी स्कर्ट पहन कर बस रोमान्स की सारी हदें पार
करते हैं।
एक और फिल्म जो हाल में प्रदर्शित हुई है आशिक इसमें निर्देशक ने न जाने
क्या समझ कर भाई बहन के बीच ऐसे संवाद
ठूंसे
हैं कि वे भारतीय नैतिकता पर प्रश्न उठाते हैं।
जैसे जैसे अपराध की पृष्ठ भूमि पर फिल्में बनती रहीं, अपराध जगत में बदलाव
आया।
असंतुष्ट, बेरोजगार और अकर्मण्य युवकों को यह पैसा बनाने का शॉर्टकट लगने
लगा, और सब स्वयं को यंग एंग्रीमेन की तर्ज पर सही मानने लगे।
आए दिन आप सुनते आए होंगे कि अमुक डकैति या घटना एकदम फिल्मी अन्दाज में
हुई।
मैं
यहां
यह नहीं कहना चाहता कि समाज में अपराध के बढते
आंकडों
के प्रति फिल्में ही
जिम्मेवार
हैं, लेकिन
हां
फिल्मों ने अपराधियों के चरित्रों को जस्टीफाई कर युवकों को एकबारगी असमंजस
में जरूर डाला होगा।
हिन्दी फिल्मों का बाजार जैसे-जैसे विस्तृत हुआ, देश का युवा बेरोजगार
आँखों में
सपने लेकर अपनी किस्मत आजमाने या तो प्रशिक्षण प्राप्त कर या सीधे घर से
भाग कर मुम्बई आने लगे।
उनमें से एक दो सफल हुए, शेष लौट गए या बर्बाद हो गए।
युवाओं में फिल्मों में अपना कैरियर बनाने के लिए इतना आकर्षण देख फर्जी
निर्माता-निर्देशकों की तथा प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ सी आ गई है।
भारतीय सिनेमा के आरंभिक दशकों में जो फिल्में बनती थीं उनमें भारतीय
संस्कृति की महक रची बसी होती थी तथा विभिन्न आयामों से भारतीयता को उभारा
जाता था।
बहुत समय बाद पिछले दो वर्षों में ऐसी दो फिल्में देखी हैं जिनमें हमारी
संस्कृति की झलक थी, हम दिल दे चुके सनम और हम साथ साथ हैं।
हां देश के
आतंकवाद पर भी कुछ अच्छी सकारात्मक हल खोजतीं फिल्में आई हैं , फिजां और
मिशन कश्मीर।
आज एक सफल फिल्म बनाने का मूल मन्त्र है, खूबसूरत विदेशी लोकेशनें, बडे
स्टार, विदेशी धुनों पर आधारित गाने।
बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिनके निर्माताओं का काम था भारत की
कुरीतियों, विषमताओं और विवादित मुद्दों पर फिल्म बना दर्शकों का विदेशी
बाजार बनाना और घटिया लोकप्रियता हासिल करना
।
कामसूत्र, फायर आदि ऐसी ही फिल्में हैं।
कमल हासन की हे राम भी खासी विवादित रही।
वैसे कुल मिला कर देखा जाए तो भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ने काफी तकनीकी
तरक्की कर ली है।
अब जैसे जैसे फिल्मव्यवसाय बढ रहा है फिल्मों के प्रति दर्शकों की
सम्वेदनशीलता घट रही है।
आज हमारे युवाओं के पास विश्वभर की फिल्में देखने और जानकारी के अनेक
माध्यम हैं।
हाल ही की घटनाओं ने फिल्म व्यवसाय पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं।
गुलशन कुमार की हत्या, राकेश रोशन पर हुए कातिलाना हमले, फिल्म चोरी-चोरी
चुपके-चुपके के निर्माता रिजवी व प्रसिध्द फाईनेन्सर भरत शाह की माफिया
सरगनाओं से सांठ-गांठ के आरोप में गिरफ्तारी, इन प्रश्नों और संदेहों को
पुख्ता बनाती है कि हमारा फिल्म उद्योग माफिया की शिकस्त में बुरी तरह घिरा
है।
आज भारत साल में सर्वाधिक फिल्में बनाने में अग्रणी है, माना अत्याधुनिक
उपकरणों, उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ यह नए युग में
पहुंच
चुका है, लेकिन गुणवत्ता के मामलों में भारतीय सिनेमा को और भी दूरी तय
करनी है।
साथ ही यह तय करना है कि समाज के उत्थान में उसकी क्या भूमिका हो अन्यथा
टेलीविज़न उसे पीछे छोड देगा।
कितना ही आधुनिक हो जाए भारत,
यहां
राम अभी तक नर में हैं और नारी में अभी तक सीता है।
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नीरज दुबे
फरवरी 15, 2001
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