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क्योटो-लक्ष्य को महंगी पड़ेगी नाइट्रोजन की अनदेखी

एम्सटरडम, 4 दिसम्बर(आईएएनएस)। नीदरलैंड के अनुसंधानकर्ताओं ने इकोलाजी (पारिस्थितिकी) पर नाइट्रोजन गैस के प्रभाव के बारे में किए गए एक अध्ययन के आधार पर कहा है कि वातावरण में घट रहे नाइट्रोजन के स्तर के चलते क्योटो संधि के लक्ष्यों को पूरा करना मुश्किल हो सकता है।

गौरतलब है कि वृक्षों के विकास में कार्बन के अलावा नाइट्रोजन की भी अहम भूमिका होती है। लेकिन यूरोप, उत्तरी अमेरिका और एशिया के कई देशों ने वातावरण में नाइट्रोजन के हानिकारक स्तर को रोकने के लिए प्रदूषण नियंत्रण नीतियां बनाई हैं। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार प्रदूषण नियंत्रण की यह पहल 'ग्लोबल वार्मिंग' पर उलटा असर कर रही है।

नीदरलैंड के वेग्नेन विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता वेजर वेमलिक के अनुसार वातावरण में नाइट्रोजन की कमी से वनों के विस्तार पर असर पड़ रहा है जिसके चलते कार्बन सोखने की उनकी क्षमता में 27 फीसदी तक कमी आ सकती है।

गौरतलब है कि अमेरिका, कनाडा और यूरोप के दस संस्थानों के वैज्ञानिकों ने इसी तरह के एक दूसरे अध्ययन द्वारा यह साबित किया है कि इंसानी गतिविधियों के चलते वातावरण में नाइट्रोजन की अधिक  मात्रा वनों की कार्बन सोखने की क्षमता को बढती है।

अध्ययन में शामिल वन विज्ञान की प्रोफेसर बेवरली ला के नेचर पत्रिका में छपे इस शोधपत्र के अनुसार, ''हमारा अध्ययन यह साबित करता है कि फिलहाल तो नाइट्रोजन की उर्वरक क्षमता वनों के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन को कम ही कर रही है।''

गौरतलब है कि 'कार्बन सीक्वेसट्रेशन' यानी विभिन्न कारणों से वातावरण में शामिल हुई कार्बन को दोबारा उसके स्रोत तक पहुंचाने की तकनीक को जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव से बचने के लिए दुनिया भर में अपनाया जा रहा है और यह अध्ययन साबित करता है कि नाइट्रोजन गैस इस दिशा में सकारात्मक काम कर रही है।

4 दिसम्बर 2007

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

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