ऊधौ मन ना भये दस-बीस
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस?

भ्रमर गीत में सूरदास ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उध्दव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाता है और उध्दव जो हैं योग और ब्रह्म के ज्ञाता हैं उनका प्रेम से दूर दूर का कोई सरोकार नहीं है। जब गोपियाँ व्याकुल होकर उध्दव से कृष्ण के बारे में बात करती हैं और उनके बारे में जानने को उत्सुक होती हैं तो वे निराकार ब्रह्म और योग की बातें करने लगते हैं तो खीजी हुई गोपियाँ उन्हें काले भँवरे की उपमा देती हैं। बस इन्हीं करीब 100 से अधिक पदों का संकलन भ्रमरगीत या उध्दव-संदेश कहलाया जाता है।

कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानार्जन के लिये गए थे तब उन्हें ब्रज की याद सताती थी। वहाँ उनका एक ही मित्र था उध्दव, वह सदैव रीति-नीति की, निगुर्ण ब्रह्म और योग की बातें करता था। तो उन्हें चिन्ता हुई कि यह संसार मात्र विरक्तियुक्त निगुर्ण ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिये विरह और प्रेम की भी आवश्यकता है। और अपने इस मित्र से वे उकताने लगे थे कि यह सदैव कहता है, कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बंधु। वे सोचते इसका सत्य कितना अपूर्ण और भ्रामक है। भला कहाँ यशोदा और नंद जैसे माता-पिता होने का सुख और राधा के साथ बीते पलों का आनंद। और तीनों लोकों में ब्रज के गोप-गोपियों के साथ मिलकर खेलने जैसा सुख कहाँ? ऐसा नहीं है कि द्वारा उध्दव को ब्रज संदेस लेकर भेजते समय कृष्ण संशय में न थे, वे स्व्यं सोच रहे थे यह कैसे संदेस ले जाएगा जो कि प्रेम का मर्म ही नहीं समझता, कोरा ब्रर्ह्मज्ञान झाडता है।

तबहि उपंगसुत आई गए।
सखा सखा कछु अंतर नाहिं, भरि भरि अंक लए।।
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हरि पछताने ।
ऐसे कैं वैसी बुधी होती, ब्रज पठऊं मन आने।।
या आगैं रस कथा प्रकासौं, जोग कथा प्रकटाऊं।
सूर ज्ञान याकौ दृढ क़रिके, जुवतिन्ह पास पठाऊं।।

तभी उपंग के पुत्र उध्दव आ जाते हैं। कृष्ण उन्हें गले लगाते हैं।

दोनों सखाओं में खास अन्तर नहीं। उध्दव का रंग-रूप कृष्ण के समान ही है। पर कृष्ण उन्हें देख कर पछताते हैं कि इस मेरे समान रूपवान युवक के पास काश, प्रेमपूर्ण बुध्दि भी होती। तब कृष्ण मन बनाते हैं कि क्यों न उध्दव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाए, संदेस भी पहुँच जाएगा और इसे प्रेम का पाठ गोपियाँ भली भाँति पढा देंगी। तब यह जान सकेगा प्रेम का मर्म।

उधर उध्दव सोचते हैं कि वे विरह में जल रही गोपियों को निगुर्ण ब्रह्म के प्रेम की शिक्षा दे कर उन्हें इस सांसारिक प्रेम से की पीडा मुक्ति से मुक्ति दिला देंगे। कृष्ण मन ही मन मुस्का कर उन्हें अपना पत्र थमाते हैं कि देखते हैं कि कौन किसे क्या सिखा कर आता है।

उध्दव पत्र गोपियों को दे देते हैं और कहते हैं कि कृष्ण ने कहा है कि –

सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।
सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।
वह उपाई करि बिरह तरौ तुम, मिले ब्रह्म तब आई।।
दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, बूडतिं मनु बिन पानी।।

हे गोपियों, हरि का संदेस सुनो। उनका यही उपदेस है कि समाधि लगा कर अपने मन में निगुर्ण निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। यह अज्ञेय, अविनाशी पूर्ण सबके मन में बसा है। वेद पुराण भी यही कहते हैं कि तत्वज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। इसी उपाय से तुम विरह की पीडा से छुटकारा पा सकोगी। अपने कृष्ण के सगुण रूप को छोड उनके ब्रह्म निराकार रूप की अराधना करो। उध्दव के मुख से अपने प्रिय का उपदेश सुन प्रेममार्गी गोपियाँ व्यथित हो जाती हैं। अब विरह की क्या बात वे तो बिन पानी पीडा के अथाह सागर डूब गईं।

तभी एक भ्रमर वहाँ आता है तो बस जली-भुनी गोपियों को मौका मिल जाता है और वह उध्दव पर काला भ्रमर कह कर खूब कटाक्ष करती हैं।

रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरपि रहीं स्यामहि, का पै लेहिं उधारै।।

गोपियाँ भ्रमर के बहाने उध्दव को सुना-सुना कर कहती र्हैं हे भंवरे। तुम अपने मधु पीने में व्यस्त रहो, हमें भी मस्त रहने दो। तुम्हारे इस निरगुण से हमारा क्या लेना-देना। हमारे तो सगुण साकार कान्हा चिरंजीवी रहें। तुम स्वयं तो पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो जाते हो कि अपने शरीर की सुध नहीं रहती और इतना मधुरस पी लेते हो कि सनक कर रस के विरुध्द ही बातें करने लगते हो। हम तुम्हारे जैसी नहीं हैं कि तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहकें, हमारा तो एक ही है कान्हा जो सुन्दर मुख वाला, नीलकमल से नयन वाला यशोदा का दुलारा है। हमने तो उन्हीं पर तन-मन वार दिया है अब किसी निरगुण पर वारने के लिये तन-मन किससे उधार लें?

उधौ जोग सिखावनि आए।
सृंगी भस्म अथारी मुद्रा, दै ब्रजनाथ पठाए।।
जो पै जोग लिख्यौ गोपिन कौ, कत रस रास खिलाए।
तब ही क्यों न ज्ञान उपदेस्यौ, अधर सुधारस लाए।।
मुरली शब्द सुनत बन गवनिं, सुत पतिगृह बिसराए।
सूरदास संग छांडि स्याम कौ, हमहिं भये पछताए।।

गोपियाँ कहती र्हैं हे सखि! आओ, देखो ये श्याम सुन्दर के सखा उध्दव हमें योग सिखाने आए हैं। स्वयं ब्रजनाथ ने इन्हें श्रृंगी, भस्म, अथारी और मुद्रा देकर भेजा है। हमें तो खेद है कि जब श्याम को इन्हें भेजना ही था तो, हमें अदभुत रास का रसमय आनंद क्यों दिया था? जब वे हमें अपने अथरों का रस पिला रहे थे तब ये ज्ञान और योग की बातें कहाँ गईं थीं? तब हम श्री कृष्ण की मुरली के स्वरों में सुधबुध खो कर अपने बच्चों और पति के घर को भुला दिया करती थीं। श्याम का साथ छोडना हमारे भाग्य में था ही तो हमने उनसे प्रेम ही क्यों किया अब हम पछताती हैं।

मधुबनी लोगि को पतियाई।
मुख औरै अंतरगति औरै, पतियाँ लिख पठवत जु बनाई।।
ज्यौं कोयल सुत काग जियावै, भाव भगति भोजन जु खवाई।
कुहुकि कुहुकि आएं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाई।।
ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातें आई।
सूर जहँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाई।।

कोई गोपी उध्दव पर व्यंग्य करती है।मथुरा के लोगों का कौन विश्वास करे? उनके तो मुख में कुछ और मन में कुछ और है। तभी तो एक ओर हमें स्नेहिल पत्र लिख कर बना रहे हैं दूसरी ओर उध्दव को जोग के संदेस लेके भेज रहे हैं। जिस तरह से कोयल के बच्चे को कौआ प्रेमभाव से भोजन करा के पालता है और बसंत रितु आने पर जब कोयलें कूकती हैं तब वह भी अपनी बिरादरी में जा मिलता है और कूकने लगता है। जिस प्रकार भंवरा कमल के पराग को चखने के बाद उसे पूछता तक नहीं। ये सारे काले शरीर वाले एक से हैं, इनसे सम्बंध बनाने से क्या लाभ?

निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर कहि समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांचि न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ बावरो, सूर सबै मति नासी।।

अब गोपियों ने तर्क किर्या हाँ तो उध्दव यह बताओ कि तुम्हारा यह निर्गुण किस देश का रहने वाला है? सच सौगंध देकर पूछते हैं, हंसी की बात नहीं है। इसके माता-पिता, नारी-दासी आखिर कौन हैं? कैसा है इस निरगुण का रंग-रूप और भेष? किस रस में उसकी रुचि है? यदि तुमने हमसे छल किया तो तुम पाप और दंड के भागी होगे। सूरदास कहते हैं कि गोपियों के इस तर्क के आगे उध्दव की बुध्दि कुंद हो गई। और वे चुप हो गए। लेकिन गोपियों के व्यंग्य खत्म न हुए वे कहती रहीं –

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे।
मूरि के पातिन के बदलै, कौ मुक्ताहल देहै।।
यह ब्यौपार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयौ रेहै।
जिन पें तैं लै आए उधौ, तिनहीं के पेट समैंहै।।
दाख छांडि के कटुक निम्बौरी, कौ अपने मुख देहै।
गुन करि मोहि सूर साँवरे, कौ निरगुन निरवेहै।।

हे उध्दव ये तुम्हारी जोग की ठगविद्या, यहाँ ब्रज में नहीं बिकने की। भला मूली के पत्तों के बदले माणक मोती तुम्हें कौन देगा? यह तुम्हारा व्यापार ऐसे ही धरा रह जाएगा। जहाँ से ये जोग की विद्या लाए हो उन्हें ही वापस सिखा दो, यह उन्हीं के लिये उचित है। यहाँ तो कोई ऐसा बेवकूफ नहीं कि किशमिश छोड क़र कडवी निंबौली खाए! हमने तो कृष्ण पर मोहित होकर प्रेम किया है अब तुम्हारे इस निरगुण का निर्वाह हमारे बस का नहीं।

काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंथौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कह्यो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ।।

गोपियां चिढ क़र पूछती हैं कि कहीं तुम्हें कुबजा ने तो नहीं भेजा? जो तुम स्नेह का सीधा साधा रास्ता रोक रहे हो। और राजमार्ग को निगुर्ण के कांटे से अवरुध्द कर रहे हो! वेद-पुरान, स्मृति आदि ग्रंथ सब छान मारो क्या कहीं भी युवतियों के जोग लेने की बात कही गई है? तुम जरूर कुब्जा के भेजे हुए हो। अब उसे क्या कहें जिसे दूध और छाछ में ही अंतर न पता हो। सूरदास कहते हैं कि मूल तो अक्रूर जी ले गए अब क्या गोपियों से ब्याज लेने उध्दव आए हैं?

उधौ मन ना भए दस बीस।
एक हुतौ सौ गयौ स्याम संग, को आराधे ईस।।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।

अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उध्दव को अपने तन मन की दशा कहती हैं। उध्दव हतप्रभ हैं, भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप से। हे उध्दव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की अराधना करें? उनके बिना हमारी इंद्रियां शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दरशन की क्षीण सी आशा हमें करोडों वर्ष जीवित रखेगी। तुम तो कान्ह के सखा हो, योग के पूर्ण ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उध्दार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।

गोपी उध्दव संवाद के ऐसे कई कई पद हैं जो कटाक्षों, विरह दशाओं, राधा के विरह और निरगुण का परिहास और तर्क-कुतर्क व्यक्त करते हैं। सभी एक से एक उत्तम हैं पर यहाँ सीमा है लेख की।

अंतत: गोपियाँ राधा के विरह की दशा बताती हैं, ब्रज के हाल बताती हैं। अंतत: उध्दव का निरगुण गोपियों के प्रेममय सगुण पर हावी हो जाता है और उध्दव कहते हैं –

अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गह्यौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ।।

कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम को देख कर उध्दव भाव विभोर होकर कहते र्हैं मेरा मन आश्चर्यचकित है कि मैं आया तो निर्गुण ब्रह्म का उपदेश लेकर था और प्रेममय सगुण का उपासक बन कर जा रहा हूँ। मैं तुम्हें गीता का उपदेश देता रहा, जो तुम्हें छू तक न गया। अपनी अज्ञानता पर लज्जित हूँ कि किसे उपदेश देता रहा जो स्वयं लीलामय हैं। अब समझा कि हरि ने मुझे यहाँ मेरी अज्ञानता का अंत करने भेजा था। तुम लोगों ने मुझे जो स्नेह दिया उसका आभारी हूँ। सूरदास कहते हैं कि उध्दव अपने योग के बेडे क़ो गोपियों के प्रेम सागर में डुबो के, स्वयं प्रेममार्ग अपना मथुरा लौट गए।

यह है भ्रमर गीत का स्नेहमय सार।

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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