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oएक
महीने पहले पहली बार जब सुमेधा ने हवेली में पैर रखा था तो रोमांच से भर
उठी थी।
काठ के भारी-भरकम
नक्काशीदार दरवाजे,
उकेरे हुए सुन्दर बेल-बूटों से सजे गोखडे,
घेर-घुमेर
अँधेरी-उजली
सीढियाँ।
छोटे-छोटे जनाना कमरे,
बडे मर्दाना हॉल और बैठकें।
चित्रकारी की हुई
ऊँची
छतें,
दीवारों पर भी नाथद्वारा शैली में चित्र बने थे,
डोली, राधाकृष्ण की थीम पर,
जिनके रंग कहीं-कहीं उखड ज़रूर गए थे मगर फीके नहीं पडे
थे।
पारम्परिक पोशाक पहन कर
तो वह अभिभूत हो गई थी,
सोने-चाँदी
के तारों की कढाई
वाले लहँगा-ओढनी,
बाजूबंद, तगडी,
नथ, बोरला और भी न जाने
कितने पारम्परिक गहने उसकी सास ने बडे अाग्रह से पहनाए थे और क्यों न
पहनातीं, पुखराज उनका इकलौता बेटा और वह
विजातीय सही उनकी एकमात्र बहू थी।
तब पुखराज ने
मुग्ध होकर कहा था,
सुमेधा, इतनी रूपसी वधु
पाकर तो कोई भी परिवार गर्वित होता, तोषनीवाल
परिवार में तुम्हारा स्वागत है।
फिर भी वह ठन्डा सा
विरोध लगातार महसूस कर रही थी।
कहाँ बुध्दी जीवी
और उदार मानसिकता वाले परिवार की बेटी सुमेधा और राजस्थान के एक जैन बहुल
कस्बे के श्वेताम्बर जैन परिवार का बेटा पुखराज।
पर क्या करते जब
प्रेम उन्हें करीब लाकर एक दूसरे की नियति बना गया।
दोनों मेडिकल कॉलेज में
पढते थे।
पुखराज जब एम डी कर चुका
तो विवाह को लेकर घरवालों की जल्दी के बारे में उसने सुमेधा को कहा कि अब
वह और नहीं टाल पाएगा तो सुमेधा ने न चाह कर भी
हाँ
कहना पडा।
न चाह कर इसलिये
कि वह प्री पी जी की
तैयारियाँ
कर रही थी।
पर पुखराज को
खोना उसे किसी भी कीमत पर नामजूंर था।
सुमेधा के परिवार
में इस विवाह के प्रति कोई विरोध न था,
हाँ
मम्मी चिंतित थीं कि ऐसे
ऑर्थोडॉक्स परिवार में कैसे निभाव कर पाएगी सुमेधा?
पुखराज के पिता तो माने नहीं मान रहे थे कि एक कायस्थ
परिवार की लडक़ी उनके परिवार की वधु बने।
जाति-धर्म के
अतिरिक्त भी तो खान-पान,
पहनावे और रहन-सहन में गहरा अन्तर था।
प्रत्यक्षत:
पुखराज ने पिता से कोई बहस नहीं की पर
माँ
से साफ-साफ कह दिया कि
वह बहुत पहले ही यह निर्णय ले चुका है,
तीन सालों के भावनात्मक जुडाव के बाद अब वह सुमेधा से
अलग रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता, अब यह
विवाह तो होगा ही चाहे बाऊजी के आर्शीवाद से हो या उनके आर्शीवाद के बिना।
माँ
ने बडी क़ठिनाई से
पिता-पुत्र की संधि कराई।
माँ व्यवहारिक है
जानती थी कि जाति-धर्म की हठ कहीं बेटे को अलग न करदे,
वह भी इकलौता लायक बेटा।
मन ही मन कोसा तो
जरूर होगा कि ,
इसे भी मेरा ही बेटा मिला था?
फिर भी बेमन से उन्होंने
इस विवाह की स्वीकृति पिता से दिलवा ही दी,
और एक सादा से विवाह समारोह के बाद सुमेधा बहू बन कर
यँहा
आ गई,
यँहा
प्रतापगढ में पापा जी ने
फिर सारे समाज को बुला कर शानदार रिसेपश्न दिया था।
और एक सप्ताह तक
जीमण चलता ही रहा।
सुमेधा चाह कर भी
प्रतिवाद न कर सकी थी।
ठीक ही तो है।
पर वह यह भी
जानती थी कि दो साल बाद सही,
रहना तो इसी कस्बे में है।
एक तो पुखराज
इकलौता बेटा उस पर आदर्शवादी व्यक्ति और सबसे उपर पुखराज के परिवार के
धार्मिक गुरू जैन मुनि अवनिन्द्र जी का आदेश कि पुखराज प्रतापगढ रह कर ही
प्रेक्टिस करे और एक निशुल्क अस्पताल की स्थापना हो जिसकी वे दोनों
जिम्मेदारी लें जिसमें आस-पास के तमाम
गाँवों
के
मरीजों
का इलाज मुफ्त हो।
इस आदेश को स्वयं
सुमेधा के आदर्श भी पूरी श्रध्दा के साथ मानते थे और वह पुखराज के सपनों
की साझीदार बन कर रहना चाहती थी।
बडे शहरों,
मोटी फीसों और आपाधापी भरे जीवन के प्रति ऐसा कोई
लगाव भी न था।
पुखराज और उसे
यही आदर्श,
यही विचार करीब लाए थे।
जून माह अपने अंत पर था,
हल्की-फुल्की फुहारों के साथ चौमासा शुरू हो रहा था।
सुमेधा को
बेसब्री से इन्तजार था अपने प्री पी जी के रिजल्ट का,
पता नहीं मैरिट में उसे
कहाँ
नम्बर मिले,
न जाने कौनसी ब्रांच मिले।
गायनोकॉलोजी
मिलने पर ही वह सच्चे अर्थों में ग्रामीण महिलाओं और रूढियों से घिरी
कस्बाई महिलाओं के लिये कुछ कर पाएगी।
हवेली में गहमा-गहमी
शुरू हो गई थी।
पूरे दो बरस बाद
प्रतापगढ क़े स्थानक में जिनवर मुनी अवनिन्द्र जी महाराजसा अन्य मुनियों
के साथ पधार रहे हैं।
पुखराज भी
उत्साहित था,
और अस्पताल के बारे में अपनी योजना उन्हें बताना
चाहते थे, कहीं थोडी सी दुविधा थी कि,
अर्न्तजातीय विवाह को लेकर न जाने कैसी प्रतिक्रिया
हो उनकी।
वैसे पुखराज पर
हमेशा से उनका विशेष स्नेह था।
महाराजसा ने जब उनके घर
का आथित्य स्वीकार किया,
उस दिन हवेली में उत्सव का सा माहौल था।
वे स्वयं ही नहीं
उनके शिष्य भी भोजन आरोगने पधार रहे थे।
महाराजसा के
उल्लेख को लेकर बोलने में कुछ निश्चित सम्मान सूचक शब्दों के प्रयोग की
सावधानी बरतनी होती थी,
सो सुमेधा जो इस सब की अभ्यस्त नहीं थी सो कई बार सास
से डाँट
खा चुकी थी।
''
महारासा खाना खाने
नहीं आ रहे,
भोजन आरोगने आ रहे हैं। वे
कोई हम तुम जैसे साधारण नहीं।
वैसे महाराजसा और उनके
शिष्य एकदम सादा भोजन लेते थे,
किन्तु इस शुभ अवसर पर मम्मी जी ने हवेली के अन्य
हिस्सों में रहने वाले बडे बाऊजी, काकासा और
दोनों बुआ सा के परिवारों को भी आमंत्रित कर लिया था।
महाराजसा का भोजन
मम्मी जी स्वयं अपने हाथों से तैयार कर रही थीं अन्य सभी के लिये
ब्राह्मण रसोइया दाल-बाटी-चूरमे की रसोई तैयार कर रहा था।
सुबह से रसोई दो
बार धुली,
खाना बनाने वाले महाराज मम्मी जी से भी एक हाथ आगे सफाई के मामले में।
सो चाह कर भी
सुमेधा मम्मी जी की सहायता न कर सकी,
या जानबूझ कर उसका रसोई में प्रवेश वर्जित ही रखा गया?
उसे आदेश था कि बस नई बहू की तरह तैयार हो जाए,
जेवर कपडे भी उन्होंने तय कर दिये थे और उसकी अलमारी
में रख दिये थे।
उन्हें पता जो था
कि उनकी डॉक्टर बहू हल्की साडी
और
पतली सोने की चेन पहन कर
खडी हो जाएगी सो आज उसकी नहीं चलेगी।
घर में इतना बडा
आयोजन जो है,
पूरे खानदान की औरतें आएंगी तो क्या सोचेंगी।
पुश्तैनी जेवर तो
पहनने ही हैं।
सुमेधा तैयार हुई
, मोरपंखी ब्रोकेड
का लंहगा और एक हीरे का हल्का सा सेट चुन कर पहन लिया।
लेकिन सास
कहाँ
मानने वालीं थीं?
जब तक थाली भर जेवर अपने हाथों से स्वयं सुमेधा को न
पहना दें।
बडे भारी जडाऊ
सेट ही नहीं,
बाजूबंद, तगडी,
नथ, बोरला,
जूडा पिन न जाने क्या-क्या।
उस पर तर्क यह कि
कौन कहेगा कि नवेली बींदणी हो?
अभी महीना भी नहीं हुआ शादी को।
सम्पन्नता तो जैसे टपकी
पडती है इस परिवार में,
अभी तो देखना जब काका सा और बुआ सा के घर की
बेटियाँ-बींदणीयाँ(
वधुएं) आएंगी।
चेहरा भले ही आधा
घूंघट से ढका होगा मगर सोने के काम वाली पोशाकें और और हीरे मोती जडे
लकदक जेवर।
वह यही सोच कर मुस्कुरा
दी। ''
किसके ख्यालों में
मुस्कुरा रही हो? ''
कहते हुए पुखराज अन्दर आए
और एक प्रगाढ आलिंगन में उसे बाँध लिया। नवविवाहित युगल इस आलिंगन को
इसकी परिणति तक ले जा पाते उससे पूर्व ही नीचे वाली बैठक से बाउजी का
स्वर गूँजा ''पुखराज''
-
पुखराज दो-दो
सीढियाँ
फर्लांगते हुए नीचे भागे।
बडे महाराजसा वृध्द
व्यक्ति थे मगर जीवंत तेजोमय चेहरा,
एक सहज मुस्कान सबको
बाँट
दी उन्होंने।
सभी उनकी आवभगत
में व्यस्त हो गए।
तभी एक युवा जैन
मुनि जो समूह से किसी कारणवश पीछे रह गए थे चौक में प्रविष्ट हुए,
चारों ओर देखा सबको व्यस्त पाकर स्वयं तसले में पानी
लेकर हाथ-पैर धोने लगे।
अनभ्यस्त सुमेधा
ने अपनी सरकती ओढनी फिर से सर पर ओढना चाहा तो धीमी गुनगुनाहट के बीच एक
संगीत उभरा,
कंगन, तगडी,
क़रधनी और बाजूबंद की लूमों,
सभी के घुंघरू कोरस में बज उठे,
ओढनी संभालती कि ताजा धुले केशों की एक लम्बी लट आगे
को झूल आई।
वह संभलती उससे
पहले ही दो चकित
आँखों का जोडा उस
पर आ टिका,
यह साधारण पुरुष की मुग्ध दृष्टि होती तो सहज ही उपेक्षित कर जाती
क्योंकि उससे बखूबी परिचत थी।
ये दृष्टि तो
अनुभवहीन,
निष्पाप, बालसुलभ चकित दृष्टि थी।
ऐसा लगता था कि
ये दो आँखे
नहीं,
अनाडी सवार के बाग छुडा के भाग निकले दो घोडे हों,
अपरिचित जगह पर खोए-खोए।
यह और कोई नहीं
वही पीछे छूट गए युवा मुनि हैं,
ऐसा भान होते ही सुमेधा का दिल धक्क! उन
आँखों
की निष्पाप दुराग्रहता
को पकड क़ोई और उपर देखता उससे पहले ही वह सहम कर ओट में हो गई।
पहले ही क्या कम
आपत्तियाँ
हैं जो एक ओर मौका दिया
जाए।
लेकिन युवा भिक्षु की
आँखे
अब उसे खोज रहीं थीं।
वह तीव्रता से
अपने कमरे में चली आई।
थोडी देर
किंकर्तव्यविमूढ सी वह पंलग पर बैठी रही,
ऐसा क्या था उस भिक्षु की
आँखों
में?
क्यों हुआ ऐसा?
थोडी देर बाद ही उसका
कमरा सास के साथ आई परिवार की स्त्रियों से भर गया।
बातों में सुमेधा
इस प्रकरण को भूल भी गई।
अपने से रिश्ते
और आयु में बडी महिलाओं के चरण स्पर्श किये और अपनी हमउम्र ननदों और
भाभियों के बीच जा बैठी।
उन लोगों के बीच
एक क्षीण सी उच्चशिक्षा और जातिभेद की रेखा खिंची थी वह सुमेधा की सहजता
की वजह से शीघ्र ही टूट गई।
''
भाभीसा बताओ न,
किसने पहल की?
'' एक ने कहा।
सुमेधा सास के लिहाज से
चुप रही वरना बताती कि आपके पुखराज भाईसाहब को उसने महीनों तक घण्टों
हॉस्टल के विजिटिंग रूम में इंतजार करवाया था,
तब
हाँ
की थी।
बडे ढ़ीठ थे,
हाँ
करवा कर ही माने थे।
सुमेधा की एक रिश्ते की
जिठानी हैं जो बॉम्बे की हैं और उन्होंने जे जे आर्टस से फाइन आर्टस में
डिप्लोमा किया है,
यँहा
हॉबी क्लासेज चलाती हैं।
उन्होंने कहा,
इतनी सुन्दर है, डॉक्टर है
हमारी देवरानी, देवर जी हमारे छुपेरुस्तम हैं।
हो न हो उन्होंने
ही प्रपोज क़िया होगा।
ज़ब भी घर आते,
मुझे आ-आकर बस सुमेधा की बातें बताते रहते।
सुमेधा ये सुमेधा
वो
इतने में ही उनकी बात
काट कर छोटी बुआ जी की ननद बोलीं,
''
डाक्टर तो म्हारे जेठरी
पोती भी थी,
रूपाली भी कम कोनी ही, अन
पैसा वाली पारटी उपर सूं आपणी जात।''
कमरे में कुछ देर को
खामोशी सी छा गई,
सुमेधा ने ही सबको इस अप्रिय स्थित से उबारा।
''
हाँ! तो काकीसा,
आप कुछ पूछ रहे थे
ना कि आपके कुछ.. ''
फिर क्या था,
एक तो घर की डॉक्टर, उस पर
महिला सब अपनी-अपनी समस्याओं के पिटारे खोल कर बैठ गए।
सुमेधा के लिये
ये नया न था,
हर मौके-बेमौके
जहाँ
कोई महिला मिलती थोडी
औपचारिक बातों के बाद अपनी स्वास्थ्य सम्बंधित एक न एक समस्या लेकर जरूर
बैठती। यँहा
तक कि हॉस्टल से घर जाने
पर उसकी अपनी मम्मी हर बार कुछ न कुछ समस्या लिये मिलतीं थी।हाय
सुमी! तेरे पापा को तो फुर्सत नहीं कि मुझे डाक्टर के पास ले जाएं,
मैं सोच रही थी कि तू आए तो बताऊं,
देख तो बेटा जरा पेट की इस तरफ बडा दर्द रहने लगा है।
सुमेधा कभी बुरा
नहीं मानती।
हमेशा हर एक की समस्या
गौर से सुनती,
और जरूरी सलाह देती क्योंकि वह जानती है कि अधिकतर
भारतीय महिलाएं अपने स्वास्थ्य को तब तक अहमियत नहीं देतीं जब तक वह बडी
बीमारी बन कर सामने ना आ जाए, उस पर गायनिक
प्रॉब्लम्स तो सबसे ज्यादा छिपाई और उपेक्षित की जाती हैं।
ग्रामीण,
कस्बाई, अर्धशिक्षित,
अशिक्षित, निम्न वर्गीय,
निम्न-मध्यमवर्गीय
महिलाएं तो अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होती ही हैं,
कभी-कभी तो अमीर या शिक्षित महिलाएं भी अपने या पति
के पास समय की कमी को वजह बना कर किसी बीमारी की बिगडी हुई अवस्था तक
डॉक्टर अस्पताल, दवाओं से बचती रहती हैं।
झिझक भी इतनी
होती है कि महिला डॉक्टर उपलब्ध न हो तो पुरुष डॉक्टर को बताने से बचती
रहती हैं।
''
अच्छा सुमेधा अब
अपना अस्पताल बंद करो। महाराज सा जीम चुके। सब धोक लगाने चलो।
''
यह औपचारिकता पूरी हुई,
महाराजसा के प्रस्थान के बाद पुरूषों और बच्चों का
भोजन शुरू हुआ।
अम्तत: महिलाओं
की बारी आई ,
खूब तेज भूख लगी थी और खाना बहुत स्वादिष्ट था।
दाल-बाटी,
चूरमा, गट्टे का पुलाव।
तीन बज गए रसोई
निबटते,
चार बजे जैन धर्मशाला में महाराजसा का आख्यान था,
वहाँ
भी सबको जाना है।
अब जेवर चुभने
लगे थे।
सुमेधा बस सब उतार कुछ
हल्का सा पहन कर सो जाना चाहती थी,
शायद सासू जी को मना ले वह आख्यान में न जाकर,
घर में आराम करने के लिये।
अपने कमरे में
आकर उसने हल्की शिफॉन की साडी पहन कर लम्बी चोटी को जूडे में
बाँध
लिया और जरा लेट गई,
भारी-भरकाम नक्काशीदार टीक के पलंग पर जिसके
सिरहाने-पैताने आईने जडे थे।
ये पुखराज के
मम्मी-पापा की शादी का पलंग था।
हाउ रोमांटिक वह स्वयं को आईने में देख बुदबुदाई।
आँखे
मूंदते ही अचानक उस युवा
भिक्षु का चेहरा सामने आ गया।
मुंडा हुआ सर,
लम्बा पतला चेहरा, घनी
बरौनियों वाली शहद के रंग की बडी
आँखे,
हल्की सी किशोरों जैसी दाढी मूंछों के रोंएं,
लम्बी, स्वस्थ देह और
श्वेत वस्त्र तभी अचानक पुखराज आकर उस पर झुका तो वह चीख पडी।
''
क्या हुआ?
''
अधिक आनाकानी करने की
रही-सही गुंजाइश चाय के साथ मम्मी का आदेश लाए चंपालाल ने पूरी कर दी।
''
भाभी सा चा पी र
त्यार वेई जाओ सा,
मासा निच्चे बाट जो रिया
है।''
वही शिफॉन की साडी पहन
सुमेधा नीचे आ गई,
जेवर के नाम पर हल्की चैन,
पतले कडे और
हीरे के लोंग नाक
और कान में थे।
मम्मी को अच्छा
नहीं लगा पर उन्होंने कुछ कहा नहीं।
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